महाराष्ट्र सरकार के अनुसार कोंकण की 720 किलोमीटर लंबी तट रेखा एक विशालकाय रिफाइनरी के लिए आदर्श जगह है. 15,000 एकड़ के क्षेत्र में प्रस्तावित इस रिफाइनरी पर काम शुरू होने की स्थिति में 17 गांवों के किसानों और मछुआरों का विस्थापन तय है.
रत्नागिरि: मई के आखिरी हफ्ते में 18 वर्षीय मारिया ने पहली बार महाराष्ट्र के रत्नागिरि में स्थित अपने गांव कटरादेवी से बाहर कदम रखा. कोंकणी मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक रखने वाली करीब आठ अन्य महिलाओं ने एक प्रदर्शन में हिस्सा में लेने के लिए करीब 30 किलोमीटर की यात्रा की. यह किसी प्रदर्शन में हिस्सा लेने का उनका पहला अनुभव था.
वहां उनके साथ उस पूरे क्षेत्र के गांवों की महिलाएं थीं, जो पिछले हफ्ते एक तेल रिफाइनरी का विरोध करने के लिए एक साथ जमा हुई थीं, जिसे राज्य के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस संसार की सबसे बड़ी रिफाइनरी परियोजना बताते हैं.
ये औरतें, जैसा कि मारिया समझाती हैं, ‘मछिमारांच्या हक्का साथी’, यानी मछुआरा समुदाय के अधिकारों के लिए इतनी दूरी तय करके इकट्ठा हुई थीं.
महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में 15,000 एकड़ के क्षेत्र में प्रस्तावित इस रिफाइनरी पर काम शुरू होने की स्थिति में 17 गांवों के किसानों और मछुआरों का विस्थापन तय है- कोंकण तट पर बसे इन गांवों में से 15 गांव रत्नागिरि और दो गांव बगल के सिंधुदुर्ग में स्थित हैं.
अधिकारियों के मुताबिक 3 लाख करोड़ की अनुमानित लागत की यह रिफाइनरी परियोजना एक लाख से ज्यादा लोगों को रोजगार देगी, लेकिन शिवसेना समेत सभी राजनीतिक पार्टियों, पर्यावरणविदों और साथ ही मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा इसका विरोध किया जा रहा है.
लेकिन अभी तक सरकार अपने फैसले पर कायम है और अप्रैल में इसने विरोधों के बावजूद आगे बढ़ते हुए सऊदी अरामको और तीन सरकारी कंपनियों- इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन लिमिटेड, हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड और भारत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड के साथ समझौते के ज्ञापन पर दस्तखत कर दिया.
2022 में जब इसका निर्माण पूरा हो जाएगा, तब यह दुनिया की सबसे बड़ी सिंगल लोकेशन तेल रिफाइनरी परियोजना होगी, जिसके पास प्रतिवर्ष 60 मिलियन टन कच्चे तेल के प्रसंस्करण की क्षमता होगी. सरकार की नजरों में कोंकण की 720 किलोमीटर लंबी तट रेखा इस विशालकाय रिफाइनरी के लिए आदर्श जगह है.
लेकिन गांव वाले सरकार के इस फैसले को आसानी से स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं दिखते. बीते 30 मई को राजापुर के गांधी मैदान में करीब 15,000 गांववाले पिछले साल देवेंद्र फडणवीस सरकार द्वारा घोषित इस महत्वाकांक्षी परियोजना को वापस करने की मांग करने के लिए जमा हुए थे.
इस प्रदर्शन में प्रभावित होने वाले गांवों से बराबर संख्या में स्त्रियों और पुरुषों की उपस्थिति तो थी ही, पास के गांवों से भी सैकड़ों की संख्या में लोग उन्हें अपना समर्थन देने के लिए जमा हुए थे.
मारिया के मुताबिक इसका सिर्फ एक ही मतलब निकलता है, ‘इसने मजबूती के साथ यह संदेश दिया कि सभी गांव इस प्रस्तावित परियोजना के 100 फीसदी विरोध में हैं.’ यह फडणवीस द्वारा विभिन्न मौकों पर किए गये इस दावे का जवाब था कि सिर्फ 10 फीसदी गांव ही ‘विकास के खिलाफ’ थे.
