पेसा क़ानून पारित होने के दो दशक बाद भी झारखंड में यह एक सपना मात्र है. राज्य के 24 में से 13 ज़िले पूर्ण रूप से और तीन ज़िलों का कुछ भाग अनुसूचित क्षेत्र है, लेकिन अभी तक राज्य में पेसा की नियमावली तक नहीं बनाई गई है.
लंबे जन संघर्ष के बाद 1996 में देश में पंचायत के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, जिसे पेसा के नाम से जाना जाता है, लागू हुआ.
इस क़ानून के अनुसार, पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में पंचायती राज व्यवस्था को आदिवासी समुदायों के गांव, समाज, पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था और संस्कृति के अनुरूप लागू किया जाना है. पांचवीं अनुसूची आदिवासियों की स्वशासन प्रणाली के संरक्षण और उनके सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक विकास के लिए संवैधानिक ढांचा देती है.
पेसा स्पष्ट रूप से कहता है कि आदिवासी समुदाय की समझ एवं परंपरा के अनुसार ‘गांव’ को परिभाषित किया जाना है. गांव की ग्राम सभा, जिसमें गांव के सभी मतदाता सदस्य होंगे, ही सामुदायिक संपत्तियों जैसे जल, जंगल, ज़मीन आदि की मालिक होगी. गांव में किसी प्रकार का भी विकास का कार्य ग्राम सभा की अनुमति से ही किया जाएगा. ग्राम सभा का निर्णय और राय सर्वोच्च माने जाएंगे.
क़ानून पारित होने के दो दशक बाद भी झारखंड में पेसा एक सपना मात्र है. राज्य के 24 में से 13 ज़िले पूर्ण रूप से और तीन ज़िलों का कुछ भाग अनुसूचित क्षेत्र है, लेकिन अभी तक झारखंड के लिए पेसा की नियमावली तक नहीं बनाई गई है.
राज्य में पंचायती राज की स्थिति भी अच्छी नहीं है. 2010 में 32 सालों बाद पंचायती राज सरकारें (ग्राम पंचायत, पंचायत समिति और ज़िला परिषद) निर्वाचित हुईं. लेकिन, लगभग एक दशक बाद भी वे सत्ता के विकेंद्रीकरण के इंतज़ार में हैं.
2014 में राज्य के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने अपने जन-घोषणा पत्र में वादा किया था कि उसकी सरकार परंपरागत स्वशासन व्यवस्था को सशक्त करेगी एवं पंचायती राज संस्थाओं को पर्याप्त वित्तीय और प्रशासनिक अधिकार देगी.
लेकिन, मुख्यमंत्री रघुवर दास के नेतृत्व में बनी भाजपा सरकार ने इस दावे के विपरीत ऐसे कई निर्णय लिए हैं जिनसे दोनों स्वशासन व्यवस्थाएं निरर्थक होने की कगार पर हैं.
हाल ही में राज्य सरकार ने हर अनुसूचित गांव में आदिवासी विकास समिति और गैर-अनुसूचित गांव में ग्राम विकास समिति के गठन का निर्णय लिया है. गांव में परिवारों की संख्या के अनुसार इन समितियों में 9 या 11 सदस्य रहेंगे. 18 से 35 वर्ष के युवा इन समितियों के सचिव होंगे.
गांव के पारंपरिक प्रधान (मुंडा, माझी आदि) और ग्राम पंचायत मुखिया इन समितियों के विशेष आमंत्रित सदस्य होंगे. इन समितियों का गठन पंचायत सचिव द्वारा बुलाई गई गांव की एक विशेष ‘आम सभा’ में किया जाना है. हालांकि, संकल्प में ‘आम सभा’ को परिभाषित नहीं किया गया है. चयन प्रक्रिया के विवरण से ऐसा प्रतीत होता है कि यह गांव के लोगों की एक बैठक मात्र है जिसका किसी प्रकार का कोरम नहीं है. ये समितियां पांच लाख रुपये तक की योजनाओं जैसे कुआं, पोखर आदि का चयन और कार्यान्वयन करेंगी.
यह नीति पेसा क़ानून और झारखंड पंचायती राज अधिनियम का सीधा उल्लंघन है. पेसा के अनुसार, योजनाओं का चयन ग्राम सभा को ही करना है. किसी भी प्रकार के सरकारी कार्यक्रम की राशि का नियंत्रण भी ग्राम पंचायत और ग्राम सभा के अधीन होना है.
यह भी गौर करने की बात है कि झारखंड पंचायती राज अधिनियम में गांव स्तर पर ग्राम सभा, न कि ‘आम सभा’, का प्रावधान है. गैर-अनुसूचित गावों में भी योजनाओं का चयन ग्राम सभा को करना है एवं ग्रामीण विकास से संबंधित योजनाओं का कार्यान्वयन ग्राम पंचायतों के हवाले है.
