संघ, योगी आदित्यनाथ और हिंदू राष्ट्र का सपना

यूपी के चुनावों की जीत ने हिंदुत्व की ताकतों को यह आत्मविश्वास दिया है कि वह अपने बुनियादी सांस्कृतिक एजेंडे को लेकर अब अस्पष्टता न रखें बल्कि खुलकर सामने आएं.

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यूपी के चुनावों की जीत ने हिंदुत्व की ताकतों को यह आत्मविश्वास दिया है कि वह अपने बुनियादी सांस्कृतिक एजेंडे को लेकर अब अस्पष्टता न रखें बल्कि खुलकर सामने आएं.

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योगी आदित्यनाथ. (फोटो: पीटीआई)

देश की हृदयस्थली में बाकायदा गेरूआ वस्त्राधारी एक मठ का महंथ मुख्यमंत्री पद पर विराजमान है. आज़ादी के बाद यह पहला मौका है कि हम ऐसे मंज़र से रूबरू हैं. और भारतीय लोकतंत्र की आने वाली 70वीं सालगिरह के अवसर पर हमारे सामने यह सवाल मौजूं हो उठा है कि उसकी आगे की यात्रा के लिए इसके क्या निहितार्थ हैं?

क्या गंभीर कहे जाने वाले मामलों में अभियुक्त न्यायपालिका के सम्मानित सदस्यों के साथ मंच साझा कर सकते हैं, उन्हें संबोधित कर सकते हैं.

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत इस जनयाचिका की तरफ पूरे मुल्क के लोगों की निगाह लगी है क्योंकि मामला देश के सबसे बड़े उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के साथ जुड़ा है ? वैसे कानून के जानकार बताते हैं कि मान्यवर न्यायमूर्तिगण इस आधार पर याचिका खारिज कर सकते हैं कि चूंकि उपरोक्त व्यक्ति दोषसिद्ध नहीं हुआ है तथा संवैधानिक पद पर विराजमान है.

न्यायपालिका ऐसे मामलों में क्या फैसला सुनाती है, इससे परे हट कर सोचें तो एक सवाल नैतिकता या राजनीतिक शुचिता का अवश्य उपस्थित होता है, जिसे लेकर सत्ताधारी पार्टी – जो अपने आप को अलग कहलाती रही है – को जवाब अवश्य देना पड़ेगा.

योगी के बहाने न केवल सत्तर साल में पहली दफा एक गेरूआ वस्त्राधारी महंथ किसी राज्य का मुखिया बना है बल्कि ऐसा शख्स जिसके विरूद्ध ऐसी धाराओं में मुकदमे कायम हुए हैं, जिनके लिए सख्त सज़ा मुमकिन है.

कल्पना करें कि इन विभिन्न मामलों में अदालती कार्रवाई आगे बढ़ने पर अगर फैसला प्रतिकूल आता है तो सत्ताधारी पार्टी  को रक्षात्मक रूख अपनाने पर मजबूर हो सकती है. मालूम हो कि दोषसिद्ध व्यक्ति को न केवल अपने पद से इस्तीफा देना पड़ता है बल्कि आने वाले छह सालों तक उसे चुनाव लड़ने से भी वंचित रखा जा सकता है.

इसमें कोई दोराय नहीं कि भाजपा-संघ के वरिष्ठों ने ऐसी तमाम संभावनाओं पर विचार किया ही होगा और राजनीति के हिसाब से युवा समझे जा सकनेवाले 44 साल उम्र के योगी आदित्यनाथ के यूपी के मुख्यमंत्री पद पर मुहर लगायी होगी.

इतना ही नहीं पांचवी बार लोकसभा का चुनाव जीतने वाले योगी के राजनीतिक इतिहास पर भी निगाह अच्छी से निगाह डाली होगी, जहां वह कई बार भाजपा से स्वायत्त होकर काम करते दिखे हैं, यहां तक कि एक बार विधानसभा चुनावों में भाजपा के आधिकारिक उम्मीदवार के खिलाफ हिंदू महासभा के बैनर तले अपना प्रत्याशी /डॉ. राधामोहन दास अग्रवाल/ खड़ा कर उसे हराते भी दिखे हैं.

New Delhi: File photo of RSS Chief Mohan Bhagwat (C) during the RSS function. Khaki shorts, the trademark RSS dress for 91 years, is on its way out, making way for brown trousers, the significant makeover decision was taken here at an RSS conclave in Nagaur, Rajasthan on Sunday. PTI Photo (PTI3_13_2016_000268B)
(संघ प्रमुख मोहन भागवत. फोटो: पीटीआई)

उनकी निगाह में यह बात भी अवश्य रही होगी कि योगी आदित्यनाथ ने हिंदू युवा वाहिनी-जिसका प्रमुख हाल तक ऐसा व्यक्ति था जिस पर कई आपराधिक मुकदमे कायम हुए थे तथा जो कथित तौर पर हिस्ट्रीशीटर था – तथा जिन कई अन्य संगठनों का निर्माण किया है, वह संघ परिवार के आनुषंगिक संगठन नहीं है बल्कि लोकप्रिय भाषा में कहें तो ‘योगी की सेना’ का हिस्सा हैं.