रत्नागिरि नगर के 55 वर्षीय माणिकराव कांबले सिर्फ अपना समर्थन प्रकट करने के लिए वहां गये थे. उनके 13 एकड़ के खेत, 350 आम के पेड़ और पुश्तैनी जमीन सब सुरक्षित हैं, लेकिन फिर भी वे चिलचिलाती धूप में बस इस रैली में शामिल होने के लिए आए.
कांबले ने कहा, ‘यह हममें से किसी के साथ भी हो सकता था. मैं यहां प्रभावित गांव वालों से यह कहने आया हूं कि वे इस लड़ाई में अकेले नहीं हैं.’ उनकी पत्नी सूर्यलता ने सरकार को ‘किसान विरोधी’ बताया. उन्होंने कहा, ‘रोजगार और विकास के नाम पर लोगों की आजीविका छीन लेना सबसे खराब तरीके का मानवाधिकार उल्लंघन है.’
अपनी जैव-विविधता के लिए मशहूर और राज्य के सबसे समृद्ध इलाकों में से एक कोंकण अन्य उत्पादों के अलावा अपने अल्फांसो आम के लिए जगत विख्यात है. भारत की मनोहारी पश्चिमी समुद्री तटरेखा में असंख्य समुद्री तट हैं. पर्यटन गतिविधियों के हिसाब से इनका विकास या तो नहीं हुआ है या जहां हुआ भी है वहां क्षमता से कम हुआ है.
इस इलाके में पर्याप्त बारिश होती है, जिससे विदर्भ और मराठवाड़ा के उलट इस उपजाऊ जमीन के किसानों ने सरकारी कर्जमाफी योजनाओं की मदद के बिना ही काफी अच्छा किया है. महाराष्ट्र के सकल घरेलू उत्पाद में अकेले कोंकण 41 प्रतिशत का योगदान करता है.
इस परियोजना के लिए जरूरी 14,675 एकड़ (5.870 हेक्टेयर) जमीन में से सरकार के पास सिर्फ 126 एकड़ (52 हेक्टेयर) जमीन ही है. बाकी जमीन का अधिग्रहण किया जाना है. इस परियोजना के लिए जिन 17 गांवों को चुना गया है, वे हैं, नानर, सागवे, तारल, करसिंघेवाड़ी, वडापल्ले, विल्लये, दत्तावाड़ी, पडेकावाड़ी, कटरादेवी, करविने, चौके, उपाडे, पडवे, सखर, गोठीवारे, गिरये और रामेश्वर.
इन सभी गांवों के भीतर कई छोटे-छोटे राजस्व गांव हैं. उदाहरण के लिए नानर ग्राम पंचायत में चार राजस्व गांव हैं- नानर, इंगलवाड़ी, पालेकरवाड़ी और वाड़ी चिवारी,
यहां गांवों को वाड़ियों (छोटी कॉलोनियों) में विभाजित किया गया है, जो मोटे तौर पर जाति समूहों के तौर पर काम करते हैं. ब्राह्मण लोग अलग वाड़ी में रहते हैं और ज्यादातर बहुजन समुदाय अन्य वाड़ियों में रहते हैं. ये गांव, जो कमोबेश सांप्रदायिक और जातीय रूप से शांत हैं, आपस में एक-दूसरे पर निर्भर हैं. सभी जातियों के भीतर लोग मजदूरों के तौर पर या एक-दूसरे की खेती की जमीनों के एजेंटों के तौर पर काम करते हैं.
इन इलाकों में ज्यादातर कोली और कोंकणी मुस्लिम समुदायों की आय का प्राथमिक स्रोत तटीय मत्स्यन रहा है, जो साथ मिलकर काम करते हैं. इस क्षेत्र के किसानों के उलट ये मछुआरा समुदाय के पास बेहद कम ज़मीन है. और इस परियोजना के चलते अपनी आजीविका से हाथ धोने का सबसे ज्यादा खतरा, वह भी बिना किसी वाजिब मुआवजे के, मछुआरों पर ही मंडरा रहा है.
