भाजपा अगर कर्नाटक हारी तो क्या नवंबर में ही आम चुनाव हो जाएंगे?

कर्नाटक की बाज़ी अगर हाथ से छूटी तो इससे पैदा माहौल से राजस्थान व मध्यप्रदेश जैसे मुश्किल राज्यों में भाजपा के लिए अपनी सरकारें बचा पाना मुश्किल होगा. अगर राज्यों में सरकारें गिरने का सिलसिला आगे बढ़ा तो 2019 में मोदी अकेले दम पर हालात बेकाबू होने से नहीं बचा पाएंगे.

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Bengaluru: Prime Minister Narendra Modi being presented a memento by BJP state leaders during the completion of the Parivartan Yatra rally in Bengaluru on Sunday. BJP State Unit President B. S. Yeddyurappa is also seen. PTI Photo by Shailendra Bhojak(PTI2_4_2018_000172B)
Bengaluru: Prime Minister Narendra Modi being presented a memento by BJP state leaders during the completion of the Parivartan Yatra rally in Bengaluru on Sunday. BJP State Unit President B. S. Yeddyurappa is also seen. PTI Photo by Shailendra Bhojak(PTI2_4_2018_000172B)

कर्नाटक की बाज़ी अगर हाथ से छूटी तो इससे पैदा माहौल से राजस्थान व मध्यप्रदेश जैसे मुश्किल राज्यों में भाजपा के लिए अपनी सरकारें बचा पाना मुश्किल होगा. अगर राज्यों में सरकारें गिरने का सिलसिला आगे बढ़ा तो 2019 में मोदी अकेले दम पर हालात बेकाबू होने से नहीं बचा पाएंगे.

Bengaluru: Prime Minister Narendra Modi being presented a memento by BJP state leaders during the completion of the Parivartan Yatra rally in Bengaluru on Sunday. BJP State Unit President B. S. Yeddyurappa is also seen. PTI Photo by Shailendra Bhojak(PTI2_4_2018_000172B)
बेंगलुरु में एक रैली के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कर्नाटक भाजपा अध्यक्ष वीएस येदियुरप्पा व अन्य नेता. (फाइल फोटो: पीटीआई)

राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस की सक्रियता और ताबड़तोड़ तैयारियों से कमजोर और अलग-थलग पड़ी पार्टी मुख्य धारा में आने की जीतोड़ कोशिशों में है. उसे हैदराबाद से सुकून देने वाली खबर मिली है क्योंकि सीपीएम की हाल में संपन्न पार्टी की सर्वोच्च नीति निर्धारण करने वाली पार्टी की कांग्रेस ने उसे एकदम अछूत मानने की अपनी छह माह पुरानी घोषणा पर पुनर्विचार कर उसे कुछ राहत दे डाली.

दूसरी ओर सीताराम येचुरी के पार्टी महासचिव बनकर लौटने से सीपीएम के चरमपंथियों की लाईन कमजोर पड़ी है. कांग्रेस सुकून मना रही होगी कि विपक्षी बेड़े में सीपीएम की भागीदारी एक बड़ी खाई को पाटने में मदद भी करेगी और एकता का कारवां आगे बढ़ाने में येचुरी की सक्रिय भूमिका विपक्ष की भूमिका को ताकतवर बनाएगी.

संसद में पिछले माह अविश्वास प्रस्ताव की मांग ठुकराए जाने की भारी जद्दोजहद के बाद सरकार के साथ पैदा तनातनी से लेकर अब तक देश के प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग तक विपक्षी पार्टियों के तरकश में कई तरह के तीर सज चुके हैं.

राहुल गांधी और उनकी पार्टी 29 अप्रैल को रामलीला मैदान की रैली के जरिए कर्नाटक चुनाव प्रचार के बीच पार्टी के लिए माहौल बनाने और उत्तर भारतीय राज्यों में कांग्रेस कार्यकर्ताओं को मैदान में उतारना चाहते हैं. रामलीला मैदान में मुश्किल से एक लाख लोगों को भरने की जगह है लेकिन इस रैली की तैयारियों में जुटे लोगों का मानना है कि उनके लिए भीड़ जुटाने से ज्यादा अहम यह है कि 2019 के इंतजार के पहले ही पार्टी को पूरी तरह चुनावी मोड में ला खड़ा करना है.

मोदी सरकार के कामकाज पर टकटकी निगाह रखने वाले कई लोग मानते हैं कि कई मोर्चों पर मोदी सरकार इच्छित नतीजे नहीं दे सकी. आर्थिक मोर्चे व बैंकिंग क्षेत्र में डांवाडोल जनता का सब्र इस चुनावी साल में टूटना और भी बड़ी मुश्किलें खड़ी करने जा रहा है.

