समाज कल्याण मंत्री मंजू वर्मा कुशवाहा समाज से आती हैं, जिसका बिहार में ओबीसी समुदाय के वोटबैंक में आठ प्रतिशत का योगदान है. माना जा रहा है कि लोकसभा चुनाव नज़दीक होने की वजह से उन्हें हटाकर राजग अपने वोटबैंक का नुकसान नहीं करना चाह रहा था.
टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस (टिस) की सोशल ऑडिट रिपोर्ट में मुज़फ़्फ़रपुर के बालिका गृह समेत राज्य भर के 15 बालिका गृहों में शोषण के खुलासे और समाज कल्याण विभाग की कोताही उजागर होने के क़रीब दो महीने बाद समाज कल्याण विभाग की मंत्री मंजू वर्मा ने इस्तीफा दे दिया.
बुधवार को उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मुलाकात कर इस्तीफ़ा पत्र सौंपा.
द वायर से फोन पर बातचीत में उन्होंने कहा, ‘हां, मैंने इस्तीफ़ा दे दिया है.’ इसके आगे उन्होंने कुछ नहीं कहा और फोन काट दिया.
मंजू वर्मा ने इस्तीफा ऐसे समय में दिया है जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और भाजपा के नेता उनके बचाव में ज़मीन-आसमान एक किए हुए थे.
उल्लेखनीय है कि टिस की रिपोर्ट को लेकर मई में मुज़फ़्फ़रपुर के बालिका गृह का संचालन करने वाले एनजीओ सेवा संकल्प एवं विकास समिति के मुखिया और मामले के मुख्य आरोपी ब्रजेश ठाकुर समेत 10 लोगों को गिरफ़्तार किया गया था.
इस मामले में विपक्षी पार्टियों ने राज्य के समाज कल्याण विभाग की मंत्री मंजू वर्मा के पति चंद्रशेखर वर्मा की संलिप्तता का दावा किया था, जिसे मंजू वर्मा ने ख़ारिज कर दिया था.
मामले में गिरफ़्तार डिस्ट्रिक्ट चाइल्ड प्रोटेक्शन अफसर रवि कुमार रोशन की पत्नी शीबा कुमारी ने भी कहा था कि मंजू वर्मा के पति चंद्रशेखर वर्मा अक्सर उस बालिका गृह में आते थे.
इस बीच, मामले की जांच कर रही सीबीआई ने बीते सात अगस्त को ब्रजेश ठाकुर के मोबाइल रिकॉर्ड को खंगाला, जिसमें पता चला कि जनवरी से 31 मई तक मंजू वर्मा के पति चंद्रशेखर वर्मा और मुख्य आरोपित ब्रजेश ठाकुर के बीच कम से कम 17 बार बातचीत हुई थी.
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सूत्रों का कहना है कि अव्वल तो मामला उजागर होने के बाद ही यह साफ हो चला था कि समाज कल्याण विभाग की लापरवाही है और उस पर ब्रजेश ठाकुर से मंजू वर्मा के पति चंद्रशेखर वर्मा से कथित संबंध भी सामने आ गया.
इन सबके बावजूद नीतीश कुमार न केवल मंजू वर्मा के साथ कार्यक्रम में मंच साझा कर रहे थे बल्कि अप्रत्यक्ष तौर पर उनका बचाव यह कहते हुए कर रहे थे कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा.
जदयू से जुड़े सूत्रों ने बताया, ‘शुरुआत में जिस तरह नीतीश कुमार मंजू वर्मा का बचाव कर रहे थे, उन्हें एहसास नहीं था कि इससे बड़ा राजनीतिक नुकसान हो सकता है. राजद व दूसरी पार्टियों ने पटना से दिल्ली तक अभियान चलाया और जनता ने भी इस अभियान का समर्थन किया. ऐसे में मंजू वर्मा से इस्तीफ़ा लेना मजबूरी बन गई थी.’
गौरतलब है कि मुज़फ़्फ़रपुर मामले में समाज कल्याण विभाग की लापरवाही साफ़ तौर पर दिख रही थी और यही वजह रही कि विभाग ने फौरी क़दम उठाते हुए एक दर्जन से ज़्यादा अधिकारियों को निलंबित कर दिया था.
चूंकि, मंजू वर्मा विभाग की मंत्री थीं, तो आरोपों की आंच मंजू वर्मा तक भी पहुंच गई थी.
