झारखंड में शिक्षा, स्वास्थ्य और महिला बाल कल्याण जैसे महत्वपूर्ण विभागों में बड़ी तादाद में तैनात मानदेयकर्मियों को एक दिहाड़ी मज़दूर से भी कम वेतन मिलता है. लिहाज़ा प्रदर्शनों का सिलसिला जारी है.
इस भीषण गर्मी में सड़कों पर लगातार धरना, जुलूस, प्रदर्शन, जब-तब अफसरों की हिदायत और पुलिस की घेराबंदी का सामना, क्या दिक्कत नहीं होती इससे. इसके जवाब में झारखंड की राजधानी रांची में धरने पर बैठीं आंगनबाड़ी सेविका सुनीता कहती है, ‘सरकार से पूछिए न कि हमारी ये हालत क्यों बना रखी है? आश्वासन तो दिए ही जा रहे हैं. ये आश्वासन पुराने हैं और हम सभी सालों से इन्हीं आश्वासनों के बीच मारे जा रहे हैं.’
इस बीच नारा गूंजता है, ‘रघुपति राघव राजा राम, कब तक करें 4400 रुपये में 44 काम… हमारी मांगें पूरी करो, वरना गद्दी छोड़ दो…’
नीली बॉर्डर वाली गुलाबी साड़ियां पहनीं ये महिलाएं झारखंड में आंगनबाड़ी केंद्रों की सेविका और सहायिका हैं. राज्य में 38 हज़ार 432 आंगनबाड़ी केंद्र हैं और इनमें सेविका, सहायिका के तौर पर काम करने वाली महिलाओं की तादाद लगभग 75 हज़ार है.
मानदेय बढ़ाने और अन्य सुविधाओं की मांग को लेकर झारखंड प्रदेश आंगनबाड़ी वर्कर्स यूनियन के बैनर तले ये महिलाएं राजधानी रांची से लेकर ज़िला और प्रखंड मुख्यालयों में पिछले 33 दिनों तक आंदोलन करती रहीं.
लिहाज़ा आंगनबाड़ी केंद्रों में ताले लटके रहे. इससे मासूम बच्चों को पोषाहार तथा गर्भवती महिलाओं को पूरक आहार नहीं मिला.
इस बीच सात जून को समाज कल्याण निदेशक से वार्ता के बाद आंदोलन ख़त्म करने की घोषणा की गई, लेकिन महिलाओं ने आगाह कराया है कि उन्हें सकारात्मक पहल का इंतज़ार रहेगा.
इससे पहले 30 मई को राज्य भर की आंगनबाड़ी सेविकाएं मुख्यमंत्री का आवास घेरने रांची में जुटी थीं. हालांकि, मुख्यमंत्री आवास पहुंचने से पहले ही उन्हें पुलिस ने रोक दिया था.
गौरतलब है कि झारखंड राज्य में आंगनबाड़ी सेविकाओं को बतौर मानदेय 4400 रुपये तथा सहायिकाओं को 2200 रुपये दिए जाते हैं.
आंगनबाड़ी वर्कर्स यूनियन के अध्यक्ष बालमुकुंद सिन्हा कहते हैं कि यह राशि भी इन महिलाओं ने लंबे संघर्ष के बाद हासिल की है. इस बार नौ सूत्री मांगों को लेकर उन लोगों ने आंदोलन का रुख़ अख्तियार किया था.
कई दफा की वार्ता के बाद अधिकारियों ने आश्वासन दिया है कि दिसंबर तक ठोस क़दम उठाए जाएंगे.
उनका कहना है कि सेविकाओं के मानदेय में 3000 रुपये केंद्र और 1400 रुपये राज्य सरकार वहन करती है. इसी मानदेय को बढ़ाने, भविष्य निधि लागू करने, महंगाई, यात्रा भत्ता देने, चिकित्सा सुविधा समेत कई मांग को लेकर वे लोग सड़कों पर ठोकरे खा रहे हैं.
