सैन्य उपलब्धियों का चुनाव में इस्तेमाल करना न तो असामान्य है और न ही ग़लत, लेकिन सवाल उठता है कि एक मामूली रणनीतिक कार्रवाई को एक बड़ी सैन्य जीत के तौर पर पेश करना कितना सही है.
28-29 सितंबर 2016 को हुई तथाकथित सर्जिकल स्ट्राइक, जिसका वीडियो सरकार समर्थक टीवी चैनल पर दिखाया गया था, उसका मकसद क्या था?
इसका सबसे आसान जवाब होगा 18 सितंबर को सेना के उरी मुख्यालय के प्रशासनिक क्षेत्र पर हुए हमले जिसमें 19 लोग मारे गए थे, उसका बदला लेना. लेकिन आधुनिक सैन्य व्यवस्था ‘बदला’ लेने जैसे सिद्धांतों को नहीं मानता है.
यह हमला पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के हिस्से में लगाम लगाने के लिए काफी सीमित तरीके से किया गया था. इसी इलाके से चरमपंथियों ने हमला किया था. इसलिए इसका लक्ष्य सिर्फ सबक सिखाना था.
इस हमले का मकसद उरी जैसे हमलों को रोकना और यह संदेश देना था कि अगर दोबारा ऐसे हमले होते हैं तो बराबर सजा दी जाएगी. भारत की इस धमकी पर भरोसा बना रहे इसके लिए जरूरी है कि पाकिस्तान जब भी हमला करे तब हर बार भारत जवाब दे.
यह अफसोस की बात है कि आंकड़ों के मुताबिक पाकिस्तानियों को ऐसे हमले करने से महज दो महीने ही रोका जा सका था. यह सीमा पार से होने वाले चरमपंथी हमलों के रिकॉर्ड से साफ होता है. ये चरमपंथी आम तौर पर पाकिस्तानी थे जो उरी जैसे हमलों के दौरान भारत में घुस गए थे.
आपको याद होगा कि ये हमले जम्मू कश्मीर में हर रोज होने वाली मुठभेड़ की तरह के नहीं थे. ये ऐसे हमले थे जिन्हें सेना की कार्रवाई की बदौलत ही रोकने की उम्मीद की जा सकती थी.
तथाकथित सर्जिकल स्ट्राइक के दो महीने बाद नवंबर 2016 में पाकिस्तानियों ने फिर से हमला किया था. इस बार हमला और गंभीर था क्योंकि उरी के विपरीत इस हमले में निशाना सीमा के पास न होकर नगरोटा का 16 कोर हेडक्वार्टर था जिसके अंदर पुंछ, राजौरी और जम्मू क्षेत्र की सुरक्षा आती है. इस हमले में दो मेजर समेत सात सेना के जवान मारे गए थे.
इसके बाद अप्रैल 2017 में लश्कर-ए-तैयबा के चरमपंथियों ने कुपवाड़ा के पंचगाम क्षेत्र में फिदायीन हमला किया. इस हमले में तीन भारतीय सेना के जवान मारे गए थे. इसमें से एक अफसर रैंक के जवान भी थे.
मई में चार लश्कर-ए-तैयबा के चरमपंथी उस वक्त मारे गए थे जब भारतीय सेना कुपवाड़ा क्षेत्र में एक घुसपैठ की कोशिश को नाकाम किया था. सेना ने मारे गए चरमपंथियों के पास से भारी मात्रा में हथियार जब्त किए थे. सेना ने उस वक्त बताया था कि मारे गए ये चरमपंथी उच्च प्रशिक्षण प्राप्त फिदायीन थे जो बड़े हमलों को अंज़ाम देने में सक्षम थे.
अगस्त में फिदायीन गुट ने पुलवामा जिले में पुलिस के आवासीय क्षेत्र पर हमला कर दिया था. इसमें आठ सुरक्षाकर्मी मारे गए थे जिसमें से चार सीआरपीएफ के जवान थे. इससे पहले कि वे कोई हमला करते, सितंबर में सेना ने एक बार फिर से घुसपैठ किए फिदायीन गुट के तीन चरमपंथियों को उरी के कलगी क्षेत्र में मार गिराया था.
अक्टूबर में जैश-ए-मोहम्मद के चरमपंथियों ने श्रीनगर एयरपोर्ट के नजदीक एक बीएसएफ कैंप पर हमला कर दिया था. इस हमले में एक जूनियर अधिकारी मारा गया था और तीन घायल हो गए थे. इस हमले में तीन चरमपंथी भी मारे गए थे. ये घुसपैठ कर आए हुए उस दल का हिस्सा थे जिसने अगस्त में पुलवामा जिले में हमला किया था.
