असम के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को लेकर भाजपा पूरे देश में अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने को तैयार है. लेकिन सही मायने में केंद्र सरकार को देश की जनता एवं संसद को यह बताना चाहिए कि उसकी कार्ययोजना इस सूची से बाहर किए गए 40 लाख लोगों को लेकर क्या रहेगी.
असम के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) की सूची आने के बाद से देश की राजनीति परवान पर है. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने संसद में कहा, ‘कांग्रेस की सरकार में असम समझौता लागू करने की हिम्मत नहीं थी और अब उसे हम लागू करने जा रहे हैं.’
लेकिन अमित शाह यह भूल गए कि 1985 के बाद से असम एवं केंद्र में विभिन्न दलों की सरकारों ने शासन किया तो इस लिहाज से राज्य में असम गण परिषद के साथ ही उनकी सरकार जो 1996 से 2001 तक रही और केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार भी कायरों की श्रेणी में खड़ी हो गई.
असम देश का इकलौता ऐसा राज्य है जिसमें 1951 से राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर बनाने की प्रक्रिया है. 1947 में जब देश आजाद हुआ तभी से असम में बांग्लादेश के नागरिक और असम से हमारे देश के नागरिक बांग्लादेश में हजारों की संख्या में आवाजाही करते थे.
इस आवाजाही को देखते हुए 8 अप्रैल 1950 को दिल्ली में देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान में एक समझौता हुआ. यह समझौता उस वक्त की एक बड़ी मांग थी क्योंकि बंटवारे से प्रभावित इलाकों के नागरिक अपने पुश्तैनी घरों को छोड़ कर वतन बदल रहे थे.
दोनों तरफ के विस्थापित अल्पसंख्यकों को अपनी संपत्ति आदि के बेचने, अपने परिजनों से मिलने, लूटी हुई संपत्ति आदि को वापस प्राप्त करने के अधिकार मिलने के साथ ही दोनों देश दोबारा किसी युद्ध में ना उलझें इस मकसद से यह समझौता किया गया.
1979 से 1985 के बीच असम गण परिषद (1985 के समझौते के बाद बनी) व अन्य संस्थाओं ने असम में एक आंदोलन, अवैध तरीके से रह रहे लोगों की पहचान हेतु और उन्हें असम से वापस भेजने के लिए आंदोलन चलाया.
1985 में देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सूझबूझ का परिचय देते हुए असम समझौता किया. इस समझौते के अनुसार असम में रह रहे नागरिकों को भारत का नागरिक माने जाने की दो शर्तें थीं या तो जिनके पूर्वजों के नाम 1951 राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर में चढ़े हुए थे या फिर 24 मार्च 1971 की दिनांक तक या उससे पहले नागरिकों के पास अपने परिवार के असम में होने के सबूत मौजूद हो.
2005 में मनमोहन सरकार ने असम गण परिषद के साथ मिलकर राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को दुरुस्त करने की प्रक्रिया शुरू की, लेकिन मामला अदालत पहुंचा और रजिस्टर के नवीनीकरण हेतु अदालत ने संयोजक नियुक्त किया. नवीनीकृत रजिस्टर की सूची छापने की अंतिम तिथि 30 जुलाई 2018 थी.
समय अवधि समाप्त होने के पश्चात रजिस्टर को छापा गया जिसके तहत तीन करोड़ उनतीस लाख प्रार्थना पत्रों का सत्यापन करने के पश्चात दो करोड़ पिचासी लाख प्रार्थना पत्रों को वैध पाया गया. इस तरह से चालीस लाख असम में रहने वाले लोगों का भविष्य अधर में लटका हुआ है.
रजिस्टर की संख्या आने के पश्चात देश के गृहमंत्री ने संसद में बयान दिया और कहा, ‘मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि सरकार ने इसमें कुछ नहीं किया जो कुछ भी काम चल रहा है सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में चल रहा है जो लिस्ट आई है वह भी अंतिम नहीं है और सभी को 28 अगस्त 2018 के बाद अपनी बात कहने का मौका मिलेगा इसके लिए दो-तीन महीने का वक्त दिया जाएगा और कब तक मामलों का निपटान होगा यह भी सुप्रीम कोर्ट को ही तय करना है. सभी को विदेशी ट्रिब्यूनल में जाने के रास्ते भी खुले है और इस पर किसी तरह का डर फैलाने की जरूरत नहीं है. किसी के साथ भी जबरदस्ती नहीं की जाएगी.’
