हाल ही में रिज़र्व बैंक के बोर्ड में शामिल हुए स्वामीनाथन गुरुमूर्ति की नरेंद्र मोदी के नोटबंदी जैसे आर्थिक नीति संबंधी फैसलों में महत्वपूर्ण भूमिका रही है.
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कई लोगों का ऐसा विश्वास है कि 8 नवंबर, 2016 को की गयी नोटबंदी की घोषणा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक मनमाना फैसला था, जबकि उन्होंने इस ऐतिहासिक निर्णय का ऐलान करने से पहले भारतीय रिज़र्व बैंक की पूर्व अनुमति हासिल की थी.
दूसरे लोगों का यह मानना था कि भले इस फ़ैसले का अचानक ऐलान हर किसी को हैरान करने के लिए किया गया था, मगर यह पूर्वनिर्धारित था. महत्वपूर्ण यह है कि चलन में मौजूद 86 फ़ीसदी मुद्रा को बदलने का फैसला प्रधानमंत्री के क़रीबी सलाहकारों की सलाह के आधार पर किया गया, जिनमें स्वामीनाथन गुरुमूर्ति भी एक हैं.
नोटबंदी का सच चाहे जो हो, लेकिन अब चार्टर्ड अकाउंटेंट और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक 68 वर्षीय एस. गुरुमूर्ति भारतीय अर्थव्यवस्था पर इस कदम के पड़े प्रभाव को लेकर कोई ख़ास उत्साहित नहीं नज़र नहीं आते.
पेशे से चार्टर्ड अकाउंटेंट और पारिवारिक कॉरपोरेट घरानों के विवादों के मध्यस्थ के रूप में पहचान रखने वाले गुरुमूर्ति एक स्तंभकार और एक्टिविस्ट भी हैं. वे स्वदेशी जागरण मंच के सह-संयोजक भी हैं, जो हिंदुत्व शैली में आर्थिक राष्ट्रवाद की पैरोकारी करता है. वे उन चंद विचारकों में शुमार हैं, जिनकी राय को प्रधानमंत्री ख़ासा महत्व देते हैं.
किसी जमाने में भूतपूर्व उप-प्रधानमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के साथ उनके संबंध चर्चा का विषय हुआ करते थे. मोदी के साथ उनके संबंध का इतिहास 1990 के दशक से शुरू होता है, जब वे एक तरह से उनके और भाजपा के वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के सलाहकार हुआ करते थे.
मोदी से उनकी नज़दीकी का अंदाजा 2002 के सांप्रदायिक दंगों के बाद गुजरात के पूर्व एडिशनल एडवोकेट जनरल तुषार मेहता के ईमेल से लगाया जा सकता है, जिसे वकील प्रशांत भूषण ने अक्टूबर 2015 में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष पेश किया था.
तमिलनाडु के दक्षिण आर्कोट जिले के एक ग़रीब परिवार में जन्मे और वजीफे की मदद से कॉमर्स में स्नातक की डिग्री पूरी करने वाले गुरुमूर्ति अक्सर पेशेवर अर्थशास्त्रियों, ख़ासतौर पर विदेशों में शिक्षित अर्थशास्त्रियों की आलोचना करते हैं.
वे ख़ुद को ‘भारतीय अर्थशास्त्र’ के एक कट्टर तरफदार के तौर पर देखते हैं और ‘आर्थिक स्वावलंबन’ में यक़ीन करते हैं. उनकी दिलचस्पी का एक प्रिय विषय ‘रोजगार रहित विकास’ है. वे अक्सर नेशनल सैंपल सर्वे संगठन के रोज़गार सर्वेक्षण रिपोर्ट, जिसका संकलन योजना आयोग करता है, के आंकड़ों का हवाला देकर इस मसले पर सवाल उठाते रहे हैं.
इस रिपोर्ट में 1999 से 2004 के बीच (जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार सत्ता में थी) रोज़गार में कुल 6 करोड़ की बढ़ोतरी और 2004 से 2010 (मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए सरकार के दौरान) रोज़गार में कुल 27 लाख बढ़ोतरी की बात की गयी थी.
2014 के लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान मोदी ने बार-बार इन आंकड़ों का उल्लेख किया- मसलन मार्च, 2014 में दिए गए एक भाषण में ही उन्होंने इस बारे में बात की थी. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के ठीक बाद, ऐसा कहा जाता है कि गुरुमूर्ति ने इस मसले पर केंद्रीय मंत्रिमंडल के समक्ष एक प्रेजेंटेशन दिया था.