आखिर ‘संसद विधानसभा में महिला आरक्षण के बिल को लेकर पार्टी द्वारा जारी व्हिप का उल्लंघन करनेवाले’ या ‘जाति के उच्चनीच सोपानक्रम के खुल्लमखुल्ला हिमायती’ और ‘नेपाल में राजशाही की पुनर्बहाली के प्रगट समर्थक’,  जो निश्चित ही भाजपा की आधिकारिक लाइन नहीं है, योगी नामक शख्स का देश की हदयस्थली कहे जाने वाले सूबे के कर्णधार के तौर पर चयन करते वक्त यह तमाम बातें उनके मददेनज़र रही होंगी.

यह मसला भी बहसतलब रहा होगा कि ‘विकास’ के जिस एजेंडे की बात 2014 के बाद जोर-शोर से की जा रही है, उसके साथ नए मुख्यमंत्री की उग्र कही जाने वाली छवि का सामंजस्य कैसे बैठेगा ?

क्या इसे दबाव की राजनीति के तहत लिया गया निर्णय कहें – जहां राज्य स्तर पर किसी लोकप्रिय चेहरे के अभाव में कम से कम राज्य के एक क्षेत्र में अपनी ‘फायरब्राण्ड’ छवि के लिए जाने जाते व्यक्ति का चयन किया गया – जिसकी तरफ से इस ऐतिहासिक बहुमत के बाद कुछ अलग सुर अलापने की गुंजाइश थी और जश्न के माहौल को बदरंग करने का खतरा था या यह निर्णय संघ-भाजपा की दूरगामी रणनीति के तहत लिया गया निर्णय है, जिसने इस चयन में अंतर्निहित विभिन्न जोखिमों का समग्रता में आकलन किया है.

क्या यह चयन 2019 के चुनावों के मददेनज़र लिया गया है या उसके परे भी इसकी अहमियत है. क्या यह एक तरह से हिंदुत्व के फलसफे को एक नए रूप में, नए सामाजिक गठबन्धन के प्रतीक के तौर पर प्रोजेक्ट करने का फैसला है, नए सामाजिक समीकरणों के साथ इसे अधिक मजबूती दिलाने का है, या कुछ अन्य.

और क्या यह फैसला मोदी-शाह जोड़ी के सुझावों को दरकिनार कर संघ के नागपुर हेडक्वार्टर का फैसला है जिसके लिए यह अहम लगता है कि मोदी के बाद नेतृत्व की नयी कतार खड़ा करने के सिलसिले को आगे बढ़ाया जाए ताकि आडवाणी-वाजपेयी जोड़ी के वक्त़ संघ के सामने पड़ी उलझनों का दोहराव न हो.

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योगी आदित्यनाथ. (फोटो: पीटीआई)

एक बात तो तय है कि यह आनन-फानन में लिया गया निर्णय नहीं है बल्कि इसकी तैयारी पहले से चल रही थी, भूमिका पहले से बन रही थी.दरअसल कई बार कुछ ख़बरों की अहमियत बाद में पता चलती है.

अब यही देखिए ना कि पिछले साल फरवरी में गोरखपुर के गोरखनाथ मंदिर में राष्ट्रीय संत सभा की चिंतन बैठक में गोरक्षपीठाधीश्र्वर व सदर सांसद महंत योगी आदित्यनाथ को राम मंदिर निर्माण शुरू कराने के लिए उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने का संकल्प लिया गया था.

रामजन्मभूमि आन्दोलन से जुड़े संतों तथा संघ परिवार से सम्बद्ध पूर्व केंद्रीय मंत्री चिन्मयानंद जैसों की मौजूदगी में यह जोर देकर कहा गया कि संतों का काम होगा कि ‘सत्ता को निरंकुश नहीं होने देंगे.’

गौरतलब था कि कहने के लिए यह कहा गया कि वह कोई राजनीतिक मंच नहीं है अलबत्ता तमाम राजनीतिक बातें कहीं गयीं.

बैठक श्रीराम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर निर्माण, धर्मांतरण रोकने के लिए कानून बनाने, समान नागरिक संहिता लागू करने, गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध और मां गंगा जैसे विविध हिदू समाज की चुनौतियों व उनके समाधान पर केंद्रित रही.

आभार ज्ञापित करते हुए योगी आदित्यनाथ ने कहा कि संत राष्ट्र जागरण का हिस्सा बनें. वर्तमान युग में हिंदू समाज की रक्षा के लिए शस्त्र और शास्त्र दोनों परंपराओं का संत वाहक बनें. एक हाथ में लोटा तो दूसरे में सोटा हो, एक हाथ में खप्पर तो दूसरे हाथ में दंड धारण करें.

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03 फरवरी 2016 को दैनिक जागरण समूह के न्यूज़ पोर्टल नई दुनिया में योगी को सीएम बनाए जाने को लेकर प्रकाशित ख़बर.

