मोदी सरकार का गोरक्षा का दावा खोखला है

मोदी सरकार ने चार सालों में पशुपालन, डेयरी और मत्स्य पालन विभाग का बजट यूपीए सरकार के दौर से भी कम कर दिया लेकिन विभाग काम कर रहा है इसका हल्ला मचाने के लिए विज्ञापन बजट पिछले दो साल में 10 गुना से ज़्यादा बढ़ा दिया है.

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मोदी सरकार ने चार सालों में पशुपालन, डेयरी और मत्स्य पालन विभाग का बजट यूपीए सरकार के दौर से भी कम कर दिया लेकिन विभाग काम कर रहा है इसका हल्ला मचाने के लिए विज्ञापन बजट पिछले दो साल में 10 गुना से ज़्यादा बढ़ा दिया है.

Varanasi: Prime Minister Narendra Modi feeding cows during a visit to the Garwaghat Ashram in Varanasi on Monday. PTI Photo / Twitter(PTI3_6_2017_000227B)
(फाइल फोटो: पीटीआई)

आज गाय के नाम पर सिर्फ कुछ जगहों पर संगठित दंगे नहीं हो रहे हैं बल्कि अब एक अंजान सी सर्वव्यापी भीड़ कहीं भी और कभी भी प्रकट होकर गाय के नाम पर लोगों का सरेआम कत्लेआम कर सकती है.

कहा जाय तो इस भीड़ को सत्ताधारी वर्ग का समर्थन प्राप्त है इसलिए इसमें आज तक कोई कड़ी कार्रवाई नहीं हुई. इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में राज्यों को कड़ी कार्रवाई के आदेश दिए हैं. हालांकि इसका कितना असर होगा यह देखने की बात होगी. कोर्ट ने इस मामले में दिए जाने वाले मुआवजे पर अपना फैसला सुरक्षित कर दिया है.

सुप्रीम कोर्ट का फैसला जो भी हो लेकिन असलियत यह है कि सत्ता के खेल ने 21वी सदी में प्रेमचंद के होरी की गाय को एक विशुद्ध राजनैतिक प्राणी में तब्दील कर दिया गया है. अब राजनेता होरी की गाय से दूध नहीं वोट दुहते हैं और मीडिया टीआरपी.

वो अब हिंदू होकर भाजपा के हिंदुत्व की राजनीति के एजेंडे में राम से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई है. टीवी चैनल पर भी हिंदुत्व की राजनैतिक बहस अब राम मंदिर के बजाए गाय हो गई है.

कमाल की बात यह है कि किसी के पास यह जानने की फुरसत नहीं है कि भारतीय समाज और उसकी अर्थव्यवस्था में गाय का जो महत्वपूर्ण स्थान था, वो उसे क्यों खोते जा रही है? और क्या, उसके नाम पर देश भर में बवाल मचाने वाली सरकार और उसके नुमाइंदे इस विषय में अपनी भूमिका ईमानदारी से निभा रहे हैं?

केंद्र सरकार का पशुपालन, डेयरी और मत्स्य पालन विभाग गाय के अलावा अन्य पालतू पशुओं के साथ-साथ मत्स्य पालन के लिए भी जवाबदार है. इस विभाग की विभागीय संसदीय स्थायी समिति की वर्ष 2016-17 एवं 17-18 की अनुदान मांगों (32 व 49वीं रिपोर्ट) पर नजर डालें तो समझ आएगा कि मोदी सरकार का गोरक्षा का दावा कितना बड़ा ढकोसला है.

जहां इस सरकार ने गोवंश को बचाने का बजट कम कर दिया, वहीं उसे बचाने के विज्ञापन का बजट पिछले दो साल में 10 गुना से ज्यादा बढ़ा दिया है.

इतना ही नहीं गवर्नेंस का दम भरने वाली सरकार ने न तो 12वीं पंचवर्षीय योजना का मध्यावधि मूल्यांकन समय पर किया और न ही केंद्र सरकार के विभागों का आंकलन करने वाली कैबिनेट सेक्रेटेरीएट ने विभाग के कम्पोजिट स्कोर भी 2016 की रिपोर्ट आने तक अपलोड किए.

