ज़्यादातर वरिष्ठ नौकरशाहों का कहना है कि नरेंद्र मोदी सरकार को लैटरल एंट्री के संबंध में और ज़्यादा स्पष्टीकरण देने की ज़रूरत है.
नई दिल्ली: केंद्रीय नौकरशाही के हिस्से में लैटरल एंट्री (भारतीय प्रशासनिक सेवा से इतर के अधिकारियों की एंट्री) की इजाजत देने की केंद्र सरकार की पहल ने एक जटिल बहस को फिर से सुलगा दिया है, जिस पर कम से कम दो दशकों से जब-तब चर्चा होती रही है.
लोकसेवकों का एक बड़ा तबका इस विचार के पूरी तरह से खिलाफ रहा है- हालांकि वे भी भारतीय प्रशासनिक सेवा में विशेषज्ञता की जरूरत को स्वाकार करते हैं. इस विचार के पैरोकारों का मानना है कि इससे सरकारी कामकाज में नई ऊर्जा आएगी और इससे नौकरशाहों की कमी को पूरा किया जा सकेगा, खासकर बड़े राज्यों में.
भारत सरकार ने एक पायलट परियोजना के तहत ज्वाइंट सेक्रेटरी के दस पदों के लिए रिक्तियां निकाली हैं. ये भर्तियां तीन साल के कॉन्ट्रैक्ट पर होंगी, जिसे प्रदर्शन को देखते हुए बढ़ाकर 5 साल भी किया जा सकता है. इसके लिए उम्मीदवारों की उम्र 40 साल से ज्यादा होना चाहिए और उनके पास कम से कम पीएचडी की डिग्री होनी चाहिए. ये भर्तियां कैबिनेट सेक्रेटरी के नेतृत्व वाली एक कमेटी के द्वारा अगले दो महीनों में की जाएंगी.
2014 चुने जाने के फौरन बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने जो कुछ शुरुआती बैठकें की थीं, उनमें से एक सिविल सेवा में लैटरल एंट्री के जरिए विशेषज्ञों की भर्ती का रास्ता निकालने को लेकर थीं. प्रधानमंत्री ने विभिन्न मंत्रालयों के सेक्रटरियों को ज्वाइंट सेक्रेटरी के स्तर पर अकादमिक जगत और निजी क्षेत्र से नौकरशाहों के क्षैतिज प्रवेश (लैटरल एंट्री) के लिए प्रस्ताव तैयार करने के लिए कहा था. लेकिन, इस दिशा में अगले तीन वर्षों में कोई प्रगति नहीं हुई, जिसका कारण यह था कि इस दिशा में कोई गंभीर प्रस्ताव नहीं आया.
लेकिन पिछले साल जुलाई में, प्रधानमंत्री कार्यालय ने कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय (डिपार्टमेंट ऑफ पर्सोनेल एंड ट्रेनिंग) को अर्थव्यवस्था एवं बुनियादी ढांचा से संबद्ध मंत्रालयों में ऐसे पेशेवरों को सेवा पर रखने के संबंध में प्रस्ताव तैयार करने के लिए कहा. सरकार ने वास्तव में 2005 के दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग से यह विचार चुराया है, जिसने पारदर्शी और संस्थानीकृत तरीके से केंद्रीय और राज्य, दोनों ही स्तर पर अधिकारियों की लैटरल एंट्री की सिफारिश की थी.
कई प्राइवेट थिंक टेंक, जैसे कार्नेजी एंडॉवमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस, सिविल सेवाओ में सुधार के लिए लैटरल एंट्री की व्यवस्था की इजाजत देने की मांग करते रहे हैं. मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्यों में अफसरों की कमी ने भी सरकार को स्थापित प्रक्रिया से बाहर जाकर भर्ती करने की संभावनाओं को टटोलने के लिए प्रेरित किया है.
ऐसा पहली बार नहीं है, जब सिविल सेवा से बाहर से विशेषज्ञों को बुलाया जा रहा है. सेक्रेटरी स्तर पर विभिन्न सरकारों द्वारा कई ऐसे विशेषज्ञों की बहाली की जा चुकी है. लेकिन निश्चित तौर पर यह पहली बार है कि सरकार ज्वाइंट सेक्रेटरी के अहम स्तर पर, जिसके ऊपर ज्यादातर नीतियों की रूपरेखा तैयार करने की जिम्मेदारी होती है, पेशेवरों की सेवा लेने की योजना बना रही है.