फिलवक्त मीडिया में योगी ही बहस के केंद्र में हैं. जहां एक तरफ लेखकों, पत्राकारों के एक हिस्से की तरफ से यह कोशिश चल रही है कि उनकी विवादास्पद छवि से परे जाकर उनकी एक सकारात्मक/ धवल छवि प्रस्तुत की जाए, यह बताया जाए कि वह कितने अच्छे प्रबंधक रहे हैं, गोसेवा में लिप्त रहते आए है, जनता दरबार के आयोजनों के माध्यम से लोगों की शिकायतों का निवारण करते आए हैं, सभी समुदायों के लोग उन पर विश्वास करते आए हैं, यहां तक उनके करीबी कर्मचारियों में मुसलमानों की मौजूदगी या जनता दरबार में मुस्लिम महिलाओं का पहुंचना आदि किस्से भी बताए जा रहे हैं, उनको एक अवसर देने को लेकर विरोधी आवाज़ों को जनतांत्रिक निर्णय की अनदेखी करने वाला बताया जा रहा है.

योगी की छवि के इस अलग किस्म के सैनिटाइजेशन/साफसुथराकरण के बरअक्स लिबरल, सेक्युलर, वाम विचारकों, सियासतदानों की तरफ से इसका प्रतिवाद किया जा रहा है और उनके चयन से किस तरह अब ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ पर ही खतरा मंडरा रहा है या किस तरह अल्पसंख्यकों को यह संदेश दिया जा रहा है कि अब उनका अस्तित्व बहुसंख्यकों की सदिच्छा पर ही टिका है आदि बातें रेखांकित करते हुए अब भाजपा द्वारा विकास के एजेण्डा को छोड़ कर ध्रुवीकरण की राजनीति ही तेज होगी यह भविष्यवाणी की जा रही है.

यह सवाल भी उठाए जा रहे हैं कि जिस व्यक्ति पर खुद आपराधिक धाराओं में मुकदमे दर्ज हों, वह आखिर कानून एवं व्यवस्था की बेहतर रखवाली कैसे कर सकता है ?

बहरहाल, इस बहस मुबाहिसे में इस ‘ऐतिहासिक अवसर’ की कुछ बारीकियां छूटती दिख रही हैं, जिन पर गौर करना उचित होगा.

मसलन उत्तर प्रदेश में भाजपा की इस बार बम्पर बहुमत से सत्ता में वापसी ने ‘ऊंची’ जातियों की सदन में नुमाइन्दगी में उछाल देखा गया है. इस नयी विधानसभा में ‘ऊंची’ जाति के विधायकों की तादाद 44.3 फीसदी है – जो 2012 की तुलना में 12 फीसदी अधिक है और 1980 के बाद यूपी विधानसभा में ‘ऊंची’ जातियों का सबसे अधिक स्कोर है.

‘ऊंची’ जातियों के विधानसभा में अत्यधिक प्रतिनिधित्व का सीधा ताल्लुक भाजपा के टिकट वितरण से जुड़ा दिखता है, जो उनके पक्ष में रहा है. उसने 48.6 फीसदी टिकट इन जातियों से सम्बद्ध प्रत्याशियों को दिए थे वहीं अन्य पिछड़ी जातियों को 24.4 फीसद हिस्सा मिला.

जहां इन चुनावों में हिन्दुओं की विभिन्न जातियों को – ‘सवर्ण’ जातियों से लेकर ‘अवर्ण’ जातियों तक – को अपने बैनर तले लाने में भाजपा को कामयाबी मिली है, वहीं यह भी स्पष्ट है कि पिछड़ी जातियों में उनका फोकस गैरयादवों पर रहा है तो अनुसूचित जातियों में गैरजाटवों पर उसने अपने आप को केंद्रित किया है.

गैरयादवों या गैरजाटवों को साथ जोड़ने में उसके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों द्वारा विशिष्ट जातियों को दी गयी कथित वरीयता को उसने अपने पक्ष में बखूबी इस्तेमाल किया है.

लेखक यह भी बताते हैं कि अन्य पिछड़ी जातियों में यादवों की नुमाइन्दगी 5 फीसदी सीटों तक सिमट गयी है / जो अन्य पिछड़ी जातियों को मिली सीटों का 18 फीसदी है/ जो अब तक की सबसे कम संख्या है और 34 सीटों के साथ कुर्मियों की नुमाइन्दगी में सबसे अधिक बढ़ोत्तरी हुई है.

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नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत. (फोटो: पीटीआई)

यादवों के अलावा मुसलमान वह सामाजिक समूह है जिसकी सीटों का हिस्सा 1991 के बाद से सबसे कम है. जहां वर्ष 2012 में पहली दफा, उन्हें आनुपातिक प्रतिनिधित्व मिला था /17 फीसदी/ जो अब 6 फीसद तक पहुंच गया है. बताते चलें कि भाजपा ने अपनी तरफ से एक भी मुस्लिम प्रत्याशी खड़ा नहीं किया था.