भाजपा व संघ के आंतरिक हलकों में इस बात को गहराई से महसूस किया जा रहा है कि 2014 के मुकाबले मोदी का जादू उतार पर है. कर्नाटक की बाजी अगर हाथ से छूटी तो इससे पैदा माहौल से राजस्थान व मध्यप्रदेश जैसे मुश्किल राज्यों में भाजपा के लिए अपनी सरकारें बचा पाना मुश्किल होगा.

इससे कांग्रेस मुक्त भारत के बजाय भाजपा के हाथ से राज्यों में सरकारें गिरने का सिलसिला आगे बढ़ा तो 2019 की शुरुआत आते-आते मोदी को अकेले दम पर हालात बेकाबू होने से नहीं बचा पाएंगे.

सबसे बड़े राज्य यूपी और बिहार में भाजपा को पिछले लोकसभा चुनावों का अपना संख्याबल बरकरार रखना अभी से मुश्किल है क्योंकि विपक्षी राजनीति के समीकरण पिछली बार के मुकाबले इस बार भाजपा के लिए कोई आसान खेल नहीं रहा. दलितों, अल्पसंख्यकों के अलावा शहरी गरीबी और प्रचंड बेरोजगारी और कई सामाजिक समूहों में असंतोष का खामियाजा भाजपा पर भारी पड़ेगा.

मोदी सरकार के लिए कर्नाटक चुनाव नतीजों का कनेक्शन सीधे तौर पर पश्चिम व मध्य भारत के उक्त तीनों ही प्रदेशों से है. कुछ आगे बढ़े तो इन तीनों प्रदेशों में अगर सत्ता विरोधी रुझान की आंधी ने भाजपा को सरकारें गंवानी पड़ीं तो 2019 आते ही संसदीय चुनावों की कठिन बेला पार करना मोदी और उनकी पार्टी के लिए कांटों भरी खाई बन सकती है.

माना जा रहा है कि ऐसी स्थितियों का सामना करने के पहले मोदी कोई बड़ा शॉर्टकट विकल्प तलाशने को ज्यादा तवज्जो देंगे. ऐसे हालात में वे अहम राज्यों को गंवाकर संसदीय चुनावों में जाने की घड़ी को हर हालत में टालना चाहेंगे. यह वह दांव होगा जिसके जरिए मोदी सरकार विधानसभा चुनावों के साथ लोकसभा के आम चुनाव देश में एक साथ चुनाव कराने की परिपाटी विकसित करने का बड़ा अवसर भी देगी.

Bengaluru: BJP supporters showing victory sign during the completion of Parivartan Yatra rally in Bengaluru on Sunday. PTI Photo by Shailendra Bhojak(PTI2_4_2018_000173B)
(फोटो: पीटीआई)

कांग्रेस के रणनीतिकार मानते हैं कि अगामी 15 मई को दिन में जिस घड़ी 224 सीटों वाली कर्नाटक विधानसभा के चुनाव नतीजे निकलेंगे उन्ही क्षणों मोदी यह भी तय कर सकते हैं कि 8- 9 माह बाद निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार लोकसभा आम चुनावों का इंतजार किया जाए या नवंबर में ही मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के साथ ही लोकसभा के आम चुनावों का कार्यक्रम घोषित होगा.

ज्ञात रहे कि कांग्रेस ने इन तीनों ही प्रदेशों में विधानसभा चुनावों के साथ ही लोकसभा चुनावों की समानांतर तैयारियों का खाका खींचते हुए सीटवार विश्लेषण की मशीनरी को पहले ही दुरुस्त कर दिया है. कांग्रेस को डर यह है कि इन तीनों ही राज्यों में चुनावी रणनीति की धार को गुजरात चुनाव की तर्ज पर मोदी बनाम राहुल बनाकर भाजपा की शतरंजी चालें कांग्रेस की जीत को आखिरी क्षणों में पलीता लगा सकती हैं. कांग्रेस ने इन तीनों ही प्रदेशों में विधानसभा व लोकसभा की उन सीटों को पहले से ही चिन्हित कर लिया है जहां उसकी हार का अंतर एकदम मामूली था.