नाम न बताने की शर्त पर भाजपा के स्रोत बताते हैं कि पिछले कुछ समय से गुरुमूर्ति मोदी शासनकाल में नौकरियां पैदा न होने को लेकर बचाव की मुद्रा में हैं. वास्तव में, सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि 2013-14 और 2015-16 के बीच नौकरियों की संख्या में खासी गिरावट आई है, जो संभवतः आज़ाद भारत के इतिहास में पहली बार हुआ है.
नीति आयोग और ‘भारतीय’ अर्थशास्त्र
संघ परिवार के भीतर, ऐसा माना जाता है कि गुरुमूर्ति प्रधानमंत्री को योजना आयोग की जगह एक नए निकाय के गठन का सुझाव देनेवालों में शामिल थे. इस बदलाव की घोषणा अगस्त, 2014 में की गयी थी. जनवरी, 2015 में नीति आयोग (नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया) के मिशन स्टेटमेंट को तैयार करने के दौरान उन्होंने अपने सुझाव दिए.
नीति आयोग के गठन के लिए कैबिनेट की नोट में कहा गया, ‘यह संस्थान इस बात का ख़ाका तैयार करेगा कि भारत में और भारत के लिए क्या कारगर होगा. यह विकास का भारतीय रास्ता होगा.’ इस वक्तव्य में गुरुमूर्ति की अनुगूंज सुनी जा सकती है.
वे दृढ़ता से यह मानते हैं कि देश के 5 करोड़ के करीब लघु एवं सूक्ष्म उद्यमों में रोज़गार निर्माण करने और देश का कायापलट करने की पूरी क्षमता है. स्रोतों का कहना है कि सरकार की मुद्रा या माइक्रो यूनिट डेवेलपमेंट एंड रीफाइनेंस एजेंसी- की पहल, जिसकी घोषणा फरवरी, 2015 में की गयी, गुरुमूर्ति के सुझाव से मेल खाती है. वे यह भी कहते हैं कि गुरुमूर्ति ने न सिर्फ मुद्रा योजना की परिकल्पना करने, उसका खाका तैयार करने और उसका प्रारूप तैयार करने में मदद की, बल्कि उन्होंने इसका अनुमोदन कर दिए जाने के बाद अपने ही विचारों का समर्थन भी किया.
बुनियादी तौर पर मुद्रा योजना छोटे व मझोले कारोबारों को क़र्ज़ देने के मामले में योजना जोख़िम संबंधी नियमों में ढील देने और ज्यादा उदारता दिखाने की पैरोकारी करती है.
अप्रैल, 2015 से मई, 2016 के बीच यानी तत्कालीन गर्वनर रघुराम राजन के दौर में भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) बैंकिंग प्रणाली में बढ़ रहे ख़राब क़र्ज़े (एनपीए) को लेकर चिंता प्रकट कर रहा था और छोटे और मझोले उद्यमों को क़र्ज़ देते वक्त लागू होनेवाले ज़ोखिम प्रावधानों को कम करने या हल्का करने के विचार के खि़लाफ़ था.
यह दावा किया जाता है कि गुरुमूर्ति एनपीए की पहचान के लिए ज्यादा कठोर मानक अपनाए जाने की राजन की पहल के विरोध में थे.
सितंबर 2017 चेन्नई में एक भाषण देते हुए गुरुमूर्ति के हवाले से यह कहा गया कि सरकार नोटबंदी से पहले ‘मुद्रा योजना को लागू करने में बुरी तरह नाकाम रही’ जो ‘असली रणनीति’ थी. हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि आख़िर मूल रूप से किसकी रणनीति थी?
चेन्नई इंटरनेशनल सेंटर में दिए गए अपने भाषण में गुरुमूर्ति ने यह टिप्पणी की कि मुद्रा बैंक के गठन को ‘रिज़र्व बैंक ने रोक दिया, क्योंकि वह मौद्रिक नियंत्रण की शक्ति’ और छोटे उद्यमियों को वित्त मुहैया कराने पर अपने नियंत्रण’ को हाथ से जाने देने के लिए तैयार नहीं था… इसी कारण से कुल उपभोग और रोज़गार निर्माण थम गया है और अनौपचारिक क्षेत्र 360-480 % पर क़र्ज़ ले रहा है…’
उन्होंने दावा किया कि ‘आरबीआई और वित्तीय सेवा विभाग (वित्त मंत्रालय में) असंवेदनशील है, और इससे विकास पर नकारात्मक असर पड़ेगा.’