भाजपा के दो राज्यसभा सांसदों गोपाल नारायण सिंह और सीपी ठाकुर ने तो सार्वजनिक तौर पर कहा था कि मुज़फ़्फ़रपुर मामले में मंजू वर्मा के पति का नाम सामने आ रहा है, इसलिए उन्हें अपने पद से इस्तीफ़ा दे देना चाहिए.
भाजपा के राज्यस्तरीय नेताओं ने न केवल इन बयानों को व्यक्तिगत नज़रिया क़रार दिया था बल्कि मंजू वर्मा का खुलकर समर्थन किया था. पार्टी के वरिष्ठ नेता व डिप्टी सीएम सुशील मोदी ने कहा था कि कुछ नेताओं के बयान उनके निजी विचार थे, पार्टी के नहीं.
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष नित्यानंद राय ने भी करीब-करीब ऐसा ही बयान दिया था. उन्होंने कहा था, ‘अगर कोई मंजू वर्मा का इस्तीफ़ा मांगता है, तो यह उसकी निजी राय हो सकती है. पार्टी ऐसे विचारों का समर्थन नहीं करती है.’
यही नहीं, भाजपा की ओर से इस आशय को लेकर एक प्रेस विज्ञप्ति भी जारी कर दी गई थी जिसमें साफ़ तौर पर लिखा गया था, ‘मंजू वर्मा से इस्तीफा मांगना सही नहीं है क्योंकि उनके ख़िलाफ़ कोई आरोप नहीं है.’
नीतीश कुमार ने तो यह तक कह दिया है कि बिना किसी के वह किसी को कैसे ज़िम्मेदार मान सकते हैं. उन्होंने कहा, ‘मैंने उन्हें तलब किया और इस मुद्दे पर बात की लेकिन उन्होंने इससे इनकार कर दिया.’
लगातार बचाव करने के बाद अचानक इस्तीफ़ा देने को लेकर राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि अगर यही इस्तीफ़ा तत्काल ले लिया गया होता तो नीतीश कुमार को इसका राजनीतिक फायदा मिला होता.
एक राजनीतिक पर्यवेक्षक कहते हैं, ‘इस्तीफ़ा जैसी रणनीति सही समय पर ली जानी चाहिए. इसमें नीतीश कुमार चूक गए. अब राजद व अन्य विपक्षी पार्टियां इसे यह कहकर भुनाएंगी कि उनके दबाव में सरकार ने ऐसा किया.’
क्यों बचाव में थे नीतीश व भाजपा
नीतीश कुमार पूर्व में एकाधिक मौकों पर नैतिक ज़िम्मेदारियों का हवाला देकर इस्तीफ़ा देते रहे हैं.
1999 में एनडीए की सरकार में रेलमंत्री रहते हुए एक ट्रेन हादसा हुआ था. नीतीश कुमार ने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था.
इसी तरह 2014 के लोकसभा चुनाव में जदयू के लचर प्रदर्शन पर भी उन्होंने नैतिक आधार पर मुख्यमंत्री पद छोड़ दिया था.
इन दोनों घटनाओं का हवाला देकर यह सवाल उठाया जा रहा था कि मुज़फ़्फ़रपुर मामले में मंजू वर्मा के विभाग की कोताही और उनके पति से ब्रजेश ठाकुर के संपर्क के आरोप सामने आने के बाद भी नीतीश कुमार को ‘नैतिक जिम्मेदारी’ की याद क्यों नहीं आ रही है?
इस सवाल का जवाब मंजू वर्मा की जाति में छिपा हुआ है, जो बिहार की राजनीति का अनिवार्य अंग बन चुकी है.
दरअसल मंजू वर्मा कुशवाहा (कोइरी) जाति से आती हैं. ओबीसी में कुल चार जातियां आती हैं, जिनमें यादव (12 प्रतिशत वोट) के बाद कुशवाहा वोट बैंक सबसे अधिक 8 प्रतिशत है.
माना जा रहा था कि ऐसे समय में जब लोकसभा चुनाव देहरी पर है, मंजू वर्मा को हटाकर एनडीए 8 प्रतिशत वोट का नुकसान करना नहीं चाहेगा.
यही वजह है कि मंजू वर्मा से इस्तीफ़ा मांगने या उनसे किनारा करने के बजाय नीतीश कुमार न केवल उनके साथ मंच साझा कर रहे थे, बल्कि उनका समर्थन भी कर रहे थे.
