देहरादून में राजधानी होना ही उत्तराखंड की बीमारी की असली जड़ है

पूरे पांच साल मैदान-तराई में रहकर आप चाहते हैं कि पहाड़ों की समस्याएं देहरादून में बैठकर हल हो जाएं तो यह पहाड़ के लोगों के साथ जिनके लिए यह राज्य बना है, सबसे बड़ा धोखा है.

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पूरे पांच साल मैदान-तराई में रहकर आप चाहते हैं कि पहाड़ों की समस्याएं देहरादून में बैठकर हल हो जाएं तो यह पहाड़ के लोगों के साथ जिनके लिए यह राज्य बना है, सबसे बड़ा धोखा है.

Trivendra Singh Rawat facebook
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत (फोटो साभार: फेसबुक/त्रिवेंद्र सिंह रावत)

पहाड़ों में वोट मांगने में भाजपा, कांग्रेस हो या यूकेडी सबका एक ही नारा होता है कि जनता के कष्ट मिटाएंगे, भ्रष्टाचार करने वालों को सजा दिलाएंगे. पहाड़ों की जवानी को रोजगार देकर यहीं के विकास में लगाएंगे. लेकिन सत्ता में आने पर क्या होता है हर बार. तकदीर बदलने की आस में लोग टकटकी लगाकर अगली सुबह का इंतजार करते हैं.

पौड़ी में नैनीडांडा के पास एक बस दुर्घटना में 48 से ज्यादा लोग एक झटके में मौत की नींद सो गए. सरकारी भक्त इसे दैवीय आपदा बता हाथ झाड़ रहे हैं. आए दिन के सड़क हादसे बयान करते हैं कि सुदूर क्षेत्रों में विश्वसनीय सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था ध्वस्त है. दुर्घटनाएं रोकने, सड़कों के रखरखाव का कोई कारगर तंत्र नहीं बना पाए.

इसी भाजपा सरकार ने 2017 में जनता से वोट मांगते वक्त वायदा किया था कि 100 दिन में लोकायुक्त लाकर भ्रष्टाचार मिटाएंगे. 500 दिन पूरे होने को हैं. राज्य बनने के बाद यही चाल है. पांच साल के लिए कुंडली मारकर बैठ जाना. आसपास चमचों, दलालों का घेरा बनाकर जनता से पूरी तरह कट जाना.

अपने-अपने लोगों और रिश्तेदारों की चिंता में पूरी सत्ता को दांव पर लगा देना. पांच साल पूरे होने के बाद जहां से शुरू हुए, वहीं वापस आकर पुरानी लकीर पीटना. लोगों से झूठे वायदे करके सत्ता पर काबिज हो जाना. राज्य को अपनी निजी जागीर मानकर चुन-चुनकर अपने परिवार, चहेतों को दोनों हाथों से रेवड़ियां बांटना.

राज्य बनने के बाद स्कूलों और शिक्षा की बदहाली पर सब कुछ जुबानी जमा खर्च होता रहा है. सरकारी महकमों व स्कूलों की ट्रांसफर-पोस्टिंग के धंधें ने उद्योग का रूप ले लिया. नई, स्थायी राजधानी बनने तक देहरादून से ही सरकार चलाने की गलती को न तो कांग्रेस ने ईमानदारी से सुलझाने की कोशिश की और न ही भाजपा.

दोनों पार्टियों की चाल ढाल एक जैसी है. यह बात इतने सालों से बार-बार साबित हो चुकी है. स्थाई राजधानी और लोकायुक्त कानून समेत कई दूसरे मामलों में भाजपा व कांग्रेस एक दूसरे के साथ मिलीभगत या नूराकुश्ती से काम करने की अभ्यस्त हो चुकी हैं।

उत्तराखंड की असली बीमारी की जड़ है देहरादून में राजधानी का न हटाया जाना. पहले ही ऐसा हो गया होता तो सुगम-दुर्गम का सवाल ही नहीं उठता. हर कोई सरकारी कारिंदा मैदान में ही क्यों नौकरी करना चाहता है.

देश, दुनिया में जो प्रदेश सौ प्रतिशत पर्वतीय हैं, वहां क्यों नहीं यह विवाद सामने आता. होता यह है कि सुविधाएं, जैसे आवागमन, अस्पताल व रोजगार, अच्छे स्कूल, रोजगार मूलक शिक्षा देहरादून से हटाकर पर्वतीय क्षेत्रों में क्यों नहीं जुटाई जा सकतीं.

