इस देश के विधायक समय और मौका मिलने पर सत्य बदलने की क्षमता रखते हैं.
इसी साल की 31 जनवरी को ब्रिटेन में एक मंत्री लॉर्ड माइकेल बैट्स ने सदन में कुछ मिनट लेट पहुंचने पर पद से इस्तीफा यह कहते हुए दिया कि सदन में प्रश्नकर्ता को जवाब देने के लिए वह निश्चित समय पर न पहुंच सके जो कि असभ्यता (डिसकर्टसी) है.
बहुत सदस्यों और मंत्रियों ने उन्हें रोकने का कोशिश की लेकिन वह नहीं डिगे. आज से लगभग 90 साल पहले ब्रिटेन की लेबर पार्टी के प्रधानमंत्री राम्सेम्क डोनाल्ड की सरकार को इस बात पर इस्तीफा देना पड़ा कि ‘कैम्पबेल घटना’ में राजनीतिक कारणों से एक व्यक्ति के ऊपर से आपराधिक मुकदमे उठाने का फैसला लिया था.
मुंडोकपनिषद का श्लोक 3:1:6 ‘सत्यम एव जयते न अनृतम’ (सत्य की ही जीत होती है, असत्य की नहीं) भारत का ध्येय वाक्य था, है और रहेगा. यानी अगर जब कर्नाटक चुनाव के परिणाम आये और भारतीय जनता पार्टी को सबसे ज्यादा 104 सीटें मिलीं तो वह सत्य था लेकिन जब परिणाम आने के कुछ ही घंटों में कांग्रेस ने 78 सीटें जीत कर भी जेडीएस के नेता जो मात्र 38 सीटें हासिल कर पाए, साझा सरकार में मुख्यमंत्री बनाने का फार्मूला बनाया तो सत्य अचानक उधर जाने लगा.
लेकिन संविधान के अभिरक्षक, परिरक्षक और संरक्षक ने रूप में राज्य के राज्यपाल वजूभाई वाला ने फिर सत्य पलट दिया और भाजपा के येद्दियुरप्पा को शक्ति-परीक्षण का समय देकर और अगले 24 घंटों में शपथ दिलवा कर सत्य की दिशा फिर मोड़ दी. देश की सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने शपथ तो संविधान में निष्ठा (न कि अभिरक्षण) की ली थी लेकिन त्रि-सदस्यीय बेंच ने इस काम में आगे बढ़ते हुए इस समय सीमा को घटा कर 15 दिन से 24 घंटे कर दिया.
शायद उन्हें भी लगा की इस देश के विधायक समय और मौका मिलने पर सत्य बदलने की क्षमता रखते हैं. और हुआ भी यही. सत्य ने एक बार फिर पल्टी मारी जब चारों तरफ सी घिरे एसी बसों में कांग्रेस और जेडीएस के विधायकों (कानून बनाने वाले) को बाज की तरह झपटने वाले भाजपा के सत्य के रक्षक नहीं छीन पाए.
और अंत में मुख्यमंत्री को फिर भी इस नए अयाचित सत्य का दामन थामते हुए बगैर अंतिम सत्य (फ्लोर टेस्ट) का सामना करते हुए पद छोड़ना पड़ा.
सोचने की बात यह है कि अगर सत्य की ही जीत होती है तो क्या सत्य भी काल-सापेक्ष या स्थिति-सापेक्ष होता है? 19 मई 2018 के दो बजे तक का सत्य कुछ और था और जब विधायक प्रलोभन में (शायद समयाभाव और स्थिति-विहीनता के कारण) नहीं आ पाए तो सत्य कुछ ही घंटों में बदल गया?
अगर कांग्रेस सर्वोच्च न्यायलय नहीं जाती तो आज सत्य का स्वरूप कुछ और होता या अगर भाजपा रिसोर्ट/होटलों का किला तोड़ने में सफल होती तो भी सत्य कुछ और होता या फिर अगर कांग्रेस 24 घंटे पहले जिस दल के खिलाफ तमाम आरोप लगते हुए जनता के वोट हासिल कर 78 सीटें लाई थी उसी के मुखिया के हाथ प्रदेश की बागडोर देने की हद तक न गई होती तो भी सत्य कुछ और होता.
और अंतिम, अगर भाजपा वाजपेयी की पार्टी होती और नैतिकता (यह भी सत्य स्थापित करने का एक टूल होता है जिसे हर कोई अपनी अनैतिकता को ढकने के लिए इस्तेमाल करता है) के आधार पर यह कहती कि जनता ने हमें पूर्ण बहुमत नहीं दिया है लिहाजा हम सरकार बनाने का दावा नहीं पेश करेंगे, तो सत्य कुछ और होता.