मुख्यमंत्री की मंशा है कि मनरेगा और 14वें वित्त आयोग की अनुशंसा अनुसार मिलने वाली राशि का कार्यान्वयन भी इन समितियों द्वारा हो. मनरेगा अधिनियम के अनुसार कम-से-कम 50 प्रतिशत राशि ग्राम पंचायतों के माध्यम से खर्च होनी है. 14वें वित्त आयोग की अनुशंसा अनुसार मिलने वाली संपूर्ण राशि का कार्यान्वयन ग्राम पंचायतों को करना है.
लेकिन, मुख्यमंत्री के दबाव में ग्रामीण विकास विभाग मनरेगा अधिनियम और 14वें वित्त आयोग की संवैधानिक अनुशंसा में संशोधन तक की बात सोच रहा है.
एक तरफ मुख्यमंत्री यह ढिंढोरा पीट रहे हैं कि अब योजनाओं का कार्यान्वयन ग्रामीणों द्वारा ही होगा, न कि अधिकारियों और बिचौलियों द्वारा. वहीं, दूसरी ओर सरकार ने प्रखंड विकास पदाधिकारी को इन समितियों का वित्तीय और प्रशासनिक नियंत्रण दिया है.
पहले भी झारखंड में कई सरकारी परियोजनाओं, जैसे- झारखंड आदिवासी विकास परियोजना, आदिवासी उपयोजना अंतर्गत मेसो परियोजना आदि, का कार्यान्वयन संबंधित गांवों में कार्यक्रम के लिए चुनी गई समितियों द्वारा किया गया है. यह अक्सर देखा गया है कि गांव के दो-तीन दबंगों को समिति का सदस्य बनाया जाता है जो सारा काम खुद ठेकेदार के रूप में करवाते हैं. ऐसी परिस्थिति में ग्राम सभाओं की भागीदारी न के बराबर होती है.
यह सोचने की ज़रूरत है कि सरकार चुनाव के एक साल पहले राज्य के सब गावों में ऐसी समितियां क्यों बना रही है?
हाल ही में मुख्यमंत्री ने भाजपा के प्रमंडलीय सम्मलेन में कार्यकर्ताओं को निर्देश दिया कि वे अपने गांवों में इन समितियों का गठन करवाएं. उन्होंने यह भी आश्वासन दिया कि भाजपा के कार्यकर्ताओं द्वारा गठित समितियों को प्रशासन मान्यता देगा. इसलिए, इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता कि अब प्रशासन की मदद से हर गांव में कुछ ठेकेदार बनेंगे, जो भाजपा को चुनाव जीतने में मदद करेंगे.
इस तथ्य से भी किनारा नहीं किया जा सकता है कि इस नीति से ग्राम सभाएं कमज़ोर हो सकती हैं. पिछले दो वर्षों में झारखंड सरकार ने भूमि अधिग्रहण के लिए ग्राम सभाओं की सहमति की अनिवार्यता को कमज़ोर करने के लिए सीएनटी-एसपीटी अधिनियम और भूमि अधिग्रहण क़ानून में संशोधन करने की कई कोशिशें की हैं. ग्राम सभाओं व ग्रामीणों द्वारा इन प्रयासों का कड़ा विरोध हुआ है.
इसलिए, अगर आदिवासियों की ज़मीन उनकी इच्छा के विरुद्ध अधिग्रहित करनी है, तो कमज़ोर ग्राम सभाएं सरकार के लिए मददगार साबित होंगी.
ग्राम पंचायत मुखिया, पारंपरिक प्रधान एवं जन संगठन सरकार की आदिवासी/ग्राम विकास समिति की नीति का विरोध करने के लिए धरना, ज्ञापन, प्रेस वार्ता आदि माध्यमों का सहारा ले रहे हैं, लेकिन सरकार अपनी ही धुन में ही चल रही है.
यह राज्य सरकार की स्वशासन-विरोधी नीतियों का एक उदहारण मात्र है. 2016 में प्रत्येक ग्राम पंचायत के चार 18 से 35 वर्षीय निवासियों को ‘पंचायत स्वयंसेवक’ के रूप में नियुक्त किया गया था. हालांकि, सरकार यह दावा करती है कि ‘स्वयंसेवकों’ ने ग्राम पंचायतों को सशक्त किया है, लेकिन ज़मीनी हकीकत कुछ और बताती है. अधिकांश ‘स्वयंसेवक’ प्रखंड विकास पदाधिकारी के आदेशों पर काम करते हैं, न कि पंचायतों के अधीन होकर. अब प्रशासन इनसे ही योजनाओं का चयन आदि करवा रही है, जिससे ग्राम सभाओं एवं जनता द्वारा निर्वाचित वार्ड सदस्यों की भूमिका न के बराबर हो गई है.