विश्लेषक बताते हैं कि भाजपा का मौजूदा सत्तारोहण जिसमें ‘ऊंची’ जातियों के प्रतिनिधित्व में उछाल की यह स्थिति उस पैटर्न से अलग नहीं है जो इसके पहले के उसके सत्तारोहण में देखा जाता रहा है, इस बार फरक यही पड़ा है कि इस अन्तराल में अन्य पिछड़ी तथा दलित जातियों में भी एसर्शन बढ़ा है, जिसके चलते उसे एक अन्य कवायद भी साथ करनी पड़ रही है.

यह अकारण नहीं कि राजपूत खानदान में जनमे योगी को ‘महंथ’ होने के नाते ‘जाति से परे’ होने की बात अचानक नहीं चल पड़ी है. भाजपा दरअसल इस सच्चाई पर भी परदा डाले रखना चाहती है कि गोरखनाथ के जिस पीठ के वह फिलवक्त महंथ हैं, उसकी यह भी परम्परा चली आयी है कि उसका महंथ एक राजपूत ही हो सकता है.

भाजपा को यह चिंता अवश्य होगी कि हिंदुत्व के सवर्ण पुराण होने की बात कहते हुए – मुख्यमंत्री ही नहीं बल्कि तमाम मलाईदार मंत्री पद अगड़ी जातियों के हाथों होने की बात पर जोर देते हुए- पिछड़ी तथा दलित जातियों का वह हिस्सा जो उसके सामाजिक गठबंधन का मजबूत हिस्सा बना हुआ है, वह उससे छिटक न जाए.

‘सभी हिंदू है’ कहते हुए उसने पहचान की जिस राजनीति को अपने पक्ष में इस्तेमाल किया, वंचितों को अधिक बड़ी पहचान प्रदान की और सपा-बसपा के सामाजिक आधारों को खिसका दिया, उस हथियार को उसके खिलाफ भी इस्तेमाल किया जा सकता है, इस खतरे से वह वाक़िफ है.

शायद इसी बहाने वह अलग ढंग के ‘गैरब्राह्मण हिंदुत्व’ बकौल सुधा पई के एक माॅडल को यूपी में आजमाने की फिराक़ में है, जिस ‘माॅडल’ का एक ‘सफल प्रारूप’ उसने गुजरात में आजमाया है, जिसमें अन्य पिछड़ी जाति में जन्मे जनाब नरेंद्र मोदी का पहले गुजरात के हिंदुत्व आइकॉन में रूपांतरण और बाद में हिंदू हदय सम्राट के तौर पर पूरे देश में प्रोजेक्शन की ‘सफलता’ सभी के सामने है.

स्पष्ट है कि चाहे आप हिंदुत्व के प्रणेताओं की सामाजिक जड़ों की पड़ताल करके देखें- चाहे सावरकर, हेडगेवार, गोलवलकर आदि-जो ब्राह्मण जाति में ही जनमे थे या उनके सरोकारों, प्राथमिकताओं को देखें तो अपनी स्थापना के समय से लम्बे समय तक उसमें ब्राह्मणी वर्चस्व एवं विचारों की वरीयता देखी जा सकती थी.

यह अकारण ही नहीं था कि नेहरू-पटेल-अम्बेडकर-मौलाना आज़ाद जैसों की अगुआई में जब संविधान रचा जा रहा था तब संघ एवं हिन्दु महासभा के तत्कालीन शीर्षस्थों ने नए संविधान निर्माण के बजाय मनुस्मृति को ही आज़ाद भारत का संविधान घोषित करने की बात कही थी.

याद करें कि अपने मृत्यु के कुछ समय पहले ‘नवा काल’ अख़बार को दिए अपने साक्षात्कार में संघ के तत्कालीन सुप्रीमो गोलवलकर ने ‘मनुस्मृति की अच्छाइयों का बखान किया था, जिनकी उग्र प्रतिक्रिया महाराष्ट्र में हुई थीं.

एमएस गोलवलकर. फोटो: यूट्यूब
एमएस गोलवलकर. फोटो: यूट्यूब

70 के दशक में देवरस के जमाने में इस सांचे को तोड़ने की कोशिशें हुई थीं, दलित बहुजन जातियों को हिंदुत्व के साथ जोड़ने के संगठित प्रयास शुरू हुए थे, जिसमें उसे ‘कामयाबी’ भी मिली थीं.

मुख्तसर में कहें इन सभी कवायदों के बावजूद हिंदुत्व की ‘ब्राह्मण’ छवि से उसे मुक्ति नहीं मिल सकी है. और संघ अग्रणियों की, रणनीतिकारों की लगातार कोशिश इससे परे जाने की रही है ताकि इस सांचाबन्द छवि को तोड़ा जाए.

दरअसल नब्बे के दशक से ही इस दिशा में उसने कदम बढ़ाए हैं, जब दशक की शुरूआत में उत्तर प्रदेश में लोध जाति से सम्बद्ध कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री पद का ताज सौंपा गया तो दशक के उत्तरार्द्ध में मध्य प्रदेश में उमा भारती मुख्यमंत्री बनीं थीं.

