शिक्षा में ‘धार्मिक रंग’ जोड़ने के साथ दक्षिणपंथी विचारकों को लोकप्रिय बनाने की कोशिश जारी है

विद्यार्थियों के पाठ्येत्तर गतिविधियों में ‘संतों-महात्माओं’ के प्रवचनों को शामिल करने का राजस्थान सरकार का ताज़ा निर्देश संविधान के कई अहम प्रावधानों को नज़रअंदाज़ करता दिखता है.

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प्रतीकात्मक तस्वीर (फोटो:पीटीआई)

विद्यार्थियों के पाठ्येत्तर गतिविधियों में ‘संतों-महात्माओं’ के प्रवचनों को शामिल करने का राजस्थान सरकार का ताज़ा निर्देश संविधान के कई अहम प्रावधानों को नज़रअंदाज़ करता दिखता है.

Students performing Yoga Photo by Narendramodi.in
(फोटो साभार: Narendramodi.in)

ज्योतिषशास्त्र पर मेरा विश्वास नहीं है और मैं नहीं चाहता कि राष्ट्रीय कार्यक्रमों को ज्योतिषियों के निर्देशों के आधार पर तय किया जाए. (भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को पत्र जिसमें उन्होंने 26 जनवरी 1950 के दिन गणतंत्र दिवस के उद्घाटन के समारोह की तारीख पर ज्योतिषियों की सलाह पर सवाल उठाए थे. Page 77, Volume 2, Jawaharlal Nehru, A Biography, OUP, 1979)

क्या सरकारी सहायता से चल रहे स्कूलों को धार्मिक शिक्षा (religious instruction) के लिए खोला जाना चाहिए?

अगर हम इस मसले पर चली संविधान की बहसों को देखें तो पता चलता है कि सदस्यों का बहुमत (भले ही उनमें से अधिकतर लोग धार्मिक विचारों के थे) इस बात पर सहमत था कि स्कूलों को, जिनका मूल मकसद बच्चों के दिमाग को खोलना है न कि उन्हें बेकार की सूचनाओं का कूड़ादान बनाना है, उन्हें किसी भी किस्म की धार्मिक शिक्षा के लिए खोला नहीं जाना चाहिए.

निश्चित ही वह धार्मिक उन्माद से उपजनेवाली मन-मस्तिष्क की विषाक्तता के असर से वाकिफ थे जिसने आजादी के साथ बंटवारे के वक्त हुए मासूमों के कत्लेआम को अंजाम दिया था. उनका साफ मानना था कि स्वाधीन भारत का भविष्य धर्मनिरपेक्ष बुनियाद पर ही सुरक्षित रखा जा सकता है.

संविधान में धारा 28(1) का समावेश दरअसल उनके इस साझे संकल्प को ही उजागर करता है जिसके मुताबिक-

‘किसी भी किस्म की धार्मिक शिक्षा को ऐसी किसी शैक्षिक संस्थान में नहीं दिया जाएगा जो राज्य के फंड से संचालित होता हो’ जब तक ‘उन्हें ऐसे किसी एन्डोमेण्ट या ट्रस्ट के तहत स्थापित न किया गया हो जिसमें धार्मिक शिक्षा अनिवार्य बनायी गयी हो.’

इस मामले में धारा 28 अधिक स्पष्ट है और वह इसके अमल को लेकर कोई अस्पष्टता नहीं छोड़ती है-

‘कोई भी ऐसा व्यक्ति जो राज्य द्वारा मान्यताप्राप्त किसी शैक्षिक संस्थान से जुड़ा हो या जिसे राज्य से वित्तीय सहायता मिलती हो उसे किसी भी किस्म की धार्मिक शिक्षा में शामिल होने की आवश्यकता नहीं होगी, जो इस संस्था में दी जा रही हो या ऐसी किसी धार्मिक पूजा में उपस्थित होने की अनिवार्यता होगी जो ऐसी संस्था में की जा रही हो या संस्थान से जुड़े परिसर में की जा रही हो या अगर वह व्यक्ति अल्पवयस्क हो, जब तक उसके अभिभावक ने उसके धार्मिक और शैक्षिक अधिकारों को लेकर सहमति प्रदान की हो.’

