बैंक अधिकारी और कर्मचारी केवल अपनी सेवा शर्तों में सुधार और अधिक वेतन के लिए ही प्रबंधन के सामने आते है, लेकिन जब ग़लत नीतियों से बैंक को करोड़ों रुपये का नुकसान हो रहा होता है तब ये ख़ामोश रहते हैं.
भारत में बैंक या अन्य वित्तीय संस्थान कैसे काम करते हैं सामान्य जन क्या पढ़े-लिखे लोगों को भी बैंक की कार्य प्रणाली के बारे कुछ विशेष जानकारी नहीं होती. इसके बारे में न तो बैंक कुछ बतलाते हैं और न ही सरकार कुछ बतलाती है.
आजकल बैंकों की हालत पर सतही चर्चा हो रही है क्योंकि कुछ उद्योगपति जिन्होंने बैंकों से हजारों करोड़ रुपये का ऋण लिया है वे विदेश चले गए हैं.
विदेश जाने वाले उद्योगपतियों की सूची दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है. राजनीतिक दल इस बात में व्यस्त हैं कि यह ऋण किस समय दिया गया था और यह घोटाला किस समय पकड़ा गया है.
वास्तव में बैंकों की स्थिति आप जितना सोचते हैं उससे ज्यादा खराब है.
सरकारी बैंक एक भ्रम
लोग समझते हैं कि सभी शेड्यूल बैंक सरकारी बैंक हैं. यह सही है कि इन बैकों में सरकार की पूंजी लगी है. इस तरह से सरकार इन बैंकों की मालिक है. लेकिन इन बैंकों का गठन लिमिटेड कंपनी के रूप में हुआ है. इसलिए इन बैकों में कुछ हो जाने पर सरकार का दायित्व एक सीमा तक ही है.
आज की सरकार अपने स्वामित्व वाले शेयर लगातार बेच रही है. जिस से बैकों पर उसका नियन्त्रण और कम होता जाएगा. उसके इस कार्य को संसद और कानून की स्वीकृति प्राप्त है.
चर्चा के लिए मान लेते हैं कि एक बैंक डूब गया तो आप की जमा पूंजी का क्या होगा? वही होगा जो किसी पब्लिक लिमिटेड कंपनी का होता है. इस स्थिति से निबटने के लिए बैंक ने हर खाते के लिए एक लाख रुपये का प्रावधान रखा है. बस इतना ही.
जब यह प्रश्न सरकार से पूछा गया तो सरकार का उत्तर था कि हम किसी भी बैंक को डूबने नहीं देंगे. यह सरकार का दिया आश्वासन है. वह कानूनी रूप से आपकी जमा पूंजी लौटाने के लिए बाध्य नहीं है.
रिजर्व बैंक का नियंत्रण एक और भ्रम
ये सभी बैंक अपने बैंक के बोर्ड से संचालित होते हैं. प्रत्येक बैंक का अपना अलग बोर्ड है, इसीलिए हर बैंक में सेवा शर्तें, नियम और कानून अलग-अलग होते हैं.
इस बोर्ड में वित मंत्रालय के प्रतिनिधि भी होते हैं. लेकिन यह कहना कि सब बैंक आरबीआई के आधीन हैं. गलत है.
हाल ही में जब घोटालों पर आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल से पूछा कि ये सभी बैक आरबीआई के नियंत्रण हैं तो इसमें आप की भी जिम्मेदारी बनती है तब उन्होंने स्पष्ट कहा कि नहीं. सभी सरकारी बैंकों पर हमारा पूर्ण नियंत्रण नहीं है.
सरकार का नियंत्रण
हमने कहा कि बैंक का संचालन बैंक का बोर्ड करता है. यह सही है. लेकिन परोक्ष रूप से बैंक पर सरकार का ही नियंत्रण रहता है. पूंजी लगी होने के कारण सरकार अपनी सभी नीतियों जैसे आरटीआई, भर्ती और पदोन्नति में आरक्षण, राजभाषा कार्यन्वयन की नीति इत्यादि का पालन बैंक से करवाती है.
बैंक के सभी कर्मचारी तो बैंक के कर्मचारी होते हैं लेकिन बैंक का सीएमडी सरकार द्वारा नियुक्त अधिकारी होता है. सरकार उसे अपने नियंत्रण में रखती है और उसके माध्यम से बोर्ड को नियंत्रण में रख कर बैंक को चलाती है.
