क्या राजस्थान में बाबा रामदेव का प्रोजेक्ट किसानों की ज़मीन ​​हथियाने का पैंतरा है?

विशेष रिपोर्ट: जिस ज़मीन को मंदिर ट्रस्ट अपनी बता रहा है उस पर पीढ़ियों से किसान खेती कर रहे हैं. जागीर एक्ट लागू होने के बाद उनका इस पर क़ानूनी हक़ हो गया, लेकिन ट्रस्ट इसे बाबा रामदेव को सौंपना चाहता है.

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करौली में प्रोजेक्ट स्थल के शिलान्यास के अवसर पर यज्ञ करते हुए वसुंधरा राजे और स्वामी रामदेव. (फोटो साभार: फेसबुक/वसुंधरा राजे)

विशेष रिपोर्ट: जिस ज़मीन को मंदिर ट्रस्ट अपनी बता रहा है उस पर पीढ़ियों से किसान खेती कर रहे हैं. जागीर एक्ट लागू होने के बाद उनका इस पर क़ानूनी हक़ हो गया, लेकिन ट्रस्ट इसे बाबा रामदेव को सौंपना चाहता है.

मंदिर की ज़मीन पर प्रोजेक्ट का शिलान्यास करते हुए राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और बाबा रामदेव. (फोटो साभार: फेसबुक/वसुंधरा राजे)
मंदिर की ज़मीन पर प्रोजेक्ट का शिलान्यास करते हुए राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और बाबा रामदेव. (फोटो साभार: फेसबुक/वसुंधरा राजे)

राजस्थान के करौली ज़िले में प्रस्तावित स्वामी रामदेव के ड्रीम प्रोजेक्ट के बारे में 20 जून को ‘द वायर’ के खुलासे के बाद वसुंधरा सरकार, बाबा रामदेव और मंदिर ट्रस्ट फूंक-फूंककर कदम आगे बढ़ा रहे हैं.

सरकार के इशारे पर श्री गोविंद देव जी मंदिर ट्रस्ट और पतंजलि योग ट्रस्ट नए सिरे से क़रार करने को तैयार तो हैं, लेकिन उनके कदम आगे से बढ़ने से पहले ही ठिठक गए हैं.

‘द वायर’ को इस मामले में जो नए तथ्य पता लगे हैं वे चौंकाने वाले हैं. इनके मुताबिक इस ज़मीन पर श्री गोविंद देव जी मंदिर ट्रस्ट का दावा ही सवालों के घेरे में है. कानून के मुताबिक ज़मीन पर उन किसानों का अधिकार है, जो वर्षों से यहां खेती कर रहे हैं.

पुराने रिकॉर्ड की भूलभुलैया, लचर सरकारी तंत्र और सियासी रसूख ने किसानों को ऐसे चक्रव्यूह में फंसा लिया है कि उन्हें इस बेशकीमती जमीन को भूलने के अलावा दूसरा रास्ता नज़र नहीं आ रहा.

किसानों को उनकी ज़मीन से बेदखल करने के इस खेल में बाबा रामदेव का प्रोजेक्ट आखिरी पड़ाव साबित होता हुआ दिखाई दे रहा है. ज़्यादातर किसान तो पहले ही हथियार डाल चुके थे, जो बचे हैं वे लड़ तो रहे हैं पर उनकी हिम्मत भी अब जवाब देने लगी है.

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जिस ज़मीन पर बाबा रामदेव अपना ‘ड्रीम प्रोजेक्ट’ बनाना चाहते हैं वह किसानों की कैसे हैं और इस पर श्री गोविंद देव जी मंदिर ट्रस्ट का कोई अधिकार क्यों नहीं है, यह जानने के लिए रियासतकालीन राजस्थान की व्यवस्था को समझना ज़रूरी है. उस समय के राजा मंदिरों की सेवा-पूजा के लिए उन्हें ज़मीन दिया करते थे. यह ज़मीन जागीर के रूप में होती थी, जिस पर लगान नहीं वसूला जाता था.

रियासतकालीन राजस्थान के साक्षी रहे वयोवृद्ध संस्कृत विद्वान देवर्षि कलानाथ शास्त्री बताते हैं, ‘राजस्थान में मंदिरों को बतौर जागीर ज़मीन देने की परंपरा रही है. लगभग सभी मंदिरों को ज़मीन दी गई. जयपुर के गोविंद देव जी मंदिर को तो 36 गांव जागीर में दिए गए. करौली के गोविंद देव जी मंदिर को भी 700 बीघा से ज़्यादा ज़मीन जागीर के रूप मिली. इससे होने वाली आय से ही मंदिरों में सेवा-पूजा की जाती थी.’

