लोग अब समझने लगे हैं कि अपने संकीर्ण एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए सत्ताधारी जमातें भले डॉ आंबेडकर की मूर्तियां लगवा दें, मगर तहेदिल से वह मनु की ही अनुयायी हैं.
2 अप्रैल का ऐतिहासिक भारत बंद लंबे समय तक याद किया जाएगा. जब बिना किसी बड़ी पार्टी के आह्वान के लाखों लाख दलित एवं वंचित भारत की सड़कों पर उतरें और उन्होंने अपने संघर्ष एवं अपने जज्बे से एक नई नजीर कायम की.
आजादी के सत्तर सालों में यह पहला मौका था कि किसी अदालती आदेश ने ऐसी व्यापक प्रतिक्रिया को जन्म दिया था. ध्यान रहे कि इस आंदोलन के दौरान हिंसा हुई और चंद निरपराधों की जानें गईं, उसे कहीं से भी उचित नहीं कहा जा सकता!
मगर क्या इसी वजह से व्यापक जनाक्रोश की इस अभिव्यक्ति ने उजागर किए सवालों की अहमियत कम हो जाती है? निश्चित ही नहीं!
वैसे इन तथ्यों की पड़ताल करना भी समीचीन होगा कि (जैसा कि कई स्वतंत्र विश्लेषणों में स्पष्ट किया गया है) कई स्थानों पर इस हिंसा के पीछे दक्षिणपंथी संगठनों एवं उनके कारिंदों का हाथ था, जो दलित उभार को कुचलना चाहते थे तथा साथ ही साथ उसे बदनाम करना चाहते थे.
इस आंदोलन का फोकस देश की सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हाल ही में दिए गए एक फैसले पर था. जिसने वर्ष 1989 में बने अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के कमजोर किए जाने की संभावना पैदा की है.
मालूम हो कि न्यायमूर्ति आदर्श गोयल और यूयू ललित की खंडपीठ ने अपने इस फैसले में एक तरह से उपरोक्त अधिनियम के अमल को लेकर कुछ गाईडलाइंस/दिशानिर्देश दिए है. इन्हीं के चलते व्यापक आबादी में शंकाएं पैदा हुई हैं. इस अधिनियम के तहत अब-
- जो अभियुक्त हैं उनकी तत्काल गिरफ्तारी के प्रावधान पर अब रोक लगेगी और पीड़ित द्वारा शिकायत दायर किए जाने के एक सप्ताह के अंदर पुलिस प्रारंभिक जांच करके ही प्रथम सूचना रिपोर्ट दायर करेगी.
- आरोपित सरकारी मुलाजिमों को तभी गिरफतार किया जा सकेगा जबकि उच्चपदस्थ अधिकारियों से लिखित अनुमति मिल सकेगी.
- जहां इस कानून की धारा 18 के तहत अग्रिम जमानत के प्रावधान को नहीं रखा गया है, वहीं इस फैसले ने इसे मंजूरी दी है.
सवाल यह उठता है कि संसद ने जिस कानून को पारित किया हो, उसे लेकर दो सदस्यीय पीठ गाइडलाइंस किस तरह जारी कर सकता है? अदालतों का काम होता है कानून की पड़ताल करना और उसके मुताबिक अपना निर्णय देना. यह तय करना कि कानून क्या है और न ही यह तय करना कि उसे क्या होना चाहिए? क्या यह फैसला इस तरह संसद के अधिकारों का अतिक्रमण नहीं करता ? क्या यह अधिकारातीत नहीं है?
इस बात को कैसे भूला जा सकता है कि राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने इस अधिनियम को लंबे विचार-विमर्श के बाद तब बनाया था जब वर्ष 1955 में बने ‘प्रोटेक्शन आफ सिविल राइट्स एक्ट’ की सीमाएं बार-बार सामने आ रही थीं, जो दलितों-आदिवासियों को न्याय दिलाने में असफल साबित होता दिख रहा था.
