पिछले कुछ दिनों से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की ओर से इसी तरह के संकेत दिए जा रहे हैं.
पहले नोटबंदी की आलोचना और फिर मोदी सरकार पर बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग की अनदेखी का आरोप. नीतीश कुमार के इस बदले हुए रुख़ के बाद यह कयास लगाया जा रहा है कि वे भाजपा से दोस्ती तोड़ने की संभावना तलाश रहे हैं.
यदि इसमें उनकी राजस्थान यात्रा को जोड़ दिया जाए तो यह सोचने का पर्याप्त आधार मिल जाता है कि ‘सुशासन बाबू’ का ‘हृदय’ एक बार फिर ‘परिवर्तन’ की दहलीज़ पर खड़ा है.
गौरतलब है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार नोटबंदी के प्रबल समर्थक रहे हैं. उन्होंने उस समय भी नरेंद्र मोदी के इस ऐतिहासिक निर्णय की खुलेआम तारीफ़ की थी जब वे महागठबंधन का हिस्सा थे और उनके सहयोगी इसकी कड़ी आलोचना कर रहे थे.
अब जब नीतीश भाजपा के समर्थन से बिहार की सत्ता संभाल रहे हैं तो उनका नोटबंदी की बखिया उधेड़ना किसी सियासी पहेली जैसा लग रहा है. ऐसे समय में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा इधर-उधर के तर्क गढ़कर नोटबंदी को सफल साबित करने की जद्दोजहद में जुटे हैं तब उन्हीं के सहयोगी इस निर्णय को बेमतलब का घोषित कर क्या हासिल करना चाहते हैं?
यदि नीतीश कुमार नोटबंदी की आलोचना तक ही ठहर जाते तो इसे उनकी साफगोई माना जा सकता था, लेकिन उन्होंने जिस ढंग से मोदी सरकार पर बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग की अनदेखी का आरोप लगाया है, उसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.
नीतीश ने उस पत्र को सार्वजनिक कर भाजपा की दुविधा बढ़ा दी है जो उन्होंने 15वें वित्त आयोग को लिखा है. इसमें उन्होंने सिलसिलेवार ढंग से समझाया है कि क्यों बिहार को विशेष दृष्टि से देखने की आवश्यकता है और किस ढंग से वित्त आयोग ने तथ्यों को दरकिनार कर राज्य के साथ नाइंसाफी की.
नीतीश कुमार के इन बदले हुए तेवरों के बीच उनकी राजस्थान यात्रा भाजपा के लिए कोढ़ में खाज के समान है.
उल्लेखनीय है कि बिहार के मुख्यमंत्री ने बुधवार को बांसवाड़ा के कुशलगढ़ मैदान में कार्यकर्ता सम्मेलन को संबोधित किया. ऐसे समय में जब राजस्थान में इस साल के आख़िर में विधानसभा चुनाव होने हैं तब जदयू का प्रदेश के वागड़ क्षेत्र में सक्रिय होना भाजपा के लिए परेशानी पैदा कर सकता है.
काबिल-ए-ग़ौर है कि समाजवादी पुरोधा मामा बालेश्वर दयाल का यह क्षेत्र समाजवादी आंदोलन का बड़ा केंद्र रहा है. आदिवासी बाहुल्य इस इलाके में बालेश्वर दयाल का इतना प्रभाव था कि वे जिसके सिर पर हाथ रख देते थे वो चुनाव जीत जाता था.
चूंकि जॉर्ज फर्नांडीस और मामा बालेश्वर दयाल में घनिष्ठता थी इसलिए यह क्षेत्र जनता दल का गढ़ बन गया. कांग्रेस ने तो इसे कई बार भेदा, लेकिन भाजपा लाख कोशिशों के बाद भी यहां अपने पैर नहीं जमा पाई.
भैरों सिंह शेखावत ने जनता दल के साथ गठबंधन कर इस क्षेत्र में भाजपा की जड़ें जमाने की कोशिश की, जिसमें वे सफल रहे. 90 के दशक में जहां भाजपा ने इस क्षेत्र पर ज़्यादा ध्यान दिया, वहीं जनता दल की सक्रियता स्थानीय नेताओं तक ही सिमटने लगी.
1998 में मामा बालेश्वर दयाल के निधन के बाद भाजपा ने यहां अपना जनाधार मजबूत करने की योजना पर तेजी से काम शुरू किया. इस बीच जनता दल का बिखराव हो गया. वागड़ इलाके के नेता जेडीयू के साथ गए, लेकिन कईयों को भाजपा ने अपने पाले में कर लिया.
2008 का विधानसभा चुनाव भाजपा और जेडीयू गठबंधन का आख़िरी पड़ाव साबित हुआ. हालांकि दोनों दलों के बीच गठबंधन का औपचारिक ऐलान हुआ था, लेकिन भाजपा इसे तोड़ते हुए जेडीयू के प्रभाव वाली तीनों सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए.