साल के आखिरी दिन एक फिदायीन गुट ने पम्पोर के सीआरपीएफ कैंप पर हमला किया, जिसमें सीआरपीएफ के पांच जवान मारे गए थे. जैश-ए-मोहम्मद ने इस हमले की जिम्मेदारी ली थी.
इस साल फरवरी की शुरुआत में जैश-ए-मोहम्मद के हमले में पांच सेना के जवान और एक आम नागरिक जम्मू शहर के नजदीक सुनुवान सैन्य स्टेशन में मारे गए थे.
कहने का लब्बोलुआब यह है कि सर्जिकल स्ट्राइक से पाकिस्तानियों पर लगाम नहीं लगाई जा सकी था.
चूंकि सर्जिकल स्ट्राइक अपने व्यापक सैन्य उद्देश्यों में कामयाब नहीं हो सकी थी इसलिए यह बहुत साफ है कि यह सिर्फ एक छोटी सी रणनीतिक कार्रवाई थी जिसका असर बहुत कम समय के लिए रहा. लेकिन इसे लेकर राजनीतिक तमाशा जरूर हुआ और जो अब भी जारी है.
जहां तक मोदी सरकार का सवाल है तो शायद उसके लिए इसका मकसद यही था.
स्ट्राइक का होना मुद्दा नहीं है और न ही यह कि इसे किस पैमाने पर किया गया था, यह मुद्दा है. उरी हमला जिसमें कई भारतीय जवानों की जान गई, उसे देखते हुए स्ट्राइक को जायज ठहराया गया. जो बात जायज नहीं लगती, वो है इसका मकसद, जिसके पीछे कोई सैन्य तर्क नहीं दिखता है.
इसके बदले इसका इस्तेमाल उत्तर प्रदेश चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने अपने पक्ष में किया था. चुनाव प्रचार के दौरान पूरे उत्तर प्रदेश में सर्जिकल स्ट्राइक की तारीफ करते हुए पोस्टर लगाए गए थे.
लखनऊ में प्रधानमंत्री मोदी रामलीला मैदान में महाभारत के कृष्ण की तरह सुदर्शन चक्र लिए दिखे. तब तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने कहा था, ‘हनुमान की तरह सेना को अपनी ताकत का अंदाज़ा नहीं था. मैंने सेना के जवानों को उनकी ताकत का एहसास करवाया.’
उस वक्त चारों तरफ जीत का माहौल था, जिसे अब फिर से नए जारी किए गये वीडियो के जरिए कुछ ‘चुनिंदा’ टीवी चैनलों द्वारा दोहराया जा रहा है.
यह इस बात की तस्दीक करता है कि सर्जिकल स्ट्राइक करने के पीछे सिर्फ राजनीतिक मकसद था और इसी मकसद से अब फिर इसके वीडियो का इस्तेमाल किया जा रहा है. खासतौर पर जब वीडियो के लीक होने के दो साल बाद फिर इसे आगामी आम चुनावों के नजदीक आने पर इस्तेमाल किया जा रहा हो, तो यह अंदेशा बढ़ जाता है.
सैन्य उपलब्धियों का चुनाव में इस्तेमाल करना न तो असमान्य है और न ही गलत है लेकिन सवाल इस पर उठता है कि मामूली रणनीतिक कार्रवाई को एक बड़ी सैन्य जीत के तौर पर पेश करना कितना सही है. ऐसा करके सरकार समर्थक टीवी चैनल देश की जनता का बहुत नुकसान कर रहे हैं.
सेना की इस कार्रवाई का नेतृत्व करने वाले डायरेक्टर जनरल ने भी उस वक्त स्ट्राइक को इतना बढ़ा-चढ़ा कर नहीं पेश किया था जैसा कि अब सेना के नाम पर किया जा रहा है.
भाजपा और मीडिया की ओर से किया जा रहा यह प्रौपेगेंडा दो कारणों से गलत है. पहला यह कि भारतीय सेना ने कई बड़े-बड़े युद्ध लड़े हैं और बहुतों ने इन युद्धों में अपनी कुर्बानी दी है. एक छोटे से रणनीतिक ऑपरेशन को एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर पेश करना उन युद्धों में लड़ने वालों की उपलब्धियों का अपमान है.
दूसरा यह कि ऐसा कर के सरकार लोगों को इस बात को लेकर गुमराह कर रही है कि सीमा पार से आतंकवाद पर लगाम लगा ली गई है जबकि रिकॉर्ड बताते हैं कि ऐसा बिल्कुल नहीं है.
(लेखक आॅब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली में विशिष्ट शोधकर्ता हैं.)
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