यह सिलसिला 1952 में ‘राजस्थान लैंड रिफॉर्म एंड रिजंपशन ऑफ जागीर एक्ट’ के लागू होने तक चला. इस एक्ट के तहत जागीरदारों के पास वही ज़मीन बची जिस पर वे ख़ुद खेती करते थे. बाकी ज़मीन पर सरकार का हक़ हो गया. इसके एवज में सरकार ने जागीरदारों को मुआवज़ा दिया. मंदिरों को मिली ज़मीन भी इस एक्ट के दायरे में थी.

इस एक्ट के प्रावधानों को और स्पष्ट करते हुए राजस्थान उच्च न्यायालय में राजस्व मामलों के अधिवक्ता हिमांशु सोगानी कहते हैं, ‘राजस्थान लैंड रिफॉर्म एंड रिजंपशन ऑफ जागीर एक्ट की धारा-9 में साफ लिखा है कि जागीर भूमियों में खातेदारी अधिकार उस काश्तकार को मिलेंगे जो ज़मीन पर खातेदार, पट्टेदार अथवा खादिमदार के रूप में काबिज हैं.’

करौली में प्रोजेक्ट स्थल के शिलान्यास के अवसर पर यज्ञ करते हुए वसुंधरा राजे और स्वामी रामदेव. (फोटो साभार: फेसबुक/वसुंधरा राजे)
करौली में प्रोजेक्ट स्थल के शिलान्यास के अवसर पर यज्ञ करते हुए वसुंधरा राजे और स्वामी रामदेव. (फोटो साभार: फेसबुक/वसुंधरा राजे)

इस सवाल पर कि मंदिर को मिली ज़मीन पर खातेदारी का अधिकार किसका होगा, सोगानी कहते हैं, ‘एक्ट के लागू होने से पहले सरकारी रिकॉर्ड में यह लिखा जाता था कि ज़मीन पर खुदकाश्त कौन है. यदि इस कॉलम में मंदिर की मूर्ति का नाम लिखा है तो यह ज़मीन मंदिर की होगी और यदि किसी अन्य का नाम लिखा है तो उसे मिलेगी. किसी का नाम नहीं लिखा हो तो इस पर सरकार का मालिकाना हक़ हो गया.’

मंदिर के पास नहीं बची एक इंच ज़मीन

जानकारी के अनुसार, करौली के श्री गोविंद देव जी मंदिर के पास जागीर के तौर पर 725 बीघा से ज़्यादा ज़मीन थी. इसमें से ज़्यादातर को मंदिर प्रबंधन ने किसानों को खेती करने के लिए दे रखा था. ये किसान कई पीढ़ियों से यहां खेती कर रहे थे. 1954 में ‘राजस्थान लैंड रिफॉर्म एंड रिजंपशन ऑफ जागीर एक्ट’ लागू होने के बाद यह ज़मीन स्वाभाविक रूप से इन किसानों के खाते में आ जानी चाहिए थी.

श्री गोविंद देव जी मंदिर ट्रस्ट की ओर से पंजीकरण के समय देवस्थान विभाग को दी गई अचल संपत्ति की सूची.
श्री गोविंद देव जी मंदिर ट्रस्ट की ओर से पंजीकरण के समय देवस्थान विभाग को दी गई अचल संपत्ति की सूची.

श्री गोविंद देव जी मंदिर ट्रस्ट का रिकॉर्ड भी इसकी पुष्टि करता है कि जागीर एक्ट लागू होने के बाद 725 बीघा में से एक इंच ज़मीन भी मंदिर के पास नहीं बची. दरअसल, राज्य में किसी भी ट्रस्ट का देवस्थान विभाग में पंजीकरण ‘राजस्थान सार्वजनिक प्रन्यास अधिनियम, 1959’ के अंतर्गत होता है. इसके प्रावधानों के अनुसार, किसी भी ट्रस्ट को पंजीकरण के समय अपनी चल-अचल संपत्तियों का विवरण देना अनिवार्य है.

श्री गोविंद देव जी मंदिर ट्रस्ट का पंजीकरण 29 जून, 1964 को हुआ. ट्रस्ट ने ‘राजस्थान सार्वजनिक प्रन्यास अधिनियम, 1959’ के मुताबिक अचल संपत्ति की जो सूची पेश की उसमें मंदिर के नाम किसी भी प्रकार की कृषि भूमि होने का ज़िक्र नहीं था. यानी उस समय 725 बीघा ज़मीन पर मंदिर का कोई अधिकार नहीं था.