जबकि मानदेय के अलावा इन महिलाओं को किसी तरह की सुविधा नहीं दी जाती और सरकार को भी पता है कि बाल विकास परियोजना कार्यक्रम संभालने की ज़िम्मेदारी इन्हीं लोगों पर है.
गौरतलब है कि आंगनबाड़ी केंद्रों में मुख्य तौर पर छह सेवाएं- पूरक आहार, टीकाकरण, स्वास्थ्य जांच, रेफरल सेवाएं, स्कूल पूर्व शिक्षा तथा स्वास्थ्य शिक्षा शामिल हैं.
4400 रुपये में 44 काम
4400 रुपये में 44 काम. यह नारा कैसे गढ़ा? इस सवाल पर सुमन कुमारी, शबाना खातून, वीणा, सीता तिग्गा एक साथ बोल पड़ती हैं, ‘मत पूछिए, माल गुजारी काटना छोड़ कर लगभग हर काम हमारे ज़िम्मे है. इनमें किशोरियों का सर्वे, अति कुपोषित बच्चो को जिला भेजना, टीकाकरण कराना, लक्ष्मी लाडली योजना का काम संभालना, राशन कार्ड, आधार कार्ड बनवाना, कन्यादान योजना के लिए लाभांवितों की सूची बनाने से लेकर सामाजिक-आर्थिक सर्वे में शामिल रहना, बैंकों में खाता खुलवाना और फिर आंगनबाड़ी केंद्र के संचालन की रिपोर्ट तैयार करना.’
वीणा कहती हैं कि तब किसी किस्म की सुविधा नहीं. कोई भत्ता नहीं. मानदेय के तौर पर एक दिन का 150 रुपये मिलता है जो दिहाड़ी मजदूरी से भी कम है. फिर सेवा चाहिए एकदम क्वालिटी वाला. इस हाल में सड़कों पर वे कलपती-चीखती हैं, तो इसमें क्या गुनाह है.
खूंटी की झुबली की पीड़ा यह है कि ये मानदेय भी कभी समय पर नहीं मिलते.
हाल ही में पब्लिक हेल्थ रिसोर्स नेटवर्क तथा मोबाइल क्रेच संस्था ने आंगनबाड़ी केंद्रों पर किए गए एक अध्ययन के बाद यह बताया है कि झारखंड में आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं पर काम का बोझ अधिक है. जबकि समुदायों की भागीदारी और विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया के बिना आंगनबाड़ी सेवा में झारखंड पीछे है. उधर केरल, दिल्ली की सरकार ने इस दिशा में ठोस क़दम उठाए हैं.
आंगनबाड़ी वर्कर्स यूनियन का नेतृत्व करती रहीं रांची ज़िला परिषद की पूर्व अध्यक्ष सुंदरी तिर्की कहती हैं कि सरकार की दमनात्मक नीति की वजह से सेविकाएं काम पर वापस लौटने को विवश हुई हैं.
वे कहती हैं कि गौर कीजिए छह जून को हड़ताल पर डटी रांची ज़िले की 15 सेविकाओं का चयन रद्द करने के फैसले के साथ सभी ज़िलों में हड़तालियों पर कार्रवाई करने का पत्र भेजा गया, जिसके ज़रिये गांव-कस्बों की गरीब महिलाओं को डराया गया. हालांकि, यूनियन के साथ वार्ता में अब चयन रद्द नहीं करने की सहमति दी गई है.
सुंदरी कहती हैं कि आंगनबाड़ी केंद्रों में बड़ी तादाद में आदिवासी और आख़िरी कतार की महिलाएं काम करती हैं, लेकिन बीजेपी की सरकार आदिवासी महिलाओं की समस्याओं के समाधान के प्रति कतई गंभीर नहीं है और ज़मीन से जुड़े ऐसे मामले सरकार के एजेंडे में भी नहीं हैं.