उक्त बातों का एक ही जवाब है कि सत्ताधारियों और सरकारों की इच्छाशक्ति मर चुकी है. उन्हें देहरादून में जनता दरबार लगाकर अपना फोटो और मीडिया कवरेज से मतलब है. जैसे कि कोई एक बीमार शरीर को लेकर उसके उपचार का स्वांग रचते हैं. आंसू बहाने का पाखंड भी करते हैं लेकिन सही ईलाज कोई मन से चाहता नहीं है.

पूरे पांच साल मैदान-तराई में रहकर आप चाहते हैं कि पहाड़ों की समस्याएं देहरादून में बैठकर हल हो जाएं तो यह पहाड़ के लोगों के साथ जिनके लिए यह राज्य बना है, सबसे बड़ा धोखा है.

कठिन भौगोलिक परिस्थितियों के इस दुर्गम राज्य में प्रशासनिक व्यवस्था का विकेंद्रीकरण कोई सरकार नहीं चाहती. जो सत्ता में है वह यही चाहता है कि लोग दूर-दूर से उनके दरबार में आकर माथा टेंके. आपके पास स्थानांतरण और तैनाती का एक्ट बना है लेकिन उसे ईमानदारी से लागू नहीं करते.

विशेषाधिकार की एक चिड़िया अपने पास रख लेते हैं जिसका आप जब चाहे अपने स्वार्थ के लिए उपयोग करते हैं. उत्तराखंड जैसे संवेदनशील प्रदेश में कोई मंत्री और मुख्यमंत्री बनता है तो उसे बहुत संवेदना और ईमानदारी से समस्याओं का हल तलाशना होगा. मुख्यमंत्री का ईमानदार होना बहुत जरूरी है. वरना राज्य के और भी बर्बादी के कगार तक पहुंचने में देर नहीं लगेगी.

उत्तरकाशी के दुर्गम क्षेत्र में 25 साल से तैनात उत्तरा पंत बहुगुणा का मामला एक फांस बनकर राज्य के मुखिया के लिए मुसीबत बन गया. सवाल यह है कि यह नौबत यहां तक आने क्यों दी गई. क्यों उस टीचर की समस्या शिक्षा निदेशालय स्तर तक नहीं सुलझा ली गई. क्यों बवाल मचने पर ही पूरी मशीनरी सक्रिय हुई.

इस मामले ने यह बात भी साबित कर दी कि आप जो भी कानून या एक्ट बनाते हैं वह जनता की आंखों में धूल झोंकने के लिए है. करना आपने वही है जो आपकी मर्जी है. जो आपके चमचों और नौकरशाही की फौज को माफिक लगता है. जब पूरी दुनिया में आपकी किरकिरी हो गई तो आपको गलतियां समझ आ रही हैं. जन समस्याओं के समाधान के लिए व्यापक पारदर्शी तंत्र विकसित नहीं होगा तो आपको यही सब आए दिन झेलना होगा.

पहली बार ऐसा हुआ है कि कोई मुख्यमंत्री महोदय जनता दरबार में अपना आपा खो बैठते हैं. वे यह भूल जाते हैं कि वे जनता के सेवक हैं. उन्हें धैर्य से लोगों की बातें सुननी चाहिए. उनमें संयम नहीं है तो दरबार लगाने का पाखंड बंद करना चाहिए. पहले अपनी सड़ी-गली व्यवस्था को ठीक करें, उसके बाद जनता को बुलाएं.

सरकार की दूसरी भद्द गांव-गांव में शराब बिकवाने से हो रही है. जगह-जगह शराब के ठेके खोले जा रहे हैं. ऋषिकेश में मुनिकीरेती से एकदम करीब ढालवाला में भारी जन विरोध के बावजूद शराब का ठेका खोल दिया गया. यहीं से कुछ किलोमीटर दूर मोहनचट्टी के पास के गांव की जनता ने जब शराब के ठेके का विरोध किया तो यमकेश्वर के एसडीएम कमलेश मेहता अपना सारा काम छोड़कर शराब ठेकेदार को सुरक्षा देने दलबल के साथ वहां आ धमके. गांव वालों को धमका गए कि पुलिस-पीएसी से पिटवाएंगे.

