बिहार से ग्राउंड रिपोर्ट: ‘बिहार का शोक’ कही जाने वाली कोसी नदी के तटबंधों के भीतर रहने वाले लोगों से किया वादा सरकार ने आज तक नहीं निभाया, लिहाज़ा यहां रहने वाले लोग बेहद अमानवीय परिस्थितियों में जीवन जीने को अभिशप्त हैं.
बांध से कुछ दूर बह रही ‘बिहार का शोक’ कोसी नदी की पहली धारा में बहाव तो है, लेकिन उथल-पुथल नहीं है.
कुछ लोग कोसी के किनारे खड़े हैं. उन्हें कोसी की धारा को पार कर अपने घर जाना है. घाट के पास बनी छोटी-सी झोपड़ी में सुस्ता रहे बेहद दुबली-पतली काया वाले कोसी के घटवार 63 वर्षीय श्रीमंडल बाहर निकलते हैं. उनके चेहरे पर चिंता की मोटी लकीरें साफ नज़र आती हैं. संघर्ष ने उन्हें उम्र से पहले ही बूढ़ा बना दिया है.
वह लोगों को नाव में सवार कराते हैं. नाव की रस्सी खोल देते हैं और लपक कर ख़ुद भी नाव पर पहुंच जाते हैं. कोसी में कुछ हलचल होती है और कुछ ही पलों में नाव दूसरे किनारे पर लग जाती है. नदी फिर शांत हो जाती है.
कोसी का यह सन्नाटा तटबंध के भीतर रहने वाले लोगों को डराता है. उन्हें हमेशा ही लगता है कि यह सन्नाटा कमोबेश हर साल आने वाली विभीषिका का संकेत है जिसे ‘बाढ़’ कहा जाता है.
सुपौल की डुबियाही पंचायत के बेलागोठ गांव के रहनेवाले श्रीमंडल की नाव आठों पहर कोसी में चलती है. वह यात्रियों को इस पार से उस पार पहुंचा कर रोजाना 200 से 250 रुपये कमा लेते हैं.
घाट के किनारे बनी जिस झोपड़ी में वह सुस्ताया करते हैं, उसी झोपड़ी में चाय की दुकान भी चलाते हैं. वह जब नाव पर होते हैं, तो उनकी 14 साल की बेटी चाय बनाती है.
उनके पास 10 एकड़ खेत है, पर फसल न के बराबर होती है, वरना जिसके पास 10 एकड़ खेत होगा, वह भला दिनभर चप्पू चलाकर व चाय बेचकर अपना पेट पालेगा!
श्रीमंडल का गांव तटबंध के भीतर है और वह बाढ़ की वजह से वह अब तक 8 बार विस्थापित हो चुके हैं.
वर्ष 1954 में कोसी को एक ही दिशा में बांध देने के लिए दोनों तरफ तटबंध बनाने के बाद तटबंध के भीतर रहने वाले लोगों की गरीबी-बदहाली और बर्बादी का जो दारुण और अंतहीन किस्सा लिखा जाने लगा, श्रीमंडल उस किस्से का एक किरदार हैं.
ऐसे लाखों किरदार कोसी तटबंधों के बीच सिसक रहे हैं. उनकी सारी उम्मीदें सरकार से हैं और सरकार नाउम्मीदी का पर्याय बन चुकी है.
छह दशक पहले कोसी तटबंध जब बना था, तब सैकड़ों गांव, हज़ारों एकड़ खेत और घर तटबंध के भीतर थे. उस वक्त सरकार ने तटबंध के भीतर रहने वाले लोगों को खेती के लिए ज़मीन तो नहीं, लेकिन जितनी जगह में उनके घर थे, उतने ही क्षेत्रफल का भूखंड तटबंध के बाहर देने का वादा किया था. लेकिन, इस वादे का हश्र भी वही हुआ, जो अधिकतर सरकारी वादों का हुआ करता है.
कुछ मुट्ठीभर लोगों को ही तटबंध के बाहर ज़मीन मिल पाई. एक बड़ी आबादी के हिस्से में थोथा आश्वासन ही आया, लिहाज़ा उन्हें तटबंध के भीतर ही रहने को विवश होना पड़ा.
फिलवक्त मधुबनी, सहरसा, दरभंगा, सुपौल समेत कई ज़िलों के करीब 380 गांव तटबंध के भीतर बसे हुए हैं जहां की आबादी 10 लाख से ऊपर ही होगी.