यहां इस बात को रेखांकित करना आवश्यक है कि धार्मिक शिक्षा का यहां सीमित अर्थ है. वह इस बात को संप्रेषित करता है कि रस्मों रिवाजों की शिक्षा, पूजा के तरीके, आचार या रस्मों को शैक्षिक संस्थानों के परिसरों में अनुमति नहीं दी जा सकेगी जिन्हें राज्य से समूचे फंड मिलते हों.

यह भी सोचने का मसला है कि क्या कोई शैक्षिक संस्थान नैतिक शिक्षा के नाम पर अपनी इच्छा छात्रों पर लाद सकता है तथा उन्हें धार्मिक शिक्षा दे सकता है? संविधान की मसविदा समिति शायद इस संभावना पर भी विचार कर रही थी और उसने स्पष्ट किया कि इस ढंग से लादी गई कोई कार्रवाई धारा 19 का उल्लंघन होगी जो कहता है ‘सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता का अधिकार होगा’ और इसका उल्लंघन धारा 25(1) का उल्लंघन होगा.

‘Subject to public order, moraility and health and to the other provisions of this Part, all person are equally entitled to freedom of conscience and the right freely to profess, practise and propagate religion.’

तयशुदा बात है कि विद्यार्थियों के पाठ्येत्तर गतिविधियों में ‘संतों-महात्माओं’ के प्रवचनों को शामिल करने का राजस्थान सरकार का ताजा निर्देश संविधान के इन अहम प्रावधानों को नजरअंदाज करता दिखता है. अधिक विचलित करने वाली बात यह भी है कि उसने संविधान में शामिल नागरिकों के इस बुनियादी कर्तव्यों की भी अनदेखी की है जिसमें ‘वैज्ञानिक चिंतन, मानवता और खोज पड़ताल की भावना और सुधार को विकसित करना’ शामिल किया गया है. (देखें, सेक्शन 5, धारा 51 एक बुनियादी कर्तव्य)

यह साफ जानते हुए कि ‘संतों-महात्माओं’ के प्रवचन निश्चित ही वैज्ञानिक चिंतन की भावना के विकास में रोड़ा बने रहेंगे.

यह एक दिलचस्प संयोग है कि राजस्थान सरकार का यह कदम एक ऐसे वक्त में आया है जब मुल्क की आला अदालत इसी किस्म के एक मसले पर गौर कर रही है और उसने केंद्र सरकार को अपना स्टैंड स्पष्ट करने के लिए कहा है. सरकार द्वारा इस मामले में किए जा रहे विलंब को देखते हुए उसने अब तीन अगस्त तक अपना जवाब देने की हिदायत दी है.

सर्वोच्च न्यायालय के सामने विचाराधीन यह याचिका जबलपुर, मध्य प्रदेश के एक व्यक्ति द्वारा दाखिल की गई है जिसमें यह दावा किया गया है कि देश के 1,100 केंद्रीय विद्यालयों में सुबह जिन प्रार्थनाओं को गाया जाता है, वह एक विशिष्ट धर्म को बढ़ावा देते हैं और इस तरह संविधान का उल्लंघन करते है.

याचिका के मुताबिक हिंदी में की जा रही इन प्रार्थनाओं में ‘असतो मा सदगमय’ और जैसे अन्य श्लोक पढ़े जाते हैं जो एक विशिष्ट धार्मिक आस्था की बात करते हैं और इसके चलते धार्मिक अल्पसंख्यकों, अज्ञेयवादियों की संतानों को वह ‘संविधान के हिसाब से अनुमति न देने योग्य’ लग सकते हैं. ध्यान रहे कि आला अदालत ने केस में मेरिट देख कर इस मामले में केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया है.

