मोदी के चार साल: देश का किसान दुख और विनाश के चक्रव्यूह में फंस गया है

देश में पिछले चार वर्षों में कृषि विकास दर का औसत 1.9 प्रतिशत रहा. किसानों के लिए समर्थन मूल्य से लेकर, फसल बीमा योजना, कृषि जिंसों का निर्यात, गन्ने का बकाया भुगतान और कृषि ऋण जैसे बिंदुओं पर केंद्र सरकार पूर्णतया विफल हो गई है.

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देश में पिछले चार वर्षों में कृषि विकास दर का औसत 1.9 प्रतिशत रहा. किसानों के लिए समर्थन मूल्य से लेकर, फसल बीमा योजना, कृषि जिंसों का निर्यात, गन्ने का बकाया भुगतान और कृषि ऋण जैसे बिंदुओं पर केंद्र सरकार पूर्णतया विफल हो गई है.

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(फाइल फोटो: पीटीआई)

प्रधानमंत्री मोदी ने वर्ष 2015 में कहा था अन्नदाता सुखी भव: पर उनके चार साल के कार्यकाल में देश का अन्नदाता दुख और विनाश के चक्रव्यूह में फंस गया है. देश में पिछले चार वर्षों में कृषि विकास दर का औसत 1.9 प्रतिशत रहा. किसानों के लिए समर्थन मूल्य से लेकर, फसल बीमा योजना, कृषि जिंसों का निर्यात, गन्ने का बकाया भुगतान और कृषि ऋण जैसे बिंदुओं पर केंद्र सरकार पूर्णतया विफल हो गई है.

पूरे देश का गन्ना किसान आज अपने आप को ठगा हुआ महसूस कर रहा है. गन्ना किसानों का निजी एवं सार्वजनिक चीनी मिलों पर 23,000 करोड़ रुपये भुगतान का बकाया है. सबसे ज्यादा बुरी हालत में उत्तर प्रदेश का गन्ना किसान है. इस पिराई सत्र में चीनी मिलों ने किसानो से 34,518.57 करोड रुपये का गन्ना खरीदा.

भाजपा ने गन्ने के बकाया भुगतान को 14 दिनों में करने के लिए वादा किया था. इस हिसाब से 33,375.79 करोड़ रुपये का भुगतान हो जाना चाहिए था, परंतु सरकार ने 21,151.56 करोड़ रुपये का भुगतान किया है. इस तरह अकेले उत्तर प्रदेश में 12,224.23 करोड़ रुपये का गन्ना भुगतान बकाया है.

गन्ने के किसान ने अपनी मेहनत से गन्ने के उत्पादन में कोई कसर नहीं छोड़ी. वर्ष 2015-16 मे चीनी मिलों ने 645.66 लाख टन गन्ने की पेराई की, वर्ष 2016-17 में 827.16 लाख टन और वर्ष 2017-18 में 1,100 लाख टन गन्ने की पेराई होने की उम्मीद है. चिंता का विषय यह है कि मई माह खत्म होने के कगार पर है और अभी भी किसानों की फसल खेतों में खड़ी है और चीनी मिलें पर्चियां जारी नहीं कर रही हैं.

इस वजह से किसान को अपना गन्ना औने-पौने दाम पर कोल्हू या क्रशर पर बेचना पड़ रहा है. वहीं, दूसरी तरफ केंद्र सरकार के मंत्री गन्ने की उपज बढ़ाने पर किसानों को कोस रहे हैं. केंद्र सरकार दावा करती है कि फसल बीमा योजना से देश के किसानों को बड़ा फायदा हुआ है.

सरकारी आंकड़े यह बताने के लिए काफी हैं कि फसल बीमा योजना से फायदा बीमा कंपनियों को हुआ है. वर्ष 2016-17 में केंद्र सरकार, राज्य सरकार और देश के किसानों ने मिलकर 22,180 करोड रुपये का प्रीमियम बीमा कंपनियों को दिया.

परंतु पूरे देश में किसानों को फसलों के नुकसान से मिलने वाले भुगतान का मूल्य है 12959 करोड़ रुपये था. इस हिसाब से कंपनियों को 9,221 करोड़ रुपये बचे. 2017-18 मे बीमा कंपनियों ने 24,450 करोड़ रुपये इकट्ठे किए. खरीफ की फसल के पकने के 4 माह पश्चात देश के किसानों को खराब हुई फसल के मुआवजे के रूप में सिर्फ 402 करोड़ रुपये मिले हैं.

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(फाइल फोटो: पीटीआई)

वर्ष 16-17 में 12,959.10 करोड़ रुपये एक करोड़ 12 लाख किसानों में बंटे जिसका प्रति किसान बीमा सहायता राशि का औसत 11570 रुपये बैठता है. बीमा की सहायता राशि का भुगतान एक जटिल प्रक्रिया है और भुगतान में देरी होने की वजह से किसान शोषणकारी हाथों में जकड़ता चला जाता है.