‘गैरब्राह्मण हिंदुत्व’ के इस माॅडल में योगी कई मायनों में फिट बैठते हैं. एक तो वह एक ऐसे पीठ के महंथ है, जो न केवल काफी पुराना है बल्कि ऐतिहासिक कारणों से उसके साथ दलित पिछड़ी जातियों का जुड़ाव रहा है, और वह एक गैरब्राह्मण संस्थान के तौर पर उसकी छवि प्रचलित है.

इतना ही नहीं अपनी सक्रियताओं से-फिर चाहे अपने आनुषंगिक संगठनों के जरिए उन्हें मदद दिलाना हो, उनकी समस्याओं को सुलझाना हो या फिर अल्पसंख्यकों के साथ मामूली विवादों को भी बड़ा रूप प्रदान करके दलितों-पिछड़ों को उनके खिलाफ खड़ा करना हो-उन्होंने इन तबकों के बीच अपने आधार को मजबूत किया है.

सुश्री सुधा पई इसे ‘जमीनी स्तरीय साम्प्रदायिकता’ के तौर पर संबोधित करती हैं जिसका मकसद होता है, ‘बड़े दंगों के बारे में न सोचना बल्कि आम लोगों की निगाह में हिंदुत्व को अधिक स्वीकार्य बनाना ताकि वह मुसलमान को ‘अन्य’ की स्थिति में डाल देना’ जिसमें योगी अपनी लम्बी दूरी की लामबन्दी, संरक्षण और लोगों के बीच काम से जबरदस्त कामयाब हुए हैं.’

संघ ने उन्हें इस काम में बहुत सफल पाया है और उन्हें मुख्यमंत्री बनाने से भाजपा के लक्ष्य को लेकर लोगों तथा पार्टी कार्यकर्ताओं में एक संदेश जाता है.

योगी के सत्तारोहण की विवेचना करते हुए संतोष देसाई इसे भाजपा में आते एक स्टेटेजिक शिफ्ट अर्थात रणनीतिक बदलाव की बात करते हैं, जो उनके हिसाब से अब तक चले आ रहे माॅडल से हटके है.

उनके मुताबिक 2014 के चुनावों में जीत के बाद यही पैटर्न चला आ रहा है कि राज्यों के चुनावों में भी मोदी ही स्टार प्रचारक होते आए हैं, एक तरह से चुनाव उनके इर्द-गिर्द लड़ा जाता है और चुनाव जीतने के बाद / बिहार या दिल्ली उसका अपवाद रहे हैं/ ऐसे स्थानीय नेता को मुख्यमंत्री पद पर बिठाया जाता है जो मोदी-शाह जोड़ी के अनुकूल हो, और जिसका कोई स्थानीय आधार नहीं हो.

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नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ. (फोटो: पीआईबी)

फिर चाहे हरियाणा में खट्टर का मुख्यमंत्री बनना हो या महाराष्ट में देवेन्द्र फडणवीस जैसों की हाथ में बागडोर संभालना हो या असम में सोनोवाल को मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट करना हो या ताज सौंपना हो.

उनके हिसाब से इस पैटर्न में यह नुस्खा भी शामिल रहता आया है कि चुनावों के पहले मतदाताओं का ध्रुवीकरण किया जाए और सत्ता हासिल करने के बाद उसे धीमी गति से हवा दी जाए. इसमें यह अन्तर्निहित वादा/संकेत रहता आया है कि ‘हिंदुत्व को चुनावों को जीतने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा और जीतने के बाद विकास एवं शासन/गवर्नन्स की तरफ फोकस शिफट होगा.’

आगे वह बताते हैं कि ‘योगी का चुनाव, एक तरह से इस सांचे/टेम्पलेट/नमूने के दोनों तत्वों को ध्वस्त करता है. यहा हमारे सामने ऐसा नेता है जिसका मजबूत स्थानीय आधार है और जिसकी इतनी धाक भी है कि मौका पड़ने पर वह पार्टी नेतृत्व को अपनी असहमति से अवगत कराए, जिस बात की कल्पना आज देश के किसी अन्य भाजपा नेता से नहीं की जा सकती. गौरतलब यह भी है कि अभी से यह बात चल पड़ी है कि 2024 के चुनावों मे वह प्रधानमंत्राी पद के प्रत्याशी होंगे.’

स्पष्ट है कि यूपी के चुनावों की जीत ने हिंदुत्व की ताकतों को यह आत्मविश्वास दिया है कि वह अपने बुनियादी सांस्कृतिक एजेंडा को लेकर अब अस्पष्टता न रखें बल्कि खुल कर सामने आएं, उसके प्रति लचीलापन अख्तियार करने के बजाय खुल कर बात कहें और उसके एक प्रतीक के तौर पर योगी का चयन हुआ है.