ऐसा ही आरोप राजद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष शिवानंद तिवारी ने भी लगाया था. हालांकि, नीतीश कुमार इन आरोपों को निराधार क़रार देते हुए कहा था कि वे जातिगत राजनीति कभी नहीं करते.
पासवान और उपेंद्र कुशवाहा के रुख़ पर रहेगी नज़र
मंजू वर्मा के समर्थन के पीछे कुशवाहा वोट बैंक को नुकसान के साथ ही एक और वजह थी.
भाजपा और जदयू को यह लगने लगा था कि उन्हें पद से हटा दिया जाता है तो एनडीए में फिर एक बार घमासान हो सकता है. कारण यह है कि मंजू वर्मा से इस्तीफ़ा लेने पर उपेंद्र कुशवाहा और रामविलास पासवान नाराज हो जाते.
लोकसभा चुनाव के लिए सीटों के बंटवारे को लेकर एनडीए के घटक दलों में चला आ रहा मतभेद अभी कुछ दिन पहले ही शांत हुआ है. इसलिए भाजपा व नीतीश नहीं चाहते थे कि लोकसभा चुनाव से पहले दोबारा ऐसा बवंडर खड़ा हो.
यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है कि इतना कुछ हो जाने के बावजूद रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा ने समाज कल्याण विभाग के कामकाज पर कोई टिप्पणी नहीं की थी. इससे ज़ाहिर होता है कि वे मंजू वर्मा पर किसी तरह की कार्रवाई के पक्ष में नहीं थे.
बताया जाता है कि लोकसभा चुनाव से पहले रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा को न तो नीतीश कुमार नाराज़ करना चाहते थे और न ही भाजपा क्योंकि बिहार में ये दोनों ही एनडीए के दलित चेहरे हैं. इसलिए दोनों की मजबूरी थी कि मंजू वर्मा के साथ खड़े रहें.
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लेकिन, मुज़फ़्फ़रपुर मामले को लेकर जिस तरह राष्ट्रीय स्तर पर नीतीश कुमार की किरकिरी हुई और सुप्रीम कोर्ट तक को तल्ख़ टिप्पणी करनी पड़ी, अगर मंजू वर्मा से इस्तीफ़ा नहीं लिया जाता, तो बहुत नुकसान होता.
बहरहाल, इस्तीफे के बाद राम विलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा का क्या रुख़ रहता है, इस पर सबकी नज़र रहेगी.
मंजू वर्मा का सियासी सफ़र
मंजू वर्मा के सियासी सफ़र की बात करें, तो राजनीति में उनकी उम्र डेढ़ दशक से भी कम है. मूलतः समस्तीपुर की निवासी मंजू वर्मा की पढ़ाई-लिखाई 12वीं तक ही हुई है. राजनीति में उनका पदार्पण 2005 में हुआ.
पहले उन्होंने राजद का दामन थामा और बाद में जदयू में शामिल हो गईं.जदयू में शामिल होने के साथ ही पार्टी में उनकी पकड़ मज़बूत हो गई. वर्ष 2010 के चुनाव में जदयू ने बेगूसराय की चेरिया-बलियारपुर विधानसभा सीट से उन्हें टिकट दिया.
मंजू वर्मा ने पहले चुनाव में ही जीत दर्ज कर ली, तो 2015 में उन्हें दूसरी बार भी टिकट दिया गया और इस बार भी उन्होंने जीत दोहराई और जीत का मार्जिन भी बढ़ाया.
कहते हैं कि 80 के दशक में इस सीट पर उनके ससुर सुखदेव महतो का क़ब्ज़ा था, इसलिए जदयू ने उन्हें टिकट दिया था.
बताया जाता है कि मंजू वर्मा को जदयू ने पार्टी का विरोध करने वाले उपेंद्र कुशवाहा के बरक्स कुशवाहा (कोइरी) चेहरे के रूप में पेश किया था, ताकि कोइरी-कुर्मी समीकरण को साध सके.
यहां यह भी बता दें कि बिहार कैबिनेट में मंजू वर्मा एकमात्र महिला मंत्री थीं. विगत चुनाव में उनके द्वारा जमा शपथ पत्र में उनकी संपत्ति 1 करोड़ से ज़्यादा बताई गई है.
वहीं उनके पति चंद्रशेखर वर्मा बहुत ‘लो प्रोफाइल’ मेंटेन करते हैं. सार्वजनिक पटल पर उनके बारे में न के बराबर जानकारी उपलब्ध है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है और पटना में रहते हैं.)