ऐसा कोई भी व्यक्ति जिसने तमाम राज्यों एवं केंद्र में भी सरकार के संचालन की यात्रा पर/यात्राओं पर गौर किया हो तो वह व्यक्ति राजस्थान के इन घटनाक्रमों को लेकर बिल्कुल आश्चर्यचकित नहीं होगा. दरअसल बार-बार यही देखने में आ रहा है कि न केवल इन सरकारों ने विशिष्ट धर्म के प्रति अपनी नजदीकी का प्रदर्शन किया है, न केवल ऐसे मुददों को उठाया है, ऐसी सक्रियता दिखायी है, ऐसे विवादास्पद साधुओं को प्रमोट किया है, जिनका देश के सेक्युलर ताने बाने पर गंभीर असर पड़ा है.

हम याद कर सकते हैं कि किस तरह सरकार के बेहद करीबी एक साधु के एक भव्य आयोजन को लेकर पर्यावरण ऑथारिटी ने आपत्ति दर्ज की थी कि किस तरह उससे यमुना नदी और उसके किनारों को भयानक नुकसान होगा, मगर उन आपत्तियों को ठेंगा दिखाते हुए न केवल इस आयोजन को अंजाम दिया गया बल्कि खुद देश के प्रधानमंत्री भी ने भी उद्घाटन सत्र में पहुंच कर उसे वैधता प्रदान की.

धार्मिकता का सार्वजनिक प्रदर्शन (जिसके बारे में पहले सोचा भी नहीं जा सकता था या वह कुछ साल पहले तक बहुत दबे रूप में दिखता था) वह अब देश के कर्णधारों के लिए नया नार्मल बन गया है.

Mumbai: Students wave the Indian tricolor flag while celebrating the 71st Independence Day in Mumbai on Tuesday. PTI Photo by Santosh Hirlekar(PTI8_15_2017_000183B)
(फाइल फोटो: पीटीआई)

विगत कुछ माह पूरे देश में दो बेहद हाईप्रोफाइल साधुओं के खिलाफ (राम रहीम और आसाराम बापू) केस के मामले में जबरदस्त चर्चा चली है, जिन पर यह आरोप लगे थे कि उन्होंने अपनी अनुयायियों का यौन उत्पीड़न किया था और अन्य कई काले धंधों में वह लिप्त थे.

बाद में उन्हें सजा भी सुनाई गई और इस बात के दस्तावेजीकृत प्रमाण उपलब्ध हैं जो बताते हैं कि किस तरह हिंदुत्व ब्रिगेड के कार्यकर्ताओं ने इनके प्रति अपना परोक्ष/अपरोक्ष समर्थन जाहिर करने में कोई संकोच नहीं बरता है. तय बात है कि इन दोनों विवादास्पद साधुओं के विशाल अनुयायी संप्रदाय पर उनकी निगाह रही है.

मिसाल के तौर पर, क्या इसे महज मानवीय भूल कहा जाएगा या इसी रुख का प्रदर्शन कि जब राजस्थान के स्कूलों में तीसरी कक्षा के पाठ्यपुस्तकों में संतों पर लिखे गए अध्याय में, एक अल्पवयस्क से बलात्कार के आरोपी आसाराम बापू को महान संतों की श्रेणी में शुमार किया गया था और यह बात तबकी है जब इन आरोपों के चलते बापू लगभग दो साल से जेल की सलाखों के पीछे पहुंच चुके थे. यह भी देखा गया था कि पाठ्यपुस्तकों में वह विवेकानंद, शंकराचार्य, मदर टेरेसा और रामकृष्ण परमहंस के साथ ही चित्रों में ‘विराजमान’ हैं.

