मिड डे मील योजना को आधार कार्ड से जोड़ना पहले से ही कमज़ोर हमारी स्कूली प्रणाली को और धक्का पहुंचा सकती है. सवाल उठता है कि आख़िर सरकार बायोमेट्रिक सत्यापन के ज़रिये किस समस्या का समाधान करना चाह रही है?
28 फरवरी, 2017 को मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने आधार अधिनियम के अनुच्छेद 7 को लागू करते हुए मिड डे मील से जुड़ी एक अधिसूचना जारी की. इसमें कहा गया कि
‘कोई भी व्यक्ति जो इस योजना का लाभ उठाना चाहता है, उसे आधार कार्ड होने का प्रमाण देना होगा. वैसे लोग जिनके पास आधार नंबर नहीं है या जिन्होंने अब तक आधार कार्ड के लिए नामांकन नहीं कराया है, उन्हें आधार सूची में नामांकन के लिए 30 जून, 2017 तक आवेदन करना होगा. इससे आगे, अधिसूचना में कहा गया है.’
अधिसूचना में इससे आगे कहा गया है,
‘उस समय तक, जब तक लाभार्थियों को आधार नंबर नहीं दे दिया जाए, उन्हें पूर्व में मिल रहे लाभ मिलते रहेंगे, लेकिन इसके लिए शर्त ये है कि वे कुछ दस्तावेज पेश करें.’
उन्हें तीन दस्तावेज पेश करने होंगे:
1. (ए) आधार नामांकन पर्ची या (बी) आधार नामांकन के लिए आवेदन की प्रति.
2. माता-पिता या अभिभावक को यह शपथ लेनी होगी कि उनके बच्चे का नामांकन किसी दूसरे स्कूल में नहीं है.
और
3. सात पहचान दस्तावेजों में से कोई एक.
अधिसूचना के मुताबिक, अगर किसी बच्चे का नामांकन आधार के लिए नहीं कराया गया है तो उसे मिड डे मिल पाने के योग्य बने रहने के लिए अपनी आधार नामांकन पर्ची के अलावा दो अन्य तरह के दस्तावेज भी पेश करने होंगे.
इन बेहद कठोर नियमों पर सवाल खड़े होने के मद्देनजर, एक सप्ताह के बाद प्रेस रिलीज निकालकर आधार डेटाबेस में बच्चों के बलात् नामांकन के प्रावधान को बदलकर ‘स्वैच्छिक’ प्रकृति का कर दिया गया. उसमें कहा गया,
‘यह सुनिश्चित किया गया है कि आधार न होने के कारण किसी को भी लाभ से वंचित न किया जाए. मिड डे मील योजना में और समन्वित बाल विकास योजना (इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट स्कीम), विद्यालयों और आंगनबाड़ियों को लाभार्थियों का आधार नंबर इकट्ठा करने के लिए कहा गया है और वैसे मामलों में जिनमें किसी बच्चे के पास आधार नहीं है, अधिकारियों को आधार नामांकन सुविधा उपलब्ध कराना होगा और जब तक ऐसा न हो लाभार्थियों को मिल रहे लाभ जारी रहेंगे.’
साफ है, नियमों में किसी किस्म की ढील नहीं दी गई है, बस सुर्खियों का प्रबंधन किया गया, ‘सरकार ने आधार नियमों में ढील दी, दूसरे पहचान पत्रों को सब्सिडी योजना के लिए स्वीकार्य बनाया.’
कई लोग सुर्खियों के प्रबंधन की इस पुरानी चाल में फंस गए. उदाहरण के लिए राज्यसभा में जयराम रमेश (इस चाल को उनसे बेहतर कौन जान सकता है. ज्यादा वक्त नहीं बीता जब वे सरकार मे थे और उनकी सरकार भी इस तरह की चालें चला करती थी.) ने कहा,
सरकार के पक्ष से यह कहना एक आपराधिक कृत्य था कि रोज मिड डे मील पाने वाले 14 करोड़ बच्चों को आधार कार्ड उपलब्ध कराने पर ही भोजन कराया जाएगा… जब सरकार के इस कदम पर राजनीतिक दलों ने हंगामा खड़ा किया तब कहीं जाकर मानव संसाधन विकास मंत्री ने सफाई दी कि यह स्वैच्छिक है. इसके लिए वैकल्पिक पहचान पत्र स्वीकार किए जाएंगे.’