इसी एसडीएम मेहता को गांवों में पेयजल की समस्याओं की कोई सुध नहीं है. ढांगू ब्लॉक के मतरगांव के ओम प्रकाश जखमोला के अनुसार 26 मई को उनके गांव में एक सार्वजनिक कार्यक्रम था. गर्मी के मौसम और लोगों की तादाद को देखते हुए पेयजल की वैकल्पिक व्यवस्था के लिए एक टैंकर पानी चाहिए था. पेयजल निगम कोटद्वार को एसडीएम का एक लिखित आदेश चाहिए था. गांव वालों ने एसडीएम से संपर्क किया तो उन्होंने बताया कि वे देहरादून छुट्टी पर हैं. उन्हें बैरंग लौटाया गया कि समय नहीं है.

उत्तराखंड के ऐसे कई दर्जन गांव हैं जहां पेयजल योजनाएं नाकाम हो गई हैं. विभाग के ईमानदार अधिकारी लाचार हैं. लेकिन उत्तराखंड पेयजल निगम के मुखिया भजन सिंह को नियमों को ताक पर रखकर लगातार सेवा विस्तार दिया जा रहा है. वे देहरादून में सचिवालय और मंत्रियों के चक्कर लगाते मिलते हैं.

यमकेश्वर के रिखेडा गांव में 58 लाख रुपये से बनी छोटी सोलर पंपिंग पेयजल योजना के निर्माण कार्यों में घपलों की शिकायत होने के बावजूद कोई तकनीकी जांच नहीं हुई. गांव वालों ने सीधे मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव को और पेयजल सचिव को शिकायत भेजी. किसी शिकायत की पावती तक शिकायतकर्ता को नहीं भेजी जाती.

उत्तराखंड में राजधानी पहाड़ के भीतर न होना ही वहां सारी समस्याओं का कारण दिखता है. सारा लाव-लश्कर देहरादून में बिठा दिया गया. ज्यादातर लोग स्वीकार करते हैं कि वहां से जिस दिन पूरी राजधानी हटा दी जाएगी, उसी दिन से समस्याओं का समाधान का हल सुगम होता जाएगा।.

लोगों का देहरादून, हरिद्वार, हल्द्वानी और रामनगर में नौकरी करने का मोह तब तक नहीं छूटेगा, जब तक सत्ता का मुखिया और सरकार का अमला, उन गांवों की बदहाली दुरुस्त करने की सुध नहीं लेगा.

पहाड़ों में सरकारी स्कूलों की बदहाली कोई सरकार दूर नहीं कर रही. दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार ने इच्छा शक्ति दिखाई. वैसी ही कायापलट पहाड़ों में क्यों नहीं हो सकती।.सरकारी स्कूलों में ढांचागत सुविधाएं बेहतर करने में साल भर का वक्त लगेगा. लोगों को विपक्षी कांग्रेस से भी कोई उम्मीद इसलिए नहीं है क्योंकि वह भी जब तक सत्ता में रही, उसने कोई ऐसी कोई मिसाल पेश नहीं की कि उसे शाबाशी दी जाए.

उत्तराखंड बनने के बाद यहां कठपुतली सरकारों का दौर एक स्थायी भाव बन चुका है. दिल्ली की पसंद से यहां प्यादों की तरह मुख्यमंत्री बिठा दिए जाने की परंपरा एक स्थायी रस्म बन चुकी है. मुख्यमंत्री जिस दिन से बनता है पहले दिन से ही वह पार्टी के भीतर बाहर असुरक्षा के धुंध में घिरता चला जाता है.

उत्तराखंड में शराब का धंधा सरकार की आमदनी का सबसे बड़ा जरिया है लेकिन सरकार लोगों को नशा बेचकर कब तक इस प्रदेश को गर्त में धकेलने में जुटी रहेगी. टूरिज्म के नाम पर गर्मियों में बाहरी शहरों से आने वाली मोटर कारों का भारी जाम और प्रदूषण इतने खतरनाक तरीके से बढ़ रहा है कि आने वाले दिनों में हालात और भी संकट ग्रस्त होने वाले हैं. रुड़की से लेकर बद्रीनाथ मार्ग के व्यासी-देवप्रयाग तक लोगों को जाम के कारण रात अपने वाहन में ही गुजारनी होती है.

पर्यटन के नाम पर सरकार के मुखिया की फोटो अखबारों में छपवाने को पूरा अमला लगा दिया जाता है. योग दिवस जैसे सरकारी जलसों के नाम पर अखबारों व चैनलों में सरकारी खजाने से करोड़ों रुपये स्वाहा किए जा रहे हैं. कई विभागों में कर्मचारियों को वेतन कई-कई महीनों से नहीं मिला लेकिन सरकारी प्रचार व फिजूलखर्ची के लिए झटपट सरकारी खजाना खुल जाता है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)