संसद के बहुमत ने इसके तमाम प्रावधानों पर लंबी बहस करके इस पर अपनी मुहर लगाई थी और इस अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 का निर्माण किया गया था, जिसमें कई अहम प्रावधान शामिल किए गए थे. जैसे इसके तहत-
- इन वंचित तबकों को तुरंत न्याय दिलाने के लिए विशेष अदालतों का गठन
- अपने कर्तव्यों में लापरवाही के लिए अधिकारियों को दंड
- उत्पीड़कों के चल-अचल संपत्ति की कुर्की
- इलाके की दबंग जातियों के हथियारों को जब्त करना
- इलाका विशेष को अत्याचार प्रवण (एट्रोसिटी प्रोन) घोषित कर वहां विशेष इंतजाम करने
- पीड़ितों को तत्काल मुआवजा प्रदान करने
- आत्मरक्षा के लिए अत्याचार पीड़ितों में हथियार वितरण का प्रावधान (भारत के किसी भी कानून में ऐसा प्रावधान नहीं दिखता)
इनमें से ज्यादातर प्रावधान इतने सख्त हैं कि एक बार इसके तहत गिरफ्तारी होने पर जल्द जमानत भी नहीं हो पाती. विडंबना यही कही जा सकती है कि इस कानून की मूल भावना के हिसाब से कभी इस पर अमल नहीं होने दिया गया.
यह हकीकत पूर्वन्यायमूर्ति वीके कृष्णा अय्यर के उस विश्लेषण की याद दिलाती जहां उन्होंने इस बात को रेखांकित किया था कि ‘ज्यादा प्रभावी, ज्यादा समग्र और ज्यादा दंडात्मक प्रावधानों वाले’ अधिनियम को बनाने के बावजूद ‘सत्ताधारी तबकों ने इस बात को सुनिश्चित किया कि व्यावहारिक स्तर पर ये विधेयक कागजी बाघ बने रहें.’ ( देखें: दलित उत्पीड़न: विधिक उपचार, एस एल मीमरोठ की किताब को लिखी प्रस्तावना)
बढ़ता अत्याचार, घटता न्याय
हमारे संविधान के तहत, राज्य के तीनों शाखाओं में (विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका) अधिकारों का स्पष्ट विभाजन दिखता है. आम तौर पर यह तीनों एक दूसरे के अधिकार क्षेत्र में शायद ही कभी प्रवेश करते हैं. यह अदालत का काम नहीं समझा जाता कि वह किसी कानून के दायरे को विस्तारित कर दे.
अदालतें किसी भी कानून को नए सिरे से ढाल नहीं सकती क्योंकि यह काम विधायिका का होता है. और जिस तरह अधूरे तथ्यों के आधार पर (जिन्हें अदालत के सामने रखने में खुद केंद्र सरकार जिम्मेदार है) सर्वोच्च न्यायालय की दो सदस्यीय पीठ ने फैसला सुनाया है, वह एक तरह से इस अधिनियम की आत्मा पर ही प्रहार दिखता है.
इस पृष्ठभूमि में यह प्रतीत होना स्वाभाविक है कि प्रस्तुत फैसला एक तरह से न्यायपालिका द्वारा विधायिका के काम में दखल देता है. फैसले को लेकर चिंता की कई वजहें हैं जिसमें दलितों-आदिवासियों के खिलाफ अत्याचार, जो समाज के सबसे उत्पीड़ित, दमित तबकों की श्रेणी में आते हैं और अन्य अपराधों में एक तरह से विभाजक रेखा खींची गयी है.
हर पुलिस थाने में लिखा रहता है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट पाना आप का अधिकार है और अगर ऐसा करने में पुलिस आनाकानी करे तो पीड़ित वरिष्ठ अधिकारियों से शिकायत कर सकता है.
इस तरह अगर साधारण अपराधों में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने को लेकर पुलिस बाध्य है और इस सिलसिले में आवश्यक कार्रवाई करने को लेकर कानून के मुताबिक वह मजबूर है तो समाज के सबसे वंचित-उत्पीड़ित तबकों की सुरक्षा के लिए संसद ने जिस विशेष कानून को बनाया है, उसका अमल करने में ‘दुरुपयोग’ के नाम पर दोहरा मापदंड कैसे अपनाया जा सकता है ?
क्या सर्वोच्च न्यायालय ने यह किस आधार पर तय किया कि ‘बदले’ की भावना से शिकायतें दर्ज होती हैं, जबकि सरकारी रिपोर्टें कुछ अलग कहानी कहती हैं. ध्यान रहे दलितों और आदिवासियों के खिलाफ बढ़ते अत्याचार सरकार की अपनी रिपोर्टों में दर्ज हैं और वही रिपोर्टें बताती हैं कि जहां अत्याचार बढ़े हैं वहीं दोषसिद्धि की दर कम हो रही है. आंकडें बताते हैं कि-
- हर पंद्रह मिनट में दलित के खिलाफ अपराध होता है.