बैंक के प्रचालन में सरकार
सरकार को अपनी नीतियों के कार्यन्वयन के लिए वित्तीय संस्थान की जरूरत होती है. बैंक उसके अपने संस्थान हैं इसलिए यह जिम्मेदारी वह उन्हें दे देती है.
वर्तमान सरकार को लगा कि वित्तीय समावेशन के लिए हर जिले में एक बैंक होना चाहिए. जहां बैंक होने चाहिए उसकी एक सूची बना कर उन्हें थमा दी गई कि बैंक अमुक स्थान पर अपनी शाखा या काउंटर खोले.
बैंकों के यह जानते हुए भी कि वहां बैंक की शाखा खोलना वाणिज्यिक दृष्टि से उचित नहीं है अपनी शाखाएं खोल दीं. जिस से प्रचालन के घाटे बढ़े मगर किसी बैंक ने अपना विरोध जाहिर नहीं किया.
इसी प्रकार जीरो बैलेंस के नए खाते खोलना एक ऐसा ही काम था. बैंकर को अपने अनुभव से मालूम था की जीरो बैलेंस के खाते अधिक दिन तक नहीं चलते है.
भोले लोगों की तरह बैंकरों ने भी यह मान लिया कि इन खातों में सरकार पैसे डालेगी. इस कार्य में उसने कितनी ऊर्जा और धन व्यय किया वही जाने. मगर किसी ने उसका विरोध नहीं किया.
प्राइवेट बैंकों से तुलना
किसी लाल बुझक्कड़ ने बैंक प्रबंधन को यह समझा दिया कि बैंकों में ग्राहक इसलिए कम हो रहे क्योंकि नए प्राइवेट बैंकों की साजसज्जा अच्छी है.
पिछले दस सालों में महानगरों में बैंकों के केबिन और काउंटर लगभग दो बार तोड़कर नए बनाए गए हैं. यह पूंजीगत व्यय है. जिस राशि को प्रचालन में लगाकर लाभ कमाया जा सकता था. उसे दिखावे में नष्ट कर दिया. इसका किसी बैंक ने विरोध नहीं किया.
हर स्तर पर भ्रष्टाचार
सरकार द्वारा प्राप्त पूंजी को छोड़ कर बैंक अपना प्रचालन इस प्रकार करता है कि जनता से पैसे जमा करता है और वह उस पैसे को दूसरे लोगों को ब्याज पर देता है.
अर्थात आपकी जमाराशि पर आपको ब्याज देता है और दिए कर्ज पर ब्याज वसूल करता है. ब्याज देने और लेने के दर का यही अंतर उसका लाभ है. विभिन्न कारणों से देश की अर्थव्यवस्था डूब रही है. उद्योग-धंधे बंद हो रहे हैं. इसलिए लोग बैंकों में कर्ज लेने के लिए नहीं आ रहे हैं.
सरकार अर्थव्यवस्था को चलाए रखने के लिए छोटे ग्रामीण और लघु उद्योग धंधे वालों को प्रोत्साहित कर रही है कि वे कर्ज लें और अपना काम-धंधा शुरू करें जिससे अर्थव्यवस्था को गति मिल सके .
अब कर्ज देना बैंक की मजबूरी है यदि वह कर्ज नहीं देगा तो उसका ही अस्तित्व नहीं बचेगा. इसके चलते वह ऐसे लोगों को कर्ज देता है जो उसके पात्र नहीं हैं.
कर्ज देने के लिए वह बैंक के नियम और शर्तों को अनदेखा करता है. इस में सभी की मौन स्वीकृति होती है. वह बैंक को जोखिम में डालता है मगर कोई उसका विरोध नहीं करता है.
आटा चक्की और पापड़ बनाने के मशीन
सरकार की योजना के तहत आटा चक्की लगाने और पापड़ बनाने की मशीन लगाने के लिए गरीब लोगों को कर्ज देती है. इसमें आटा चक्की और पापड़ बनाने की मशीन के खरीद की रसीद ही लगती है.
भौतिक निरीक्षण भी हो जाता है. कर्ज दे भी दिया जाता है. कर्ज की वापसी भी हो जाती है. मगर जिस काम के लिए कर्ज दिया गया था वह नहीं होता. इसमें बैंक में सब की सहमति होती है. कोई विरोध नहीं करता.
पशुधन खरीदने के लिए कर्ज
सरकार द्वारा ग्रामीण इलाकों में पशुधन जैसे गाय, भैंस, बकरी आदि खरीदने के लिए कर्ज देने का लक्ष्य रखा जाता है. बैंक यदि उतना कर्ज वितरित नहीं करता तो उसे अच्छा नहीं माना जाता.