नानर के पूर्व सरपंच माज़िद आदम भटकर कहते हैं कि ये समुद्री तट इस समुदाय का एटीएम हैं. वे समझाते हैं, ‘कोई भी परिवार कभी खाली पेट नहीं सोया है. कोई भी कुछ घंटे के लिए समुद्र में चला जाए, तो सौ-दो सौ रुपये की मछलियों के साथ वापस लौटता है. ये समुद्री तट पीढ़ियों से हमारी जीवन-रेखा रहे हैं.’
कम से कम दो बार राजस्व विभाग के प्रतिनिधि जमीनें नापने के लिए गांव आए थे, मगर गांव वालों ने उनका रास्ता रोक दिया और उन्हें लौटना पड़ा. सागवे गांव की शीतल घुरव, जो इस परियोजना के खिलाफ औरतों के प्रदर्शन का नेतृत्व कर रही हैं, बताती हैं, ‘हम लोग अपनी जमीन पर तब तक किसी तरह के सरकारी हस्तक्षेप की इजाजत नहीं देंगे, जब तक सरकार अपना फैसला वापस नहीं ले लेती है.’
जिला प्रशासन ने ग्राम प्रमुखों को राज़ी करने और उन्हें गांव वालों के साथ बैठक अयोजित करने के लिए मनाने की कई कोशिशें की है, लेकिन इन अधिकारियों को अभी तक इसमें कोई सफलता नहीं मिली है. यहां के लोग कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हैं. वे किसी भी हालत में इस परियोजना को रद्द कराने की मांग पर अड़े हैं.
द वायर ने रत्नागिरि के कलेक्टर प्रदीप पी. से संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन उनके दफ्तर की तरफ से यह बताया गया कि वे एक लंबी छुट्टी पर गये हुए हैं और उनके अलावा कोई भी इस परियोजना पर बात करने के लिए अधिकृत नहीं है. उनसे फोन कॉल और मैसेजों के जरिए भी संपर्क करने की कोई कोशिशें की गयीं, मगर उन्होंने अभी तक कोई जवाब नहीं दिया है. उनका जवाब आने पर उसे इस रिपोर्ट में शामिल किया जाएगा.
मछुआरा समुदाय के एक नौजवान सलमान सोलकर, जो इस चल रहे प्रदर्शन के एक उभरते हुए नेता भी हैं, का कहना है कि सबसे ज्यादा नुकसान उनके समुदाय का होगा. हम में से लगभग सभी भूमिहीन हैं. हमारे पास सिर्फ हमारे मकान ही हैं. हमारा जीवन प्राथमिक तौर पर उन तटों पर निर्भर है, जिस पर हम रहते हैं. हम मछली पकड़ते और बेचते हैं और इस तरह से अपना गुजारा करते हैं. एक बार यहां से विस्थापित हो जाने पर हमें अपनी आजीविका भी गंवानी पड़ेगी और इन तटों से हमारा संपर्क भी टूट जाएगा.’
और चूंकि, इन घरों में से ज्यादातर 1991 के बाद बने हैं, इसलिए गांव वालों को इस बात का भी डर सता रहा है कि कहीं उनके घरों को कोस्टल रेगुलेशन ज़ोन्स रूल्स के तहत अवैध न घोषित कर दिया जाए. सिर्फ नानर में 750 परिवार समुद्र तट के सामने रहते हैं और सोलकर का कहना है कि इनमें से 50 फीसदी घर 90 के दशक के आखिरी हिस्से में बने थे.
आम और धान की खेती यहां के किसानों की आय का प्रमुख साधन है. हाल ही में सिंधुदुर्ग के रामेश्वर गांव के सरपंच चुने गये विनोद सुके बताते हैं कि एक साधारण परिवार हर साल सिर्फ अल्फांसो आमों से ही 6-10 लाख रुपये कमा लेता है.