ये गांव हालांकि तटबंध बन जाने से पहले भी कोसी का गुस्सा झेलते थे, लेकिन तब इसका रूप इतना क्रूर नहीं था. तटबंध बन जाने के बाद कोसी में जब भी बाढ़ आती है, अपने साथ भीषण तबाही लाती है.
बेलागोठ के 56 वर्षीय किसान राम विलास मुखिया उंगुली पर साल गिनते हुए कहते हैं, ‘मैं अब तक 20 बार विस्थापित हो चुका हूं.’
राम विलास बताते हैं, ‘जब बांध बना था, तो तटबंध के भीतर रहने वालों को घर बनाने लायक ज़मीन देने की बात थी. लेकिन, बहुत कम लोगों को ज़मीन मिली. मेरे गांव में महज़ 10 फीसदी लोगों को ही पुनर्वास की ज़मीन मिल पाई.’
बांध के भीतर बसे खोखनाहा गांव के 65 वर्षीय मोहम्मद अब्बास के पिता को 8 डिसमिल ज़मीन मिली थी, ताकि वे तटबंध के बाहर घर बना सकें, लेकिन उस ज़मीन पर किसी रसूखदार ने क़ब्ज़ा कर लिया और पांच तल्ले की बिल्डिंग ठोक दी.
मोहम्मद अब्बास कहते हैं, ‘मजबूरन हमें तटबंध के भीतर ही रहना पड़ा. वर्ष 2016 की बाढ़ में मेरे गांव के 412 घर कोसी में समा गए, जिनमें मेरा घर भी था. अभी मैं और मेरा परिवार किसी और की ज़मीन पर छप्पड़ खड़ा कर रह रहे हैं.’
उन्होंने कहा, ‘हम पुनर्वास को लेकर जब भी अफसरों से मिलते हैं, तो वे हमसे सवाल पूछते हैं कि इतने दिनों तक हम कहां थे?’
मो. अब्बास के छह बच्चे हैं, लेकिन तटबंध के भीतर कोई भी रहना नहीं चाहता है, क्योंकि हर साल बाढ़ का ख़तरा रहता है और बुनियादी सुविधाएं नहीं के बराबर हैं. वह रुंआसे होकर कहते हैं, ‘उन्हें हम कहां लेकर जाएं, कुछ समझ में नहीं आता है.’
उनके पास करीब 13 बीघा जमीन है, लेकिन बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए उन्हें उत्तर प्रदेश के गोदाम में काम करना पड़ा.
कोसी तटबंध के भीतर रहने वाली आबादी के लिए मौसमी पलायन ही ज़िंदा रहने की इकलौती तरक़ीब है, क्योंकि यहां रोज़गार का दूसरा कोई साधन नहीं है. तटबंध के भीतर ऐसा शायद ही कोई घर होगा, जिसका पुरुष सदस्य दूसरे राज्यों में जाकर खेती-मज़दूरी न करता हो.
तटबंध के भीतर न तो कायदे का अस्पताल है और न ही स्कूल. न तो सड़क है और न ही बिजली. कुछेक स्कूल थे भी, तो बाढ़ की भेंट चढ़ गए.
खोखनाहा गांव का स्कूल भी बाढ़ में बर्बाद हो गया था. अभी वहां एक झोपड़ीनुमा स्कूल बनाया गया है. लेकिन, जहां स्कूल बना, उस स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों का घर नदी की मुख्यधारा के पार है क्योंकि बाढ़ के कारण उनका पहले का गांव नदी में समा गया था. ऐसे में बच्चों के लिए रोज़ नाव पर सवार होकर पढ़ने आना खतरे से खाली नहीं है.
सुपौल के पुराने लोगों को 60 के दशक में हुआ वह ऐतिहासिक कार्यक्रम अब भी याद है, जिसमें कोसी के पूर्वी किनारे पर बांध बनाने के लिए आधारशिला रखी गई थी.
शिलान्यास कार्यक्रम 14 जनवरी 1955 को सुपौल के बैरिया गांव में किया गया था. इसके लिए उस गांव में पक्का मंच भी बनाया गया था. पक्का मंच बनने के कारण कार्यक्रमस्थल का नाम बैरिया मंच हो गया. फिलहाल यह स्थल कस्बाई चौक की शक्ल ले चुका है. खैर…!
उस भव्य कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद पहुंचे थे.
उस वक्त लोग बांध बनाए जाने का विरोध कर रहे थे. इस विरोध को दबाने के लिए उन्हें बांध से होने वाले ‘फायदे’ का सब्ज़बाग दिखाया गया था.