- हर सप्ताह औसतन ग्यारह दलित देश में मारे जाते हैं.
- छह दलित महिलाओं पर हर दिन यौन अत्याचार होता है. पिछले दस सालों में यह संख्या दोगुनी हुई है.
- विगत दस सालों में (2007-2017) दलितों के खिलाफ अपराधों में 66 फीसदी बढ़ोत्तरी हुई है.
- दलितों के खिलाफ दर्ज अत्याचारों के 78 फीसदी मामलों में आरोपपत्र दाखिल किए जा सके हैं अर्थात पहली नजर में आरोप सही पाए गए हैं और यह बात तथ्यों से परे हैं कि ऐसे मुकदमे बदले की भावना से दर्ज किए जाते हैं.
रेखांकित करने वाली बात है कि जहां खंडपीठ ने कानून के कथित दुरुपयोग को लेकर गाईडलाइन जारी कर दी, वहीं महज सवा साल पहले सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ जिसकी अगुआई मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर कर रहे थे, जिसके अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड और न्यायमूर्ति ए नागेश्वर राव शामिल थे, उन्होंने अनुसूचित जाति-जनजातियों के अत्याचार एवं भेदभाव से मुक्त करने के सरकारी दावों और जमीनी हकीकत के बीच व्याप्त गहरे अंतराल को बेपर्द किया था.
पीठ का साफ मानना था कि अनुसूचित जातियों-जनजातियों की रक्षा के लिए बने ‘अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989’ के कानूनी प्रावधानों के अमल को लेकर न केवल तमाम राज्य सरकारें बल्कि केेंद्र सरकार भी बुरी तरह असफल रहे हैं. उनका कहना था कि ‘जिन उदात्त मकसद के साथ अधिनियम को बनाया गया उसके प्रति सरकारों का बेरुखी भरा नजरिया’ इसके लिए जिम्मेदार है.
सरकारी स्तर पर कछुआ चाल
पहली खबर राजस्थान की जो उत्पीड़ित जातियों पर अत्याचारों को रोकने के लिए बने कानून के मद्देनजर सरकारी स्तर पर अपनाई जाती कछुआ चाल को बेपर्द करती है. राजस्थान उच्च अदालत ने इस संबंध में राजस्थान सरकार से जवाब मांगा था और पूछा था कि आखिर कानून बनने के 22 साल बाद भी पीड़ितों एवं गवाहों के पुनर्वास के लिए योजना क्यों नहीं बनायी गई हैं और उन्हें राहत क्यों नहीं प्रदान की जा रही है. न्यायाधीश एस झवेरी और न्यायमूर्ति दिनेश मेहता की दो सदस्यीय पीठ दलित मानवाधिकार समिति की याचिका पर गौर कर रही थी. (डेली न्यूज, 29 नवंबर 2016)
याचिकाकर्ता ने अदालत को सूचित किया था कि इस अहम कानून के तहत इसके लिए विशेष प्रावधान किया गया है और यह पीड़ितों का कानूनी अधिकार भी है, मगर सरकार ने इस मामले में आंखें मूंदी हैं. उसके मुताबिक विगत 20 सालों में अत्याचार के शिकार 19 परिवार गांव छोड़ चुके हैं, मगर न सरकार ने उनकी सुध ली और न पुनर्वास की कोशिश की. याचिका में इस बात का भी विवरण पेश किया कि वर्ष 2005 से 2015 के अंतराल में राजस्थान दलित उत्पीड़न में दूसरे नंबर पर रहा है.
दूसरी तरफ ‘द हिंदू’ की एक रिपोर्ट राजस्थान में दलित अत्याचारों का एक और विदारक पहलू प्रस्तुत करती है. उसके मुताबिक राजस्थान में दर्ज कुल अपराधों में से 52 से 65 फीसदी मामलों में दलित ही पीड़ित होता है, जबकि वहां दलितों की आबादी महज 17.8 फीसदी ही है.
अनुसूचित तबकों की हिफाजत के लिए बने कानून जमीनी स्तर पर किस तरह दंतहीन साबित होते जाते हैं, इसकी एक दूसरी मिसाल महाराष्ट्र से आई थी, जिसके मुताबिक ऐसे तमाम मामलों में केस खारिज होने की वजह यही होती है कि गवाह पलट जाते हैं.