सरकारी सूत्रों के अनुसार, मुख्यमंत्री कार्यालय ने खुद स्वयंसेवकों की सूचि अनुमोदित की थी. सरकार की विशेष शाखा ने आवेदकों द्वारा दी गई जानकारी के सत्यापन के लिए संबंधित मुखियाओं से संपर्क किया था. सत्यापन के साथ-साथ उनसे यह भी पूछा था कि क्या आवेदक किसी राजनीतिक दल से जुड़े हैं? कई मुखियाओं का कहना है कि विपक्षी दलों से जुड़े आवेदकों की नियुक्ति नहीं की गई.
भाजपा शुरुआती दिनों से ही प्रशासनिक प्रणाली को पार्टी के विस्तार के लिए प्रयोग करने की कोशिश कर रही है. इसका एक उम्दा उदाहरण है केंद्र सरकार के बीस सूत्री कार्यक्रम की निगरानी के लिए प्रखंड, ज़िला और राज्य स्तरों पर गठित निगरानी समितियां.
1975 से चले आ रहे बीस सूत्री कार्यक्रम में केंद्र सरकार सामाजिक-आर्थिक विकास पर केंद्रित 20 मानकों (गरीबी उन्मूलन, खाद्य सुरक्षा आदि) के आधार पर विभिन्न योजनाओं का मूल्यांकन व निगरानी करती है. केंद्र सरकार की निगरानी समिति के गठन से संबंधित मार्गदर्शिका के अनुसार राज्य, ज़िला और प्रखंड स्तरों पर गठित समितियों में जन प्रतिनिधि (सांसद, विधायक, पंचायती राज प्रतिनिधि), गैर-सरकारी संस्थाओं के प्रतिनधि और पदाधिकारी सदस्य होने हैं.
उदहारण के लिए, प्रखंड स्तर की समिति क्षेत्र के सबसे वरिष्ठ विधायक की अध्यक्षता में गठित होनी है जिसमें सभी स्थानीय सांसद, विधायक, पंचायत समिति प्रमुख, गैर-सरकारी संस्थाओं के प्रतिनिधि और स्थानीय पदाधिकारी सदस्य होंगे.
2016 में झारखंड सरकार ने बीस सूत्री समितियों का गठन किया. प्रखंड समिति की अध्यक्षता और ज़िला समिति की उपाध्यक्षता भाजपा के स्थानीय अध्यक्षों को दे दी गई.
साथ ही, बड़े पैमाने पर पार्टी के कार्यकर्ताओं को समितियों का सदस्य बनाया गया. यहां तक कि राज्य स्तर से ही योजना-सह-वित्त विभाग ने स्थानीय प्रशासन को सभी ज़िलों और प्रखंडों की समितियों की सूची इनके सदस्यों के विवरण के साथ भेज दी थी. इन समितियों द्वारा ग्रामीण विकास की विभिन्न योजनाओं के लाभुक चयन एवं कार्यान्वयन में हस्तक्षेप की खबरें भी सुनने को मिलती हैं.
यह गौर करने की ज़रूरत है कि प्रखंड स्तर पर ग्रामीणों द्वारा निर्वाचित सरकार पंचायत समिति है जिसके अधीन प्रखंड प्रशासन को काम करना है. लेकिन, प्रशासनिक पदाधिकारियों की पंचायत समिति के प्रति कोई जवाबदेही नहीं दिखती है. सरकार द्वारा इस ओर किसी प्रकार की पहल भी नहीं की गई है.
राज्य सरकार ने झारखंड की स्वशासन प्रणाली के मूल मुद्दों, जैसे पंचायती राज अधिनियम और पेसा में अंतर्विरोध को हल करना, पेसा नियमावली बनाना, पंचायती राज सरकारों को संवैधानिक ढांचे के अनुसार विभिन्न विभागों का वित्तीय व प्रशासनिक नियंत्रण हस्तांतरित करना, राज्य वित्त आयोग का गठन करना आदि, पर किसी प्रकार की पहल नहीं की है.
रघुवर दास सरकार की ऐसी नीतियां और रवैया शायद किसी से छुपा नहीं है. सवाल यह है कि क्या 2019 के चुनाव में भाजपा को सरकारी अमले की मदद से हुए विस्तार से फायदा मिलेगा? या फिर उसे लोगों की स्वशासन प्रणाली पर लगातार वार करने के लिए जवाब मिलेगा?
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और झारखंड में रहते हैं.)