विभाग की आगामी योजनाओं का तैयार करने में इन दस्तावेजों से जो मदद मिल सकती थी, वो नहीं मिल पाई. हालांकि समिति को अन्य सूत्रों से जो जानकारी मिली थी उसके अनुसार विभाग का कार्यक्षमता का कम्पोजिट स्कोर जो 2012-13 में 95.48 प्रतिशत था और 2013-14 में 91.97 प्रतिशत था वो 2014-15 में गिरकर 67.14 प्रतिशत हो गया है.

पिछले चार सालों में विभाग का बजट यूपीए सरकार के दौर से भी कम कर दिया गया लेकिन विभाग काम कर रहा है इसका हल्ला करने के लिए विज्ञापन बजट पिछले दो साल में 10 गुना से ज्यादा बढ़ा दिया गया है.

विज्ञापन बजट जो 2016-17 में मात्र 59 लाख रुपये था, 17-18 के संशोधित अनुमान बजट में 2.48 करोड़ रुपये और 18-19 के बजट में बढ़ाकर 6.36 करोड़ रुपये कर दिया गया.

जब इस विषय में संसदीय की स्थायी समिति ने सवाल उठाया तो उन्हें बताया गया कि यह विभाग की कार्यप्रणाली को बेहतर करने के लिए किया गया.

विभाग का कुल बजट खर्च जहां 2012-13 में 1791.66 करोड़ रुपये था और वह 2013-14 में 1826.01 हो गया. वहीं मोदी सरकार के आने के बाद 2014-15 में 1822.90 करोड़ रहा लेकिन अगली साल यानी 2015-16 में गिरकर 1410.12 करोड़ रुपये रह गया.

गौर करने वाली बात यह है कि इस साल विभाग ने 4527.79 करोड़ रुपये की बजट मांग पेश की थी. इसी तरह अन्य वर्षों में भी बजट मांग के मुकाबले आधी राशि का ही आवंटन मंजूर किया गया.

Modi Govt Cow Funding

 

यह 2016-17 में 2376.33 करोड़ और 2017-18 में 2166.74 करोड़ जरूर हो गया, मगर इसमें मुद्रास्फीति दर और अन्य बढ़े खर्च जोड़ें तो यह राशि वर्ष 2012-2013 एवं 2013-14 के मुकाबले कोई खास फर्क नहीं नजर आएगा.

संसदीय स्थायी समिति ने भी अपनी 2016-17 की विभागीय रिपोर्ट में इस बात पर गहरी चिंता जताई है. वैसे भी सरकार ने पिछले चार सालों में मांग के मुकाबले एक तिहाई या आधा बजट आवंटन मंजूर किया था.

2018-19 में भी जहां विभाग ने 6422.07 करोड़ रुपये की बजट मांग पेश की थी, उसके मुकाबले उन्हें आधे से भी कम यानी मात्र 3100 करोड़ रुपये ही आवंटित किए गए.

विभाग के इस कुल बजट में प्रशासन व्यवस्था, मत्स्य पालन, डेरी विकास आदि की राशि निकाल दो तो समझ आएगा विभाग ने गोमाता के लिए कई मदों में बजट शून्य कर दिया गया.

2014 से 2019 के बीच सिर्फ 2016-17 में देशी नस्ल की गायों को बढ़ावा देने के लिए सहायता अनुदान 64.92 करोड़ रुपये खर्च किए गए तो वहीं राष्ट्रीय गोजाति प्रजनन कार्यक्रम पर 39.68 करोड़ रुपये खर्च किए गए. वहीं मोदी सरकार के बाकी सभी सालों में इसके लिए कोई बजट प्रावधान ही नहीं था.

इसके बदले देशी गाय को बचाने के नाम पर वर्ष 2014 में एक गोकुल ग्राम योजना शुरू कर देशी गायों और आवारा पशुओं को खुशहाल जीवन देने की बात की गई.