ऐसे में इसमें हैरत की कोई बात नहीं है कि सरकार के इस कदम ने प्रशंसा और संदेह, दोनों को जन्म दिया है.
‘यूपीएससी प्रणाली को नजरदांज किया गया’
सबसे पहले संदेहों की बात करते हैं. वरिष्ठ पदों से सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारियों में से कई इस पहल को थोड़े संदेह के साथ देखते हैं, हालांकि किसी ने भी विशेषज्ञों की लैटरल एंट्री के विचार का विरोध नहीं किया.
उन्होंने इस तथ्य को लेकर अपना विरोध प्रकट किया कि सरकार ने संघ लोकसेवा आयोग (यूपीएससी) को दरगुजर करके लैटरल एंट्री की इजाजत दी है, जिसके कंधों पर हर साल त्रिस्तरीय सिविल सेवा परीक्षा आयोजित कराने की जिम्मेदारी है. इसकी जगह इसने कैबिनेट सचिव के नेतृत्व वाले कमेटी को पेशेवरों की भर्ती करने के लिए कहा है.
1974 बैच के महाराष्ट्र कैडर के नौकरशाह सुंदर बुर्रा, जिन्होंने महाराष्ट्र सरकार में सेक्रेटरी के तौर पर सेवा देते हुए स्वैच्छिक अवकाश ग्रहण कर लिया था, ने द वायर को बताया, ‘92 साल पुराना यूपीएससी एक संवैधानिक संस्था है. इतने सालों तक यह अपनी साख और विश्वसनीयता को बचाए रखने में इसलिए कामयाब रहा है, क्योंकि यह कमोबेश अपने समय की सरकारों के हस्तक्षेप से मुक्त और स्वायत्त रहा है. इसलिए सवाल यह है कि आखिर हम एक ऐसी प्रणाली को क्यों दरगुजर कर रहे हैं, जो इतना अच्छा काम कर रही है और इसके अधिकार एक ऐसी कमेटी को क्यों दे रहे हैं, जो परिभाषित भी नहीं है?’
उन्होंने जोड़ा कि भारत में सिविल सेवा को संविधान के तहत सुरक्षा मिली हुई है, क्योंकि ‘सरदार पटेल जैसे देश निर्माताओं ने संविधान सभा में सेवाओं की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी.’
उन्होंने बताया, ‘उन्होंने (पटेल ने) कहा था कि वे चाहते हैं कि उनके सचिव उनके सामने आजादी के साथ अपने विचार रख सकें, जो उनके विचार से अलग हो सकते हैं और इस देश को एक साथ जोड़े रखने के लिए ये सेवाएं अनिवार्य हैं.’
बुर्रा ने कहा कि वे लैटरल एंट्री के विरोधी नहीं हैं, लेकिन सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि भर्ती किए जाने वाले लोग ‘गुटबाजी की प्रवृत्तियों’ से मुक्त रहें. उन्होंने भर्ती की पारदर्शी प्रक्रिया पर जोर देते हुए यह कहा कि सेवाओं को अपने समय की सरकार से अप्रभावित रखने के लिए चयन प्रक्रिया की पवित्रता बची रहनी चाहिए.
उन्होंने उम्मीदवारों की योग्यता को लेकर अस्पष्टता के सवाल को भी उठाया. बुर्रा के शब्दों में, ‘विज्ञापन में कहा गया है कि उम्मीदवार के पास पीएचडी की डिग्री होनी चाहिए, जो एक डिग्री भर है. सरकार को इस बारे में विस्तार से बताना चाहिए था कि आखिर उम्मीदवार के पास कौन सी विशेषज्ञता होनी चाहिए, क्योंकि ये रिक्तियां उच्च श्रेणी की विशेषज्ञता वाले पदों के लिए निकाली गयी हैं. इसलिए ये भर्तियां व्यापक विचार-विमर्श के बाद और संवैधानिक तरीकों का इस्तेमाल करके की जानी चाहिए. यह काम यूपीएसी के जिम्मे छोड़ देना चाहिए. वही इस काम को करने के लिए उचित संस्था है.’