मार्च 17-18 को दिल्ली में राहुल गांधी की ताजपोशी के लिए आयोजित कांग्रेस अधिवेशन के बाद रामलीला मैदान की रैली एक तरह से संसद की लड़ाई को एक सधे हुए अंदाज में जनता के बीच ले जाने की मुहिम को आगे बढ़ाना है. इसलिए जो अधिवेशन में तय हुआ उसे मोटे तौर पर कार्यकर्ताओं को चुनाव के लिए मुद्दे थमाने का श्रीगणेश अभी से किया जा रहा है.

भाजपा को बखूबी पता है कि कांग्रेस ही विपक्ष के बीच एक केंद्रीय धुरी बनकर आगे बढ़ेगी. अमेठी, रायबरेली में राहुल और सोनिया की जीत को नाकाम बनाना इस वक्त भाजपा की सबसे बड़ी कोशिश है. वे जानते हैं कि विपक्ष के इन दो स्टार प्रचारकों को अगर उनकी सीटों पर ही थाम लिया तो इससे देश में चुनाव प्रचार का वक्त निकालना उनके लिए मुश्किल होगा.

भाजपा में भीतर से बाहर तक बेचैनी इसलिए है कि पिछले दो माह से वक्त मोदी सरकार का साथ नहीं दे रहा. उनका हर दांव गले पड़ रहा है. भाजपा नेताओं की उल्टी सीधी बयानबाजियां मोदी की मुश्किलें और बढ़ा रही हैं. मोदी ने पार्टी के ऐसे बयानबाजों को आगाह तो किया है लेकिन अब तक बहुत देर हो चुकी.

कठुआ और उन्नाव में नाबालिग लड़कियों के बलात्कार के हादसों ने भाजपा को ही कठघरे में खड़ा किया है. संवैधानिक संस्थाओं में आए दिन दखलदांजी और उनकी पहचान और अस्मिता को गिराने के मामलों में मोदी सरकार पर कई बदनुमा दाग लगे हैं.

आगामी 29 अप्रैल को दिल्ली के रामलीला मैदान में कांग्रेस की ’संविधान बचाओ-देश बचाओ’ रैली की तैयारियां इस तरह से परवान चढ़ती दिख रही हैं मानों लोकसभा के आम चुनावों का डंका बजने वाला है. दिल्ली में गुरुद्वारा रकाबगंज में कांग्रेस के वॉररूम में सक्रियताएं बढ़ रही हैं.

राज्यवार संगठन की तैयारियों का खाका इस तरह परवान चढ़ रहा है कि अगर कर्नाटक चुनाव नतीजों के बाद देश में बाकी राज्यों के साथ ही लोकसभा भंग कर नए चुनावों की नौबत आ जाए तो चुनावी साल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समक्ष यह चुनौती एक बड़ी चट्टान बनकर खड़ी है कि कैसे सरकार के चार साल के कार्यकाल में सार्थक नतीजे न दे पाने के कारण उन्हें आम जनता का कामकाज का हिसाब देना होगा.

मोदी सरकार को असंतोष और वादाखिलाफी का सबसे ज्यादा गुस्सा देश भर के किसानों की ओर से झेलना पड़ा है. किसानों को उपज का डेढ़ गुना दाम देने, उनकी आमदनी दोगुनी करने और कर्जमाफी का वायदा धड़ाम से जमीन में गिरा है.

किसानों की हालत सुधारने के लिए एमएस स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट धूल फांक रही है और फसल की लागत का डेढ़ गुना तो दूर उसका आधा भी नहीं नसीब नहीं हुआ. कर्ज का बोझ और आत्महत्याओं का सिलसिला समान दर से आगे बढ़ रहा है.

यूपी में पिछले चुनावों के पहले कर्जमाफी तब मजाक बन गई जब 25-50 और मात्र 500 रुपये तक लोगों को कर्ज माफ कर उनके घावों पर नमक छिड़का गया. छोटी जोत के किसानों का ही काम बिना कर्ज लिए चलता नहीं है और लागत पाने के भी लाले जब किसानों को पड़ते हैं तो वे कर्ज की अदायगी के लिए और भी नए कर्जों के बोझ से दबते चले जाना उनकी नियति बन जाती है.

किसानों की दुश्वारियां यहीं खत्म नहीं होती. यूपी समेत कुछ प्रदेशों मे चीनी मिलें जब किसानों से गन्ना खरीद करती हैं तो सालों-साल उनका बकाया ही नहीं देती. गन्ना किसानों की मांग है कि जिस दिन सरकार बकाए पर ब्याज का प्रावधान करवा देगी तो मिल प्रबंधकों के लिए किसानों का बकाया रोकना महंगा सौदा होगा. सरकारें नहीं मान रहीं सो किसान अदालत में जाने को विवश हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)