केंद्र सरकार डर न फैलाने की बात कर रही है तो वहीं, दूसरी तरफ भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भयभीत करने वाली भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं. यह एक सोची समझी रणनीति है जो देश को 2019 तक सांप्रदायिक आधार पर बांट सकती है.
दो करोड़ पिचासी लाख नागरिकों की सूची प्रकाशित करने में बरसों लगे तो क्या यह संभव होगा कि चालीस लाख (अवैध नागरिक जैसा कि बहस चल रही है) जो कि कुल तीन करोड़ उनतीस लाख नागरिकों का 12% है, इन सभी की नागरिकता के दावे का निस्तारण दो से तीन महीने में पूरा हो जाएगा.
क्या सरकार इन सभी चालीस लाख नागरिकों को और समय प्रदान करेगी या फिर सर्वोच्च अदालत में ज्यादा समय दिए जाने की प्रार्थना करेगी.
हम देख रहे हैं कि रजिस्टर में ढेरों गलतियां हैं. उदाहरण के तौर पर पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय फखरुद्दीन अली अहमद के परिवार के सदस्यों का नाम इस लिस्ट में नहीं है.
इसके अलावा भारतीय सेना में रहकर देश की सेवा करने वाले जांबाज अजमल हक का नाम भी नहीं है जबकि उनके परिवार के तीन परिजनों का नाम रजिस्टर में शामिल है. भाजपा के विधायक अनंत कुमार मालो का नाम रजिस्टर में शामिल नहीं है.
यह तो दीपक तले अंधेरा वाली बात है कि स्वयं की सरकार होने के बाद भी भाजपा के नेताओं का नाम रजिस्टर से गायब है. सिलचर से 35 किलोमीटर दूर भुबन खाल गांव की शिप्रा अपने ससुर को लेकर चिंतित है. उसी गांव की अर्चना दास अपने पति रोंगेश दास जिनके वारंट जारी कर दिये गए है, लेकर परेशान है.
इसके अलावा अन्ना बाला रे, रेबाती दास के साथ मौलाना अमीरूदीन जो असम की प्रथम विधानसभा के उपसभापति रहे उनके परिवार के सदस्यों के नाम भी सूची से गायब है.
प्रश्न यह उठता है कि देश के बारह सौ करोड़ रुपये खर्च करने के पश्चात भी सूची आधी अधूरी क्यों है? क्या केंद्र व राज्य सरकार इसके लिए जिम्मेदार अधिकारियों व कर्मचारियों के विरुद्ध कोई कार्रवाई करेगी? शायद कोई कार्रवाई नहीं होगी क्योंकि इस खेल में सत्ता को हिंदू-मुसलमान बंटवारा दिखता है जिसके दम पर भाजपा 2019 में दोबारा केंद्र में सत्ता प्राप्त करना चाहती है.
चालीस लाख लोगों की जांच के पश्चात जो भी अवैध नागरिक बचेंगे सरकार के पास उन्हें वापस बांग्लादेश भेजने हेतु क्या कोई कार्य योजना तैयार है. जिस तरह से बांग्लादेश के सूचना प्रसारण मंत्री हसन उल हक इनु ने कहा, ‘यह भारत का आंतरिक मामला है. इसमें बांग्लादेश का कोई लेना-देना नहीं है. भारत में कोई भी बांग्लादेशी घुसपैठिया नहीं है जो लोग वहां रह रहे हैं काफी लंबे समय से रह रहे हैं और यह पूरा मामला भारत की सरकार को सुलझाना है. भारत में वर्षों से जातीय रूप से यह समस्या है.’
बांग्लादेश अवैध घुसपैठियों को लेने से मना कर रहा है और भाजपा असम के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को लेकर पूरे देश में अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने को तैयार है. केंद्र सरकार को निश्चित ही देश की जनता एवं संसद को यह बताना चाहिए कि उसकी कार्ययोजना इन अवैध ठहराए गए नागरिकों को लेकर क्या रहेगी?
या फिर यह मुद्दा भी भाजपा के लिए चुनावी जुमला होगा जिस तरह से 2017 में कैराना उत्तर प्रदेश से हिंदुओं के पलायन की खबरें समाचार जगत में छाई रही, परंतु आज तक एक भी हिंदू परिवार को भाजपा कैराना वापस नहीं भेज पाई. क्योंकि यह पलायन सच्चाई में सांप्रदायिक आधार पर नहीं था.
बाद में उन्हीं की पार्टी के सांसद स्वर्गीय हुकुम सिंह ने वह सूची वापस भी ली और गलत भी मानी. भाजपा ने कश्मीर से पंडितों के पलायन पर भी पूरे देश से वोट बटोरे लेकिन पिछले चार सालों में एक भी कश्मीरी पंडित को कश्मीर वापस नहीं भेज पाई.
