चुनाव परिणाम से साफ़ है कि बिहार के अल्पसंख्यक भाजपा के तेवर और उसके नेताओं के नफ़रत से भरे बयानों से बेहद नाराज़ हैं और उससे भी ज़्यादा नाराज़गी नीतीश कुमार की चुप्पी को लेकर है.
सीमांचल की विधानसभा सीट जोकीहाट 2005 से लगातार जदयू ही जीत रहा था, लेकिन इस बार के चुनाव में यह सीट नीतीश कुमार के हाथों से रेत की तरह फिसल गई.
राजद उम्मीदवार शाहनवाज़ आलम ने 41,225 वोटों से जदयू उम्मीदवार मुर्शिद आलम को हरा दिया.
इस जीत पर राजद विधायक व विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने कहा, ‘जोकीहाट की जनता ने नीतीश कुमार को नकार दिया है.’ उन्होंने आगे कहा कि लालूवाद ने अवसरवाद को हराया है.
ऐसा तब हुआ है जब रामनवमी के दौरान बिहार में सांप्रदायिक तनाव को लेकर नीतीश कुमार ने भाजपा नेताओं का नाम लिए बगैर तल्ख़ लहज़ा अपनाया था और मजार पर जाकर चादरपोशी भी की थी.
जोकीहाट मुस्लिम बहुल क्षेत्र है और यहां के 80 फीसद वोटर मुस्लिम हैं यानी मुस्लिम वोट यहां निर्णायक भूमिका निभाते हैं.
नीतीश कुमार ने हाल ही में दलितों व अल्पसंख्यकों को लुभाने लिए इन समुदायों से आने वाले छात्रों (हॉस्टल में पढ़ने वाले) को हर महीने 15 किलो खाद्यान्न मुफ्त देने का ऐलान किया था. उनका यह ऐलान भी किसी काम न आ सका.
जोकीहाट विधानसभा सीट अररिया लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आती है. पिछले दिनों अररिया लोकसभा सीट के लिए हुए चुनाव में राजद उम्मीदवार सरफ़राज़ आलम ने जीत दर्ज की थी. सरफ़राज़ आलम के पिता मो. तसलीमुद्दीन इस सीट से राजद के टिकट पर सांसद थे. उनके निधन के चलते राजद ने सरफ़राज़ आलम को टिकट दिया था.
अररिया लोकसभा सीट के लिए हुए चुनाव में जोकीहाट में सरफ़राज़ आलम को जदयू उम्मीदवार से अधिक वोट मिले थे. उस चुनाव में ही यह लगने लगा था कि जोकीहाट सीट जदयू के हाथ से निकल जाएगी.
बहरहाल, अगर हम जोकीहाट सीट के इतिहास की बात करें, तो इस पर कभी जनता पार्टी, कभी कांग्रेस, कभी राजद को कभी समाजवादी पार्टी जीतती रही है. अलग-अलग पार्टियों के टिकट पर मो. तसलीमुद्दीन और उनके पुत्र सरफ़राज़ आलम ने 9 बार इस सीट से जीत दर्ज की है.
1995 में इस सीट से समाजवादी पार्टी के टिकट पर मो तसलीमुद्दीन ने जीत दर्ज की थी. वर्ष 2000 में सरफ़राज़ आलम ने राजद के टिकट पर चुनाव लड़ा था और जदयू के मंज़र आलम को परास्त किया था.
वर्ष 2005 के चुनाव में जब नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार में एनडीए की धमाकेदार जीत हुई थी, तो जोकीहाट सीट भी राजद के हाथों से छिन गई थी.
चूंकि, उस वक़्त विकास के मुद्दे पर नीतीश कुमार ने चुनाव लड़ा था और भाजपा का हस्तक्षेप न्यूनतम था, तो अल्पसंख्यकों ने उन पर भरोसा जताया था. इसके बाद वर्ष 2010 के चुनाव में भी जोकीहाट सीट पर जदयू ने जीत दोहराई.
बाद के दिनों में भाजपा और जदयू में दूरियां बढ़ीं, तो जदयू ने भाजपा से नाता तोड़ लिया. जदयू ने राजद के साथ मिलकर 2015 का विधानसभा चुनाव लड़ा. सीट समझौते के तहत यह सीट जदयू को मिली और तीसरी बार यहां से जदयू की जीत हुई.
पिछले साल राजद से गठबंधन ख़त्म कर नीतीश कुमार वापस भाजपा के खेमे में लौट गए, तो राजद ने इसे जनमत की डकैती कहकर प्रचारित किया. राजद के नेता व पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने ख़ुद इलाकों में घूम-घूम कर पार्टी कार्यकर्ताओं और जनता से जनसंपर्क किया.
इसका फायदा राजद को इस चुनाव में मिला. चुनाव परिणाम से एक बार फिर यह साबित हुआ कि राजद का ‘माय’ (मुस्लिम-यादव) समीकरण काम कर रहा है.