निजी क्षेत्र के लिए खुला दरवाजा
दूसरी बात, कुछ नौकरशाह निजी क्षेत्र के बढ़ते दखल को लेकर भी चिंतित थे, जिसे लैटरल एंट्री से और बढ़ावा मिल सकता है.
पूर्व कैबिनेट सेक्रेटरी बीके चतुर्वेदी ने द वायर से कहा, ‘अतीत में, बड़ी संख्या में वर्ल्ड बैंक और दूसरे स्रोतों से कई प्राइवेट व्यक्ति सरकार का हिस्सा बन चुके हैं. मोंटेक (सिंह अहलूवालिया), शंकर आचार्या और अरविंद विरमानी इसके कुछ अच्छे उदाहरण हैं. इससे पहले, 1950 के दशक के शुरुआती वर्षों में प्रबंधन साझीदारी प्रणाली के तहत, लोवराज कुमार जैसे लोग आए थे. विजय केलकर की भी मिसाल ऐसे लोगों के तौर पर दी जा सकती है, जिन्होंने सेवाओं को समृद्ध बनाया है. सरकार द्वारा प्रस्तावित रिक्तियों का आकार इतना छोटा (10) है कि इससे कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ने वाला. लेकिन चिंता का बिंदु भर्ती का स्रोत है. इस बात के खतरे से इनकार नहीं किया जा सकता है कि कारोबारी घराने इसे अपने लोगों को भीतर धकेलने के मौके के तौर पर इस्तेमाल करेंगे. जब तक हम अच्छे अधिकारियों का चयन नहीं करेंगे, तब तक हम पर कारोबारी घरानों द्वारा अहम सरकारी फैसलों को नियंत्रित करने का खतरा बना रहेगा. निश्चित तौर पर सेवाओं में एक्सीलेंस काफी वांछनीय है, लेकिन हम सरकारी फैसलों को कारोबारी घरानों के हाथों में जाने से भी बचाना होगा.’
बुर्रा भी इससे इत्तेफाक रखते हैं. उनका कहना है, ‘मान लीजिए, मोंसैंटों का पूर्व कर्मचारी ज्वाइंट सेक्रेटरी के तौर पर कृषि मंत्रालय में नियुक्त होता है. उसका मुख्य मकसद भारत के देशी बीज उद्योग को समाप्त करना हो सकता है. इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि वे निजी क्षेत्र के एजेंडे को आगे बढ़ाने का काम कर सकते हैं. आप डोमेन विशेषज्ञता को ला सकते हैं. मैं इस विचार के खिलाफ नहीं हूं, लेकिन आप यह काम करते कैसे हैं, यह सबसे ज्यादा अहमियत रखता है.’
भर्ती और विशेषज्ञता पर ध्यान दिया जाना चाहिए
तीसरी बात, नौकरशाही के एक हिस्से की राय है कि अधिकारियों की कमी की समस्या सरकार की ही खड़ी की हुई है.
एक पूर्व नौकरशाह एनसी सक्सेना का कहना है, ‘निस्संदेह आईएएस अधिकारियों को विशेषज्ञता की दरकार होती है, लेकिन इसका हल यह है कि सरकार को हर अधिकारी को 10 साल की सेवा के बाद एक क्षेत्र में विशेषज्ञता हासिल करने के लिए कहना चाहिए. आज ज्यादातर में इस कौशल का अभाव है. लेकिन, उदारीकरण के बाद के दौर में सरकारों में भर्तियों की संख्या को काफी कम करते हुए सामान्य संख्या के एक तिहाई करीब एक तिहाई मात्र कर दिया. इसके पीछे सोच यह थी कि सरकार को जितना मुमकिन हो सके, शासन से हाथ खींच लेना चाहिए. लेकिन, सामाजिक क्षेत्र की ओर ध्यान बढ़ने से, अधिकारियों पर कामकाज का बोझ बढ़ गया. आज हालात ऐसे हैं कि शीर्ष स्तर पर अधिकारियों की काफी कमी है.’
सक्सेना नए भर्ती किए गये लोक सेवकों को लाल बहादुर शास्त्री नेशनल एकेडमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन, मसूरी में आठ साल तक पढ़ा चुके हैं.