शिलान्यास कार्यक्रम से पहले 1954 में 17 से 24 अक्टूबर तक राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने उत्तर बिहार का दौरा कर लोगों को समझाने की कोशिश की थी. उन्होंने कोसी तटबंध निर्माण को राष्ट्र निर्माण का यज्ञ क़रार देते हुए लोगों से इसमें भाग लेने की अपील की थी.
स्थानीय बुज़ुर्ग बैरिया में हुए कार्यक्रम में राष्ट्रपति के उस वाक्य को याद करते हैं, जब उन्होंने कहा था कि उनकी एक आंख कोसी तटबंध के भीतर रहने वाले लोगों पर रहेगी और दूसरी आंख बाकी हिंदुस्तान पर.
डॉ. राजेंद्र प्रसाद के उस एक वाक्य को सुन कर लोगों ने ख़ुद टोकरी-कुदाल उठा ली थी और बांध पर मिट्टी डाली थी.
उन्हें नहीं पता था कि जिस बांध के लिए वह मिट्टी डाल रहे हैं, वह उनके लिए सलीब साबित होगी.
तटबंध बनने से बाढ़ से होने वाला जान-माल का नुकसान तो बढ़ा ही, खेती पर भी बेहद बुरा असर पड़ा. कोसी अपने साथ जो गाद लाती है, उसमें बालू अधिक होता है. पहले तटबंध नहीं था, तो बालू बड़े क्षेत्र में फैल जाता था. इससे खेती पर उतना असर नहीं पड़ता था, लेकिन अब तो हर बार कोसी तटबंध के भीतर के खेत में ही बालू की मोटी परत छोड़ जाती है.
राम विलास मुखिया कहते हैं, ‘मेरे पास 5 एकड़ खेत है, लेकिन उसमें उपज नहीं के बराबर होती है. पहले एक एकड़ में 20 मन तक अनाज हो जाता था, लेकिन अब 5 मन भी नहीं होता है.’
राम विलास हर साल कुछ महीने के लिए पंजाब चले जाते हैं. वहां खेतों में मज़दूरी कर कुछ कमा लेते हैं और फिर लौट आते हैं.
उन्होंने बताया कि बेलागोठ गांव के लोगों की 750 एकड़ ज़मीन है, जो बालू के कारण पूरी तरह बर्बाद हो चुकी है.
सोचने वाली बात ये है कि खेती बर्बाद हो जाने के बावजूद राज्य सरकार खेतों से लगान लेना नहीं भूलती है, बल्कि लगान देने में देर हो जाए, तो बकाया लगान का ब्याज भी वसूला जाता है. सरकार का यह रवैया उन्हें ब्रिटिश हुकूमत की याद दिलाता है, जिसका आम लोगों की समस्याओं से कोई सरोकार नहीं था.
राम विलास ने इस साल 20 हज़ार रुपये लगान चुकाया है. उन्होंने कहा, ‘सरकारी अफसरों से विनती करता हूं, लेकिन वे हमारी एक नहीं सुनते हैं.’
कोसी की दो धाराओं के बीच बालू से भरे भूखंड पर फूस की झोपड़ी में रह रहे 60 वर्षीय बिंदेश्वर राम कहते हैं, ‘हमारे पुरखे सैकड़ों साल से नदी के साथ सह-अस्तित्व बनाकर रहते आ रहे थे, वे कोसी के गुस्से से भी वाक़िफ़ थे और उसके स्नेह से भी, इसलिए उस वक्त नुकसान कम होता था.’
उन्होंने आगे कहा, ‘तटबंध बनने के बाद से कोसी को देखकर लगता है कि वह हमेशा गुस्से में ही रहती है और उसका कोपभाजन हमें बनना पड़ रहा है.’
बाढ़ के कारण बिंदेश्वरी राम का घर 19 बार टूट चुका है. चूंकि कोसी की धारा चंचल है और कुछ सालों में अपनी दिशा बदल देती है इसलिए तटबंध के भीतर बसा गांव हर बाढ़ के बाद नए सिरे से नई जगह बसता है.
नदी की धारा को बांधना या मोड़ना कितना ख़तरनाक हो सकता है, इसका कड़वा अनुभव पिछले 6 दशकों से बिहार कर रहा है, लेकिन इससे सरकार ने कोई सीख नहीं ली है.
हाल ही में सुपौल में कोसी की एक धारा को दूसरी धारा के साथ मिला देने के लिए राज्य के जल संसाधन विभाग ने 1 करोड़ रुपये की एक योजना को मंज़ूरी दी थी.
