जज लोया मामले में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी जनहित मामलों के लिए नुकसानदेह साबित होगी.
सुप्रीम कोर्ट ने जज लोया की मृत्यु के मामले में किसी भी तरह की स्वतंत्र जांच की मांग को नकार दिया. वो न्यायालय का अधिकार क्षेत्र है, लेकिन कोर्ट ने जिस तरह से वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण और दुष्यंत दवे के आचरण और नियत पर शक करते हुए जनहित याचिकाओं की वैधता पर ही सवालिया निशान लगाए, उससे आने वाले समय में जनहित के मुद्दे उठाने वाले समूह और समर्पित वकीलों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा.
यहां सवाल यह नहीं है कि कोर्ट ने जज लोया की मृत्यु के मामले में अमुक ही फैसला क्यों दिया? जैसा हर मामले में होता है, किसी एक पक्ष के तर्क किसी एक बेंच को सही लगते हैं, वो उस अनुसार अपना फैसला देती हैं. लेकिन, इसका यह मतलब यह कतई नहीं होता है कि दूसरा पक्ष बेईमान है या उसका कोई छुपा एजेंडा था!
और, ना ही सुप्रीम कोर्ट का हर फैसला अंतिम सत्य होता है. या वो ही न्याय है, ऐसा भी नहीं माना जा सकता. क्योंकि, एक तो सुप्रीम कोर्ट कि बड़ी बेंच अनेकों बार अपने साथी जजों की छोटी बेंचो द्वारा दिए गए फैसलों से इत्तेफाक न रखते हुए, उन्हें उलटे देती हैं. जो कल सही था, वो आज सही नहीं है.
जैसा, हमने निजता के और हाल ही में जमीन अधिग्रहण के मामले में देखा. और, जैसे वैश्वीकरण के दौर में समान काम, समान वेतन जैसे अनेक मामले में सुप्रीम कोर्ट अपने ही पुराने फैसलों को बदल चुकी है. इतना ही नहीं, अनेकों बार सरकार खुद सप्रीम कोर्ट के फैसलों से इत्तेफाक नहीं रखती है. जैसे, अभी खुद सरकार एससी एसटी एक्ट के मामले में सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दाखिल कर चुकी है.
इसलिए, जस्टिस लोया मामले में सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं के वकील प्रशांत भूषण और दुष्यंत दवे के तर्कों से असहमति जताते हुए कानून के दायरे में अपनी समझ के अनुसार फैसला दिया. वो उनके अनुसार सही है, उससे असहमति हो सकती है, लेकिन न्यायालय ने अमुक फैसला दिया है, इसलिए कोई भी न्यायालय की मंशा पर शंका जाहिर नहीं कर सकता.
जबकि, सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम जजों ने जनवरी में ही इस मामले में अपनी शंका सार्वजानिक कर दी थी. फिर भी, इस मामले में मुख्य न्यायाधीश की बेंच ने जिस तरह से याचिकाकर्ताओं की नियत और जनहित याचिकाओं की परंपरा और उसके उद्देश्य पर जिस तरह से याची वकीलों के संदर्भ में जो सवाल उठाएं हैं, वो सही नहीं हैं.
जिस तरह से न्यायालय की मंशा पर शंका नहीं की जा सकती, वैसे ही जब तक कोई ठोस सबूत ना हो, तब तक याचिकाकर्ता और उसके वकील की मंशा पर शंका जाहिर करना सही परंपरा नहीं है. इस तरह की बेजा टिप्पणी कई शंकाओं और विवादों को जन्म दे सकती है.
न्यायालय का कहना है कि वर्षों से, बड़ी बेशर्मी से जनहित याचिकाओं का निजी हित के लिए दुरुपयोग होता रहा है. कोर्ट यहीं नहीं रुकी, उन्होंने कहा कि एक तरफ जहां ऐसे लोग है, जो अपनी व्यक्तिगत प्रसिद्धि के लिए जनहित याचिकाएं दाखिल करते हैं, तो दूसरी तरफ ऐसे लोग भी हैं, जो व्यापारिक और राजनैतिक हित रखने वालों के उकसाने पर इन जनहित याचिकाओं को दाखिल करते हैं.