राजस्थान उच्च न्यायालय में राजस्व मामलों के अधिवक्ता अनिल मेहता कहते हैं, ‘राजस्थान में जागीर पुनर्ग्रहण की प्रक्रिया जून, 1954 में शुरू हुई और इसकी अंतिम अधिसूचना 21 जून 1963 को जारी हुई. करौली के गोविंद देव जी मंदिर की ज़मीन भी इसी अवधि में रिज़्यूम हुई. इसी वजह से ट्रस्ट ने अपनी अचल संपत्तियों की सूची में ज़मीन का ज़िक्र नहीं किया. मंदिर की पूरी ज़मीन या तो किसानों के नाम हुई होगी या सरकार के नाम.’

मनमाफिक रिकॉर्ड पर सवार मंदिर ट्रस्ट

ऐसे में यह सवाल उठना लाज़मी है कि जब 29 जून, 1964 को श्री गोविंद देव जी मंदिर के पास एक इंच कृषि भूमि नहीं थी तो बाद में यह उसके नाम कैसे हो गई. करौली की ज़िला अदालत में अधिवक्ता भरत सिंह इसका कारण बताते हैं.

वे कहते हैं, ‘यह सब पुराने राजस्व रिकॉर्ड गड़बड़झाला है. विक्रम संवत 2012 के रिकॉर्ड में इस ज़मीन के कई खसरों में खुदकाश्त के तौर पर मंदिर का नाम लिखा है. इसी के आधार पर ट्रस्ट इस ज़मीन को अपना बताता है.’

स्थानीय अदालत के अधिवक्ता पीयूष शर्मा भी इसकी पुष्टि करते हैं. वे कहते हैं, ‘जब से ट्रस्ट के लोगों को यह पता चला है कि विक्रम संवत 2012 के रिकॉर्ड में इस ज़मीन के कई खसरों में मंदिर की मूर्ति का नाम लिखा है, वे कोर्ट में दावा करने लगे. इनमें से कई दावों में उन्होंने इस आधार पर सफलता भी हासिल कर ली. लेकिन जो किसान पूरे रिकॉर्ड के साथ ऊपर तक लड़े उन्हें जमीन वापस मिली.’

न्यायालय राजस्व मंडल, अजमेर के आदेश की प्रति.
न्यायालय राजस्व मंडल, अजमेर के आदेश की प्रति.

‘द वायर’ ने पास न्यायालय राजस्व मंडल, अजमेर के 14 सितंबर, 2016 के दिए एक ऐसे ही आदेश की प्रति है. इस प्रकरण में भी ट्रस्ट के अधिवक्ता ने यह तर्क रखा कि संबंधित ज़मीन विक्रम संवत 2012 की जमाबंदी में मंदिर के नाम बतौर कृषक/खातेदार दर्ज है. दावा करने वाले किसान को इसे मात्र खेती करने के लिए दिया था.

न्यायालय ने ट्रस्ट के अधिवक्ता के तर्कों को नहीं मानते हुए निर्णय सुनाया कि संबंधित ज़मीन विक्रम संवत 2010, 2013 और 2015 के राजस्व रिकॉर्ड में किसान के नाम खुदकाश्त के रूप में दर्ज है इसलिए इसे मंदिर की ज़मीन नहीं माना जा सकता.

न्यायालय ने अपने निर्णय में यह भी लिखा कि राजस्व अपील अधिकारी ने तथ्यों का जागीर एक्ट के परिपेक्ष्य में विवेचन व विश्लेषण नहीं किया.

इस प्रकरण में भी न्याय इसलिए मिल पाया, क्योंकि किसान बादामी देवी ने अपनी ज़मीन प्रकाश चंद महाजन का बेच दी. जब श्री गोविंद देव जी मंदिर ट्रस्ट ने राजस्व अपील प्राधिकारी के यहां वाद दायर किया तो प्रकाश चंद ने ही कानूनी लड़ाई लड़ी और यहां से ख़िलाफ़ फैसला आने पर उन्होंने ही राजस्व न्यायालय में अपील की.

गड़बड़ियों का केंद्र रहा है मंदिर ट्रस्ट

श्री गोविंद देव जी मंदिर ट्रस्ट पर सवालिया निशान पहली बार नहीं लग रहे हैं. ख़ुद देवस्थान विभाग अपनी जांच में इसकी गड़बड़ियों को उजागर कर चुका है. विभाग के सहायक आयुक्त कृष्ण कुमार खंडेलवाल ने 30 जुलाई, 2010 को ट्रस्ट का निरीक्षण किया तो उन्हें यहां खूबियां कम और ख़ामियां ज़्यादा मिलीं.