एक अग्रणी अखबार में प्रकाशित हालिया रिपोर्ट बताती है कि ‘2014 से 2016 के दरम्यान जिन 889 मामलों में अभियुक्त बेदाग छूट गए, इनमें से चार मे से एक मामले में शिकायतकर्ता खुद अपनी बात बदल देते हैं. इसके अलावा बलात्कार, हत्या, डकैती जैसे गंभीर मामलों में 243 गवाह पलट गए, जबकि उनका वक्तव्य पीड़ित की अहम मदद कर सकता था. कुल मिला कर अभियुक्तों के इस तरह ‘बेदाग’ बरी होने के मामले 54.33 फीसदी थे. (इंडियन एक्सप्रेस, 6 दिसंबर 2016)
वर्चस्वशाली उत्पीड़क किस तरह केस वापस करने के लिए दबाव डालते हैं, इसकी चर्चा करते हुए रिपोर्ट एक अध्येता/कार्यकर्ता के हवाले से बताती है कि सोलापुर के एक मामले में बलात्कार पीड़िता ने अपना केस खुद वापस लिया जब उसके परिवार का सामाजिक बहिष्कार हुआ या दूसरे मामले में जब उत्पीड़ित दलित के घर पर पथराव किया गया तो उन्होंने खुद ही केस आगे न ले जाने का निर्णय लिया.
दलित हत्याओं के मामले में फैसला सुनाते हुए एक अन्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फिर कुछ खरी-खरी बातें कही थीं:
‘सदियों पुरानी जातिव्यवस्था के कारण समय-समय पर लोगों की जान जाती है. यह मामला एक सभ्य देश में तथाकथित अगड़ी जातियों के तथाकथित निचली जातियों के खिलाफ किए गए दमन का सबसे बुरा स्वरूप है. कानून और लोकतंत्र की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए हमारे देश से जातिव्यवस्था को जल्दी खत्म किया जाना जरूरी है.’
ताजा मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह विवादास्पद बात भी कही है कि यह कानून ‘जातिवाद’ को बढ़ावा देता है और समाज में भाईचारे को खतम करता है. निश्चित ही सदियों से तमाम मानवीय अधिकारों से वंचित रखे गए दलित आदिवासी जब अपने खिलाफ हुए अन्याय अत्याचार का विरोध करें तथा समान नागरिक के तौर पर अपने साथ व्यवहार की बात करें तो वह समाज में भाईचारे को खतम करते हैं, इस किस्म के तर्क का निष्कर्ष यही निकलता है कि उन्हें उनके साथ हुए हर दुर्व्यवहार, अन्याय-अत्याचार को चुपचाप बर्दाश्त करना चाहिए, जबकि संविधान निर्माण के वक्त ही जाति, जेंडर, नस्ल, धर्म तथा अन्य श्रेणियों के आधार पर हर किस्म के भेदभाव की समाप्ति का ऐलान किया गया था.
आज से बाईस साल पहले राजस्थान की महिला सामाख्या कार्यक्रम की साथिन भंवरी देवी के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के मामले में सभी अपराधियों को (जो कथित उंची जातियों के थे, जिनमें से एक ब्राहमण और बाकी गुर्जर जाति के थे) बरी करते हुए न्यायाधीश महोदय ने कहा था कि ‘अपनी जाति शुद्धता को अपवित्र करने की कीमत पर इन लोगों ने एक नीची जाति की स्त्री से बलात्कार नहीं किया होगा.’ (इंडियन एक्सप्रेस, 3 अप्रैल 2018)
सर्वोच्च न्यायालय का ताजा फैसला बताता है कि अभी न्यायपालिका वहीं कदमताल किए जा रही है, जहां बाईस साल पहले थी. यह अकारण नहीं कि दलितों-आदिवासियों पर अत्याचारों के मामले में दोषसिद्धि की दर 2 से 3 फीसदी से अधिक नहीं है.