सुके कहते हैं, ‘यह छह महीने का काम है, जिसकी शुरुआत नवंबर से होती है. गांव के सबसे निर्धन व्यक्ति के पास भी 100 से ज्यादा आम के पेड़ हैं. इससे होनेवाली कमाई एक ठीक-ठाक आरामदायक जीवन जीने के लिए पर्याप्त है.’
पिछले साल इन 17 गांवों से 54 हजार मीट्रिक टन आम की बिक्री हुई थी. यह धान, रागी और तुअर दाल के उत्पादन से ऊपर और अलग है.
इस गांव के एक अन्य निवासी और कोंकण रिफाइनरी विरोधी संघर्ष समिति, जो इस परियोजना का विरोध करने के लिए प्रभावित लोगों का एक संगठन है, के एक सक्रिय सदस्य योगेश नाटेकर इस ओर ध्यान दिलाते हैं कि इस इलाके में किसी किसान को कभी भी फसल चौपट होने के कारण आत्महत्या नहीं करनी पड़ी. नाटेकर का दावा है, ‘कोंकणी मिट्टी ने कभी भी अपने लोगों को धोखा नहीं दिया है. सबसे खराब दौर में भी लोगों का काम चल गया है.’
यहां के किसान आत्मनिर्भर होने पर गर्व करते हैं, जो इस बात का एक प्राथमिक कारण है कि आखिर क्यों वे एक तेल रिफाइनरी परियोजना को ‘विकास का द्वार’ नहीं मानते हैं.
सगवे गांव के 69 वर्षीय एनडी कुलकर्णी पूछते हैं, ‘सरकार हमें आखिर कौन सी नौकरी देगी? यहां का सबसे गरीब व्यक्ति भी अपने नीचे 4-5 श्रमिकों को रखता है. गांववालों का दावा है कि रत्नागिरि में ही सिर्फ एक लाख से ज्यादा प्रवासी मजदूर हैं, जो अल्फांसों आम के बगीचों में काम करते हैं.
तीन दशक से ज्यादा वक्त तक मुंबई में काम करनेवाले कुलकर्णी ने कहा कि यह परियोजना वास्तव में कई लोगों को बेरोजगार बना देगी. कुलकर्णी पूछते हैं, ‘वर्तमान में मुझ जैसे वृद्ध लोग भी अपनी आजीविका कमा सकते हैं. लेकिन, एक बार अगर हमारी जमीन चली जाएगी, तो सरकार सिर्फ नौजवान पीढ़ी को ही रोजगार के लायक मानेगी. ऐसे में हमारे जैसी बूढ़ी पीढ़ी के लोगों का क्या होगा, खासकर उनका जो अकेले रह रहे हैं?’
कोंकण और जनसंघर्ष
यह पहली बार नहीं है जब कोंकण में एक बड़ी परियोजना प्रस्तावित की गयी है. साथ ही यह भी पहली बार नहीं है जब किसी परियोजना को बड़े विरोध प्रदर्शनों का सामना करना पड़ रहा है.
1992 में वेदांता की स्टरलाइट इंडस्ट्रीज को रत्नागिरि के जदगांव गांव में 60,000 टन सालाना कॉपर स्मेल्टर प्लांट और संबंधित सुविधाओं के लिए राज्य सरकार द्वारा 500 एकड़ जमीन का आवंटन किया गया था. लेकिन, एक जन आंदोलन के दबाव में कंपनी को इस परियोजना को आखिरकार तमिलनाडु के तूतीकोरिन में स्थानांतरित करना पड़ा.
इसके बाद 90 के दशक के ही शुरुआती वर्षों में दाभोल पावर कंपनी द्वारा निर्माणाधीन एक और परियोजना विवादों में आयी. अमेरिका की एक बड़ी ऊर्जा कंपनी एनरॉन, जो अब बंद हो चुकी है, की इस परियोजना को भी राजनीतिक और लोगों के विरोध का सामना करना पड़ा.
तत्कालीन कांग्रेसी सरकार ने इस परियोजना के लिए गांव वालों से जबरदस्ती भूमि अधिग्रहण की कोशिश की. भाजपा और शिवसेना ने शुरू में इस परियोजना का विरोध किया था, लेकिन 1995 मे सत्ता में आने के बाद उन्होंने इस परियोजना को अपनी सहमति दे दी. यह परियोजना भारी नुकसान में चल रही है और फिलहाल इसका भविष्य अनिश्चित नजर आ रहा है.
