शीर्ष अदालत ने कहा कि मौजूदा क़ानून के हिसाब से यह व्यवस्था इस मामले में संवैधानिक पीठ का अंतिम फैसला आने तक लागू रह सकती है.
नई दिल्ली: केंद्र को बड़ी राहत देते हुए उच्चतम न्यायालय ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति श्रेणी के कर्मचारियों को ‘कानून के अनुसार’ पदोन्नति में आरक्षण देने की मंगलवार को अनुमति दे दी.
शीर्ष अदालत ने केंद्र की दलीलों पर गौर किया जिसमें कहा गया था कि विभिन्न उच्च न्यायालयों के आदेशों और शीर्ष अदालत द्वारा 2015 में इसी तरह के एक मामले में ‘यथास्थिति बरकरार’ रखने का आदेश दिए जाने से की वजह से पदोन्नति की समूची प्रक्रिया रुक गई है.
न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल और न्यायमूर्ति अशोक भूषण की अवकाशकालीन पीठ ने कहा कि केंद्र के कानून के अनुसार पदोन्नति देने पर ‘रोक’ नहीं है. पीठ ने कहा, ‘यह स्पष्ट किया जाता है कि मामले पर आगे विचार किया जाना लंबित रहने तक भारत सरकार पर कानून के अनुसार पदोन्नति देने पर रोक नहीं है और यह आगे के आदेश पर निर्भर करेगा.’
सरकार ने कहा कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण देने के मुद्दे पर दिल्ली, बंबई और पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के अलग-अलग फैसले हैं और शीर्ष अदालत ने भी उन फैसलों के खिलाफ दायर अपील पर अलग-अलग आदेश दिए थे.
पीठ ने केंद्र की ओर से उपस्थित अतिरिक्त सॉलीसीटर जनरल (एएसजी) मनिंदर सिंह से कहा, ‘हम आपसे (केंद्र) कहते हैं कि आप कानून के अनुसार पदोन्नति में आरक्षण पर आगे बढ़ सकते हैं.’ सुनवाई के दौरान एएसजी ने सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण के मुद्दे पर पूर्व में सुनाए गए फैसलों का हवाला दिया और कहा कि एम नागराज मामले में शीर्ष अदालत का 2006 का फैसला लागू होगा.
एम नागराज फैसले में कहा गया था कि क्रीमी लेयर की अवधारणा सरकारी नौकरियों में पदोन्नति के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति पर लागू नहीं होती है. 1992 के इंदिरा साहनी और अन्य बनाम भारत सरकार (मंडल आयोग मामला) और 2005 में ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश सरकार मामले में फैसला अन्य पिछड़ा वर्ग में क्रीमी लेयर से संबंधित था.
सिंह ने कहा पीठ के समक्ष दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा पिछले साल 23 अगस्त को सुनाए गए फैसले को केंद्र की तरफ से चुनौती दिए जाने का मामला है. उसमें 16 नवंबर 1992 से पांच साल पूरे होने के बाद भी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण देने के सरकार के आदेश को निरस्त कर दिया था.
शुरुआत में एएसजी ने शीर्ष अदालत के पहले के आदेशों और पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ को भेजे गए रेफरेंस का उल्लेख किया और दावा किया कि एक आदेश कहता है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण देने का जहां तक सवाल है तो उसपर ‘यथास्थिति’ रहेगी.
उन्होंने इसी तरह के मामले में न्यायमूर्ति कुरियन जोसफ की अध्यक्षता वाली पीठ द्वारा 17 मई को दिये गए आदेश का उल्लेख किया जिसमें कहा गया कि उसके समक्ष लंबित याचिका पदोन्नति की दिशा में केंद्र की ओर से उठाए जाने वाले कदमों की राह में आड़े नहीं आनी चाहिए.
पीठ ने पूछा, ‘फिलहाल पदोन्नति कैसे हो रही है.’ इसपर एएसजी ने कहा, ‘पदोन्नति नहीं हो रही है. यह रुकी हुई है. यही समस्या है.’ उन्होंने कहा, ‘मैं सरकार हूं और मैं संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार आरक्षण देना चाहता हूं.’
उन्होंने अनुरोध किया कि वह उसी तरह का आदेश चाह रहे हैं जैसा 17 मई को दिया गया. उन्होंने कहा कि शीर्ष अदालत की एक अन्य पीठ ने इससे पहले कहा था कि पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ मुद्दे का परीक्षण करेगी कि क्या एम नागराज मामले में सुनाए गए फैसले पर दोबारा विचार किए जाने की जरूरत है या नहीं.
उसमें सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को आरक्षण देने के लिये ‘क्रीमी लेयर’ को लागू किए जाने के मुद्दे पर विचार किया गया था.
उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 16 (4ए) का भी उल्लेख किया जो राज्य को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जाति को पदोन्नति के मामले में आरक्षण देने में सक्षम बनाता है, बशर्ते उसकी राय हो कि सेवाओं में उन समुदायों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है.
पीठ ने कहा, ‘यह सक्षम बनाने वाला प्रावधान है.’ उसने कहा कि अनुच्छेद 16 (4ए) के अनुसार राज्य को संख्यात्मक आंकड़ों के आधार पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए मामला बनाना होगा.
उस प्रावधान में यह भी कहा गया है कि आंकड़ा पिछड़ेपन, अपर्याप्त प्रतिनिधित्व और समग्र कार्यक्षमता जैसे कारकों पर आधारित होना चाहिए. पीठ ने केंद्र की अपील को अन्य लंबित मामलों के साथ जोड़ दिया.
इससे पहले पिछले साल 15 नवंबर को शीर्ष अदालत की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने इस बात पर विचार करने पर सहमति जता दी थी कि क्या एम नागराज मामले में 11 साल पहले सुनाए गए फैसले पर पुनर्विचार की जरूरत है.
शीर्ष अदालत ने महाराष्ट्र सरकार की दो अधिसूचनाओं को संविधान के अनुच्छेद 16 (4ए) के दायरे से बाहर बताते हुए रद्द करने वाले बंबई उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए मामले को संविधान पीठ के पास भेज दिया था.
दिल्ली उच्च न्यायालय ने पिछले साल 23 अगस्त को अपने फैसले में कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदाय के कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण देने के मुद्दे पर जारी 1997 के कार्यालय ज्ञापन को निरस्त कर दिया था.
उच्च न्यायालय ने समुदाय के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व पर आंकड़ों का संग्रह किए बिना पदोन्नति में आरक्षण देने से केंद्र को रोक दिया था. उच्चतम न्यायालय के नौ न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 1992 में इंदिरा साहनी मामले में अपने फैसले में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को 16 नवंबर 1992 से पांच साल की अवधि के लिए पदोन्नति में आरक्षण देने की अनुमति दी थी.