कुछ समय पहले ‘इंडिया टुडे’ पत्रिका ने शिक्षा के क्षेत्र में अंजाम दिए जा रहे ‘बदलावों’ के बारे में विवरण प्रकाशित किए थे:

‘1 जुलाई 2015 के बाद से स्कूल की प्रार्थना में योग, प्राणायाम, वंदे मातरम, सूर्य नमस्कार और ध्यान को अनिवार्य बनाया गया है. बसंत पंचमी के दिन हर सरकारी और गैरसरकारी स्कूलों में आयोजित कार्यक्रम में सरस्वती पूजा को अनिवार्य बनाया गया है. स्कूल विकास समिति हर स्कूल में बना दी गई है और हर अमावस्या के दिन उसकी बैठक अनिवार्य कर दी गई है. भगवदगीता को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया गया है और गीता तथा भगतसिंह की जेल डायरी को भी स्कूलों में अनिवार्य बनाया गया है. एकात्म मानववाद और सामाजिक समरसता पर किताबों को स्कूल पुस्तकालयों का हिस्सा बनाया गया है.’ (बदलने लगी है शिक्षा, इंडिया टुडे, 3 अगस्त 2016, पेज 21)

हम देख सकते हैं कि शिक्षा में ‘धार्मिक रंग’ जोड़ने के अलावा, ऐसी कोशिशें जारी हैं कि दक्षिणपंथ के विचार/विचारकों को धीरे-धीरे लोकप्रिय बनाया जाए.

राजस्थान सरकार द्वारा स्कूलों में संतों के प्रवचनों को पाठ्येत्तर गतिविधियों में शामिल करने के हालिया निर्णय के महज तीन माह से कम समय पहले, शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्रित्व में संचालित मध्यप्रदेश सरकार ने पांच धार्मिक नेताओं का राज्य मंत्री का दर्जा दिया था, जिनके नाम थे बाबा नर्मदानंद, बाबा हरिहरानंद, कंप्यूटर बाबा, भय्यूजी महाराज और पंडित योगेंद्र महंत. (यहां एक क्षेपक के तौर पर इस बात का उल्लेख जरूरी है कि भय्यूजी महाराज ने इस प्रस्ताव को स्वीकारा नहीं था जिन्होंने कुछ समय पहले ‘तनाव’ के चलते आत्महत्या की)

यह भी स्पष्ट था कि इन नियुक्तियों के पीछे का तात्कालिक कारण यही था कि कंप्यूटर बाबा, योगेंद्र महंत आदि ने मिल कर ‘नर्मदा घोटाला रथ यात्रा’ निकालना तय किया था, जिसका मकसद था अवैध ढंग से जारी बालू उत्खनन के खिलाफ कार्रवाई की मांग की जाए. इस नियुक्ति के बाद उन्होंने तत्काल इस मांग को वापस लिया था.

दो ध्रुवों की राजनीति के आज के दौर में, यह मुमकिन है कि अन्य किसी सेक्युलर पार्टी के रिकॉर्ड से ऐसे ही उदाहरण खंगाले जाएं और दिखाया जाए कि भाजपा या उसकी अगुआई में चल रही सरकारें जो कुछ कर रही हैं, उसमें कुछ नया नहीं है. ऐसा कोई भी दावा जो हाल के वर्षों में घटित हो रहे बदलावों को महज ‘राजनीतिक तब्दीली’ तक सीमित करता है तो वह उस ‘बेमिसाल अंतरण’ (पैराडाइम शिफ्ट) को देख नहीं पा रहा है जो हमारे सामने घटित हुआ है या हो रहा है.

याद कर सकते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी की पहली नेपाल यात्रा (अगस्त 2014) के बाद जाने माने पत्रकार भारत भूषण ने इस बात को बेबाकी के साथ रखा था कि किस तरह एक सचेत प्रयास जारी है कि ‘न केवल हिंदू रस्मों रिवाजों को सार्वजनिक दायरे में वैधता’ दिलायी जाए बल्कि ‘एक ऐसा वर्चस्वशाली हिंदुत्व सार्वजनिक दायरा तैयार किया जाए जो अन्यों को हाशिये पर डालता हो.’