अदालत के इस फैसले को लेकर केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री थावरचंद गहलोत को लिखे अपने पत्र में केंद्रीय समाज कल्याण विभाग के पूर्व सेक्रेटरी पीएस कृष्णन ने (जिन्होंने 1989 के इस कानून को बनाने में अहम भूमिका अदा की थी) उन प्रचंड बाधाओं का उल्लेख किया है कि अपने संवैधानिक अधिकार हासिल करने के लिए ही दलितों आदिवासियों को किस तरह भयानक अत्याचारों जिसमें जनसंहार, आगजनी, सामाजिक आर्थिक बहिष्कार और तरह तरह के अपमान शामिल है, का सामना करना पड़ता है. और यह ‘तथ्य इतने चर्चित हैं कि सर्वोच्च न्यायालय को उनकी जुडिशियल नोट लेनी पड़ेगी.’
प्रस्तुत कानून की अहमियत को नए सिरे से रेखांकित करते हुए वह मोदी सरकार से यह आग्रह करते हैं कि उसे चाहिए कि वह कुछ ‘कुख्यात’ मामलों को सर्वोच्च न्यायालय के सामने पेश करे ताकि उसे इस बात का एहसास हो कि ‘भारत में जाति व्यवस्था के चलते सत्ताधारी बनाम सत्ताविहीन का जो ध्रुवीकरण कायम है, उसमें सही जांच कर पाना और उसे अंजाम तक पहुंचाना कितना मुश्किल होता है.’
किझेवनमन्नी, तमिलनाडु (1968) जिसमें अनुसूचित जाति के 44 लोगों को (जिनमें मुख्यत: बच्चे और महिलाएं शामिल थीं) जिंदा जला कर मार डाला गया क्योंकि अनुसूचित जाति के इन मजदूरों ने खेत मजदूरी बढ़ाने की मांग की थी. उच्च न्यायालय ने सभी अभियुक्तों को बाइज्जत बरी कर दिया. मालूम हो अदालत का तर्क था कि ‘इस बात पर सहसा यकीन करना मुश्किल है कि उंची जाति के यह लोग पैदल दलित बस्ती तक गए होंगे, लिहाजा संदेह का लाभ देकर उन्हें बरी किया जाता है.’
करमचेदु, आंध प्रदेश (1984) पांच दलितों का कत्ल हुआ. सेशन अदालत ने कई अभियुक्तों को सजा सुनायी. उच्च न्यायालय ने सभी को बरी किया. सर्वोच्च न्यायालय ने सेशन अदालत के फैसले को कायम रखा-जो इस बात का साफ उदाहरण था कि अदालत से ‘बाइज्जत रिहाई’ का मतलब झूठे केसेज नहीं होता.
चुंदूर, आंध्र प्रदेश (1991) आठ दलितों की हत्या हुई. निचली अदालत ने अभियुक्तों को 2007 में सजा सुनायी. उच्च न्यायालय ने 2014 में सभी को बरी किया. केंद्र सरकार द्वारा इस मामले में डाली याचिका सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है, जिसने सभी संबंधित पक्षों को नोटिस जारी करने को कहा है और अभी तक चूंकि नोटिस दिए जाने के संबंध में रिपोर्ट पहुंची नहीं है, लिहाजा केंद्र की याचिका स्पेशल लीव पीटिशन में तब्दील नहीं हो सकी है.
कृष्णन लिखते हैं, ‘यह मिसाल है कि किस तरह विलंब हमारी व्यवस्था का बुनियादी अंग है और हर अतिरिक्त प्रोसिजर इस विलंब को बढ़ावा देता है, जैसी कोशिश 20 मार्च के अदालती फैसले में दिखती है.’
बिहार में जनसंहार के छह मामले जिसमें बथानी टोला (1996) और लक्ष्मणपुर बाथे (1997) शामिल हैं. इन सभी मामलों में निचली अदालतों ने अभियुक्तों को दोषी ठहराया. उच्च न्यायालय ने सभी अभियुक्तों को बरी किया और ये मामले अभी भी सर्वोच्च न्यायालय के सामने विचाराधीन हैं.
कम्बलापल्ली (कर्नाटक) मामले में प्रमुख गवाह, जो परिवार का मुखिया भी था, जिसके सभी सदस्य मार दिए गए थे, उसने ही अदालत में अपनी बात बदल दी, जिसके चलते सभी अभियुक्त बरी हो गए. और उसे बाद में जब पूछा गया तो कि उसने बात क्यों बदली? तो उसका जवाब था ‘पहले मुझे पूरी सुरक्षा दीजिए, तब मैं सच्चाई बताउंगा.’
सत्ताधारी पार्टी दो नावों पर पैर रख कर चलना चाहती है?
