आपकी लड़ाई हिंदू या मुसलमान से नहीं है, उस नेता और राजनीति से है जो आपको भेड़ बकरियों की तरह हिंदू-मुसलमान के फ़साद में इस्तेमाल करना चाहता है.
‘मैं शांति चाहता हूं. मेरा बेटा चला गया है. मैं नहीं चाहता कि कोई दूसरा परिवार अपना बेटा खोए. मैं नहीं चाहता कि अब और किसी का घर जले. मैंने लोगों से कहा है कि अगर मेरे बेटे की मौत का बदला लेने के लिए कोई कार्रवाई की गई तो मैं आसनसोल छोड़ कर चला जाऊंगा. मैंने लोगों से कहा है कि अगर आप मुझे प्यार करते हैं तो उंगली भी नहीं उठाएंगे. मैं पिछले तीस साल से इमाम हूं, मेरे लिए ज़रूरी है कि मैं लोगों को सही संदेश दूं और वो संदेश है शांति का. मुझे व्यक्तिगत नुकसान से उबरना होगा.’
अपने 16 साल के बेटे सिब्तुल्ला राशिदी की हत्या के बाद एक इमाम का यह बयान दिल्ली के अंकित सक्सेना के पिता यशपाल सक्सेना की याद दिलाता है.
हिंसा और क्रूरता के ऐसे क्षणों में कुछ लोग हजारों की हत्यारी भीड़ को भी छोटा कर देते हैं. 16 साल के सिब्तुल्ला को भीड़ उठाकर ले गई और उसके बाद लाश ही मिली. बंगाल की हिंसा में चार लोगों की मौत हुई है. छोटे यादव, एस के शाहजहां, और मक़सूद ख़ान. इस हिंसा में मरने वाले अन्य लोग हैं.
‘मैं भड़काऊ बयान नहीं चाहता हूं. जो हुआ है उसका मुझे गहरा दुख है लेकिन मैं मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत का माहौल नहीं चाहता. मेरी किसी धर्म से कोई शिकायत नहीं है. हां, जिन्होंने मेरे बेटे की हत्या की, वो मुसलमान थे लेकिन सभी मुसलमान को हत्यारा नहीं कहा जा सकता है. आप मेरा इस्तेमाल सांप्रदायिक तनाव फैलाने में न करें. मुझे इसमें न घसीटें. मैं सभी से अपील करता हूं कि इसे माहौल ख़राब करने के लिए धर्म से न जोड़ें.’
यह बयान दिल्ली के यशपाल सक्सेना का है जिनके बेटे अंकित सक्सेना की इसी फरवरी में एक मुस्लिम परिवार ने हत्या कर दी. अंकित को जिस लड़की से प्यार था, उसने अपने मां बाप के ख़िलाफ़ गवाही दी है.
यशपाल जी ने उस वक्त कहा था नेता उनके बेटे की हत्या को लेकर सांप्रदायिक माहौल बनाना चाहते थे ताकि वोट बैंक बन सके. आसनसोल के सिब्तुल्ला को जो भीड़ उठा कर ले गई वो किसकी भीड़ रही होगी, बताने की ज़रूरत नहीं है.
मगर आप सारे तर्कों के धूल में मिला दिए जाने के इस माहौल में यशपाल सक्सेना और इमाम राशिदी की बातों को सुनिए. समझने का प्रयास कीजिए. दोनों पिताओं के बेटे की हत्या हुई है मगर वे किसी और के बेटे की जान न जाए इसकी चिंता कर रहे हैं.
सांप्रदायिक तनाव कब किस मोड़ पर ले जाएगा, हम नहीं जानते. दोनों समुदायों की भीड़ को हत्यारी बताने के लिए कुछ न कुछ सही कारण मिल जाते हैं.
किसने पहले पत्थर फेंका, किसने पहले बम फेंका. मगर एक बार राशिदी और सक्सेना की तरह सोच कर देखिए. जिनके बेटों की हत्याओं को लेकर नेता शहर को भड़काते हैं, उनके परिवार वाले शहर को बचाने की चिंता करते हैं.
हमारी राजनीति फेल हो गई है. उसके पास धार्मिक उन्माद ही आखिरी हथियार बचा है. जिसकी कीमत जनता को जान देकर, अपना घर फुंकवा कर चुकानी होगी ताकि नेता गद्दी पर बैठा रह सके.
आपको समझ जाना चाहिए कि आपकी लड़ाई किससे है. आपकी लड़ाई हिंदू या मुसलमान से नहीं है, उस नेता और राजनीति से है जो आपको भेड़ बकरियों की तरह हिंदू मुसलमान के फ़साद में इस्तेमाल करना चाहता है.
आपकी जवानी को दंगों में झोंक देना चाहता है ताकि कोई चपेट में आकर मारा जाए और वो फिर उस लाश पर हिंदू और मुसलमान की तरफ से राजनीति कर सके.
क्या इस तरह की ईमानदार अपील आप किसी नेता के मुंह सुनते हैं? 2019 के संदर्भ में कई शहरों को इस आक्रामकता में झोंक देने की तैयारी है. इसकी चपेट में कौन आएगा हम नहीं जानते हैं.
मुझे दुख होता है कि आज का युवा ऐसी हिंसा के ख़िलाफ़ खुलकर नहीं बोलता है. अपने घरों में बहस नहीं करता है. जबकि इस राजनीति का सबसे ज़्यादा नुकसान युवा ही उठा रहा है.
बेहतर है आप ऐसे लोगों से सतर्क हो जाएं और उनसे दूर रहें जो इस तरह कि हिंसा और हत्या या उसके बदले की जा सकने वाली हिंसा और हत्या को सही ठहराने के लिए तथ्य और तर्क खोजते रहते हैं.
नेताओं को आपकी लाश चाहिए ताकि वे आपको दफ़नाने और जलाने के बाद राज कर सकें. फैसला आपको करना है कि करना क्या है.
(यह लेख मूलतः रवीश कुमार के ब्लॉग कस्बा पर प्रकाशित हुआ था.)