योगी का चयन इस तरह न केवल भाजपा में नेतृत्व की अगली कतार के निर्माण को अमली जामा पहनाना है बल्कि एक तरह से ‘अपनी राजनीति’ के बारे में भाजपा की हिचक को – जहां उसे अपने आप को सेक्युलर साबित करना होता था – तौबा करनेवाला कदम दिखता है. इसलिए विश्लेषक लिखते हैं, ‘उत्तर प्रदेश की आदित्यनाथ परिघटना दरअसल भाजपा की वैचारिक हीनग्रंथि से मुक्ति को स्थापित करती नज़र आती है.’

मोदी की कार्यशैली से वाक़िफ व्यक्ति बता सकता है कि इस चयन में में संघ परिवार ने अपना ट्रम्प कार्ड चलाया है.

गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद और अब विगत ढाई तीन साल से दिल्ली में केंद्र सरकार के मुखिया के तौर पर जनाब मोदी की कार्यशैली से वाक़िफ लोग जानते हैं कि संगठन के अन्दर उन्होंने लगातार अपने आप को सुप्रीम लीडर के तौर पर पेश किया है और नेतृत्व के स्तर पर अपने लिए किसी भी किस्म की चुनौती को बरदाश्त नहीं किया है.

फिर चाहे सूबा गुजरात में उनके पूर्ववर्तियों या समवर्तियों – केशुभाई पटेल, सुरेश मेहता आदि को संगठन में हाशिये पर डालना हो, यहां तक कि अपने करीबी सहयोगियों प्रवीण भाई तोगड़िया या संजय जोशी को निष्प्रभावी करना हो, वह लगातार अपने आप को सुदृढ़/मजबूत करते आगे बढ़े हैं.

यहां तक कि गुजरात के मुख्यमंत्री पद के दिनों में संघ के आनुषंगिक संगठनों को लेकर भी यही बात कही जाती रही है कि उन्होंने इन संगठनों को अप्रभावी कर दिया है. ऐसे में इस बात पर आसानी से यकीन नहीं किया जा सकता कि योगी के चयन को लेकर – जो राजनीति के हिसाब से काफी युवा हैं और जिनकी तरफ हिंदुत्ववादी युवाओं की निगाह लगी है – मोदी सहमत रहे होंगे.

यह अकारण नहीं था कि योगी के चयन की अचानक की गयी घोषणा के महज एक दिन पहले तक गाज़ीपुर के सांसद मनोज सिन्हा का नाम मुख्यमंत्री के सम्भावित प्रत्याशियों पर शीर्ष पर था और यह भी कहा जा रहा था कि मोदी-शाह जोड़ी की वही पहली पसन्द हैं.

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हिंदुवादी संगठनों द्वारा प्रस्तावित राम मंदिर का मॉडल. (फोटो: रॉयटर्स)

बहरहाल, अब भाजपा के शीर्षस्थ नेताओं में मोदी शाह के साथ संभावित अग्रणी के तौर पर योगी आदित्यनाथ का नाम लिया जा रहा है. संघ के निर्देशन में भाजपा की भावी राजनीति इस नयी त्रिमूर्ति के इर्दगिर्द चलने की संभावना है.

जाहिर है कि आनेवाले दिनों में मुमकिन है कि भाजपा के अन्दर एक अलग ढंग के श्रमविभाजन से हम रूबरू हों जहां मोदी सरकार का चेहरा बने रहेंगे और पार्टी के विचारधारात्मक आग्रहों को आदित्यनाथ के माध्यम से प्रोजेक्ट किया जाएगा.

उत्तर प्रदेश एवं बाकी राज्यों में चुनावों के बाद भाजपा कार्यालय में वजीरे आज़म मोदी ने बताया था कि अब ‘नए भारत’ का निर्माण हमें करना है. /अभी योगी के यूपी के मुख्यमंत्री बनने का ऐलान नहीं हुआ था. / आप इसे संयोग कह सकते हैं या किसी पूर्वनिर्धारित योजना का हिस्सा उसके अगले ही दिन बरेली के एक मुस्लिम बहुल गांव में पोस्टर लगे कि वह सभी साल के अन्त तक गांव छोड़ कर चले जाएं.

नए भारत की शक्ल कैसी बनेगी इसकी भविष्यवाणी दावे के साथ नहीं की जा सकती , अलबत्ता यह अवश्य कहा जा सकता है कि 21वीं सदी की दूसरी दहाई के उत्तरार्द्ध में भारत के भविष्य को लेकर दो दृष्टियों अर्थात विजन का संघर्ष हमारे सामने घटित होता दिख रहा है, जिसमें हम सभी कहीं न कहीं शामिल हैं.

जिस नए भारत का निर्माण की बात की जा रही है, उसके पीछे प्रेरणास्त्रोत के तौर पर हेडगेवार, सावरकर, गोलवलकर दिखते हैं और भारत को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करने का उनका फलसफा है, जो फिलवक्त़ आज़ादी के बाद नेहरू, गांधी, अंबेडकर, पटेल, मौलाना अबुल कलम आज़ाद आदियों द्वारा जिस समावेशी भारत की नींव डाली गयी थी, भगतसिंह, आज़ाद, बिस्मिल, अशफाक जैसे शहीदों ने जिसका तसव्वुर/कल्पना/ की थी, उस पर हावी होता दिख रहा है.