इस अंतिम विकल्प का मतलब यह नहीं कि भाजपा का सत्य (यहां पर सत्ता पाना) के प्रति की कोई आग्रह नहीं है बल्कि यह शुद्ध रणनीति होती कि इन्हें भी (कुमारस्वामी को ) राज्यपाल संविधान की रक्षा की जिम्मेदारी के तहत 15 दिन का समय दे और इस दौरान मिले समय को भाजपा के रणनीतिकार ‘सत्य की खोज’ में गुपचुप रूप से पूरी तल्लीनता के साथ लग कर छुट्टा उपलब्ध कांग्रेस और जेडीएस के विधायकों को अपने पाले में कर फ्लोर टेस्ट में सरकार गिरा सकते थे.
लेकिन शायद इन रणनीतिकारों का सत्य के प्रति आग्रह इतना प्रबल था कि वह अपने सत्याग्रह को रोक नहीं पाए और कई घुमाव के बाद आखिरकार सत्य उनके हाथ आते-आते फिसल गया क्योंकि ‘अंतरात्मा की आवाज’ मात्र 24 घटें में नहीं जगती. कई वादे और उन पर भरोसा के साथ-साथ नकदी का आदान-प्रदान भी आत्मा जगाने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाता है.
और फिर हम यह क्यों मान लें कि येद्दियुरप्पा का इस्तीफा हीं मूल सत्य है. अभी तो उन्हीं की तरह कुमारस्वामी की भावी सरकार का भी फ्लोर टेस्ट बाकी है. कार्यकर्ता के स्तर पर अभी से ही कांग्रेस और जेडीएस के बीच झगड़े शुरू हो गए हैं. थोडा इंतजार करने पर फिर भाजपा को सत्य पलटने का मौका मिल जाएगा और वह नैतिकता की तराजू पर भी जन-अभिमत में खरा उतरेगा.
15 मई के चुनाव नतीजों के बाद हमारे पास तीन मूल्य ‘सत्य’ थे. पहला: भाजपा सबसे बड़ी होकर उभरी पर स्पष्ट बहुमत नहीं था. कांग्रेस सत्ता-विरोधी भाव (एंटी-इनकंबेंसी) के बावजूद मतों में भाजपा से 1.8 प्रतिशत ज्यादा रही. लेकिन संविधान का सत्य सदस्यों की संख्या के आधार पर होता है लिहाजा भाजपा बजाहिर तौर पर सबसे बड़ी जीत की हकदार थी.
लेकिन एक सत्य और भी बचा था फ्लोर परीक्षण में सपष्ट बहुमत पाना जिसमें सत्य उसे गच्चा दे गया. नतीजा यह कि 38 सदस्य वाली पार्टी ने 78 सदस्य वाले राष्ट्रीय दल के साथ मिलकर सत्य को दबोच लिया. और आज ‘सत्यम एव जयते न अनृतम’ (सत्य की ही जीत होती है झूठ की नहीं) का मतलब कई बार बदलते हुए फिलहाल इस तर्क वाक्य में समाहित हो गया कि ‘जो जीता वही सत्य.’
अब्राहम लिंकन का प्रजातंत्र ‘जनता द्वारा, जनता के लिए और जनता की सरकार’ भारत में शायद एक नए दौर से गुजर रहा है जिसमें जनता शब्द वोक्कालिगा, लिंगायत, हिंदू, मुसलमान, आरक्षण, अल्पसंख्यक का दर्जा दिलाने का वादा आदि की संख्यात्मक गुणवत्ता में, जीतने के बाद पद और पैसे के लालच में आने या न आने में एक नई परिभाषा गढ़ रहा है.
और यह आज से नहीं बल्कि गणतंत्र बनाने के बाद जैसे ही हमने मुंडकोपनिषद का यह ध्येय वाक्य अंगीकार किया है, इस नई परिभाषा से लिंकन की परिभाषा को परिमार्जित करते रहे हैं. यानी जो जीता वही सत्य .
तत्कालीन कुछ भारतीय और अंग्रेज विद्वानों को लिंकन की प्रजातंत्र की परिभाषा बदलने की भारत के समाज की क्षमता का भान था. लगभग सौ साल से अंग्रेज मना करते रहे कि ब्रितानी संसदीय प्रणाली भारत के लिए अभी उपयुक्त नहीं है लेकिन तत्कालीन नेताओं की जिद के तहत यह व्यवस्था अपनाई गयी.
इसका नतीजा यह रहा कि संसदीय फॉर्मेट तो हमने ब्रितानी ले लिया पर उसको चलने के लिए जो व्यक्तिगत और सामूहिक नैतिक संबल चाहिए था वह नदारद रहा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)