कोई भी देख सकता है कि एससी-एसटी एक्ट को कमजोर करने की इन कोशिशों ने केंद्र में सत्ताधारी पार्टी की असलियत भी उजागर कर दी है. यह भी स्पष्ट हुआ कि किस तरह वह दो नावों पर पैर रख कर चलना चाहती है? एक तरफ वह दलितों को खुश करने की बात करती है, मगर हकीकत में वर्चस्वशाली जातियों के हितों की हिफाजत करती है. इस केस ने इसके कई प्रमाण दिए.
सरकार द्वारा दिए तथ्यों पर आधारित है यह फैसला
अदालती मित्र ने बताया कि सर्वोच्च न्यायालय का फैसला सत्ताधारियों द्वारा दिए गए आंकड़ों पर ही आधारित है. यहां तक कानून के कथित दुरुपयोग होने की बात खुद सरकार ने ही बतायी थी. और अग्रिम जमानत दिलाने के प्रावधान को भी इसी ने मंजूरी दी थी.
अपना पक्ष कमजोर तरीके से रखना
अदालत में इस मसले पर जब अपना पक्ष रखने के लिए सरकार को बुलाया गया तो उसने अपने सबसे बड़े वकील (अटार्नी जनरल) को भेजने के बजाय उनके जूनियर सालिसिटर जनरल को वहां भेजा, जिसने एक तरह से अधिनियम की पक्ष में बेहद कमजोर दलीलें दीं और खुद इस बात को रखा कि सरकार खुद इस केस के अभियुक्तों को ‘प्रताडना से बचाने के लिए’ अग्रिम जमानत दिए जाने की पक्षधर है.
पुनर्विचार याचिका दायर करने में विलंब
20 मार्च को इस फैसले के आने के बाद से जब सरकार से यह कहा गया कि इसकी समीक्षा के लिए वह सर्वोच्च न्यायालय में अपील क्यों नहीं करती, उसने मौन धारण कर रखा. और जब दलित संगठनों ने भारत बंद का आह्वान किया उस दिन मजबूरन अदालत का दरवाजा खटखटाया.
अध्यादेश जारी करने का विकल्प न अपनाना
याद रहे सर्वोच्च न्यायालय के किसी फैसले से अगर सरकार असहमत हो तो उसके पास यह विकल्प हमेशा मौजूद रहता है कि वह अध्यादेश जारी करे, जिस पर बाद में विधायिका मुहर लगा सकती है. मगर इस विकल्प पर उसने सोचा तक नहीं.
सरकार के कामकाज पर निगाह रखने वाले बता सकते हैं कि दलितों-आदिवासियों के प्रति प्रेम का उसका दावा महज दिखावा है, यह बात बार-बार देखने में आ रही है.
चाहे हैदराबाद विश्वविद्यालय के जुझारू छात्र नेता रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या का मामला हो, उना में दलितों पर अत्याचार का मामला हो, उत्तर प्रदेश में भीम आर्मी के प्रति उसकी प्रतिक्रिया हो, जिसके नेता को अभी भी राष्टीय सुरक्षा कानून के तहत जेल में रखा गया है और हाल में भीमा कोरगांव में जुटे लाखों लोगों को उकसाने के लिए दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा किया गया हमला हो और शरारती तत्वों के खिलाफ पुलिस में दर्ज रिपोर्ट के बावजूद अभी भी उसके मास्टरमाइंडों का कानून के शिकंजे से बाहर रहना हो, या हाल में शिक्षा संस्थानों में अध्यापक पदों पर मिलने वाले आरक्षण को एक तरह से निष्प्रभावी करने के लिए विश्वविद्यालय/कालेज के स्तर पर रोस्टर बनाने के बजाय विभाग के स्तर पर रोस्टर बनाने का मसला हो, यह बात बार-बार प्रमाणित हो रही है.
अब जब पूरे देश में यह संदेश गया है कि केंद्र सरकार दलितों-आदिवासियों के हकों के प्रति पूर्वाग्रह रखती है और उन्हें विभिन्न तरीकों से वंचित रखना चाहती है, किस तरह उसके शासन में आते दलितों पर अत्याचारों में लगातार बढ़ोत्तरी देखी जा रही है, उस वक्त यह कहने से काम नहीं चलेगा कि किसी अन्य पार्टी ने डॉ आंबेडकर को इतना सम्मान नहीं दिया जैसा कि हमने दिया.