वहीं, चुनाव परिणाम ने नीतीश कुमार को महत्वपूर्ण संदेश दिया है.
जिस भाजपा के साथ रहते हुए वह मुस्लिम बहुल जोकीहाट तीन बार जीते थे, इस साल उसी भाजपा के साथ रहते हुए उन्होंने यह सीट गंवा दी. ऐसा क्यों हुआ?
चुनाव परिणाम पर जदयू के वरिष्ठ नेता केसी त्यागी ने कहा है कि जोकीहाट में तसलीमुद्दीन फैक्टर ने काम किया. लेकिन, इस जीत के लिए तसलीमुद्दीन फैक्टर के अलावा और भी कई फैक्टर हैं, जो जदयू की हार का कारण बने.
राजनीतिक विश्लेषकों की मानें, तो अटल-आडवाणी के वक़्त की भाजपा और मोदी-शाह की भाजपा में बहुत बड़ा फर्क है और यही फर्क भाजपा की सहयोगी पार्टियों के जनसमर्थन को भी प्रभावित कर रहा है.
बिहार की बात करें, तो लोकसभा चुनाव में भाजपा की भारी जीत के बाद से ही यहां सांप्रदायिक तनाव की घटनाओं में इज़ाफ़ा हुआ है. इस साल मार्च के आख़िर में रामनवमी के जुलूस को लेकर नीतीश कुमार के गृह राज्य नालंदा समेत राज्य के 8 ज़िलों में सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं हुईं.
इससे पहले भागलपुर में भाजपा सांसद व मंत्री अश्विनी चौबे के पुत्र अरिजीत सारस्वत पर सांप्रदायिक तनाव भड़काने का आरोप लगा. उनके ख़िलाफ़ थाने में एफआईआर दर्ज कराई गई, तो भाजपा सांसद व केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह से लेकर अश्विनी चौबे तक ने विवादित बयान देकर अरिजीत सारस्वत का बचाव किया.
अरिजीत की गिरफ्तारी के लिए पुलिस को कोर्ट से गिरफ्तारी का परवाना जारी करवाना पड़ा.
मार्च में हुई सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं को लेकर भी भाजपा नेताओं ने भड़काऊ बयान दिए, जिस कारण नीतीश कुमार को सार्वजनिक तौर पर कहना पड़ा कि कुछ अराजक तत्व सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ना चाहते हैं, इसलिए आम जनता सावधान रहे.
1989 में एसपी रहते भागलपुर में हुए सांप्रदायिक दंगे के दौरान एक ख़ास समुदाय का पक्ष लेने का आरोप झेलने वाले केएस द्विवेदी को जब राज्य का डीजीपी बनाया गया, तो चर्चा उड़ी कि भाजपा के दबाव के कारण ही द्विवेदी को डीजीपी बनाया गया है.
दूसरी तरफ, इस साल अररिया लोकसभा चुनाव में राजद उम्मीदवार की जीत के बाद एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें कथित तौर पर राजद समर्थकों को भारत विरोधी नारे लगाते हुए देखा गया था.
इस वीडियो के वायरल होने पर भाजपा नेताओं ने अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ खुलकर बयानबाज़ी की थी.
भाजपा सांसद गोपाल नारायण सिंह ने कहा था कि अररिया, किशनगंज और कटिहार धीरे-धीरे पाकिस्तान बन जाएगा.
वहीं गिरिराज सिंह ने कहा था कि सरफ़राज़ आलम की जीत ने कट्टरपंथी विचाराधारा को जन्म दिया है.
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष नित्यानंद राय ने दो क़दम आगे बढ़कर कहा था कि अगर राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव का उम्मीदवार अररिया में जीतता है, तो अररिया आतंकवादी समूह आईएसआईएस के लिए सुरक्षित स्थान बन जाएगा.
चुनाव परिणाम से साफ़ है कि बिहार के अल्पसंख्यक भाजपा के तेवर और भाजपा नेताओं के नफरत से भरे बयानों से ख़ासा नाराज़ हैं और उससे भी ज़्यादा नाराज़गी नीतीश कुमार की चुप्पी को लेकर है.
चुनाव परिणाम से ज़ाहिर है कि अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव और फिर 2020 में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार को अगर प्रासंगिक बने रहना है, तो उनके पास बहुत विकल्प नहीं है.
ख़ासकर अलग-अलग समुदाय व जातियों के वोटों के प्रतिशत पर ग़ौर करें, तो नीतीश कुमार के लिए पिछड़ी जातियों (51 प्रतिशत वोट), दलितों (16 प्रतिशत वोट) और अल्पसंख्यकों (16.9 प्रतिशत वोट) को दरकिनार कर बिहार की राजनीति में अपनी मज़बूत जगह बनानी मुश्किल है.
अतः नीतीश कुमार के लिए दीवार पर लिखा संदेश बिल्कुल साफ़ और स्पष्ट है. बस, उन्हें उस संदेश को डिकोड करने की ज़रूरत है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)