ऐसे में बैंक गांव का एक किसान पकड़ लेता है. बैंक उसे कर्ज देता है. बीमा कंपनी उस कर्ज का बीमा करती है. उसके लिए भी यह बाध्यकारी है. पशु को बीमा का टैग लग जाता है. पशु मर जाता है. उसका पोस्टमार्टम हो जाता है.
बीमा कंपनी बीमा राशि बैंक को दे देती है. यह सब कुछ एक मेज पर ही हो जाता है. सबका लक्ष्य पूरा हो जाता है. सब खुश हैं कोई बैंक में इसका विरोध नहीं करता.
प्रोजेक्ट ऋण
जब किसी प्रोजेक्ट को कर्ज देना होता है तो यह समीकरण बदल जाते हैं. सभी बैंक उसे कर्ज देना चाहते हैं. उसे कम ब्याज और लंबी अवधि का आकर्षण दिखाते हैं.
कर्ज लेने वाला सभी बैंकों से अधिकतम मोलभाव करता है. ऐसे में बैंक कर्ज देने के लिए कर्ज लेने वाले को अनुचित लाभ भी प्रस्तावित करता है और देता भी है जो बैंक की नियमावली के विरुद्ध होते है. तब सब उसमें सहमत होते हैं. बैंक में कोई इसका विरोध नहीं करता.
ऊपरी दबाव
बैंक पर अनुचित रूप से कर्ज देने और वसूली देर से करने या न करने का ऊपरी दबाव होता है. यह सच है. बैंक में जिस का पैसा लगा है वह अपनी बात मनवाने के लिए दबाव न दे. ऐसा कभी होता है क्या?
इसीलिए बैंक का चेयरमैन ऐसे अफसर को चुना जाता है जो उनके हुक्म का गुलाम हो. अक्सर चेयरमैन सरकार की बात मान लेते हैं और अपने बोर्ड से उसे पास करवा लेते हैं.
जब किसी संस्था का चेयरमैन सरकार की बात नहीं मानता है (ऐसा होता नहीं) तो उसके समर्थन में कितने लोग सरकार के ऊपरी दबाव का विरोध करते हैं. कोई नहीं करता.
यूनियन का प्रबंधन
आज किसी भी संस्था में मालिक और नौकर लड़ाई या विरोध में नहीं हैं. वह दिखावे के लिए एक मुद्रा या पोस्चर है. यूनियन मैनेजमेंट का एक हिस्सा हैं. वे विवाद निस्तारण के लिए औजार हैं.
बैंक में कलर्क से अधिकारी तक उसके वर्ग के अनुसार अगल यूनियन हैं, फिर जाति के आधार पर जो यूनियन हैं वे अलग हैं. इतनी अधिक यूनियन प्रबंधन के लिए वरदान हैं.
पहले इन यूनियन के लेटरहेड पर संरक्षक के रूप में किसी राजनीतिक नेता का नाम भी होता था. नई आर्थिक नीतियों के बाद ये नाम गायब हो गए हैं. बैंक प्रचालन को लेकर सब की नीति एक ही है.
ऐसे में बैंक यूनियन के अधिकारी अपने सदस्य के ट्रांसफर करवाने या रुकवाने से बड़े मुद्दे प्रबंधन के सामने नहीं उठाते हैं. बैंक में हो रहे बड़े घोटालों की तो यह खुलकर चर्चा भी नहीं करते. उस जानकारी को ये लोग बैंक प्रबंधन के साथ मोलभाव में इस्तेमाल करते हैं. ऐसे में कोई उनका विरोध नहीं करता.
आंतरिक लेखा परीक्षण और सतत लेखा परीक्षण
बैंकों में सतत लेखा परीक्षण और आंतरिक लेखा परीक्षण का कार्य लगातार चलता रहता है. उनकी रिपोर्ट बैंक प्रबंधन और बैंक के बोर्ड को भी जाती है.
फिर ऐसा क्या है कि ये लेखा परीक्षण अधिकारी कुछ पकड़ ही नहीं पाते हैं. क्या इन विभागों में सबसे मूर्ख और डरपोक अधिकारिओं को रखा जाता है.
बैंक के इन लेखों का नियमित परीक्षण सांविधिक लेखा परीक्षक द्वारा किया जाता है. जिन्हें इस कार्य के लिए सनद दी गई होती है. आश्चर्य की बात है कि वे भी कुछ नहीं पकड़ पाते हैं.