यदि 5 साल के आंकड़े देखेंगे तो पता चलता है कि 2013 में केंद्र में कांग्रेस की सरकार ने 5,234 घुसपैठियों को वापस बांग्लादेश भेजा. केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद 2014 में (26 मई से पहले कांग्रेस सरकार थी) 989, 2016 में 308 और 2017 में 51 बांग्लादेशियों को वापस भेजा गया.
यह आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि केंद्र में भाजपा के शासन काल में बांग्लादेश घुसपैठियों को वापस भेजने की संख्या लगातार घट रही है. टेलीविजन पर होने वाली विभिन्न बहस कार्यक्रमों में भाजपा के द्वारा पूरे देश में प्रसारित किया जा रहा है कि असम में हिंदुओं की संख्या मुसलमानों से कम हो गई है और मुसलमान 77 प्रतिशत हो गई है जबकि 2011 की जनगणना के अनुसार असल में हिंदू 61.47 प्रतिशत, मुस्लिम 34.22 प्रतिशत और ईसाई 3.74 प्रतिशत रहते हैं.
असम मे 1971 से 1991 के बीच में हिंदुओं की जनसंख्या में बढ़ोतरी 41.89 प्रतिशत की दर से हुई जबकि मुसलमानों की जनसंख्या की बढ़ोतरी 77.24 प्रतिशत की दर से हुई. इसी अंतराल में हिंदुओं में दलितों की जनसंख्या में बढ़ोतरी 81.84 प्रतिशत की दर से और अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या वृद्धि दर 78.9 प्रतिशत रहीं.
विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने संसद से लेकर सड़क तक केंद्र में कांग्रेस पार्टी की सरकार का ‘भारत-बांग्लादेश जमीन समझौते’ को लेकर विरोध किया परंतु केंद्र में सत्ता प्राप्त करने के पश्चात समझौते को अक्षरश: लागू किया.
देश के प्रत्येक राजनीतिक दल को यह ध्यान रखना होगा कि जम्मू-कश्मीर और उत्तर-पूर्व भारत के बहुत ही संवेदनशील राज्य हैं. हालांकि भाजपा जम्मू-कश्मीर और उत्तर-पूर्व भारत के राज्यों के हालात को लेकर उत्तर एवं पश्चिमी भारत में सांप्रदायिक उन्माद फैलाना चाहती है.
वर्तमान में देशवासियों को भी यह समझना होगा कि यदि आने वाली पीढ़ियों का भविष्य बेहतर मिले तो उन्हें वर्तमान में क्षेत्रीय, जातीय और धार्मिक उन्माद से बचना होगा. यह उन्माद किसी भी देश की शांति एवं विकास को बर्बाद कर सकता है.
भाजपा देश के मूल मुद्दों से ध्यान भटका कर सांप्रदायिकता की भट्टी को जलाकर अपनी रोटियां सेकना चाहती है. असम में 1950 से लेकर 1960 में कांग्रेस सरकारों ने लाखों की संख्या में मुस्लिम बांग्लादेशियों को वापस भेजा.
इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान के दो टुकड़े करने की राजनीतिक दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाई. इंदिरा ने सभी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बांग्लादेशी नागरिकों के पलायन के मुद्दे को बेहतर तरीके से उठाया और पाकिस्तान के साथ एक निर्णायक युद्ध की भूमिका रचने का काम किया.
पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान में बांग्लादेश) के नागरिक भारी संख्या में पश्चिमी पाकिस्तान के अत्याचारों से त्रस्त होकर 1970 में 1971 में हजारों की संख्या में बांग्लादेश से भारत आए.
जिस तरह से नोटबंदी एवं जीएसटी कानून को गलत तरीके से लागू करने की वजह से देशवासियों को परेशानी के दौर से गुजरना पड़ा या गुजर रहे हैं ठीक उसी तरह से यह असम का रजिस्टर भी देशवासियों के लिए एक बड़ी परेशानी बन सकता है.
भाजपा की विभाजनकारी नीतियों की वजह से पहले ही राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं वैश्विक स्तर पर देश को पहले ही बहुत नुकसान हो चुका है. इस समय असम में शांति बनाए रखने हेतु प्रशासन एवं शासन को पूरी सजगता से कार्य करना होगा. साथ ही विभाजनकारी एवं शरारती तत्वों की पहचान करके उन पर सख्त कार्रवाई करनी होगी.
(लेखक कांग्रेस प्रवक्ता हैं.)