इस बीच, राज्य की महिला बाल कल्याण मंत्री डॉ. लुइस मरांडी ने मीडिया से कहा है कि सरकार आंगनबाड़ी सेविकाओं की मांग को लेकर संवेदनशील है. मुख्यमंत्री की पहल पर जमशेदपुर में अधिकारियों ने आंदोलन कर रही सेविकाओं से बातें की. जबकि विभाग के आला अधिकारियों से कहा गया है कि उनकी मांगों पर सकारात्मक क़दम उठाए जाएं.
सरकार की मंशा पर उठते सवाल
खूंटी के एक सुदूर गांव नामसीली के जीवा मुंडा बताते हैं कि आंगनबाड़ी केंद्रों के संचालन को लेकर सरकार गंभीर नहीं है. पिछले साल के दिसंबर महीने में कई हफ्ते तक चावल की आपूर्ति नहीं होने से बच्चों को खिचड़ी नहीं मिली थी.
सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों पर नज़र रखने वाले टीवी पत्रकार शैलेंद्र सिन्हा बताते हैं कि झारखंड के दूरदराज़ के आदिवासी इलाकों में जाएं तो आंगनबाड़ी कार्यक्रम का कड़वा सच सामने आ जाएगा. सेविकाएं और सहायिकाएं सबसे ज़्यादा मुश्किलों में हैं. समय पर चावल का आवंटन नहीं होता, जलावन और नून-मसाला खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं, तो खिचड़ी की हांडी चढ़े कैसे? लिहाज़ा बच्चों के निवाले और सेहत पर असर साफ देखा जा सकता है.
वहीं, नगड़ी की सोमा देवी बताती हैं कि सेविकाओं के हड़ताल पर जाने से बच्चों को पोषाहार का संकट हो गया है.
भोजन के अधिकार से जुड़े जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता बलराम कहते हैं, ‘वैसे भी इस राज्य में कुपोषण बड़ी समस्या है. तब इस हड़ताल के बरक्स सरकार की गंभीरता देखी जा सकती है.’
वे कहते हैं कि राज्य में 48 फीसदी बच्चे कुपोषण के जद में हैं जबकि 4.5 लाख बच्चे अति कुपोषित हैं और उनकी जान ख़तरे में है. भूख से लगातार होती मौत को लेकर राज्य सुर्ख़ियों में रहा है, भले ही सरकार और उनका सिस्टम इसे मानने से साफ इनकार करते रहें.
वे कहते हैं, ‘इसके बाद भी आंगनबाड़ी सेविकाओं की हड़ताल टालने के लिए ठोस क़दम नहीं उठाए गए. जबकि, पोषाहार आपूर्ति और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियिम, 2013 के तहत चलने वाली योजनाओं को अनिवार्य सेवा में शामिल किया गया है.’
वे ज़ोर देते हैं कि इस कानून के तहत पोषाहार नहीं मिलने की स्थिति में सरकार बच्चों को मुआवज़ा दे और इस हालत के लिए अधिकारियों की ज़िम्मेदारी तय करते हुए कार्रवाई की जाए.
वे बताते हैं कि दूसरे कई राज्यों में आंगनबाड़ी सेविकाओं को 10 हज़ार रुपये तक मानदेय दिया जाता है. सरकार को इस पर गौर करना चाहिए.
मानदेय के लिए तरसते शिक्षक
इधर, राज्य के करीब 70 हज़ार पारा शिक्षकों (शिक्षा मित्रों) को पांच महीने से मानदेय का भुगतान नहीं हुआ है.
एकीकृत पारा शिक्षक संघर्ष मोर्चा के बजरंग कुमार कहते हैं कि झारखंड की शिक्षा व्यवस्था संभालने में पारा शिक्षकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, लेकिन सरकार के रवैये ने हमारा हाल दिहाड़ी मजदूर सा बना रखा है.
हाल ही में राज्य के अलग-अलग हिस्सों से पारा शिक्षकों का जत्था तिंरगा लेकर पैदल मार्च करते हुए राजधानी रांची पहुंचा था. रांची में विरोध मार्च निकाले जाने तथा अनिश्चितकाल धरने के ऐलान के बाद सरकार ने मानदेय बढ़ाने के मुद्दे पर अधिकारियों की एक कमेटी गठित की है.