जैतापुर में भारत-फ्रेंच सहयोग से बननेवाली परमाणु संयंत्र की एक और परियोजना को स्थानीय लोगों और शिवसेना की तरफ से तीव्र विरोध का सामना करना पड़ा. 9,900 मेगावाट बिजली उत्पादन क्षमता वाली इस परियोजना का खाका उस समय की कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने तैयार किया था.
हालांकि, तीव्र विरोधों के बावजूद इस परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण के काम को पूरा कर लिया गया, लेकिन इसके निर्माण की दिशा मे शायद ही कोई प्रगति हुई है, जिसका कारण उत्पादित होने वाली बिजली को लेकर जताई जाने वाली चिंता है.
राजनीतिक ड्रामा
ननार में लोगों का कहना है कि वे नेताओं के खेल को बखूबी समझते हैं. ननार के सरपंच ओमकार पभुदेसाई का कहना है, ‘सत्ता में आनेवाली हर पार्टी का इतिहास इस मामले में दागदार रहा है. सत्ता में रहते हुए उन्होंने हमेशा सिर्फ जन-विरोधी फैसले लिये हैं. हालांकि, सेना और कांग्रेस अपना समर्थन दे रहे हैं, लेकिन हम अपने विरोध प्रदर्शन के लिए उन पर निर्भर नहीं हैं. यह जनता का आंदोलन है जिसे स्थानीय लोगों द्वारा ही चलाया जा रहा है.’
जन-भावनाओं को देखते हुए स्थानीय राजनीतिक नेताओं और गांव के प्रतिनिधियों ने इस विरोध आंदोलन मे शामिल होते हुए सर्वसम्मति से अपनी राजनीतिक वफादारी को अलग रखा है. उदाहरण के लिए, गिरये गांव के नवनिर्वाचित सरपंच रूपेश गिरकर इस साल भाजपा की मदद से चुनाव जीते थे. लेकिन गिरकर का कहना है कि उनकी वफादारी उनके अपने लोगों और उनकी मांगों को लेकर है.
उन्होंने कहा, ‘मेरा कर्तव्य मुझे चुनने वाले लोगों के प्रति है. मैं पूरी तरह से उनकी मांगों से इत्तेफाक रखता हूं. मैं सिर्फ एक निर्वाचित प्रतिनिधि ही नहीं हूं, बल्कि एक किसान भी हूं. ये मुद्दे मेरे मुद्दे भी हैं.’ गांव की ग्राम सभा ने इस परियोजना को लेकर विरोध प्रकट करते हुए कई प्रस्ताव पारित किए हैं और सरकार को अपनी ‘असहमति’ की दरख्वास्तों का एक पुलिंदा भी सौंप चुके हैं.
बेईमान हथकंडे
यूं तो गांव वालों को अपनी एकता पर भरोसा है और वे कहते हैं कि समय बीतने के साथ यह आंदोलन और तीव्र ही होता जाएगा, लेकिन उन्हें इस बात का भी डर है कि ‘बाहरी लोगों’ द्वारा उनकी जमीनों की बड़े पैमाने पर खरीद से उनके आंदोलन को चोट पहुंच सकती है.
सुके बताते हैं कि जब सरकार ने इस परियोजना पर फैसला भी नहीं किया था, उससे भी पहले से कई निवेशकों ने अचानक स्थानीय लोगों से जमीन खरीदनी शुरू कर दी थी. सुके ने द वायर को बताया, ‘यह अचानक हुआ था. वे ज्यादा रकम देने और एक साथ थोक में जमीन खरीदने के लिए तैयार थे. इनमें से ज्यादातर निवेशक गुजरात के हैं.’
