अगर हम आंकड़ों का विश्लेषण करें तो कर्नाटक के संदर्भ में यह कहना गलत होगा कि सिद्दारमैया की जनहितकारी योजनाओं को लेकर लोगों ने सकारात्मक वोट नहीं दिया.
15 मई की दोपहर को कर्नाटक चुनाव का परिणाम लगभग साफ हो चुका था. सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस की पराजय हो चुकी थी और भारतीय जनता पार्टी बहुमत के करीब पहुंच चुकी थी.
उसी दौरान (उस समय तक भाजपा 110 सीटों पर आगे चल रही थी) एक मीडिया के साथी ने मुझे फोन करके पूछा-कर्नाटक की सिद्धारमैया सरकार द्वारा चलाई गई जनहितकारी योजना (जैसा कि ‘अन्ना भाग्य’ आदि) जिसकी खूब चर्चा हो रही थी, क्या वो काम नहीं आईं?
क्या सिद्दारमैया के सामाजिक समीकरण अहिंदा (दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक) के लोगों ने कांग्रेस को वोट नहीं दिया?
चुनावी राजनीति में किसी सरकार के कामकाज का आकलन चुनाव में उस सरकार (पार्टी) के प्रदर्शन पर ही निर्भर करता है और ये होना भी चाहिए लेकिन कई बार हम जीतने वालों के लिए कसीदे पढ़ देते हैं और हारने वालों के हर निर्णय में दोष ढूंढने लगते हैं.
मीडिया के उस साथी ने सवाल में इस बात को भी जोड़ा था कि कैसे राजस्थान में अशोक गहलोत के नेतृत्व वाली सरकार कई जनहितकारी योजनायें लागू करने के बावजूद 2013 में विधानसभा चुनाव हार गई थी. उनके सवाल के पीछे का मूल उद्देश्य यह रहा होगा कि क्या किसी सरकार द्वारा चलाई जा रही जनहितकारी योजनायें किसी पार्टी या सरकार को चुनाव में वोट नहीं दिला सकती हैं?
इस सवाल का बृहद जबाब ढूंढने के लिए एक ठोस रिसर्च की जरूरत है लेकिन कर्नाटक के संदर्भ में ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि सरकार द्वारा चलाई गई जनहितकारी योजनाओं ने लोगों को प्रभावित नहीं किया. मोटे तौर पर कर्नाटक चुनाव का परिणाम यह इशारा करता है कि लोगों ने कांग्रेस की सरकार को रिजेक्ट कर दिया लेकिन जब इसी चुनाव का गहराई से क्षेत्र विशेष के आधार पर अध्ययन करे तो हम देख सकते हैं कि सरकार के जनहितकारी योजनाओं को लोगों ने अपना समर्थन दिया है. इसे हम कांग्रेस पार्टी को मिले वोट के आधार पर समझ सकते हैं.
कांग्रेस पार्टी सीटों के मामले में दूसरे स्थान (78 सीट) पर आई लेकिन वोट के मामले में उसे पहले स्थान पर रही भाजपा (104 सीट) से दो प्रतिशत ज्यादा वोट मिले. कांग्रेस को न सिर्फ इस बार भाजपा की तुलना में ज्यादा वोट मिले हैं बल्कि पिछले तीन विधानसभा चुनाव से कांग्रेस के वोट में बढ़ोतरी ही हो रही है (ग्राफ 1) और इस बार हारने के वावजूद पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले कांग्रेस के मत प्रतिशत में बढ़ोतरी हुई है.
अमूमन ऐसा नहीं देखा गया है जब कोई सत्तारूढ़ पार्टी की करारी हार के वाबजूद उसके वोट में इजाफा हो जाये. कर्नाटक में ही 1985 से किसी भी सत्तारूढ़ पार्टी को लगातार दोबारा सत्ता की प्राप्ति नहीं हुई है और हर बार सत्तारूढ़ पार्टी को लोगों की नाराजगी का सामना करना पड़ा.
फलतः उसकी सीटें और वोट प्रतिशत दोनों में गिरावट हुई (सारणी 1) लेकिन पहली बार ऐसा हुआ है कि सत्तारूढ़ पार्टी की वोट पिछली बार के मुकाबले बढ़ गया है. (सारणी1).
ग्राफ 1 और ग्राफ 2 को देखने से साफ प्रतीत होता है कि पिछले कुछ चुनावों से हार-जीत के वाबजूद कांग्रेस के वोट आधार में कोइ गिरावट नहीं आया है, बल्कि पिछले तीन चुनावों में कांग्रेस का वोट पिछले चुनाव की अपेक्षा बढ़ा ही है (सारणी1). इसके अलावा कांग्रेस का वोट न सिर्फ पूरे राज्य में बढ़ा है बल्कि इलाका (क्षेत्र) वार भी बढ़ा है और यह बढ़ोतरी न सिर्फ इस बार के चुनाव में रही है बल्कि ये बढ़ोतरी पिछले तीन चुनाव से लगातार हो रही है (सारणी1). जो इस बात का संकेत है कि कांग्रेस का सोशल समीकरण उसके साथ ही है.