इस कमेटी में शिक्षकों के तीन प्रतिनिधियों को भी शामिल किया गया है. बजरंग कुमार बताते हैं कि मानदेय बढ़ाने के लिए दूसरे राज्यों से नियमावली मंगाने की बात है. कब तक ये सब चलता रहेगा, यह देखना बाकी है.
उनका कहना है कि फिलहाल पांच महीने से मानदेय नहीं मिलने से शिक्षकों की तंगहाली बढ़ती जा रही है.
ज़िम्मेदार अधिकारियों से बात करने पर पता चला कि केंद्र सरकार ने स्वीकृत बजट की राशि नहीं भेजी है. बीए-एमए, बीएड करने और प्रशिक्षण हासिल करने के बाद गुरबत के ये दिन देखने के लिए झारखंड के युवा विवश हैं.
गौरतलब है कि आठ से 10 हज़ार के मानदेय पर ये शिक्षक राज्य के सरकारी स्कूलों में पहली से आठवीं कक्षा तक पढ़ाते हैं. और इतना मानदेय पाने के लिए भी उन्होंने दस सालों की लड़ाई लड़ी है. मानदेय के अलावा किसी किस्म की सुविधा उन्हें नहीं मिलती.
बजरंग बताते हैं कि कई मौकों पर किसी पारा शिक्षक की आकस्मिक मौत पर गरीब परिवार 50 किलो चावल के लिए तरस कर रह जाता है.
एकीकृत पारा शिक्षक संघर्ष मोर्चा के संयोजक बिनोद बिहारी महतो बताते हैं कि ईद सामने है और मुस्लिम समुदाय के शिक्षकों में उदासी है.
बिनोद इस बात पर ज़ोर देते हैं कि दूसरे कई राज्यों में पारा शिक्षकों को सम्मानजनक पैसे दिए जा रहे हैं, लेकिन झारखंड में सरकार और सिस्टम की नज़रों में हमारी कोई अहमियत नहीं है.
वे बताते हैं कि हाल ही में धनबाद के बोरियो में पारा शिक्षक हकीमुद्दीन अंसारी की पुत्री का निधन हो गया. पैसे के अभाव में वे बेटी का मुकम्मल इलाज नहीं करा सके थे.
स्कूलों में मिड डे मील तैयार करने वाली रसोइयों का भी दर्द कम नहीं
झारखंड के सरकारी स्कूलों में मिड डे मील तैयार करने वालीं रसोइया और इस काम को संभालने वालीं संयोजिकाओं का दर्द भी कम नहीं है. जब-तब वे अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर उतरती रही हैं.
रसोइया-संयोजिका संघ के अजीत प्रजापति बताते हैं कि लंबी लड़ाई के बाद 1500 रुपये के मानदेय पर गांव की महिलाएं बच्चों के लिए खाना पकाती हैं. जबकि संयोजिका को कोई मानदेय नहीं मिलता.
वे कहते हैं, ‘इसके बाद भी सरकार अब सेंट्रलाइज़्ड किचन सिस्टम में जुटी है. जहां, निजी एजेंसियों के द्वारा भोजन पकाए जाने के बाद बच्चों के बीच भेजा जाएगा. लिहाज़ा इसका भी डर है कि सालों तक दस पैसे और चार आने थाली के हिसाब से खाना पकाने वाली गांवों की महिलाएं फांका काटने को विवश हो जाएंगी.’
यही कारण है कि झारखंड में सड़कों पर रसोइया भी विरोध करती नज़र आ रही हैं.
रांची के एक सुदूर गांव की रसोइया रूबी मुंडा बताती हैं कि ये पैसे भी साल के 10 महीने ही मिलते हैं. जबकि लकड़ी के चूल्हे पर बच्चों का खाना पकाना फिर परोसना आसान नहीं होता. इस काम के लिए सरकार उन्हें मजदूर ही घोषित कर दे और तय मजदूरी दे दे.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और झारखंड में रहते हैं.)