सुके का कहना है कि उनके गांव, रामेश्वर और पड़ोस के गिरये में बड़े पैमाने पर जमीन की खरीद हुई है. उनका कहना है, ‘गांव वालों ने शायद अतिरिक्त बिना जोती हुई जमीनों को बेचा हो, लेकिन अगर ये खरीददार अपनी पैठ बनाने में कामयाब रहते हैं और लोगों को प्रलोभन देना शुरू कर देते हैं, तो हमारी लड़ाई कमजोर पड़ सकती है.’
जब गांव वालों को नोटिस दिया गया और उनसे राजस्व विभाग में सहमति पत्र (कंसेंट लेटर) जमा करने के लिए कहा गया, तब इन नए खरीददारों, जो आधिकारिक रिकॉर्डों में अब ‘किसान’ हैं, ने तत्परता के साथ इस परियोजना को अपनी सहमति दे दी.
कोंकण रिफाइनरी विरोधी संघर्ष समिति के उपाध्यक्ष और पूर्व सरपंच प्रभाकर देवेल्कर कहते हैं, ‘यह साफ है कि उन्होंने सिर्फ जमीन में हथियाने के लिए ऐसा किया था और वे सरकार की शह पर काम कर रहे थे.’
देवेल्कर बताते हैं कि गांव वालों से ये जमीनें 3 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर की दर से खरीदी गयी थीं और उनके अनुमान के मुताबिक राज्य द्वारा अधिग्रहण पर जमीन के मालिकों को एक करोड़ के आस-पास का फायदा हो सकता है. लोगों को इस बात का डर है कि सरकार इस हथकंडे के सहारे यह दिखाने की कोशिश करेगी कि गांववालों ने इस परियोजना को अपनी सहमति दे दी है.
पर्यावरणीय प्रभाव
इस परियोजना से 14 लाख से ज्यादा आम के पेड़ों, काजू के छह लाख पेड़ों, 500 एकड़ में फैले धान के खेतों और इनके साथ ही इस इलाके के वनस्पतियों और जीव-जंतुओं के नष्ट होने का अनुमान लगाया जा रहा है, जिसका इस क्षेत्र के नाजुक तटीय पर्यावरण पर नकारात्मक असर पड़ना तय है.
विस्तृत पर्यावरण आकलन किए जाने से पहले ही मुख्यमंत्री फडणवीस ने यह ऐलान कर दिया है कि इस परियोजना से ‘शून्य’ प्रदूषण होगा और इससे पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं होगा.
लेकिन, पर्यावरणविद गिरीश राउत का कहना है, ये स्थानीय निवासियों को अंधेरे में रखने के लिए किए जाने वाले बेसिर-पैर के दावे हैं. उनका कहना है कि रिफाइनरी का पहला असर अंतर्ज्वारीय क्षेत्र पर पड़ेगा, जो धरती और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के बीच नाजुक जगह है.
राउत दावा करते हैं, ‘दुनिया भर में ऐसी रिफाइनरी परियोजनाओं के खिलाफ विरोध आंदोलन जोर पकड़ रहे हैं और ऐसी परियोजनाओं से तटों को होने वाले पर्यावरणीय नुकसान के बारे में बताने वाले कई शोध हमारे पास मौजूद हैं. लेकिन सरकार इन खतरनाक आंकड़ों को देखने से इनकार कर रही है.’
उन्होंने यह भी जोड़ा कि इस रिफाइनरी के लिए सिर्फ पेड़ों को ही नहीं काटा जाएगा, समुद्री जनजीवन को भी भारी नुकसान पहुंचेगा.
यहां किसान इस बात को लेकर सचेत हैं कि उन्हें ‘विकास विरोधी’ के तौर पर न देखा जाए. ननार के सत्यवान पालेकर का कहना है, ‘कम से कम एक दर्जन परियोजनाएं ऐसी हैं, जिसकी सौगात राज्य सरकार हमे दे सकती है. सरकार यहां एक प्रोसेसिंग यूनिट की स्थापना क्यों नहीं कर सकती, जिससे हमें अपने उत्पादों के भंडारण और उसकी बिक्री में मदद मिलेगी.’
वे कहते हैं, ‘हम विकास चाहते हैं, लेकिन इस सरकार से हमारा सवाल है कि इस विकास की कीमत क्या होगी?’
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