पूर्व स्वास्थ्य सचिव केशव देसीराजू ने कहा, ‘यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि 1990-1995 के बीच भर्ती किए जाने वाले आईएएस अधिकारियों की संख्या गिरकर 55 के करीब आ गई. ये वे अधिकारी हैं, जो आज ज्वाइंट सेक्रेटरी के पद के योग्य हुए होंगे. लेकिन, चूंकि हमने एक कठिन दौर में पर्याप्त भर्तियां नहीं कीं, इसलिए आज ज्वाइंट सेक्रेटरी के स्तर पर अधिकारियों का भारी टोटा है.’
इनमें से ज्यादातर लोगों का यह मानना है कि यूपीएसएसी को भविष्य में ऐसे हालात बनने से रोकने के लिए भर्तियों की संख्या बढ़ानी चाहिए.
दीर्घावधिक हित का न होना बड़ी समस्या
एक महत्वपूर्ण चिंता, जिसकी और ध्यान दिलाया गया वह है कि यह जरूरी नहीं कि सिविल सेवा में लैटरल एंट्री का कोई बहुत ज्यादा फायदा हो.
चतुर्वेदी के मुताबिक, ‘वर्तमान सिविल सेवा का एक फायदा यह है कि सरकार के साथ नीति-निर्माताओं के दीर्घावधिक हित जुड़े हुए हैं. तीन साल या पांच साल के लिए ठेके पर सेवा पर रखे गए निजी क्षेत्र के पेशेवर, किसी अन्य के हित को ध्यान में रखकर काम कर सकते हैं, क्योंकि सरकार के साथ उनका भविष्य जुड़ा हुआ नहीं होगा. मुझे नहीं लगता कि ये लोग (लैटरल एंट्री से आनेवाले) सिविल सेवा की प्रणाली की कोई खास मूल्यवृद्धि कर पाएंगे. जरूरत इस बात की है कि सिविल सेवकों के कौशल के स्तर को बेहतर बनाया जाए. हमें ज्वाइंट सेक्रटरी स्तर की नौकरी के बाद के आखिरी 15 साल में बेहतर विशेषज्ञता का समावेश करने की जरूरत है. जरूरत विशेष सेवाओं में ज्यादा विशेषज्ञता की है. निश्चित तौर पर यह सेवाओं की कमजोर नस है. इस तरह से हमें जरूर अंतरालों को भरने की कोशिश करनी चाहिए, न कि पूरी इमारत का ही नए तरह से निर्माण करना चाहिए.’
अगर उच्च विशेषज्ञता वाले क्षेत्रों में जरूरत है तो हमें निश्चित तौर पर ऐसे लोगों को शामिल करना चाहिए. मुझे नहीं लगता कि सरकार ने ऐसे उच्च विशेषज्ञता वाले क्षेत्रों को चिह्नित किया है. कम से यह जानकारी सार्वजनिक दायरे में नहीं है.
इसी तरह से देसीराजू ने कहा, ‘मुझे लगता है कि यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि आखिर वे किस समस्या का समाधान करना चाह रहे हैं? इसका एक जवाब यह हो सकता है कि हमें विभिन्न विषयों के विशेषज्ञों और ज्वाइंट सेक्रेटरी के स्तर पर बेहतर पेशेवर दक्षता की जरूरत है, लेकिन इसके साथ यह भी पूछा जाना चाहिए कि क्या बाहर के लोगों की सेवा लेना उपलब्धता और जरूरत के बीच के अंतराल को पाटने का सबसे अच्छा तरीका है? ऐसा नहीं है कि सेवाओं के भीतर से आने वाले अधिकारी अपने साथ कोई कौशल लिए बगैर आ रहा है. भारत सरकार में नियुक्त होने वाला भारतीय प्रशासनिक सेवा का कोई भी अधिकारी अपने साथ राज्य सरकार के काम करने का अनुभव लेकर आता है. उसके पास जमीनी स्तर पर राज्य सूची के विषयों- स्वास्थ्य, प्राथमिक शिक्षा, राजस्व प्रबंधन और कानून से संबंधित विषयों के क्रियान्वयन से संबंधित अनुभव होता है. अधिकारी अपने राज्य कैडर में काम करना सीखते हैं. वे नीति-निर्माण के स्तर पर अपने साथ इस अनुभव को लेकर आते हैं.’