याद कर सकते हैं कि नेपाल की अपनी इस पहली यात्रा में जनाब मोदी ने पशुपतिनाथ मंदिर की ‘निजी यात्रा’ की थी, जिसमें उन्होंने केसरिया कुर्ता और उसी रंग की शाल ओढ़ी थी और वह पवित्र रुद्राक्ष की माला गले में डाले थे. इस दौरान उन्होंने मंदिर संचालकों को 2,500 किलोग्राम चंदन की लकड़ी भेंट की. उन्होंने वहां ‘रुद्राभिषेक’ भी किया.

लेखक ने सवाल उठाया था कि धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र के प्रतिनिधि के तौर पर क्या उन्हें इस काम को करना चाहिए था और यह कि जनता के करों से एकत्रित पैसों से अर्थात सरकारी खजाने से लगभग चार करोड़ रुपये की यह सौगात उन्हें देनी चाहिए थी, ‘जिसका ताल्लुक मंदिर में मोदी की निजी यात्रा से था?’

उन्होंने राष्ट्र के अग्रणी के तौर पर धार्मिकता के इस सार्वजनिक प्रदर्शन की तुलना नवस्वाधीन भारत के शासकों द्वारा सोमनाथ मंदिर के नूतनीकरण के संदर्भ में लिए गए स्टैंड से की थी. जब सरदार पटेल और कन्हैयालाल मुंशी इस प्रस्ताव के साथ महात्मा गांधी के पास पहुंचे तो उन्होंने इस प्रस्ताव को अपना आशीर्वाद दिया मगर साथ ही साथ जोड़ा कि राज्य नहीं बल्कि लोगों को मंदिर के नूतनीकरण में योगदान देना चाहिए. जवाहरलाल नेहरू ने भी इस परियोजना से दूरी बनाए रखी. इतना ही नहीं उन्होंने कन्हैयालाल मुंशी को इस बात के लिए लताड़ लगायी कि उन्होंने बीजिंग (उन दिनों पेकिंग) में स्थित भारतीय दूतावास को इसलिए पत्र लिखा था कि वह ‘होआंगहो, यांगत्से और पर्ल नदियों का जल और टिन शान पहाड़ों की कुछ टहनियों को मंदिर के नूतनीकरण समारोह के लिए भेजें.

ऐसे कई उदारहण देखे जा सकते हैं कि नवस्वाधीन भारत के कर्णधारों ने इसके लिए सचेत प्रयास किए कि ऐसा न दिखे कि राज्य की किसी विशिष्ट धर्म के प्रति अधिक सहानुभूति है और राज्य तथा धर्म के बीच अलगाव कायम रहे.

हमें नहीं भूलना चाहिए कि संविधान निर्माताओं ने इस दिशा में बढ़ना तब तय किया था जब समूचे वातावरण में आजादी के साथ हुए बंटवारे के दंगों ने हजारों लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा था और नवस्वाधीन भारत को अपने पैरों पर खड़ा रखने का काम अभी शुरुआती स्तर पर ही था.

इस प्रक्रिया में शामिल चुनौतियों के बावजूद उन्होंने यह तय किया था कि जब तक हम धर्म और राज्य के अलगाव को बनाए नहीं रखते है तब तक उसी किस्म का रक्तपात नए सिरे से हो सकता है. गांधी और नेहरू द्वारा सोमनाथ मंदिर के नूतनीकरण को लेकर लिया गया स्टैंड दरअसल इसी व्यापक सरोकार को प्रतिबिंबित करता है.

क्या उन सभी साधारण लोगों के लिए, जो आज भी धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों और मूल्यों पर यकीन करते हैं और जो ‘सार्वजनिक दायरे के बढ़ते हिंदुत्वकरण’ से चिंतित हैं, उनके लिए क्या यह मुमकिन होगा कि वह पहल अपने हाथ में लें ताकि समाज के धर्मनिरपेक्षीकरण के रास्ते में खड़ी बाधाओं को दूर किया जा सके.