हालांकि इसमें आश्चर्य की बात कुछ नहीं है. सबको सब कुछ पता होता है कोई अपना काम ईमानदारी से नहीं करता है. कोई विरोध नहीं करता है.
किसी बैंक में कोई घोटाला होने पर आंतरिक लेखा परीक्षक और सांविधिक लेखा परीक्षक से पूछताछ क्यों नहीं होती. उनकी जिम्मेदारी क्यों निश्चित नहीं की जाती है. इसका कोई विरोध नहीं करता. सब की इसमें सहमति होती है.
बैंक बोर्ड, सीएमडी और वित्त मंत्रालय
बैंक के बोर्ड के सामने बैंक के सभी मसले लाए जाते हैं. फिर बैंक का बोर्ड सीएमडी को ऐसे मसलों की जानकारी को क्यों नहीं देता है और वित्त मंत्रालय इस सब पर नजर क्यों नहीं रख पाता.
मंत्रालय बतलाये कि इतने घोटाले होने पर उसने कितने बैंकों के सीएमडी को हटाया है या कितने बैंको के बोर्डों को निरस्त किया है. एक भी नहीं.
इसका एक ही मतलब है या इस सब में उसकी सहमति है या वह इतना मूर्ख है कि उसे समझ ही नहीं आता कि उसकी नाक के नीचे क्या हो रहा है. वास्तव में वह बहुत समझदार है उसे पता है कि बैंक में क्या हो रहा है. इस सब में उसकी भी सहमति है.
सरकार की सहमति
इन सब घोटालों को दबाये छिपाए रखने में सरकार की भी सहमति है. नारा लगाने के लिए वह कहती है कि बैंक के बकायेदारों से एक-एक पाई वसूल कर लेगी.
व्यवहार में वही सरकार सुप्रीम कोर्ट में एफिडेविट दे कर कोर्ट से अपील करती है कि बैंक के बकायादारों की सूची सार्वजनिक न की जाय. जब नाम ही नहीं जाने जायेंगे तो वसूली कैसे होगी. ऐसे में कोई सरकार का विरोध नहीं करता.
नोटबंदी और पुन: पूंजीकरण
सरकार को बैंकों की वास्तविक हालत का ज्ञान है इसलिए शायद उसने नोटबंदी कर जनता का पैसा बैंकों में भर लिया था. सरकार की अगली योजना इन बैंकों में और पूंजी डालने की भी थी.
जिस से ये बैंक अपने पैरों पर खड़े होकर चल सकें. बड़े-बड़े बैंक घोटाले सामने आने पर सरकार ने अपनी यह पुन: पूंजीकरण की योजना को स्थगित कर दिया है.
विरोध के स्वर
एनडीटीवी पर रवीश कुमार के कार्यक्रम में बैंककर्मी आकर कह रहे हैं कि उनसे बीमा पॉलिसी बिकवाई जा रही है. उन पर बहुत दबाव है. बैंककर्मियों से जो बीमा पॉलिसी बिकवाई जा रही है. वह गलत है. नहीं. बीमा बेचने के इस काम को बैंक के बोर्ड, बैंक नियंत्रक और सरकार की सहमति प्राप्त है.
बीमा पॉलिसी बेचने से बैंक को कमीशन की जो आय प्राप्त होती है वह बैंक की आय है. वैसे भी बहुत से बैंक घाटे में चल रहे हैं. बीमा पॉलिसी बेचने से इनकार करने पर जो बुरा कल होने वाला है वह आज ही हो जाएगा.
सभी बैंकों का सॉफ्टवेयर इस तरह से विकसित किया गया है कि वह आसानी से बीमा पॉलिसी बेच लेता है. बैंक को बचाए रखने और लाभदायक बनाने के लिए यह एक अच्छा कदम है.
स्टाफ की कमी
यह एक ऐसा मुद्दा है जो हर संस्थान में होता है. कोई भी प्रबंधन कम से कम स्टाफ से अधिक से अधिक काम ले लेना चाहता है जिस से वह लाभ की स्थिति में रहे.
अब वह जमाना नहीं रहा जब खातों की संख्या या जमा राशि के आधार पर बैंक में लोग नियुक्त किए जाते थे. अब आदमी का काम कंप्यूटर जल्दी और सही तरह से कर रहे हैं. तब बैंक में कर्मियों की संख्या कम होनी ही है.
ट्रांसफर का मसला
यह भी ऐसा मुद्दा है जिसकी शिकायत लगातार बैंककर्मी कर रहे हैं. जब हम किसी सेवा में आते हैं तब हमें मालूम होता है कि इस सेवा में ट्रांसफर होंगे. हमें उसके लिए तैयार रहना चाहिए.