इस खींचतान का नतीजा यह हुआ कि भाजपा को डूंगरपुर और बांसवाड़ा ज़िलों में एक सीट भी नसीब नहीं हुई. जेडीयू को फिर भी एक सीट पर जीत हासिल हुई. इसके बाद 2013 के विधानसभा चुनाव में तो दोनों दलों के बीच गठबंधन हुआ ही नहीं.
इसमें कोई दो-राय नहीं है कि वागड़ क्षेत्र में भाजपा ने अपनी पकड़ कायम कर ली है, लेकिन जेडीयू मेहनत करे तो अपनी खोयी हुई ज़मीन फिर से हासिल कर सकती है.
पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष दौलतराम पैंसिया कहते हैं, ‘हमारे कुछ नेताओं के लालच के कारण हमारी पार्टी यहां चुनावी राजनीति में असफल हो गई, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यहां हमारा जनाधार समाप्त हो गया है. हम मामा बालेश्वर दयाल के कार्यों को आगे बढ़ा रहे हैं इसलिए लोगों को हमें पहले जितना ही प्यार मिल रहा है.’
पैंसिया ने कुछ दिन पहले घोषणा की थी उनकी पार्टी राज्य की सभी 200 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगी. पहले उनकी इस घोषणा को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा था, लेकिन नीतीश कुमार के आने से भाजपा के कान खड़े हो गए हैं. बाकी जगहों पर तो नहीं, लेकिन वागड़ क्षेत्र में जेडीयू भाजपा का खेल ख़राब कर सकती है.
पार्टी के एक पदाधिकारी नाम उजागर नहीं करने की शर्त पर कहते हैं, ‘पिछले चुनाव में वागड़ क्षेत्र में हमारा प्रदर्शन मोदी लहर की बदौलत था. जेडीयू का वहां प्रभाव है. यदि वे गंभीरता से चुनाव लड़ते हैं तो इसका भाजपा को निश्चित रूप से नुकसान होगा.’
भाजपा के कुछ स्थानीय नेता यह भी चाहते हैं कि पार्टी को जेडीयू से गठबंधन करना चाहिए, लेकिन जेडीयू के नेता इसके लिए तैयार नहीं दिखाई देते.
दौलतराम पैंसिया कहते हैं, ‘हम किसी भी सूरत में गठबंधन नहीं करेंगे. वैसे भी 2008 में हम धोखा खा चुके हैं. हमारी पार्टी बिहार में भाजपा के साथ है, लेकिन राजस्थान में नहीं है. हम मामा बालेश्वर दयाल के आदर्शों और नीतीश कुमार के विज़न पर अपने दम पर चुनाव लड़ेंगे.’
नीतीश कुमार ने बांसवाड़ा आकर न सिर्फ स्थानीय समीकरणों को साधा, बल्कि अपने भाषण से कुछ सियासी संकेत भी छोड़ गए. उन्होंने अपने में एक बार भी प्रधानमंत्री के नाम अथवा केंद्र सरकार की किसी उपलब्धि का ज़िक्र नहीं किया.
पूरे भाषण में वे बिहार सरकार की उपलब्धियों का ही गुणगान करते रहे. यही नहीं, वे जब बांसवाड़ा आए तो सूबे की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे भी यहां के दौरे पर थीं, लेकिन दोनों के बीच कोई ‘अनौपचारिक’ मुलाकात नहीं हुई.
कुल मिलाकर नीतीश कुमार के बदले हुए तेवर देखकर भाजपा पसोपेश में है. क्या अब गठबंधन के दोनों सहयोगियों के बीच पहले जितनी सहजता नहीं बची है? क्या मतभेद अब मनभेद बनने की दिशा में बढ़ चुके हैं?
या नीतीश कुमार की यह पूरी कवायद भाजपा के मनोबल को अपनी सहूलियत के हिसाब से नीचे लाने के लिए है? इन सभी सवालों के जवाब इस पर निर्भर करते हैं कि नीतीश कुमार अगला क़दम किस दिशा में आगे बढ़ाते हैं.
वैसे नीतीश कुमार को ‘यू-टर्न’ की सियासत का उस्ताद माना जाता है. लालू यादव का साथ छोड़ समता पार्टी के गठन से लेकर अब तक उनकी अंतरआत्मा कई बार जाग चुकी है. क्या पता वे इस बार भी उसी दिशा में आगे बढ़ रहे हों?
पहले भी अपने सियासी फैसलों से सबको हतप्रभ करने वाले ‘सुशासन बाबू’ इस बार भी चकित करने वाला कोई फैसला लेंगे या कयासों के बाज़ार को ही गर्म रखेंगे, यह आने वाला वक़्त ही बताएगा.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और जयपुर में रहते हैं.)