उन्होंने कहा, ‘कई अधिकारी बहुत अच्छे हैं. यह सही है कि सभी अधिकारी अच्छे नहीं हैं, लेकिन निजी क्षेत्र में भी हर कोई अच्छा नहीं होता.’ साथ में उन्होंने यह भी जोड़ा, ‘किसी को तीन साल या पांच साल के लिए जोड़ने से हमारे सिस्टम को कोई फायदा नहीं होगा. इस व्यक्ति को कठिन मेहनत करनी होगी, लेकिन आखिर में उसे जाना होगा. मैं उसे एडिशनल सेक्रेटरी बनाने और उसे और ज्यादा जिम्मेदारी देने की स्थिति में नहीं हूं.’
देसीराजू ने राज्य में हासिल किए गये अनुभव के महत्व को दोहराते हुए कहा, ‘भारत सरकार को एक परिसंघीय संरचना के तहत राज्यों के साथ काम करना होता है. इसलिए, सैद्धांतिक तौर पर मैं इस बात का समर्थन करता हूं कि पेशेवर मानकों और विषय के ज्ञान को सेवाओं में बेहतर बनाए जाने की जरूरत है, लेकिन कृपा करके वर्तमान प्रणाली की अच्छाइयों को रद्दी की टोकरी में मत डाल दीजिए. हम अमेरिकी प्रणाली के तहत काम नहीं करते जहां, राष्ट्रपति के हर नए निर्वाचन के साथ 5000 नौकरियां खुल जाती हैं. हमारे पास एक व्यवस्थित सेवा का ढांचा है, जिसके तहत अधिकारी संवैधानिक शपथ के तहत अपने कैडर को सेवा देते हैं.’
उन्होंने कहा कि सरकार को लैटरल एंट्री के संबंध में और ज्यादा स्पष्टीकरण देने की जरूरत है.
आरक्षण नीति को लेकर सवाल
पांचवीं बात, नागरिक समाज में कई लोगों ने इस मुद्दे को उठाया है कि लैटरल एंट्री की प्रणाली अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण की नीति के तहत काम नहीं करेगी और यह संविधान के खिलाफ होगा.
इस संदर्भ में चतुर्वेदी ने कहा, ‘जब तक वे उच्च विशेषज्ञता वाले क्षेत्रों में ठेके के तहत विशेषज्ञों की नियुक्ति कर रहे हैं, तब तक आरक्षण का सवाल उस तरह से नहीं उठेगा. लेकिन, अगर बड़े पैमाने पर लैटरल एंट्री की शुरुआत होती है, तो यह सही नहीं होगा और यह वर्तमान सिविल सेवा प्रणाली को नष्ट करके छोड़ेगा. अगर वे बड़े पैमाने पर इस तरह की भर्तियां करेंगे, तो आरक्षण को ध्यान में रखना ही होगा.’
लेकिन, ज्यादातर सेवारत नौरशाहों ने इन शंकाओं को खारिज कर दिया कि नरेंद्र मोदी सरकार इस कदम से दक्षिणपंथी विचारधारा से ताल्लुकर रखने वाले लोगों को पिछले दरवाजे से घुसाना चाहती है.
उन्होंने कहा कि सरकार को अपने अंदर एक प्रतिबद्ध नौकरशाही बनाने के लिए बाहर की ओर देखने की जरूरत नहीं है और सभी सरकारों ने हमेशा से महत्वपूर्ण पदों के लिए मिलते-जुलते विचारों वाले लोगों को चुना है.
इसलिए लैटरल एंट्री की प्रणाली की ऐसी आलोचना का कोई ठोस आधार नहीं है. लेकिन इनमे से ज्यादातर ने यह कहा कि ऐसी भर्तियों के लिए यूपीएससी को नजरअंदाज करना गैरजरूरी है.
निजी क्षेत्र को दिख रहा है फायदा
हालांकि, कई नौकरशाह इसको लेकर शंकाग्रस्त दिखे, लेकन निजी क्षेत्र के लोगों ने इसका स्वागत किया. सरकार के साथ स्किल इंडिया जैसे अहम कार्यक्रम में काम कर रहे ईवाय (पूर्व में अर्न्सट एंड यंग) कंसल्टेंसी ग्रुप के एक पार्टनर गौरव तनेजा को लगता है कि नौकरशाहों द्वारा की शंकाएं गैरजरूरी हैं, क्योंकि सरकारी प्रणाली में चेक एंड बैलेंस की पर्याप्त व्यवस्था होती है.