जबकि हकीकत यह है कि 28 फरवरी, 2017 को जारी की गई अधिसूचना आज भी जस का तस प्रभाव में है और बच्चों को इससे किसी किस्म की राहत नहीं मिली है.
दो कारणों से आधार को मिड डे मील से जोड़ने का यह कदम सवाल खड़े करता है. पहली बात, अपने मौजूदा रूप में बच्चों को जबरदस्ती नामांकन करने के लिए बाध्य करने का मतलब है कि पूरी ज़िंदगी उन पर निगरानी रखी जा सकती है (वह भी उनकी रज़ामंदी के बगैर, क्योंकि अभी वे नाबालिग हैं.) और भविष्य में उनके पास बाद के जीवन में आधार से बाहर निकलने का विकल्प भी नहीं रहेगा (अधिनियम में ऐसा कोई प्रावधान ही नहीं है.) कई अभिभावकों ने ट्वीट किया है कि किस तरह उन्हें उनके बच्चे को आधार के लिए नामांकन कराने के लिए बाध्य किया गया. जिन पाठकों की रुचि हो, वे कृतिका भारद्वाज के इस लेख को पढ़ सकते हैं.
दूसरी बात, मिड डे मील योजना में आधार की कोई भूमिका नहीं है. सरकारी अधिसूचना कहती है कि सरकार सिर्फ़ बच्चों का आधार के लिए नामांकन कराना चाहती है. यानी इस कदम से विद्यालय पोषाहार कार्यक्रम को बेहतर बनाने में कोई मदद नहीं मिलेगी.
वैसे बच्चे जो सरकारी स्कूलों में मिड डे मील लेते हैं, वे वहां पहले से ही नामांकित हैं और वे बिना किसी अतिरिक्त प्रमाण के इसे पाने का हक रखते हैं. इस तरह देखें, तो आधार के पक्ष में जहां यह तर्क दिया जाता है कि यह पहुंच को बाधा-मुक्त बनाने वाला औजार है, उसके उलट यह वास्तव में पहुंच की राह में अवरोध उत्पन्न कर रहा है.
जहां तक नामांकन के लिए दबाव बनाने का सवाल है, तो इसके परिणाम भी बेहद अवरोधपरक साबित हो सकते हैं- यह न केवल मिड डे मील कार्यक्रम को पटरी से उतार सकता है बल्कि स्कूलों में शिक्षा संबंधी गतिविधियों को भी नुकसान पहुंचा सकता है.
शिक्षकों और पहले से ही काम का काफी दबाव झेल रहे स्कूल प्रशासन को अलग से आधार नामांकन के लिए व्यवस्था करनी होगी. एक बार यह काम कर लिया जाए तो पूरी व्यवस्था में आधार के हिसाब से बदलाव लाना होगा, जिससे समय की काफी बर्बादी होगी.
ठीक यही स्थिति मनरेगा और पीडीएस (लोक वितरण प्रणाली) को लेकर पैदा हुई है, जहां कार्यक्रम से जुड़े कर्मचारी आधार के बोझ के कारण अपने रोज़ के कामों को अंजाम देने में दिक्कत महसूस कर रहे हैं. इसने कई जगहों पर मनरेगा के कार्यों पर ब्रेक भी लगा दिया है.
अगर सरकार की योजना यह है कि सभी बच्चों का (जबरदस्ती) आधार के लिए नामांकन कराने के बाद, भोजन परोसने से पहले, उनका बायोमेट्रिक सत्यापन करने की दिशा में कदम बढ़ाया जाएगा, तो ज़ाहिर है यह कदम मिड डे मील कार्यक्रम को नुकसान पहुंचाएगा. पेंशन, पीडीएस और मनरेगा में आधार के एप्लिकेशन ने यह दिखाया है कि इस तकनीक की असफलता की आशंका काफी ज्यादा है.
उदाहरण के लिए, ऐसा भी देखने में आया है कि आधार कार्ड को गलत तरीके से दर्ज किया गया है, जिसका परिणाम यह हुआ है कि साधारण लोगों को इसे ठीक कराने के लिए ब्लॉक मुख्यालयों तक भाग-दौड़ करनी पड़ी है और रिकॉर्ड को दुरुस्त कराने के लिए उन्हें हफ्तों का इंतज़ार करना पड़ा है.