योगी आदित्यनाथ जिस गोरखनाथ पीठ के महंथ हैं, वहां अतीत में भले ही मुस्लिम जोगियों का बसेरा रहता आया हो, और उसका सर्वसमावेशी स्वरूप रेखांकित होता रहा हो, मगर आज उसका स्वरूप पूरी तरह बदल गया है. विगत सत्तर अस्सी सालों में वह लड़ाकू हिंदुत्व का गढ़ रहता आया है.

योगी आदित्यनाथ का उदय एक तरह से गोरखनाथ पीठ के पूर्व के दो महंथों- दिग्विजयनाथ, अवैद्यनाथ – की कोशिशों की परिणति है, जिन्होंने भारतीय राजनीति में हिंदुत्व एजेण्डा को आगे बढ़ाने की कोशिश की थीं. यहां तक कि योगी के पहले के महंथ. दिग्विजयनाथ की गांधी हत्या के मामले में भी उनसे पूछताछ हुई थी.

भाजपा का पालमपुर प्रस्ताव /1989/ कि ‘अयोध्या में भव्य राममंदिर का निर्माण करेंगे’ एक तरह से महंग दिग्विजयनाथ की मांग पर ही मुहर लगाना है जिन्होंने हिंदू महासभा के नेता के तौर पर चार दशक पहले यह बात कही थी.

दिग्विजयनाथ द्वारा आयोजित लम्बे धार्मिक समारोहों के बाद अयोध्या की बाबरी मस्जिद में रामलला और सीता की जो मूर्तियां अचानक प्रगट हुई थीं.

यह एक विचित्र संयोग है कि उन्हीं की गददी पर विराजमान शख्स आज भक्तों का नया हीरो है.

गोरक्षनाथ या गोरखनाथ सम्भवतः 11 वीं या 12 वीं सदी के नाथ योगी कहे जाते हैं जो मत्स्येन्द्रनाथ के प्रमुख शिष्य के तौर पर शैव सम्प्रदाय से जुड़े. गोरखनाथ की आध्यात्मिक विरासत के बारे में कई मत हैं.

सभी आदिनाथ और मत्स्येन्द्रनाथ को उनके दो पूर्ववर्ती गुरूओं के तौर पर रखते हैं. वर्तमान समय में आदिनाथ को भगवान शिव के तौर पर चिन्हित किया जाता है जो मत्स्येन्द्रनाथ के प्रत्यक्ष शिक्षक थे.

गोरखनाथ के समय में ही नाथ परम्परा का जबरदस्त विस्तार हुआ. उन्होंने कई सारी रचनायें कीं और आज भी उन्हें नाथों में सबसे बड़ा समझा जाता है. हिन्दोस्तां में कई सारी गुफायें हैं, जिन पर मन्दिर भी बने हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि गोरखनाथ ने वहां ध्यानधारणा की.

गोरखनाथ के बारे में कहा जाता है कि भारतीय उपमहाद्वीप में उन्होंने काफी भ्रमण किया और उनके बारे में वृत्तांत अफगाणिस्तान, बलुचिस्तान, पंजाब, सिंध, उत्तर प्रदेश, नेपाल, असम, बंगाल, महाराष्ट्र और यहां तक कि श्रीलंका में भी मिलते हैं.

नेपाल के गोरखा लोगों ने इसी सन्त से अपना नाम ग्रहण किया है. गोरखपुर जिले का नाम भी गुरू गोरखनाथ से ही निकला है.

गुरु गोरखनाथ ने जो कुछ कहा उसे गोरखवाणी कहा जाता है. उन्होंने कहा:

मन मैं रहिला भेद न कहिणां

बोलिबा अमृत बानी

अगिला अगनी हो गबा

अवधू तौ आपण होइबा पाणीं

(अर्थात, मन को वश में रखो, किसी से भेद न करो, संघर्ष न करो, सबसे मीठी बोली बोलो. यदि दूसरा व्यक्ति आग हो और तुम्हें संताप दे तब भी हे अवधूत! तू पानी हो, उसे शांत करो.)

 

हिंदू राष्ट्र का सम्मोहन

दो माह पहले की बात है जब एक धर्मसभा में जहां नेपाल के पूर्व नरेश ज्ञानेद्र मुख्य अतिथि थे, साधुओं एवं अलग आस्थाओं के प्रतिनिधियों के उस जमावड़े में योगी आदित्यनाथ भी एक वक्ता थे और उन्होंने ज्ञानेन्द्र को ‘विश्व हिंदू सम्राट’ के तौर पर संबोधित किया था.

योगी आदित्यनाथ की पूर्वनरेश ज्ञानेन्द्र से यह कोई पहली मुलाकात नहीं थी,विगत चार सालों में वह दो बार मिले हैं. इसके पहले नए बने गोरखनाथ मंदिर के उदघाटन के अवसर पर योगी ने पूर्वनरेश को आमंत्रित भी किया था.

