कांग्रेस के नेतृत्व में सात विपक्षी पार्टियों ने मुख्य न्यायाधीश के ख़िलाफ़ महाभियोग चलाने का नोटिस उपराष्ट्रपति को दिया है. कांग्रेस ने कहा कि उसके इस क़दम के पीछे कोई राजनीतिक उद्देश्य नहीं है.
नई दिल्ली: कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी दलों ने प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग चलाने के प्रस्ताव का जो नोटिस शुक्रवार को राज्यसभा के सभापति एम. वेंकैया नायडू को दिया है उसमें इसके लिए पांच आधार दिए गए हैं.
विपक्षी दलों ने कहा कि पहला आरोप प्रसाद एजुकेशनल ट्रस्ट से संबंधित हैं. इस मामले में संबंधित व्यक्तियों को गैरकानूनी लाभ दिया गया. इस मामले को प्रधान न्यायाधीश ने जिस तरह से देखा उसे लेकर सवाल है. यह रिकॉर्ड पर है कि सीबीआई ने प्राथमिकी दर्ज की है. इस मामले में बिचौलियों के बीच रिकॉर्ड की गई बातचीत का ब्यौरा भी है.
प्रस्ताव के अनुसार इस मामले में सीबीआई ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति नारायण शुक्ला के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने की इजाजत मांगी और प्रधान न्यायाधीश के साथ साक्ष्य साझा किए. लेकिन उन्होंने जांच की इजाजत देने से इनकार कर दिया. इस मामले की गहन जांच होनी चाहिए.
दूसरा आरोप उस रिट याचिका को प्रधान न्यायाधीश द्वारा देखे जाने के प्रशासनिक और न्यायिक पहलू के संदर्भ में है जो प्रसाद एजुकेशन ट्रस्ट के मामले में जांच की मांग करते हुए दायर की गई थी.
कांग्रेस और दूसरे दलों का तीसरा आरोप भी इसी मामले से जुड़ा है. उन्होंने कहा कि यह परंपरा रही है कि जब प्रधान न्यायाधीश संविधान पीठ में होते हैं तो किसी मामले को शीर्ष अदालत के दूसरे वरिष्ठतम न्यायाधीश के पास भेजा जाता है. इस मामले में ऐसा नहीं करने दिया गया.
उन्होंने प्रधान न्यायाधीश पर चौथा आरोप गलत हलफनामा देकर जमीन हासिल करने का लगाया है. प्रस्ताव में पार्टियों ने कहा कि न्यायमूर्ति मिश्रा ने वकील रहते हुए गलत हलफनामा देकर जमीन ली और 2012 में उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश बनने के बाद उन्होंने जमीन वापस की, जबकि उक्त जमीन का आवंटन वर्ष 1985 में ही रद्द कर दिया गया था.
इन दलों का पांचवा आरोप है कि प्रधान न्यायाधीश ने उच्चतम न्यायालय में कुछ महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील मामलों को विभिन्न पीठ को आवंटित करने में अपने पद एवं अधिकारों का दुरुपयोग किया.
महाभियोग प्रस्ताव का लोया और अयोध्या मामलों से कोई संबंध नहीं: कांग्रेस
प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के ख़िलाफ़ राज्यसभा के सभापति एम. वेंकैया नायडू को महाभियोग प्रस्ताव का नोटिए देने के बाद कांग्रेस ने शुक्रवार को कहा कि उसके इस क़दम के पीछे कोई राजनीतिक उद्देश्य नहीं है तथा इसका न्यायाधीश बीएच लोया मामले में 19 अप्रैल को सुनाए गए फैसले और राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में हो रही सुनवाई से कोई संबंध नहीं है.
सभपति को महाभियोग चलाने के प्रस्ताव का नोटिस देने के बाद कपिल सिब्बल ने कहा, ‘प्रधान न्यायाधीश के पद की एक मर्यादा होती है. इस पद का हम सम्मान करते हैं, लेकिन ख़ुद प्रधान न्यायाधीश को भी इसका सम्मान करना चाहिए. हमें विश्वास था कि चार न्यायाधीशों ने जो सवाल खड़े किए थे उनका समाधान होगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.’
यह भी संयोग ही है कि मई 1993 में जब पहली बार उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी पर महाभियोग चलाया गया था तो वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में कपिल सिब्बल ने ही लोकसभा में बनाई गई विशेष बार से उनका बचाव किया था.
कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों द्वारा मतदान से अनुपस्थित रहने की वजह से यह प्रस्ताव गिर गया था.
गौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय द्वारा सीबीआई के विशेष न्यायाधीश बीएच लोया की संदिग्ध परिस्थितियों में हुई मृत्यु की जांच के लिए दायर याचिकाएं खारिज किए जाने के अगले ही दिन महाभियोग का नोटिस दिया गया है. लोया सोहराबुद्दीन फ़र्ज़ी मुठभेड़ मामले की सुनवाई कर रहे थे.
शीर्ष अदालत की प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने कल यह फैसला सुनाया था.
यह पूछे जाने पर कि क्या महाभियोग प्रस्ताव का नोटिस देने के क़दम का लोया मामले से कोई संबंध है तो कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद ने कहा कि इस मामले में फैसला 19 अप्रैल को आया है, जबकि महाभियोग प्रस्ताव से जुड़ी प्रक्रिया क़रीब एक महीने से चल रही थी.
यह सवाल किया गया कि क्या इसका अयोध्या मामले से लेकर चल रही सुनवाई से है तो कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने कहा, ‘नहीं.’
दरअसल, प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली विशेष खंडपीठ अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद मामले की सुनवाई कर रही है.
इस मामले में जब शीर्ष अदालत में सुनवाई शुरू हुई थी तो कुछ पक्षकारों के वकीलों ने इसकी सुनवाई 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद कराने का अनुरोध किया था जिसे न्यायालय ने ठुकरा दिया था.
सिब्बल ने कहा कि महाभियोग प्रस्ताव किसी मामले के फैसले या सुनवाई को लेकर नहीं लाया जाता, बल्कि इसका संबंध न्यायाधीश के ‘दुर्व्यवहार’ से होता है.