लोग अब समझने लगे हैं कि अपने संकीर्ण एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए सत्ताधारी जमातें भले डॉ आंबेडकर की मूर्तियां लगवा दें, उनके नाम पर भवनों को खोल दें, मगर तहेदिल से वह मनु की ही अनुयायी हैं, जिनकी मूर्ति उनकी पार्टी के शासनकाल में (भैरोसिंह शेखावत के मुख्यमंत्रित्व काल) जयपुर की उच्च अदालत में स्थापित की गई और अभी पिछले दिनों उसी जयपुर में हिंदुत्व ब्रिगेड के अग्रणी नेता इंद्रेश कुमार ने बाकायदा एक सम्मेलन को संबोधित किया जिसमें मनस्मृति के रचयिता मनु का गुणगान किया गया था.
(अ) सभ्य समाज
विकराल होती दलितों की यह दास्तां और शीर्ष स्तरों पर इसके पूरे एहसास के बावजूद स्थिति को सुधारने को लेकर ऊपर से लेकर नीचे तक एक विचित्र किस्म का मौन प्रतिरोध नजर आता है. दलितों की आधिकारिक स्थिति को दस्तावेजीकृत कर संसद के पटल पर रखने जैसी कार्रवाई भी इसी उपेक्षा का शिकार होती दिखती है जबकि संविधान की धारा 338(6) के अंतर्गत अनुसचित जाति आयोग की पहल पर तैयार ऐसी रिपोर्टों का संसद पटल पर रखना अनिवार्य है.
प्रस्तुत धारा के मुताबिक, ‘राष्ट्रपति ऐसी तमाम रिपोर्टों को संसद के दोनों सदनों के समक्ष पेश करेगा तथा साथ ही साथ उस ज्ञापन/मेमोरेंडम को भी जोड़ा जाएगा जो उजागर करेगा कि सरकार ने ऐसे मामलों में क्या कार्रवाई की या वह इस दिशा में कैसे आगे बढ़ना चाह रही है.’
कोई यह भी कह सकता है कि यह रिपोर्टें केंद्र और राज्य के अधिकारियों के बीच दलितों की स्थिति को लेकर अपनी नाकामी छुपाने का तथा आपसी दोषारोपण का एक नया बहाना भी बनती हैं. दलितों-आदिवासियों को न्याय से वंचित करने में राज्य-न्यायपालिका एवम नागरिक समाज किस तरह आपस में सांठगांठ करते हैं, इसे अहमदाबाद, गुजरात के सेंटर फॉर सोशल जस्टिस के वालजीभाई पटेल के अन्य अध्ययन से भी जाना जा सकता है.
प्रस्तुत अध्ययन के लिए वालजीभाई ने गुजरात के सोलह जिलों में अप्रैल 1, 1995 के बाद प्रस्तुत अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 के तहत सामने आए 400 मुकदमों का विस्तृत अध्ययन किया और यह देखा कि इन मुकदमों का निपटारा कैसे हुआ.
अध्ययन इस बात को उजागर करता है कि किस तरह कानून के सख्त प्रावधानों के बावजूद निम्न एवम उच्च स्तर पर पुलिस की जांच लापरवाही भरी होती है. उनका यह भी कहना था कि दलित-आदिवासियों पर अत्याचार के मामलों में आम तौर पर सरकारी वकील की काफी प्रतिकूल भूमिका होती है, जिसकी वजह से केस खारिज हो जाता है.
उनका अध्ययन इस मिथक का भी पर्दाफाश करता है कि प्रस्तुत कानून की अकार्यक्षमता इसके तहत दर्ज किए जाने वाली झूठी शिकायतों के कारण या दोनों पक्षों के बीच होने वाले समझौते के कारण दिखती है.
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा वर्ष 2004 में पेश की गई ‘रिपोर्ट आन प्रिवेंशन आॅफ एट्रासिटीज अगेंस्ट एससीज’ (अनुसूचित जातियों के खिलाफ अत्याचारों के निवारण की रिपोर्ट) इन बातों का विवरण पेश करती है कि किस तरह नागरिक समाज खुद जाति आधारित व्यवस्था से लाभान्वित होता है और किस तरह वह अस्तित्वमान गैरबराबरीपूर्ण सामाजिक रिश्तों को जारी रखने और समाज के वास्तविक जनतांत्रिकीकरण को बाधित करने के लिए प्रयासरत रहता है.