कोर्ट ने यहां तक ताकीद दे डाली कि अगर जनहित याचिकाओं का उपयोग इसी तरह से निर्बाध रूप से जारी रहा, तो इसका न्याय व्यवस्था की क्षमता पर गंभीर दुष्प्रभाव पड़ेगा. अदालत ने इस याचिका को अपना समय बर्बाद करने वाला और उन पर काम का बेवजह बोझ डालने वाला भी बताया.
जज लोया मामले में प्रशांत भूषण से इत्तेफाक नहीं रखने वाले नेता और कानूनविद भी जनहित याचिकाओं में उनकी तीन दशकों की सार्थक और निस्वार्थ भूमिका से इंकार नहीं कर सकते. और सब जानते है कि वो ना तो इन जनहित याचिकाओं में निजी हित रखते हैं और ना राजनैतिक और व्यापारिक. बल्कि, उनकी जनहित याचिकाओं से तो हमेशा से व्यापारिक और राजनैतिक हित रखने वालों को गहरी चोट पहुंची है, खासकर कांग्रेस को.
सेंटर फॉर पब्लिक इंट्रेस्ट लिटिगेशन के तहत वो मुक्ता और पन्ना आॅयल फील्ड को रिलायंस एवं एनरोंन को दिए जाने के खिलाफ वर्ष 1997 में ही दिल्ली हाईकोर्ट में जनहित याचिका लगा चुके थे. और अगर वो इसमें व्यापारिक और राजनैतिक हित रखते तो कांग्रेस को सत्ता से उखाड़ फेंकने वाले टूूजी मामले में वो सुप्रीम कोर्ट से सड़क तक लड़ाई नहीं लड़ते. जिसकी बदौलत आज भाजपा केंद्र में सत्ता में है.
इतना ही नहीं, हाल ही में टूजी मामले में ट्रायल कोर्ट से सारे आरोपी बरी होने पर भी कांग्रेस के खिलाफ वो जितना खुलकर बोले उतना तो भाजपा भी नहीं बोली. और अब उन्हीं प्रशांत भूषण को राजनैतिक इशारे पर जज लोया मामले को उठाने का आरोप लगाने वाली सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी तर्कसंगत प्रतीत नहीं होती. और ना ही कोर्ट ने यह बताया कि वो ऐसा किन तथ्यों के आधार पर कह रहे हैं.
इतना ही नहीं, प्रशांत भूषण ने 2010 में अपने पिता शांति भूषण के साथ हलफनामे पर सुप्रीम कोर्ट के आठ सबसे भ्रष्ट पूर्व मुख्य न्यायाधीशों के नाम बंद लिफाफे में सुप्रीम कोर्ट को सौंपे थे, तब भी उनके खिलाफ यह टिप्पणी नहीं हुई थी. उस बंद लिफाफे को खोलने की हिम्मत आज तक सुप्रीम कोर्ट का कोई भी मुख्य न्यायाधीश नहीं दिखा पाया.
प्रशांत भूषण ने अपने पिता शांति भूषण के साथ मिलकर 1990 में कमेटी फॉर जुडिशल अकाउंटेबिलिटी बनाई और वो कैंपेन फॉर जुडिशल अकाउंटेबिलिटी और जुडिशल रिफार्म के संजोयक हैं जो लगातार इस मुद्दे पर सरकार और न्यायपालिका पर सवाल उठाती रही है. और न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति से लेकर उसकी कार्यप्रणाली में पारदर्शिता लाने के लिए अभियान चलाए हुए हैं. हम थोड़े में यह कह सकते हैं कि पिछले 30 सालों के उनके कानूनी अभियान के चलते वो व्यापारिक और राजनैतिक हित रखने वाली ताकतों के आंख की किरकिरी बने हुए हैं.
वैसे भी, जनहित में राजनीति करना और सार्वजानिक राजनैतिक मुद्दों पर जरूरत पड़ने पर जनहित याचिका के माध्यम से न्यायालय के दरवाजे पर दस्तक देते रहना जरूरी है, यह ना तो सविंधान में प्रतिबंधित है और ना ही न्याय के प्राकृतिक सिद्धांत के खिलाफ.
मैं खुद एक राजनैतिक पार्टी- समाजवादी जन परिषद से जुड़ा हूं. मैंने मध्य प्रदेश में बैतूल, हरदा और खंडवा जिले के हमारे कार्यक्षेत्र में अनेक मुद्दों पर जनहित याचिका दायर कर सफलता हासिल की है. इसमें से अनेक मामलों में स्थापित सत्ताधारी पार्टी से जुड़े नेताओं को राजनैतिक-आर्थिक नुकसान हुआ है, लेकिन तब भी ना तो कभी कोर्ट ने और ना ही हमारे विरोधियों ने हम पर ऐसे आरोप लगाए.