सब चाहते हैं कि वे अपने परिवार और माता-पिता के साथ रहें. बैंक की इसके लिए एक नीति है यदि उसका पालन नहीं हो रहा है या किसी को बिना किसी कारण के सताया जा रहा है तो उसकी शिकायत जायज है लेकिन ऐसा भी नहीं हो सकता है कि पति-पत्नी के मिलन और माता-पिता की देखभाल और विभिन्न यूनियनों के दबाव में बैंक की शाखाएं ही बंद होने लगें.
जहां बैंकों में पीने के पानी और शौचालय का प्रश्न है. उस पर कोई चर्चा नहीं की जा सकती. मेरे विचार से ऐसे बैंक प्रभारी पर जुर्माना लगाना चाहिए कि उसने अब तक ऐसा क्यों नहीं किया. मेरे विचार से सभी अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए एक ही शौचालय होना चाहिए. पद का भेद मेज पर ठीक है शौचालय में नहीं.
बैंकों की हालत
आजकल आप सिर्फ उन बड़े लोगों के बारे में सुन रहे हैं जो कर्ज लेकर विदेश चले गए. बैंक अधिकारियों, उद्योगपतियों और नेताओं की मिलीभगत से कितने खाते डूबे खाते हो गए. कितनों ऋणों को पुन: निर्धारित कर दिया गया इस की वास्तविक स्थिति आप जान ही नहीं पाते.
जमा लेने और कर्ज देने के अलावा बैंक अपनी आय शेयर बाजार में पूंजी लगाकर भी करता है. कौन सा शेयर किस दाम पर खरीदा और बेचा. किस के कहने से खरीदा और बेचा. बैंक को कितना घाटा हुआ. इसका जिम्मेदार कौन. यह सब घोटाले तो अभी सतह पर आ ही नहीं रहे हैं. बैंक के लोगों ने ही ये घोटाले सब से छुपा कर रखे हैं. जिस दिन वे सामने आयेंगे तब क्या होगा.
बैंक कर्मचारियों की जिम्मेदारी
आज भी सरकारी बैंक की सेवा शर्तें और स्थिति सैकड़ों संस्थाओं से बेहतर है. महिलाओं के लिए भी यह सत्य है. जब बैंक के अधिकारी और कर्मचारी नौकर या गुलाम बनकर बैंक आयेंगे. बैंकों में घोटाले करेंगे या मौन रह कर उनमें अपनी सहमति देंगे. तब बैंक उनके साथ गुलामों जैसा बर्ताव ही करेगा.
बैंक अधिकारी और कर्मचारी केवल अपनी सेवा शर्तों में सुधार और अधिक वेतन के लिए ही प्रबंधन के सामने आते है. प्रबंधन का विरोध करते हैं. जब बैंक की गलत नीति से बैंक को करोड़ों रुपये का नुकसान होता है. नियमों का उल्लंघन कर कर्ज दिए जाते हैं. जानबूझकर वसूली नहीं की जाती है. तब ये अपनी असहायता और अपना निरीहपन दिखलाते है. हम क्या कर सकते हैं. तब तो ये रवीश कुमार को पत्र नहीं लिखते और न ही जंतर-मंतर पर काली कमीज पहन कर आते हैं.
हमारे कहने का अर्थ यह नहीं है कि जब बैंक लूटा जा रहा था, तब इन्होंने लुटेरों का साथ दिया या खामोश रहे. इसलिए अब इन बैंककर्मियों की आवाज न सुनी जाए. यह गलत बात है. इनकी जायज मांगें मानी ही जानी चाहिए. लेकिन इन्हें भी अपनी अंतर आत्मा को टटोलना चाहिए. यदि बैंक बचेगा तो ही ये बचेंगे.
यह सत्य है कि आज बैंक के अधिकारी और कर्मचारी और बैंक खुद भारी दबाव में हैं. कुछ प्रभावशाली लोग और संस्थान इन बैंकों को बंद होता हुआ या प्राईवेट बैंकों में बदलता हुआ देखना चाहते हैं.
फिलहाल बैंक लगातार ढलान पर फिसल रहे हैं. लेकिन जिन लोगों के कारण यह स्थिति उत्पन्न हुई है यदि वे चाहें तो इसको आसानी से बदल भी सकते हैं. यदि वे चाहें.
(लेखक नई दिल्ली स्थित हमदर्द विश्वविद्यालय में विज़िटिंग प्रोफेसर हैं.)