दरअसल, वह सामाजिक मूल्यों में मौजूद गहरी दरार की ओर इशारा करती है. यह दरार इस बात में परिलक्षित होती है कि जहां एक जनतांत्रिक उदार व्यवस्था के अंतर्गत लोग खुद सभी अधिकारों तथा विशेषाधिकारों से लाभान्वित होना चाहते हैं वहीं इन्हीं अधिकारों को अनुसूचित जाति या जनजाति को देने की बात करने का विरोध करते हैं.
अपने एक आलेख में मानवाधिकार आंदोलन से भी संबद्ध जस्टिस सुरेश (काम्बेट लाॅ, सितंबर-दिसंबर 2009) ने एक महत्वपूर्ण सुझाव दिया था कि अगर हम दलित-आदिवासियों पर अत्याचार की रोकथाम को सुनिश्चित करना चाहते हैं तो हमें संविधान की धारा 17 को संशोधित करने के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए.
जानने योग्य है कि संविधान निर्माण के साथ धारा 17 के अंतर्गत अस्पृश्यता के खात्मे की घोषणा की गई, मगर संविधान प्रस्तुत करने की आपाधापी में निर्माताओं को इस बात का ध्यान नहीं रहा कि जब तक हम इससे जुड़ कर आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों को सुनिश्चित करने की बात नहीं करते ताकि हर दलित हर दूसरे नागरिक के साथ समान दर्जे और गरिमा के साथ खड़ा हो सके तब तक महज अस्पृश्यता के खात्मे का ऐलान काफी नहीं होगा.
उनके मुताबिक धारा 17 को अधिकार को केंद्र में रख कर संशोधित किया जा सकता है अर्थात ‘अस्पृश्य’ के तौर पर व्यवहार से रोक का अधिकार, जो राज्य को इस बात के लिए मजबूर करेगा कि वह इस अधिकार के उल्लंघन को रोके और अपने कर्तव्य को पूरा करे.
मुल्क की 16 करोड़ से अधिक आबादी के बहुलांश की आज भी जारी दोयम दर्जे की स्थिति दुनिया के इस सबसे बड़े जनतंत्र की परियोजना के आगे की यात्रा के बारे में क्या कुछ कहती है. हम कह सकते हैं कि वह औपचारिक जनतंत्र के आगे विकसित नहीं हो सका है और उसे वास्तविक जनतंत्र बनाने की चुनौती बनी हुई है. अगर निचोड़ के तौर पर कहें तो हमारे सामने बड़ी चुनौती यह दिखती है कि हम नागरिक और संवैधानिक अधिकारों के विमर्श से आगे बढ़ें.
यह भी समझने की जरूरत है कि संवैधानिक सिद्धांतों और व्यवहार व उसके बिल्कुल विपरीत बुनियाद पर आधारित नैतिक सिद्धातों और व्यवहार में गहरा फर्क है. हम सभी जानते हैं कि शुद्धता और प्रदूषण का प्रतिमान जो जाति व्यवस्था की बुनियाद है, उसमें गैरबराबरी को न केवल वैधता बल्कि धार्मिक स्वीकार्यता भी मिलती है. चूंकि असमानता को सिद्धांत और व्यवहार में स्वीकारा जाता है, लिहाजा एक कानूनी संविधान का जाति आधारित समाजों की नैतिकता पर असर ना के बराबर पड़ता है.
संविधान सभा की आखिरी बैठक में डॉ आंबेडकर ने शायद इसी स्थिति की भविष्यवाणी की थी. अपने व्याख्यान में उन्होंने कहा था कि
‘हम लोग अंतर्विरोधों की एक नई दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं. राजनीति में हम एक व्यक्ति-एक वोट के सिद्धांत को स्वीकार करेंगे. लेकिन हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन में, हमारे मौजूदा सामाजिक-आर्थिक ढांचे के चलते हम लोग एक लोग- एक मूल्य के सिद्धांत को हमेशा खारिज करेंगे. कितने दिनों तक हम अंतर्विरोधों का यह जीवन जी सकते हैं? कितने दिनों तक हम सामाजिक और आर्थिक जीवन में बराबरी से इंकार करते रहेंगे.’
भारत के हर इंसाफ पसंद व्यक्ति के सामने यह सवाल आज भी जिंदा खड़ा है.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और चिंतक हैं.)