यहां तक कि 2007 में बैतूल जिले में पारधी समुदाय की बस्ती जलाए जाने, हत्या और बलात्कार के मामले में सीबीआई जांच की मांग को लेकर जो जनहित याचिका मैंने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में दाखिल की थी, उसमें कांग्रेस, भाजपा और सपा सहित सभी पार्टी के नेताओं और तत्कालीन कलेक्टर, एसपी तक पर हिंसा में शामिल होने के आरोप थे. इस मामले में अंतत: सीबीआई जांच के आदेश हुए.
इस मामले में भी ना तो कोर्ट ने और न ही सरकार ने यह सवाल उठाया कि पीड़ित परिवार क्यों आगे नहीं आ रहा है, या मेरी इन विरोधी पार्टी के नेताओं से जो राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता है, उसके चलते मैंने उक्त याचिका दाखिल की थी.
इतना ही नहीं जनहित में मुद्दे उठाने वाले राजनैतिक, सामाजिक कार्यकर्त्ता और आदिवासियों पर पुलिस द्वारा झूठे केस लगाने जाने के मामले में हमारी याचिका-श्रमिक आदिवासी संगठन बनाम मध्य प्रदेश सरकार- में तो सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला देते हुए इन मामलों को देखने के लिए तीन जिलों में स्थाई शिकायत निवारण प्राधिकरण का गठन कर दिया. इस मामले में भी प्रशांत भूषण ही हमारे वकील थे.
अंत में सिर्फ इतना ही कहना चाहूंगा, जहां इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि जनहित याचिकाओं का दुरुपयोग होता है, जैसा हर अच्छी बात के दो पहलू होते हैं. वहां इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि पिछले दो-तीन दशकों में विधायिका और कार्यपालिका की निष्क्रियता के चलते जनहित याचिका से ही आम आदमी और विशेषकर दलित, आदिवासी, महिलाओं को थोड़ी बहुत राहत मिली है.
और विशेषकर आज जब सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता पर उसके ही अपने ही चार वरिष्ठतम जज सवाल लगा चुके है. संसद में कोई काम नहीं हो रहा है, लेकिन बलात्कारियों को बचाने सरेआम सरकार और सत्ताधारी पार्टी के नेतागण सड़क पर आ रहे है. चुनाव आयोग से लेकर आरबीआई की स्वतंत्रता खतरे में है. तब अगर जनहित में अपना जीवन लगा चुके वकीलों और जनहित याचिकाओं के अस्तित्व पर देश की सर्वोच्च अदालत सवालिया निशान लगाएगी, तो देश की आमजन कहां जाएगी.
क्योंकि, जनहित याचिका के इतर दलित, आदिवासी, महिलाओं, बच्चों और आमजनता के लिए सुप्रीम कोर्ट दूर के ढोल भर है. इतना ही नहीं, फर्जी मुठभेड़ से लेकर सारे चुनाव सुधार जनहित याचिकाओं के जरिए ही हुए हैं. हम जैसे अनेक जनसंगठनों और कार्यकर्ताओं के लिए जनहित याचिका लोकतंत्र में सांस लेने की जगह पाने और लोगों का विश्वास बनाए रखने का एक साधन है.
जनहित याचिकाएं और भूषण, दवे, कोलिन, कामिनी जायसवाल, इंदिरा जयसिंह जैसे समर्पित वकील का समूह उन्हें यह आश्वासन देता है कि यह अदालत उनके लिए भी है. वर्ना, वहां उनके जैसे वकील एक-एक सुनवाई के दस लाख लेते हों वहां आम व्यक्ति या जनसंगठन कैसे अपनी बात सुप्रीम कोर्ट तक पहुचाएंगें?
यह एक तरह से सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे उनके लिए बंद करने जैसा होगा. इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी देशभर में हाईकोर्ट के लिए भी एक गलत नजीर बनेगी और कल वो जनहित याचिकाओं पर ऐसे सवाल उठा सकती है.
(लेखक समाजवादी जन परिषद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं और मध्य प्रदेश के बैतूल शहर में रहते हैं.)