खंडेलवाल की ओर से प्रस्तुत जांच रिपोर्ट की प्रति ‘द वायर’ के पास है. इसमें उन्होंने सालाना बजट नहीं बनाने के साथ ऑडिट नहीं होने पर सवाल खड़े किए हैं. रिपोर्ट में लिखा है, ‘इस ट्रस्ट के पास बहुत सी अचल संपदा है और आय के नियमित स्रोत हैं फिर भी ऑडिट नहीं कराया जाना अत्यंत गंभीर विषय है.’

देवस्थान विभाग के सहायक आयुक्त की इस रिपोर्ट में ट्रस्ट की संपत्तियों को अवैध रूप से लीज़ पर देने का भी ज़िक्र है. ट्रस्ट ने एक मकान को 99 साल और ज़मीन के एक हिस्से को पेट्रोलियम कंपनी को 19 साल की लीज़ पर दिया. रिपोर्ट में इसे नियमों के ख़िलाफ़ बताते हुए आपत्ति जताई है.

देवस्थान विभाग के सहायक आयुक्त की ओर से मंदिर ट्रस्ट के विरुद्ध सुनाया गया निर्णय.
देवस्थान विभाग के सहायक आयुक्त की ओर से मंदिर ट्रस्ट के विरुद्ध सुनाया गया निर्णय.

निरीक्षण रिपोर्ट में इस पर विशेष रूप से ऐतराज़ जताया कि ट्रस्ट की संपत्ति का समुचित रूप से प्रबंधन नहीं हो रहा है. रिपोर्ट में लिखा है, ‘ट्रस्ट अपने उद्देश्यों के अनुरूप धन को ख़र्च नहीं कर रहा है. इसकी आय का ज़्यादातर हिस्सा न्यायायिक कार्यों पर ख़र्च हो रहा है, जो उचित नहीं है.’

सहायक आयुक्त की इस रिपोर्ट पर श्री गोविंद देव जी मंदिर ट्रस्ट ने जो जवाब पेश किया उसकी प्रति भी ‘द वायर’ के पास है. इसमें ट्रस्ट की ज़्यादातर गड़बड़ियों का यह कहकर बचाव किया गया कि जानकारी के अभाव में ऐसा हो गया. क्या यह संभव है कि जो ट्रस्ट अदालतों में दर्जनों मुक़दमे लड़ रहा हो वह ख़ुद से जुड़े नियमों से ही अनभिज्ञ हो?

देवस्थान विभाग ट्रस्ट के रवैये से संतुष्ट नहीं हुआ और उसने 22 जून, 2011 को यह प्रकरण अग्रिम कार्रवाई के लिए ज़िला न्यायालय को भेज दिया. हालांकि यहां ट्रस्ट की यह दलील काम कर गई कि जानकारी के अभाव में गलतियां हो गईं.

न्यायाधीश ने यह भरोसा मिलने के बाद कि भविष्य में इन गलतियों को नहीं दोहराया जाएगा, प्रकरण का 8 फरवरी, 2016 को निस्तारण कर दिया.

पतंजलि ट्रस्ट की भूमिका संदेहास्पद

श्री गोविंद देव जी मंदिर ट्रस्ट और बाबा रामदेव के पतंजलि ट्रस्ट के बीच 11 अगस्त, 2016 को जो लीज़ डीड हुई. उसमें रामदेव की ओर से अजय कुमार आर्य के हस्ताक्षर हैं.

रामदेव के संघर्ष के दिनों के साथी रहे आर्य मूल रूप से करौली ज़िले के हिंडौन सिटी के रहने वाले हैं. ऐसे में यह बात गले नहीं उतरती कि उन्हें इस ज़मीन की क़ानूनी पेंचीदगियों के बारे में पता न हो.

इसकी संभावना यह उजागर होने के बाद और क्षीण हो जाती है कि श्री गोविंद देव जी मंदिर ट्रस्ट और पतंजलि ट्रस्ट ने 17 अगस्त, 2016 को पुरानी लीज डीड में संशोधन किया. इसमें दोनों पक्षों ने लगभग 49 बीघा ज़मीन को इस वजह से लीज़ डीड से हटा दिया, क्योंकि इनसे संबंधित प्रकरण राजस्थान उच्च न्यायालय में लंबित हैं.

‘द वायर’ के पास दोनों लीज डीड की प्रतियां मौजूद हैं. संशोधित लीज़ डीड में दो खसरे जोड़े भी गए. इस संशोधन के बावजूद बची हुई ज़मीन क़ानूनी अड़चनों से दूर नहीं हुई है. कई खसरों पर करौली की स्थानीय अदालत स्टे दे चुकी है जबकि कई खसरों पर राजस्थान उच्च न्यायालय में वाद दायर हो गया है.