तीन महीने की इस योजना के तहत परको पाइन (कंक्रीट के छोटे-छोटे पिलर होते हैं जिन्हें धारा के बीच खड़ा कर जंगल और घास-फूस से दीवारनुमा बना दिया जाता है, ताकि नदी की धारा धीरे-धीरे मार्ग बदल ले) लगाए गए हैं.
स्थानीय जूनियर इंजीनियर ने बताया कि तटबंध के किनारे के गांवों को बचाने के लिए धारा का मार्ग बदला जा रहा है.
उल्लेखनीय है कि कोसी नदी नेपाल से निकलने वाली तीन नदियों- सुन कोसी, अरुण और तमोर के मिलने से बनी है. करीब 720 किलोमीटर लंबी कोसी बिहार के कटिहार ज़िले के कुरसेला में गंगा नदी में समा जाती है.
कहते हैं कि भारी मात्रा में अपने साथ गाद लाने के कारण पिछले 200 सालों में कोसी धीरे-धीरे अपना मार्ग बदलते-बदलते अभी अपने मूल मार्ग से 133 किलोमीटर दूर पश्चिम की तरफ बह रही है.
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि कोसी अपने साथ जो गाद लाती है वह रास्ते में ही छोड़ती जाती है. इससे रास्ता अवरुद्ध हो जाता है और नदी अलग राह पकड़ लेती है.
तटबंध के भीतर के गांवों के लोगों का कहना है कि पिछले 50-60 सालों में कोसी ने इतनी गाद खेतों में डाली है कि खेतों की असली मिट्टी 20-25 फीट नीचे चली गई है. वह मिट्टी बहुत उपजाऊ थी, लेकिन अभी जो गाद आ रही है, उसमें रेत ही रेत है.
ग्रामीणों की यह शिकायत सही है. कोसी तटबंध के भीतरी इलाकों से गुज़रते हुए ज़मीन पर दूर तक दूधिया रंग के बालू की मोटी परत नज़र आती है. अधिक बालू होने के कारण ज़्यादातर खेत परती ही दिखे.
कोसी की बाढ़ से होने वाली तबाही को कम करने के लिहाज़ से तटबंध बनाए गए थे, लेकिन सच ये है कि बाढ़ की तबाही बदस्तूर जारी है.
निर्माण के बाद से अब तक आठ बार बांध टूट चुका है.
तटबंध पहली बार अगस्त 1963 में डलवा में टूटा था. इसके बाद अक्टूबर 1968 में दरभंगा के जमालपुर, अगस्त 1971 में सुपौल के भटनिया और अगस्त 1980, सितंबर 1984 और अगस्त 1987 में सहरसा में बांध टूटा था. जुलाई 1991 में नेपाल के जोगिनियां में कोसी का बांध टूट गया था.
आख़िरी बार वर्ष 2008 में भारत-नेपाल सीमा के निकट कुसहा बांध टूटा था, जिसने भारी तबाही मचाई थी. तटबंध टूटने से उन क्षेत्रों में भी बाढ़ आ गई थी, जहां पहले कभी बाढ़ नहीं आई थी. इस भीषण बाढ़ से करीब 25 लाख लोग प्रभावित हुए थे और कोई 250 लोगों की जानें गई थीं.
बाढ़ के कारणों की जांच के लिए एक सदस्यीय टीम गठित की गई थी. इस कमेटी ने अपने रिपोर्ट में बाढ़ के लिए प्रशासनिक लापरवाही को ज़िम्मेदार माना था. प्रशासनिक लापरवाही तो तात्कालिक वजह थी, लेकिन बाढ़ की मुख्य वजह तो बांध ही थे.
नदी विशेषज्ञों के अनुसार, कोसी हर साल करीब 92.5 मिलियन क्यूबिक मीटर गाद अपने साथ लाती है, जो बड़े भूभाग में फैल जाया करती थी. तटबंध बनने से नदी की राह तंग हो गई. इससे गाद नदी की सतह में जमती गई और नदी का तल 4 मीटर ऊपर उठ गया.
फिर एक दिन तेज़ रफ्तार के साथ पानी आया और बांध का पिंजड़ा तोड़ दिया.
अभी हर साल कोसी का तल 2 मीटर ऊंचा उठ रहा है. इसका मतलब है कि आने वाले समय में बाढ़ की विभीषिका बढ़ेगी और इससे तटबंध के भीतर रहने वाली आबादी की ज़िंदगी बद से बदतर होती जाएगी.