यूआईडीएआई के अंतर्गत पचास आइटमों को एरर कोड लिस्ट यानी गलती हो सकने वाली चीजों के भीतर रखा गया है. यह भी हो सकता है कि किसी व्यक्ति का फिंगर प्रिंट ही बदल जाए या सत्यापन डिवाइस द्वारा उन्हें पहचान पाना संभव ही न रहे.
या यह भी हो सकता है कि फोन नेटवर्क या इंटरनेट काम न करे. कोई भी जीवन रक्षक अधिकारों को, जैसे- राशन, पेंशन, स्कॉलरशिप आदि को इतनी कमज़ोर व्यवस्था के भरोसे नहीं छोड़ सकता.
निश्चित तौर पर सबसे पहले यह सवाल उठता है कि आख़िर सरकार बायोमेट्रिक सत्यापन के ज़रिये किस समस्या का समाधान करना चाह रही है. इसके पक्ष में एकमात्र तर्क दैनिक हाजिरी में हेर-फेर करके की जाने वाली वृद्धि हो सकता है: यानी, कुछ बच्चों की हाजिरी तब भी दर्ज करना, जब वे स्कूल से गैरहाज़िर हों.
अगर इस तरह से वास्तविक से ज़्यादा हाजिरी लगती हो तो लोगों के अनुभवों के आधार पर कहें, तो इसके दो कारण हो सकते हैं. एक, आधिकारिक दैनिक आवंटन मेन्यू के आधार पर भोजन उपलब्ध कराने से हिसाब से अपर्याप्त हो.
उदाहरण के लिए वर्तमान में प्रति छात्र दैनिक आवंटन लगभग पांच रुपये है और ऐसे दिनों में जब मिड डे मील में अंडे के साथ चावल और दाल दिए जाने की अपेक्षा की जाती है, यह आवंटन नाकाफी होता है.
इस कमी की भरपाई जहां भी संभव होता है, ज़्यादा हाजिरी दिखाकर की जाती है. (जब ऐसा नहीं होता है, तब शिक्षक कम कीमत पर वस्तुओं की खरीद करने के लिए काफी मोल-भाव करते हैं और कई मामलों में तो ऐसा भी देखा गया है कि इसके लिए समुदायों की मदद ली जाती है.)
मिड डे मील का फंड बढ़ाने की जगह, सरकार सिस्टम को और कस रही है. उदाहरण के लिए 7 अगस्त, 2015 केंद्र सरकार ने मिड डे मील के लिए स्कूलों को दिया जाने वाला एलपीजी सब्सिडी समाप्त कर दिया. क्या सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों से बेहतर कोई और एलपीजी सब्सिडी का लाभार्थी हो सकता था?
हाजिरी को बढ़ा कर दिखाने का एक अन्य कारण फंड के साथ हेरा-फेरी करना है. ऐसे मामलों में प्रशासकों (शिक्षक, आयोजनकर्ता, रसोइये और सहायक) के द्वारा झूठा रिकॉर्ड बनाया जाता है.
इस तरह से अगर सज़ा देनी है तो इन्हें दी जानी चाहिए, न कि बच्चों को. बायोमेट्रिक सत्यापन की शुरुआत करने का अंजाम छात्रों को बिना उनकी गलती के सजा देना होगा.
अगर हाजिरी में फर्जीवाड़ा वास्तव में होता है तो इसके निदान के दूसरे आसान और बेहतर समाधान हैं. जैसे- शिक्षक हर दिन छात्रों की संख्या एसएमएस कर सकते हैं और ब्लॉक ऑफिस बिना बताए इन संख्याओं का सत्यापन कर सकता है.
मिड डे मील भारत की सबसे सफल सामाजिक नीतियों में से एक है, जिससे होने वाले लाभों का विस्तार काफी ज़्यादा है, खासकर स्कूल हाजिरी, बाल पोषण, शिक्षण आदि में. मिड डे मील से जुड़ी हुई सबसे अहम समस्याओं (बेहतर मेन्यू, सुरक्षित भंडारण मुहैया कराना, खाना पकाने के लिए उपयुक्त स्थान प्रदान करना, फंड को सही समय पर निर्गत करना) आदि का समाधान आधार-लिंकेज से नहीं किया जा सकता.
मिड डे मील को लेकर सरकारी अधिसूचना हमारी पहले से ही कमजोर स्कूली प्रणाली को और धक्का पहुंचा सकती है.
(रीतिका खेड़ा आईआईटी दिल्ली में पढ़ाती हैं.)