इसके तहत गाय पालने वाले एक हजार आश्रमों और संस्थानों को सहायता देने की बात है. उनके पास 40 प्रतिशत गायें बूढ़ी और 60 प्रतिशत दूध देने वाली होनी चाहिए.

2017-18 में 12 राज्यों में 18 ऐसे ग्राम स्थापित करने के लिए 173 करोड़ रुपये आवंटित किए गए. इन गोशालाओं को कौन चलाता है और उनके हालात कैसे हैं, यह किसी से छुपा नहीं है.

गाय सहित अन्य पशुओं में मुंहपका और खुरपका की बीमारी से सालाना 20 हजार करोड़ रुपये मूल्य के मांस और दूध का नुकसान होता है. मोदी सरकार ने 2016 में इस बीमारी को आगामी कुछ वर्षों में जड़ से मिटाने की बात कही थी.

लेकिन, संसदीय समिति की 2017-18 की रिपोर्ट में इस बात पर चिंता जताई गई है कि सरकार ने 746.63 करोड़ रुपये की मांग के मुकाबले मात्र 508.77 करोड़ रुपये ही मंजूर किए.

इतना ही नहीं, पशुओं के लिए बनने वाली सारी दवाइयां निजी क्षेत्र में बनती हैं. अनेक कंपनियां नकली दवाइयां और वैक्सीन बनाती हैं. 2014 में ही नकली वैक्सीन के चलते बड़े पैमाने पर पशुओं के मुंहपका और खुरपका की बीमारी से मरने की खबरें आई थी.

सबसे बड़ी बात ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीजीसीआई) के पास पशुओं के लिए बनने वाली दवाइयों की जांच के लिए कोई व्यवस्था नहीं है.

इसलिए दसवीं पंचवर्षीय योजना में ही एक वेटिनरी ड्रग कंट्रोल अथॉरिटी का गठन करने की बात हुई थी, लेकिन यह काम आज तक नहीं हुआ.

2017-18 की रिपोर्ट में इस बात पर भी चिंता जताई गई थी कि देश में सात पशु-चिकित्सा विश्वविद्यालय एवं 35 कॉलेज है लेकिन इन संस्थानों में जो सुविधाएं हैं वो पशु चिकित्सा परिषद एवं पशु चिकित्सा शिक्षा अधिनियम के न्यूनतम मापदंड़ो के अनुरूप भी नहीं है. इसमें तुरंत सुधार की जरूरत है.

इतना ही नहीं देश में जमीनी स्तर पर पशु चिकित्सकों की भी भारी कमी है. जरूरत से आधे भी नहीं है. पशु चिकित्सालय एवं औषधालय की व्यवस्था के साथ चल पशु चिकित्सालय की व्यस्था बुरी हालत में है. आज भी ग्रामीण इलाकों में पशुओं का ईलाज एक बड़ी समस्या है. क्योंकि, इसके लिए उचित बजट और मानव संसाधन की कमी है.

संसदीय की स्थायी समिति ने इस बात पर भी अपनी नाराजगी जताई और उन्हें इस बात का औचित्य भी समझ नहीं आया कि पशु एवं मत्स्य पालन में लगे किसानों को आत्महत्या से बचाने एवं जिन परिवारों के सदस्यों ने आत्महत्या कर ली है उनके परिवार के पुनर्वास के लिए 11वी पंचवर्षीय योजना में आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं केरल के 31 आत्महत्या पीड़ित जिलों में दिया गया विशेष पैकेज बिना वैकल्पिक व्यवस्था के ही बंद कर दिया गया.

समिति ने इन किसान परिवारों के लिए शीघ्र नई व्यवस्था स्थापित करने की अनुसंशा की.

असल में भारत के ग्रामीण समाज में गाय का महत्व उसके कृषि में योगदान के कारणों से रहा है. उस समय की ग्रामीण व्यवस्था में गाय का भी एक हिस्सा होता था: बचपन में हमारे दादा के खेतों का एक हिस्सा बीड (याने पशुओं के लिए चरनोई की जमीन) का होता था.