हालांकि अहिंदा (जो कांग्रेस का सोशल वोट आधार रहा है) वोट का प्रसार पूरे राज्य में है लेकिन उत्तरी कर्नाटक और खासकर हैदराबाद-कर्नाटक इलाकों में अहिंदा ग्रुप के लोगों की संख्या ज्यादा है. हैदराबाद-कर्नाटक इलाके के विषय में एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि राज्य के अन्य इलाकों की तुलना में यह इलाका पिछड़ा हुआ माना जाता है.
ये यही इलाका है जहां खेती के लिए पानी की सुविधा कम है और राज्य में पिछले लगातार तीन-चार साल से आये सूखे का बड़ा असर इस इलाके में पड़ा है. इन सबके वावजूद कांग्रेस को हैदराबाद-कर्नाटक इलाके में पिछली बार की तुलना में सात प्रतिशत ज्यादा वोट मिले हैं (ग्राफ 2).
अपने फील्ड वर्क के दौरान हमें इस इलाके के ज्यादातर लोगों ने बातचीत के दौरान बताया कि कैसे सिद्दारमैया की ‘अन्ना भाग्य’ योजना उनके लिए एक वरदान साबित हुई है. वहीं, दूसरी ओर उसी इलाके के लिंगायत समुदाय के कुछ लोगों का कहना था कि इस योजना की वजह से उन्हें मजदूर मिलना मुश्किल हो जाता है. यानी कि यह कहना गलत होगा कि सिद्दारमैया की जनहितकारी योजनाओं को लेकर लोगों ने सकारात्मक वोट नहीं दिया.
अब सवाल यह है कि जब कांग्रेस का सोशल आधार (अहिंदा) उसके साथ बना रहा और जनहितकारी योजनाओं को भी लोगों ने सराहा फिर कांग्रेस की इस चुनाव में हार कैसे हो गई? आखिर कांग्रेस का वोट प्रतिशत बढ़ने के वाबजूद और भाजपा से ज्यादा वोट होने के वावजूद वो कम सीटों पर क्यों सिमट गई?
इस सवाल के कई जवाब हो सकते हैं लेकिन बड़ा कारण यह है कि कांग्रेस का वोट आधार कर्नाटक के सभी क्षेत्रो में लगभग सामान रूप से फैला हुआ है लेकिन इसके विपरीत भाजपा का राज्य के एक बड़े इलाके दक्षिणी कर्नाटक (ओल्ड मैसूर) में कोइ मजबूत वोट आधार नहीं है जबकि 5 अन्य इलाकों में उसे एक ठोस वोट मिला है जिसे नीचे ग्राफ 3 में देखा जा सकता है.
कांग्रेस का राज्य से सभी छह इलाकों की अपेक्षा भाजपा का राज्य के 5 इलाकों में मिले वोटों में हुए इजाफे की वजह से भाजपा का वोट-सीट अनुपात काफी अच्छा रहा जिसकी वजह से उसे कांग्रेस की अपेक्षा ज्यादा सीटें मिली है. कर्नाटक में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. 2004 और 2008 के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस को भाजपा की तुलना में कहीं ज्यादा वोट मिले थे लेकिन कांग्रेस को भाजपा की तुलना में कम सीटें मिली थी.
इसके अलावा एक बड़ी कमी जो कांग्रेस में रही वो यह कि वो अपना वोट आधार तो बचा ली लेकिन इस चुनाव को जीतने के लिए उसे 3-4 प्रतिशत अतिरिक्त वोट बढ़ाने की जरूरत थी क्योंकि 2013 में भाजपा और येदियुरप्पा के नेतृत्व वाली कर्नाटक जनता पक्ष (केजेपी) के अलग-अलग चुनाव लड़ने की वजह से लिंगायत वोट में बिखराव हुआ था और उससे कांग्रेस को फायदा हुआ.
लेकिन 2018 में भाजपा और केजेपी के एक साथ होने और बाद में बी श्रीरामुलु के भी साथ आ जाने से भाजपा का वोट आधार 2013 के मुकाबले एकजुट हो गया. सिद्दारमैया इस स्थिति को भांप गए थे और इसी वजह से उसकी सरकार ने लिंगायत समुदाय को अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा देने की सिफारिश की थी ताकि लिंगायत वोट में कुछ दरार आये और कांग्रेस को इसका कुछ फायदा मिले लेकिन वो इसको जमीन पर नहीं उतार पाए.
लिंगायत समुदाय के कई लोगों ने हमें बताया कि अभी स्पष्ट नहीं है कि अल्पसंख्यक का दर्जा मिलने से उन्हें क्या फायदा होगा? इसके ठीक उलट उन्हें ऐसा लगा कि यह सरकार लिंगायत समुदाय को वीरशैव और लिंगायत को बांटने की कोशिश कर रही है. जिसका परिणाम ये रहा कि कांग्रेस के प्रति उनका आकर्षण नहीं हुआ और कांग्रेस अपने वोट में जरूरी इजाफा नहीं कर पाई तथा चुनाव परिणाम उसके खिलाफ रही.
(लेखक अशोका यूनिवर्सिटी में रिसर्च फेलो हैं. इस लेख के लिए मोहित कुमार और सुदेश प्रकाश ने डाटा प्रसंस्करण में सहयोग दिया है.)