श्री गोविंद देव जी मंदिर ट्रस्ट और पतंजलि ट्रस्ट में हुई लीज़ डीड में संशोधन की प्रति.
श्री गोविंद देव जी मंदिर ट्रस्ट और पतंजलि ट्रस्ट में हुई लीज़ डीड में संशोधन की प्रति.

ऐसे में यह सवाल उठना लाज़मी है कि बाबा रामदेव को यह पता होने के बावजूद कि यह ज़मीन विवादित है, इसे लीज़ पर क्यों लिया. वह भी तब जब लीज़ डीड में इस शर्त का स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि ज़मीन से जुड़ी क़ानूनी प्रक्रिया अपने ख़र्च पर पूर्ण कराने की ज़िम्मेदारी पतंजलि ट्रस्ट की होगी.

कहीं ऐसा तो नहीं कि पुराने रिकॉर्ड की भूलभुलैया, लचर सरकारी तंत्र और सियासी रसूख के दम पर किसानों को उनके ज़मीन से बेदख़ल करने के वर्षों से चल रहे खेल का बाबा रामदेव आखिरी मोहरा हों? इस आशंका पर पतंजलि ट्रस्ट की ओर से कोई भी बोलने को तैयार नहीं है.

सवालों के घेरे में सरकार का रुख़

इस पूरे मामले में सरकार का रुख़ शुरू से ही सवालों के घेरे में हैं. अव्वल तो देवस्थान विभाग को कथित रूप से मंदिर की मानी जाने वाली ज़मीन को ग़ैर कृषि कार्य के लिए लीज़ पर देने पर ही ट्रस्ट के ख़िलाफ़ जांच करनी चाहिए थी, लेकिन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने तो उल्टा इस प्रोजेक्ट का शिलान्यास कर दिया.

आमतौर पर किसी भी प्रोजेक्ट की आधारशिला रखने से पहले उससे जुड़ी सभी औपचारिकताएं पूरी की जाती हैं, लेकिन रामदेव से जुड़े प्रोजेक्ट का शिलान्यास अवैध लीज़ डीड होने मात्र से हो गया. न तो उन्होंने निर्माण कार्य शुरू करने के लिए ज़मीन का नियमन करवाया और न ही नक्शा आदि पास करवाए.

प्राय: मुख्यमंत्री के हाथों शिलान्यास का कोई कार्यक्रम बनाने से पूर्व इस बात की तस्दीक की जाती है कि यह क़ानून के दायरे में है अथवा नहीं. रामदेव के प्रोजेक्ट में तो सब कुछ ग़ैर-क़ानूनी था तो यह सवाल उछलेगा ही कि मुख्यमंत्री वहां क्यों गईं. आख़िर किन अधिकारियों ने कार्यक्रम को हरी झंडी दी? या मुख्यमंत्री सब जानते हुए भी कार्यक्रम में गईं?

यह भी जानकारी आ रही है कि श्री गोविंद देव जी मंदिर ट्रस्ट ने पंजीकरण के समय जो अचल संपत्ति की सूची देवस्थान विभाग को सौंपी थी, उसमें प्रोजेक्ट से जुड़ी ज़मीन की एंट्री हो गया है. राजस्थान उच्च न्यायालय के अधिवक्ता विभूति भूषण शर्मा इसे नियमों के ख़िलाफ़ मानते हैं.

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शर्मा कहते हैं, ‘नियम यह है कि ट्रस्ट को पंजीकरण के समय अपनी अचल संपत्ति का ब्यौरा देवस्थान विभाग को सौंपना होता है. श्री गोविंद देव जी मंदिर ट्रस्ट का पंजीकरण 1964 में हुआ था. उस समय विभाग को दी गई अचल संपत्ति की सूची में ज़मीन का ज़िक्र नहीं है तो इसे अब कैसे जोड़ा जा सकता है. यह क़ानून का उल्लंघन है.’

राहत की बात यह है कि सरकार की इस सक्रियता के बावजूद रामदेव के प्रोजेक्ट का काम शुरू नहीं हो पा रहा. इसकी बड़ी वजह है अधिकारियों का रुख़. ऐसे समय में जब प्रदेश विधानसभा चुनाव के मुहाने पर खड़ा है, अधिकारी ऐसा कोई काम नहीं करना चाहते जो सरकार बदलने की स्थिति में उनके लिए आफत बन जाए.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और जयपुर में रहते हैं.)

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