तटबंध के भीतर रहने वाली इस बड़ी आबादी के लिए सरकार के पास पहले भी कोई योजना नहीं थी और अब भी नहीं है.
अलबत्ता, कोसी से बाढ़ आती है, तो सरकार एक रटा-रटाया जुमला उछाल देती है कि इसके लिए नेपाल ज़िम्मेदार है.
इसके बाद नेपाल दौरे का सिलसिला शुरू हो जाता है. यहां के अफसर वहां जाते हैं और वहां के अफसर यहां आते हैं. कुछ दिन तक अख़बारों में ख़बरें छपती हैं, प्रशासनिक स्तर पर थोड़ी हलचल होती है और फिर सबकुछ सामान्य हो जाता है.
नदियों व बाढ़ पर लंबे समय से काम कर रहे डॉ. दिनेश मिश्र कहते हैं, ‘सरकार को समझना होगा कि समस्याएं हमारे यहां हैं, तो समाधान भी हमें ही ढूंढना होगा. हम नेपाल के भरोसे नहीं रह सकते हैं. हमें अपने संसाधनों से हल तलाशने की ज़रूरत है.’
तटबंध के भीतर रहने वाले लोग बाढ़ को तो कपार लिखी हुई इबारत मान चुके हैं, लेकिन उन्हें यह भी एहसास होने लगा कि सरकार राहत और कल्याण के नाम पर उनके साथ खेल कर रही है.
अपनी मांगों को लेकर स्थानीय लोग अब आंदोलन की राह अपनाने की तैयारी कर रहे हैं. पहले चरण में वे तटबंध के भीतर के किसानों का लगान माफ़ करने की मांग करेंगे.
तटबंध के भीतर स्थित डभारी गांव के रामानंद सिंह ने कहा, ‘मेरे पास 13 एकड़ ज़मीन है. इनमें से पांच एकड़ ज़मीन पर कोसी की धारा बह रही है. तीन एकड़ पर गाद जमी हुई है. बाकी पांच एकड़ में चार महीने तक पानी जमा रहने के कारण एक ही फसल हो पाती है. लेकिन, हमें 13 एकड़ ज़मीन का लगान भरना पड़ता है. यह कैसी राहत है?’
मरौना ब्लॉक के घोघररिया गांव के रामचंद्र यादव की 25 एकड़ ज़मीन तटबंध के अंदर है. खेत में रेत ही रेत है.
रामचंद्र यादव ने बताया, ‘रेत के कारण खेती नहीं हो पाती है, लेकिन लगान हर साल देना पड़ता है. ऐसा आज से नहीं है. तटबंध बनने के बाद से लगातार लगान लिया जा रहा है. यह हमारे साथ अन्याय है.’
कोसी नव निर्माण मंच के संस्थापक व नेशनल अलायंस ऑफ पीपुल्स मूवमेंट्स के राष्ट्रीय संयोजक महेंद्र यादव कहते हैं, ‘कोसी पर बांध बनाने के बाद से लेकर अब तक सरकार किसानों के साथ लगातार धोखा करती आ रही है.’
उन्होंने कहा, ‘किसानों को क्षतिपूर्ति मिलनी चाहिए क्योंकि उनके खेत में उपज नहीं होती, लेकिन सरकार उल्टे उनसे लगान वसूल रही है. लगान माफ़ी की मांग पर हम लोग 26 मई को कनौली गांव से बैरिया मंच तक लगान मुक्ति जनसंवाद यात्रा निकालेंगे. अन्य मांगों को लेकर भी हमलोग चरणबद्ध संघर्ष करेंगे.’
आंदोलन का क्या असर होता है, यह तो ख़ैर वक्त ही बताएगा. लेकिन, यह तटबंध के भीतर रहने वाले लोगों की जिजीविषा ही है, जो हर बार उजड़ने के बावजूद उन्हें सब कुछ ठीक हो जाने की उम्मीद देती है.
भरी दुपहरी कोसी की परती में फैले सन्नाटे को चीरती हुई किसी घटवार की आवाज़ आती है…
धीरज धरिहऽ मंगरू हो चाचा, मन मत करिअउ मलाल
समय पाइव के तरुवर फौरई, जानिए सकल जहान
बोलऽ भइया राम राम, राम राम सीता-राम
कोसी सन नीदरदी जग में कोई नय.
ये आवाज़ तटबंध में क़ैद लोगों की उम्मीदों को और पुख़्ता कर देती है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)