भारत के किसान ने पिछले 70 सालों में अपने अथक परिश्रम से देश को कृषि जिंसों के निर्यात में सक्षम बनाया. वर्ष 2013-14 मे देश के किसानों ने 43.23 बिलियन डॉलर का निर्यात किया जो वर्ष 2016 17 में 33.87 बिलियन डॉलर रह गया. दूसरी तरफ वर्ष 2013-14 मे यदि देश में 15.03 बिलियन डॉलर की कृषि जिंसों का आयात किया तो वर्ष 2016-17 में इस आयात की कीमत देश को 25.09 बिलियन डॉलर चुकानी पड़ी.

केंद्र सरकार ने गेहूं के आयात शुल्क को 25 प्रतिशत से घटाकर शून्य प्रतिशत उस समय कर दिया जब किसान का गेहूं बाजार में आ रहा था जिसकी वजह से किसान को ओने-पौने दामों में बिचौलियों के हाथों मजबूर होकर अपनी फसल बेचनी पड़ी.

कृषि उपकरणों पर केंद्र सरकार ने जीएसटी की ऊंची दरें लगा दी जिससे खेती का लागत मूल्य और बढ़ता चला गया. खेती में प्रयुक्त होने वाले कीटनाशक, टायर ट्यूब पर 18 प्रतिशत जीएसटी लगाया गया है और ट्रैक्टर और कृषि उपकरणों पर 12 प्रतिशत जीएसटी लगाया गया है. शीत भंडार ग्रहों पर भी 18 प्रतिशत जीएसटी की दर लगाई गई है.

न्यूनतम समर्थन मूल्य पर भाजपा ने वर्ष 2014 के घोषणा पत्र एवं प्रधानमंत्री मोदी के 2014 के चुनावी भाषणों में स्पष्टतय तौर पर लागत मूल्य पर 50 प्रतिशत मुनाफा दिए जाने की बात कही थी. स्वामीनाथन कमेटी को लागू करने का वादा किया गया था. सरकार ने यहां भी किसानों के साथ खिलवाड़ कर दिया.

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(फाइल फोटो: रॉयटर्स)

न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारण करने हेतु तीन घटकों को जोड़ा जाता है, पहला ए-टू, दूसरा एफ-एल और तीसरा सी-टू. सरकार ने यहां पर भी किसानों से बेईमानी कर ली. कृषि लागत एवं मूल्य आयोग के अनुसार किसानों को पहले दो घटकों को जोड़कर ही न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जा रहा है. इस विधि द्वारा किसानों की जेब से होने वाले लागत खर्च एवं उसके परिवार द्वारा कृषि उपज के लिए की गई की मजदूरी को तो जोड़ा गया है परतुं तीसरे घटक सी-टू को इस न्यूनतम समर्थन मूल्य में नहीं जोड़ा गया है.

इस घटक के अंतर्गत किसानों की जमीन का किराया और कर्ज राशि पर दिए गए ब्याज जैसे खर्च को जोड़ा जाता है. कृषि लागत एवं मूल्य आयोग ने वर्ष 2017-18 के लिए खरीफ की धान की फसल हेतु लागत मूल्य 1,117 रुपये प्रति कुंतल माना. लागत पर 50 प्रतिशत फायदा देने पर यह न्यूनतम समर्थन मूल्य करीब 700 रुपये प्रति कुंतल बैठता है. परंतु सरकार ने इस फसली सीजन के लिए 1550 रुपये प्रति कुंतल धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य रखा है.

मनमोहन सिंह सरकार के साथ यदि तुलनात्मक विश्लेषण किया जाए तो पिछले 4 वर्षों में मोदी सरकार ने गेहूं की फसल पर न्यूनतम समर्थन मूल्य 83.75 रुपये प्रति कुंतल की दर से प्रत्येक वर्ष बढाया जो की यूपीए के द्वितीय शासनकाल में 64 रुपये प्रति कुंतल प्रत्येक वर्ष की दर से ज्यादा है, परंतु यूपीए के प्रथम चरण के रुपये 90 प्रति कुंटल प्रत्येक वर्ष की दर से कम है.

वर्ष 2005 में धान का प्रति कुंतल समर्थन मूल्य 560 रुपये और गेहूं का 640 रुपये प्रति कुंतल था. मनमोहन सिंह सरकार ने अपने आखरी वर्ष 2013-14 मे धान का समर्थन मूल्य 1310 प्रति कुंतल और गेहूं का 1400 रुपए प्रति कुंतल छोड़ा था.

केंद्र सरकार यदि ग्रामीण क्षेत्र को संकट से उबरना चाहती है तो उसको तीन बिंदुओं पर विशेष रूप से कार्य करना होगा. पहला देश के किसानों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में सी-टू घटक को जोड़ा जाए दूसरा देश के किसानों का कर्ज तुरंत माफ किया जाए और तीसरा पूरे देश में किसानों की फसल के भंडारण हेतु एक बेहतर व्यवस्था बनाई जाए. उम्मीद है केंद्र सरकार अपनी नींद से जागेगी और ग्रामीण क्षेत्र को संकट से उबारने के लिए उपरोक्त कदम उठाएगी.

(लेखक कांग्रेस प्रवक्ता हैं)