दरअसल योगी मानते हैं कि नेपाल को एक हिंदू राज्य बनना चाहिए. उन्हें इस बात से कोई गुरेज नहीं रहा है कि वहां ‘हिंदू राष्ट्र’ के नाम पर मुट्ठीभर पुरोहित समुदाय, राजशाही और उनके करीबी भूस्वामियों-पूंजीशाहों के हाथों में समाज एवम सत्ता की बागडोर रहती आयी है.

प्रस्तुत हिंदू राष्ट्र में राजशाही को इतने विशेषाधिकार दिये गये थे कि संविधान के मुताबिक, ‘राजा या उसके आत्मीयों द्वारा की गई किसी भी कार्रवाई के बारे में किसी भी अदालत में कोई प्रश्न नहीं उठा सकता था.’

राजा की आय और उनकी व्यक्तिगत सम्पत्ति किसी भी तरह के कर से मुक्त थी और उसे कोई खरीद-बेच नहीं सकता था.

हिंदू राष्ट्र का वजूद वहां के गरीबों पर कई तरह से कहर बन कर टूटता था. दुनिया के सबसे गरीब मुल्कों में शुमार यह मुल्क दूसरे देशों के लिए, उनकी सेनाओं के लिए अपने नागरिकों का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता था.

हजारों की संख्या में नेपाल की स्त्रियां भारत ही नहीं दक्षिण एशिया के चकलाघरों में आज भी सड़ रही है. दस साल पहले के आकलन के मुताबिक नेपाल की दो लाख महिलायें केवल भारत के वेश्यालयों में अपना देह बेचने के काम में धकेल दी गयी थी.

इस हिंदू राष्ट्र में वहां आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक ढांचे पर सवर्ण जातियों, खासतौर से ब्राह्मण और क्षत्रिय का वर्चस्व रहा है. वर्ष 1963 तक नेपाल में हिंदू न्यायविधान आधिकारिक तौर पर लागू थे.

नेपाल की आबादी में 22 फीसदी हिस्सा दलित इस संस्था के सबसे अधिक शिकार थे. सदियों से नेपाल के दलित मन्दिरों के बाहर रहते आये थे, गांव के कुओं से पानी निकालने से वंचित किये गये थे और अपने बच्चों को शिक्षा दिलाने के लिए उनके नामों को बदलने के लिए भी मजबूर होते रहे थे.

90 के दशक में नेपाल की संसद में जनप्रतिनिधि बन कर चुन कर आये एक दलित प्रतिनिधि ने बताया था कि किस तरह वह आज भी गांव के मन्दिर में प्रवेश नहीं कर सकते हैं.

सबसे महत्वपूर्ण बात कि अब इतिहास की चीज़ बन चुके नेपाल के हिंदू राष्ट्र में धर्मांतरण एक अपराध घोषित किया गया था और जहां राष्ट्रीय पशु घोषित की गयी गाय को मारने की सज़ा अठारह साल कैदे बाशक्कत थी और जहां हुकूमत ने वहां मौजूद विभिन्न नृजातीय एवम धार्मिक समुदायों पर ‘सनातन धर्म’ की अपनी अवधारणा थोपी थी.

इक्कीसवी की पहली दहाई में जब एक व्यापक जनान्दोलन के बाद नेपाल ने एक नया संविधान अपनाया, तबसे नेपाल को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया है.

समय-समय पर लिखे अपने आलेखों में योगी के विचारों को भी पढ़ा जा सकता है, जो कहीं से भी सौम्य नहीं दिखते. उदाहरण के लिए ‘नेपाल एक चीरहरण’ नामक लेख में वह ‘भारत के सत्ताधीशों की आलोचना करते हैं कि वहां हो रहे बदलावों को लेकर वह ‘धृतराष्ट्र की तरह मौन रहे’ तो भारत की उत्तरी सीमा पर ‘चीन खड़ा दिखाई देगा’ और एक तरह से भारत सरकार को नेपाल के आंतरिक घटनाक्रम को लेकर सक्रिय हस्तक्षेप की हिमायत करते दिखते हैं या ‘आरक्षण की आग में सुलगता देश’ में राष्ट को स्वावलंबी एवं शक्तिशाली बनाने के लिए आरक्षण नहीं बल्कि ‘प्रत्येक नागरिक की प्रतिभा के अनुरूप सम्मान देने की बात करते हैं. स्त्रियों की स्वतंत्रता के बारे में भी उनके विचार भी इसी किस्म के दकियानूसी हैं.

प्रश्न उठता है कि संविधान की कसमें खाकर एक सूबे के मुख्यमंत्री बने शख्स के ऐसे विचार नीतिगत स्तर पर किस तरह वंचितों, उत्पीड़ितों के सशक्तिकरण के रास्ते में बाधा बनेंगे, इसके बारे में तरफ आज से ही सतर्क रहना जरूरी है.

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और चिंतक हैं)