सरकार को लैटरल एंट्री के लिए तैयार करने में तनेजा की कथित तौर पर काफी अहम भूमिका रही है. उन्होंने द वायर को बताया, ‘मुझे लगता है कि हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं, जो लगातार और ज्यादा जटिल होती जा रही है. ऐसी दुनिया में हम जो नीतियां बनाते हैं, वे नीतिगत, रणनीतिक और क्रियान्वयन के स्तर पर काफी पेचीदा होते हैं. इसलिए शासन की पेचीदगी को ध्यान में रखकर कहा जाए, तो लैटरल एंट्री से आने वाले विशेषज्ञों से सिस्टम को सिर्फ फायदा ही पहुंचेगा.
नौकरशाहों द्वारा उठाए गए सवालों का जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि लैटरल एंट्री की प्रणाली अभी प्रायोगिक चरण में है और यह कामयाब नहीं होती है, तो इसे डब्बे में बंद किया जा सकता है. ‘यह अच्छी बात है कि यह सिर्फ 10 पदों के लिए एक प्रायोगिक शुरुआत है. इसका एक तय कार्यकाल भी है, न कि यह स्थायी नियुक्तियां हैं. साथ ही चूंकि ये नियुक्तियां काफी ऊंचे स्तर पर हो रही हैं, इसलिए इन पेशेवरों को उन समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ेगा, जिनसे राज्य स्तर पर सिविल सेवकों को जूझना पड़ता है.’
अतीत में लैटरल एंट्री के तहत आने वाले लोगों को आईएएस अधिकारियों के असहयोग की समस्या पर उन्होंने कहा, ‘लैटरल एंट्री के तहत नियुक्त होने वालों को एक सौहार्दपूर्ण और सहयोगी वातावरण मे काम करने दिया जाना चाहिए. यह एक चुनौती होगी. ऐसे व्यक्ति को उसी आजादी के साथ काम करने की इजाजत मिलनी चाहिए, जिस आजादी से कोई आईएएस अधिकारी काम करता है.’
निजी क्षेत्र के प्रभाव के बढ़ने को लेकर कई नौकरशाहों द्वारा उठाए गये संदेहों पर उन्होंने कहा, ‘सरकारी फैसले कभी भी अकेले में नहीं लिए जाते हैं. यह एक सामूहिक प्रयास होगा. उसे एक ढांचे के तहत काम करना होगा. सिस्टम के अच्छी तरह से काम करने के लिए एक मददगार माहौल जरूरी है. नीति आयोग के साथ समय-समय पर विचार विमर्श किया जाता है. सिस्टम में एक विशेषज्ञ के होने से क्या नुकसान है?’
तनेजा ने कहा, नीति-निर्माण में इस देश के नागरिकों और कारोबार जगत की भूमिका होनी चाहिए. ‘नीति-निर्देश अकेलेपन में तैयार नहीं किए जाते. मुझे लगता है कि सरकार को पता है कि उनके कौशल का अच्छी तरह से कैसे इस्तेमाल किया जाए? इससे आगे, व्यवस्था में पर्याप्त चेक एंड बैलेंस की व्यवस्था है, जो यह सुनिश्चित करेंगे कि किसी का हित किसी और के हित पर हावी न हो जाए.’
ऐसा लगता है कि सिविल सेवाओं में विशेषज्ञता की कमी और 1990 के शुरुआती वर्षों में अपर्याप्त भर्तियों के कारण पैदा हुए हालात ने सरकार को लैटरल एंट्री की ओर देखने के लिए मजबूर किया है. लेकिन यह देखा जाना बाकी है कि क्या 10 नए चेहरे सरकार के कामकाज की प्रणाली में अपनी उपयोगिता साबित कर पाएंगे या नहीं! इन सबके बीच अच्छा होगा किस सरकार वरिष्ठ नौकरशाहों द्वारा उठाए गए सवालों की ओर भी गंभीरता से विचार करे.
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