इतना ही नहीं, गांव में चरनोई की सार्वजानिक जमीन भी होती थी. जब मशीनीकरण के कारण कृषि में बैलों का महत्व खत्म सा हो गया तो आज के दौर में हमारे घरों में सारी बीड को खेत में बदल दिया गया.

दूसरी तरफ सरकार ने भी बड़े पैमाने पर चरनोई जमीन को औधोगिक जरूरत के लिए आवंटित कर दिया. अकेले मध्य प्रदेश राज्य के लैंड बैंक में इस मद की हजारों एकड़ जमीन है.

इस चरनोई जमीन की गांव में जो न्यूनतम सीमा कुल जमीन का पांच प्रतिशत थी अब उसे कम कर के दो प्रतिशत कर दिया गया है. हमारे देश में 80 प्रतिशत सीमांत किसान है, जो असल में देशी गाय (या कहें तो हमारी गोमाता) को पालता है. वो इस चारे और चरनोई की जमीन पर निर्भर था.

(फोटो: पीटीआई)
(फोटो: पीटीआई)

उसके हाथ से यह भी गया और सरकार की सारी मदद व छूट डेयरी क्षेत्र तक सीमित है. यह डेयरी उधोग सीधे-सीधे इस आर्थिक गणित पर निर्भर है कि दूध देने में बेकार हो जाने के बाद उसे मांस हेतु बेचा जाए क्योंकि उस गाय की कीमत और उसे पालने का खर्चा इतना ज्यादा जो है.

जो आदिवासी किसान मैदानी इलाके से बड़े किसानों की गाय पालने ले आते थे और जो गोपालन करने वाली जातियां थी वो भी वन-विभाग के अत्याचार से परेशान हैं. उसके अलावा जो आदिवासी कम उम्र के बैल बाजार से खरीदकर उसे बढ़ाकर बेचते थे, उन्हें भी तथाकथित गोसेवक आए दिन नोचते रहते हैं.

हरित क्रांति ने गाय का महत्व और कम कर दिया. इसके बाद से सारी सरकारी सहायता और सब्सिडी किसान के नाम से रासायनिक खाद और ट्रैक्टर सहित अन्य कृषि मशीनों का निर्माण करने वाली मल्टी नेशनल कंपनी के लिए सीमित हो गई.

इन मशीनों के चलते खेतों से फसल काटने के बाद जो चारा बड़ी मात्रा में निकलता था अब वो भी नहीं रहा, उल्टा इस चारे को जलाने से प्रदूषण की भारी समस्या पैदा हो गई. इसलिए 1992 के बाद से गोधन की संख्या लगातार गिरते जा रही है. यह 1992 में 204.58 से गिरकर 2012 में 190.90 हो गई.

इसलिए एनडीए सरकार के अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में 2002 में राष्ट्रीय गोवंश आयोग की जो रिपोर्ट है उसमें इन बातों के सुधार का जिक्र है. हालांकि, इसमें अनेक बाते ऐसी हैं-जैसे सविंधान में संशोधन से आदि से हम सहमत नहीं है.

वैसे भी धीरे-धीरे इस औधोगिक उत्पाद के दौर में गाय सिर्फ गाय न रहकर एक उत्पाद हो गई है. अगर वाकई में मोदी सरकार गोरक्षा को लेकर गंभीर है, तो गाय को वाकई में गाय मानते हुए, उसे ग्रामीण अर्थव्यवस्था में उसका खोया हुआ स्थान लौटाना होगा और उसके लिए सारी सरकारी सोच में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा.

वरना गाय पर दंगे और बहस होती रहेगी और शायद उसकी पूंछ पकड़ वो चुनाव की वैतरणी भी पार कर ले मगर गाय प्लास्टिक खाकर या बीमारी से मरती रहेगी और भविष्य में उसका स्थान व संख्या और कम होती जाएगी.

(लेखक समाजवादी जन परिषद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं और मध्य प्रदेश के बैतूल शहर में रहते हैं.)