इसका अर्थ यही होगा कि राज्य और समाज के संचालन से ‘पवित्र’ की छुट्टी और धर्मनिरपेक्ष बुनियादों पर उसका पुनर्गठन. फिलवक्त यह लड़ाई कठिन लग सकती है मगर कहीं न कहीं हमें शुरुआत करनी होगी ताकि स्थितियां बद से बदतर न हो जाएं.

प्रतीकात्मक तस्वीर (फोटो:पीटीआई)
प्रतीकात्मक तस्वीर (फोटो:पीटीआई)

और इस तरह एक तरफ जब हम राजस्थान सरकार के इस कदम की मुखालफत के लिए रणनीति बना रहे हों (जो निश्चित तौर पर संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन करती दिखती है तथा दूसरी तरफ जो बच्चों/किशोरों के मनों के कौतुहलों का बंद करने के उपकरण बनेंगी) और इसके लिए व्यापकतम संभव गठजोड़ बनाने की सोचते हों, जिसमें न केवल धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक संगठन, सामाजिक संगठन तथा सचेत नागरिक ही नहीं बल्कि जाने माने शिक्षाविद भी शामिल किए जाएं, तो उस वक्त अपने अंदर भी झांकने की जरूरत है.

मसलन, धर्मनिरपेक्षता के समूचे विचार की पड़ताल हो और यह पूछा जाए कि भारत जैसे मुल्क में धर्मनिरपेक्षता इतनी कमजोर बुनियाद पर क्यों खड़ी है. विभिन्न समुदायों के बीच विवादों-तनावों की ऐसी किसी भी स्थिति में यह बात अधिक स्पष्ट हो जाती है. सवाल उठता है कि साठ साल पहले से जब हम धर्मनिरपेक्ष रास्ते पर उन्मुख हैं, तभी भी यह कितना कमजोर क्यों मालूम पड़ता है.

शायद इस बात का उल्लेख जरूरी है कि व्यापक धर्मनिरपेक्ष आंदोलन के भीतर भी ‘धर्मनिरपेक्षता’ किसे कहा जाए इसे लेकर अभी भी विभ्रम (स्पष्टता का अभाव) सहमति की कमी मौजूद है. क्या हम इसे ‘सर्व धर्म समभाव’ के तौर पर देखें जैसा कि गांधी तथा उनके करीबियों ने देखा था या उसे हम ‘धर्म और राजनीति के अलगाव’ के तौर पर समझें.

दरअसल वाम के अंदर भी इस मसले पर एकमत नहीं है. स्पष्टता के अभाव के चलते ही हम उस विचित्र सूत्रीकरण से परिचित हुए थे, जो बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मुख्यधारा के वाम के एक हिस्से की तरफ से पेश किया गया था जिसमें वाम ने भी ‘राम को अपने तरीके से समाहित करने’ की कोशिश की थी जब उसने असली राम और नकली राम के बीच के फर्क को रेखांकित किया था.

विभिन्न वजहों से भारत जैसे मुल्क में धर्मनिरपेक्षीकरण (सेक्युलरायजेशन की प्रक्रिया) बकौल पीटर बर्गर वह ‘प्रक्रिया जिसके तहत समाज और संस्कृति के हिस्सों को धीरे धीरे धार्मिक संस्थानों और प्रतीकों के वर्चस्व से हटाया जाता है.’ पर गंभीर चितंन नहीं किया जा सका और हम राज्य की धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने/मजबूत करने की प्रक्रिया में मुब्तिला रहे, वह भी ऐसे समाज में जो कत्तई धर्मनिरपेक्ष नहीं था और विभिन्न किस्म के असमावेशों/बहिष्करणों पर आधारित था. फिर वह चाहे जाति, जेंडर या नस्लीयता आदि का मसला हो.

