सर्वेक्षण: पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज़ के तत्वावधान में क़ानून की पढ़ाई कर रहे छात्रों द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है.
2015 के उत्तरार्द्ध में जब बिहार में विधानसभा चुनाव की तैयारियां जोरों पर थीं, तो लग रहा था कि यहां का चुनावी मुद्दा विकास के इर्द-गिर्द ही परिक्रमा करेगा.
पहले और दूसरे चरण के चुनाव तक कमोबेश ऐसा हुआ भी. भाजपा से गठबंधन खत्म कर राजद व कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे नीतीश कुमार ने ‘सुशासन’ के दिन गिनवाए, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत तमाम भाजपा नेताओं ने नीतीश के दावे को खारिज किया.
लेकिन, इसके बाद से दृश्य तेजी से बदल गए और बिहार चुनाव में जाति, धर्म के साथ ही पाकिस्तान की भी जोरदार इंट्री हुई. कमोबेश सभी राजनीतिक पार्टियों ने सार्वजनिक मंच से घृणा फैलाने वाले भाषण दिए.
भाजपा नेता चुनावी मंचों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जाति बताने लगे, तो विकास का एजेंडा छोड़ नरेंद्र मोदी ने बिहार के ओबीसी, अत्यधिक पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) और दलित वोटरों को अल्पसंख्यकों का भय दिखाया.
उन्होंने एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए कहा, ‘नीतीश और लालू ने ओबीसी, ईबीसी और दलितों का 5 प्रतिशत आरक्षण लेकर अल्पसंख्यकों (मुसलिम) को देने की साजिश की है. मैं कसम खाता हूं कि ओबीसी, ईबीसी और दलितों के अधिकारों की रक्षा के लिए मैं अपनी जान दे दूंगा. ’
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह दो कदम और आगे गए. उन्होंने कहा, ‘अगर भाजपा गलती से भी बिहार में हारती है तो जय-पराजय तो बिहार में होगी, लेकिन पटाखे पाकिस्तान में फूटेंगे.’
राजद मुखिया व पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने भाजपा विरोधी वोट एकजुट करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘ब्रह्मपिशाच’ व अमित शाह को ‘आदमखोर’ कह दिया था.
खैर, चुनाव में भाजपा की हार हुई और महागठबंधन की सरकार बनी. नीतीश कुमार फिर एक बार मुख्यमंत्री बने.
अब बिहार विधानसभा चुनाव के ढाई साल से अधिक वक्त गुजर गया है, लेकिन बिहार में नफरत भरे भाषणों की जो परंपरा शुरू हुई थी, वह अब तक जारी है. और ऐसा लग रहा है कि बिहार नफरत भरे भाषणों की प्रयोगशाला बनता जा रहा है.
मई 2014 से मार्च 2018 तक राजनेताओं की ओर से जिन-जिन राज्यों में नफरत बुझे भाषण दिए गए, उनमें सबसे ऊपरी पायदान पर बिहार है.
कानून की पढ़ाई कर रहे छात्रों द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है.
यह रिपोर्ट चाणक्या नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी (पटना) के विधि छात्र स्वराज सिद्धांत, आईसीएफएआई यूनिवर्सिटी (देहरादून) की लॉ छात्रा सुप्रिया कुमारी और नई दिल्ली की इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी के लॉ के छात्र आदित्य भारद्वाज ने पीपल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज के तत्वावधान में तैयार की है.
रिपोर्ट के मुताबिक, मई 2014 से मार्च 2018 तक करीब 100 नफरत भरे भाषण दिए गए, जो चुनावों से संबंधित थे. इनमें से 38 भाषण बिहार में दिए गए, जो किसी भी राज्य और यहां तक कि उत्तर प्रदेश से भी अधिक है. उत्तर प्रदेश में कुल 31 भाषण दर्ज किए गए, जो बिहार से सात कम हैं.
जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, दिल्ली, तेलंगाना, गुजरात, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक और छत्तीसगढ़ को मिलाकर 28 भाषण दिए गए. ऐसे भाषणों का मकसद नफरत फैलाकर वोटों का ध्रुवीकरण करना था.
लॉ के छात्र स्वराज सिद्धांत कहते हैं, ‘यह रिपोर्ट मई 2014 से मार्च 2018 तक के हिंदुस्तान अखबार (पटना संस्करण) के अलावा द हिंदू और इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबरों, लॉ कमिशन ऑफ इंडिया, दूसरे संगठन, लेखों, वेबसाइट्स व किताबों की मदद से तैयार की गई है.’
रिपोर्ट में भाषणों के अलावा यह भी बताया गया है कि किस पार्टी के कितने नेताओं ने मजहबी व जातिगत नफरत फैलाने के लिहाज से सार्वजनिक वक्तव्य दिए.
रिपोर्ट के मुताबिक, भाजपा ने सबसे अधिक 46 नफरत बुझे भाषण दिए.
ऐसे भाषण देने वालों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह, नितिन गडकरी, योगी आदित्यनाथ, साक्षी महाराज, साध्वी निरंजन ज्योति, ज्ञानदेव अहूजा समेत 20 से अधिक नेता शामिल हैं.
नफरत भरे भाषण देने में दूसरी पार्टियां भी आगे रहीं.
रिपोर्ट बताती है कि कांग्रेस ने कुल 13, राजद ने 14, जदयू ने चार, एआईएमआईएम ने तीन, सपा ने छह और अन्य ने 14 भाषण दिए, जो नफरत फैलाने वाले थे.
कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी समेत 11, राजद के लालू प्रसाद यादव समेत तीन, सपा के पांच, जदयू के नीतीश कुमार समेत चार और एआईएमआईएम के एक नेता ने समाज में नफरत फैलाने वाले वक्तव्य दिए.
पीपल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज के महासचिव प्रवीण कुमार मधु ने कहा, ‘दरअसल, नेताओं ने अब जमीनी स्तर पर काम करना बंद कर दिया है और न ही अब लंबा संघर्ष कर कोई नेता तैयार हो रहा है. ऐसे में उन्हें लगता है कि वोटों का धार्मिक और जातिगत ध्रुवीकरण ही जीत की एकमात्र कुंजी है. यही कारण है कि नफरत भरे भाषण दिनोंदिन बढ़ रहे हैं.’
आंकड़ों में एक दिलचस्प बात सामने आई है कि जहां दूसरी पार्टियों की ओर से साल-दर-साल भड़काऊ भाषणों में कमी आई, वहीं भाजपा की तरफ से ऐसे भाषण न केवल जारी रहे बल्कि इसमें इजाफा भी हुआ.
रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2014 में कुल भड़काऊ भाषणों में भाजपा की हिस्सेदारी 21 प्रतिशत थी, जो 2017 में 78 प्रतिशत पर पहुंच गई.
आंकड़े बताते हैं कि 2014 में भाजपा नेताओं ने सात भड़काऊ भाषण दिए थे जो 2017 में दोगुना से अधिक यानी 15 हो गए.
कांग्रेस नेताओं ने वर्ष 2014 में नौ भड़काऊ भाषण दिए थे, जो वर्ष 2015 में शून्य रहा. वर्ष 2016 में तीन और पिछले साल एक भड़काऊ भाषण दिया गया.
राजद नेताओं ने वर्ष 2014 में चार, 2015 में नौ, 2016 में एक और 2017 में दो भड़काऊ भाषण दिए.
सपा की बात करें, तो वर्ष 2015 में पार्टी नेताओं ने नफरत फैलाने वाले पांच भाषण दिए थे. वर्ष 2015 और 2016 में यह संख्या शून्य रही, जबकि पिछले साल एक भड़काऊ भाषण सपा के नाम रहा.
जदयू का ट्रैक रिकॉर्ड इस मामले में सभी पार्टियों से अच्छा रहा है. रिपोर्ट के अनुसार, जदयू नेताओं ने वर्ष 2014 में चार भड़काऊ भाषण दिए थे, लेकिन अगले तीन सालों में पार्टी नेताओं ने संयम बरता और इस दौरान एक भी भड़काऊ भाषण नहीं दिया गया.
धार्मिक और जातिगत नफरत फैलाने वाले भाषणों के ये आंकड़े इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि चुनावी जीत के लिए राजनीतिक पार्टियों को समाज में बंटवारा कर वोट लेने से भी गुरेज नहीं है.
स्वराज सिद्धांत बताते हैं, ‘नफरत भरे भाषण बढ़ने के पीछे संभावित वजह यह है कि यहां के वोटर राजनीतिक रूप से शिक्षित नहीं है. ये बात राजनीतिक पार्टियां जानती हैं और इसलिए मजहब और जाति जैसे संवेदनशील मुद्दे उछालकर उनका भावनात्मक दोहन करते हैं. यह बेहद खतरनाक और लोकतंत्र के लिए घातक ट्रेंड है.’
रिपोर्ट में कहा गया है, ‘आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि जाति और मजहबी विभिन्नता से भरपूर बिहार जैसे सूबों में भाजपा व राजद जैसी पार्टियों का मुख्य एजेंडा धार्मिक और जातिगत मुद्दों के जरिए सफलता हासिल करना है.’
रिपोर्ट में सबसे चौंकाने वाला आंकड़ा नफरत भरे भाषण देने वाले नेताओं पर कार्रवाई को लेकर आया है.
रिपोर्ट के अनुसार, पिछले चार सालों में दिए गए 100 के करीब भड़काऊ भाषणों में से महज 12 मामलों को लेकर ही प्राथमिकी दर्ज की गई और इनमें से महज तीन मामलों में निर्वाचन आयोग ने नोटिस जारी की.
जहां तक कार्रवाई का सवाल है, तो रिपोर्ट में बताया गया है कि केवल इमरान मसूद पर जुर्माना लगाया गया.
इमरान मसूद कांग्रेस के नेता हैं. उन्होंने 4 अप्रैल 2014 को चुनावी सभा में नफरत फैलाने वाला भाषण दिया था. इमरान मसूद पर 50 हजार रुपये जुर्माना लगाया गया था.
शोध का हिस्सा रहे आदित्य भारद्वाज कहते हैं, ‘नफरत भरे भाषण देने से वोटों का ध्रुवीकरण होता है और इससे नेताओं को फायदा मिलता है, इसलिए नेता ऐसे भाषण देते हैं. इन नेताओं के खिलाफ निर्वाचन आयोग भी कार्रवाई नहीं करता है, इसलिए इनका मनोबल बढ़ा हुआ है.’
भारद्वाज के मुताबिक, नफरत भरे भाषणों के इस ट्रेंड को रोकने के लिए दो-तीन चीजों पर गंभीरता से काम करना होगा. अव्वल तो निर्वाचन आयोग को सक्रियता दिखानी होगी और दूसरे आम लोगों को जागरूक करना होगा. इसके साथ ही नेताओं को भी यह समझने की जरूरत है कि उन्हें देश के लिए काम करना है, न कि खुद के लिए.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और पटना में रहते हैं.)