मुद्रा योजना को कोई बड़ी कामयाबी नहीं मिली है. आधिकारिक आंकड़े इस तरफ इशारा करते हैं कि स्वरोज़गार करने वालों के लिए ऋणों की संख्या में कोई उल्लेखनीय बढ़ोतरी नहीं हुई है. भाजपा में मौज़ूद स्रोतों का कहना है कि जब मुद्रा योजना का प्रदर्शन आशा के अनुरूप नहीं रहा, तब गुरुमूर्ति और भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी सहित तमाम लोगों द्वारा राजन को बदनाम करने और कार्यकाल विस्तार न देने की कोशिशें की गईं.
इसके ठीक बाद, 18 जून, 2016 को राजन ने यह घोषणा की कि वे आरबीआई के गर्वनर के तौर पर अपने कार्यकाल विस्तार की इच्छा नहीं रखते.
बड़े मूल्य वाले नोटों का भय
इसके चार दिन बाद गुरुमूर्ति ने एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने बताया कि राजन को आरबीआई के गर्वनर के तौर पर उनके कार्यकाल का विस्तार क्यों नहीं दिया गया और यह भी कहा कि बड़े मूल्य वाले नोट जीडीपी ग्रोथ को बढ़ा रहे थे.
उन्होंने उस लेख में यह घोषणा की थी कि आरबीआई को जल्दी ही एक नया आरबीआई गर्वनर मिलेगा, जो सरकार के नए विचारों से इत्तेफ़ाक रखेगा और जिसके बाद ‘बड़े मूल्य वाले नोटों के खि़लाफ़ जंग छेड़ी जाएगी.’
22 जून, 2016 को प्रकाशित हुआ गुरुमूर्ति का यह लेख या तो गजब का सटीक था या उन्हें बड़े मूल्य वाले मुद्रा नोटों को बदलने में प्रधानमंत्री की दिलचस्पी का अंदाजा था.
संयोग से स्वामी और गुरुमूर्ति, ये दोनों ही 2011 में अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में शामिल थे. गुरुमूर्ति और अजित डोभाल (जो अब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हैं) ने स्वामी को विवेकानंद फाउंडेशन में आमंत्रित किया था, जो एक दक्षिणपंथी थिंक टैंक है.
स्वामी उस समय तक जनता पार्टी के सदस्य थे. ऐसा कहा जाता है कि 2013 में गुरुमूर्ति ने ही लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा को स्वामी को पार्टी में शामिल करने के लिए राज़ी किया था.
8 नवंबर, 2016 को मोदी ने 500 और 1000 के नोटों को रद्दी के टुकड़े में बदल देने का ऐलान किया. उस समय गुरुमूर्ति ने सरकार के फ़ैसले का पक्ष लिया था और नोटबंदी के पीछे की सोच को स्पष्ट किया था. उन्होंने यह तर्क दिया कि अर्थव्यवस्था में ज़रूरत से ज्यादा नकद था और इस अतिरिक्त तरलता (लिक्विडिटी) तत्काल ख़त्म करना एक बड़ी ज़रूरत बन गया था.
वैसे आमतौर पर मितभाषी और प्रचारों से दूर रहनेवाले गुरुमूर्ति ने काफी कम अंतराल पर टेलीविजन पर तीन इंटरव्यू दिए और यहां तक कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा नोटबंदी की तीखी आलोचना के जवाब में उन्होंने द हिंदू में एक लेख भी लिखा.
निराशा के स्वर
अब गुरुमूर्ति नोटबंदी के असर को लेकर काफी निराश नज़र आते हैं. वे नोटबंदी के नकारात्मक परिणामों के लिए आरबीआई और वित्त मंत्रालय को अपने निशाने पर ले रहे हैं.
वे वित्त मंत्रालय और एक ‘गोपनीय समूह’ के बीच संवाद की कमी की बात करते हैं, जिसके कारण काला धन रखनेवाले बच निकलने में कामयाब रहे. यहां तक कि उन्होंने नोटबंदी के बाद ‘दंगे की इच्छा रखने के लिए’ सुप्रीम कोर्ट पर भी हमला बोला.