यह भी मुमकिन है कि हममें से अधिकतर पीटर बर्गर जैसे विद्वानों द्वारा लोकप्रिय बनाए गयी समझदारी से सहमत रहे. (The Sacred Canopy, 1967) जिनकी दलील थी कि धर्म का क्षरण आधुनिक औद्योगिकीकृत समाजों में क्यों अवश्यम्भावी है. एक क्षेपक के तौर पर बता दें कि किस तरह यह समझदारी मीरा नंदा के मुताबिक

‘…प्रबोधन की परियोजना से प्रवाहित होती थी जिसमें यह मान्यता थी कि जैसे-जैसे स्त्री और पुरुष ईश्वर को बीच में लाए प्रकृति के अंदरूनी रहस्यों को समझने लगेंगे, ईश्वर पर अपने विश्वास से वह आगे बढ़ेंगे.’ (Page178, The God Market)

‘कार्य प्रक्रिया के रैशनलायजेशन/युक्तिकरण/विवेकीकरण पर हमारा विश्वास, किसी भी किस्म के दैवी हस्तक्षेप या जादुई कार्रवाई की संभावना को खारिज करना या ‘आर्थिक गतिविधि, कानून और राजनीति के मददेनजर राज्य के धर्म की पकड़ से बाहर निकलने की हकीकत, जो आधुनिकीकृत होते सभी राज्यों की सार्वभौमिक विशिष्टता होती है.’ ( Nanda, Page 179)

इसने हमें इस परिणति तक पहुंचाया कि जहां संस्कृति और समाज का विशाल दायरा विभिन्न यथास्थितिवादी, प्रतिक्रियावादी हस्तक्षेपों के लिए खुल गया जो भले ही धार्मिक संगठनों की तरफ से था या संघ/जमात जैसे संगठनों की तरफ से था जिसने समाज के गैरधर्मनिरपेक्षीकरण में तेजी लायी.

वह एक तरह से समाज में चल रही प्रक्रियाओं का ही प्रतिबिंबन था, जहां हम राजनीतिक-आर्थिक दायरों में प्रगतिशील/रूपांतरणकारी आंदोलनों का प्रभाव देखते हैं और ऐसे आंदोलनों द्वारा सामाजिक सांस्कृतिक दायरे की उपेक्षा से भी रूबरू होते हैं.

दूसरी सीमा यह नजर आती है कि धर्मनिरपेक्षता को मोटे तौर पर सांप्रदायिकता विरोधी संघर्ष का विस्तार ही समझा गया जिसने कई ‘बिरादराना’ संघर्षों को उसके दायरे से बाहर किया. अगर धर्मनिरपेक्षता को हम (बकौल चार्ल्स टेलर) ‘स्वायत्त सामाजिक दायरों से धर्म की विदाई’ के तौर पर देखें तो फिर ऐसे आंदोलन जिनका प्रत्यक्ष/परोक्ष प्रभाव उसी किस्म का हो सकता है, उन्हें आंदोलन के आवश्यक हिस्से के तौर पर नहीं समझा गया.

मिसाल के तौर पर जातिविरोधी आंदोलन, दलित आंदोलन, पितृसत्ता और जेंडर आधारित उत्पीड़न के खिलाफ आंदोलन, लोक विज्ञान आंदोलन, तर्कशील आंदोलन या सम्मान एवं अधिकारों के लिए शोषितों-उत्पीड़ितों के आंदोलन, जिनका प्रभाव राज्य के संचालन तथा समाज के संचालन में धर्म की भूमिका को सीमित करने को लेकर था. उनके अंदर भी संभावना थी, मगर ऐसे आंदोलन का दायरा बढ़ाने की अधिक कोशिश नहीं है.

ऐसे कई बिंदु हो सकते हैं जिस पर चर्चा चल सकती है, मगर इस बात को मद्देनजर रखते हुए कि यह सिलसिला लंबा चलेगा, उम्मीद की जानी चाहिए कि ‘वादे वादे जायतेः तत्वबोध’(Let us reach a sense of the world by this debate)

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और चिंतक हैं.)