यहां पर 22 सितंबर 2017 को चेन्नई में दिए गए उनके भाषण के कुछ बिंदु हैं, जिन्हें द हिंदू और हिंदू बिजनेस लाइन में छपी रिपोर्ट से लिया गया है.
- मुझे ऐसा लग रहा है कि हम अभी बिल्कुल तली को छू रहे हैं. इस स्थिति के चलते रहने की कोई गुंजाइश नहीं दिखाई देती. क्योंकि सरकार को इस बारे में फैसला लेना है कि क्या वह जटिल एनपीए नियमों को बनाए रखना चाहती है या मुद्रा के फैसले पर आगे बढ़ना चाहती है. मेरा पक्का यक़ीन है कि अगर अगले छह महीने में ये दो-तीन निर्णय लिए जाते हैं तो अर्थव्यवस्था उड़ान भरना शुरू कर देगी. मुझे इस बात का पक्का यकीन है कि अगर सही नीतियों का सहयोग मिले, तो अर्थव्यवस्था, में तुरंत जान लौट आएगी…
- काफी कम समय अंतराल के भीतर जरूरत से ज्यादा अवरोध. यह एक सरकार द्वारा जल्दी में उठाए गए कदमों में से एक है. नोटबंदी, एनपीए के नियम, दिवालिया क़ानून, जीएसटी (वस्तु एवं व्यापार कर), काले धन के खि़लाफ़ कार्रवाई- सारी चीजें एक साथ की जा रही हैं; कारोबार जगत इन सबको एक साथ नहीं सह सकता…
- यह एक सुधारात्मक कदम है. मैं नोटबंदी को एक निवेश के तौर पर देखता हूं… नोटबंदी की एक महत्वपूर्ण कामयाबी यह है कि करीब 30 करोड़ बैंक खाते खोले गए और इसने बैंकिंग प्रणाली में बहुत बड़ी बचत को लाने का काम किया. नोटबंदी का एक असर यह भी है कि इसने बिना निगरानी के पैसे को व्यवस्था में वापस लाने का काम किया है… गै़र-ज़िम्मेदार मौद्रिक प्रबंधन पर रोक लगा दी गई है. कर-आधार में 20 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है और 2017-18 के लिए अग्रिम कर में करीब 42% की बढ़ोतरी हुई है… आज ज़मीन, सोना या इक्विटी ख़रीदने के लिए काले धन का उस पैमाने पर इस्तेमाल नहीं हो सकतो है, जैसे पहले हुआ करता था.
- मैं यहां सरकार का बचाव करने के लिए नहीं आया हूं… इसके कई फ़ायदों के बावजूद नोटबंदी को ख़राब तरीके़ से लागू किया गया. वित्त मंत्रालय और एक गोपनीय सेल के बीच संवाद की गलती के कारण काला धन जमा करके रखने वाले लोग नोटबंदी के जाल से बच निकले.
- … नकद बाहर निकाल लेने से अनौपचारिक क्षेत्र पंगु हो गया, जो 90 फीसदी रोज़गार प्रदान करता है और बैंकिंग प्रणाली के बाहर पूंजी की 95 फीसदी ज़रूरतों को पूरा करता है.
- … सरकार पर राजनीतिक दबाव ने नोटबंदी के कई लक्ष्यों को सिर्फ एक लक्ष्य में सीमित कर दिया: काले धन के चलन को रोकना… नोटबंदी की योजना में एक बड़ी कमी थी. ऐसा सरकार के भीतर किसी किस्म का तालमेल न होने के कारण हुआ. सरकार को यह सलाह दी गई थी कि नोटबंदी और आय घोषणा योजना का ऐलान एक साथ किया जाना चाहिए, लेकिन व्यवस्था में संवादहीनता की वजह से आय घोषणा का ऐलान पहले कर दिया गया और नोटबंदी का बाद में किया गया.
- नोटबंदी एक गैस चैंबर बन गया. यह एक पहली रणनीतिक गलती थी… एडवांस में जमा करने की जगह अब सरकार टैक्स संग्रह के लिए काले धन का पीछा कर रही है… जीएसटी एक स्वागतयोग्य कदम है, लेकिन यह अति महत्वाकांक्षी है… यह एक बार में ही अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाने की इच्छा रखता है. यह मुमकिन नहीं है. अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाने का एक जांचा-परखा तरीका होना चाहिए.
- मीडिया अपना कर्तव्य निभाने में नाकाम रहा है. आर्थिक थिंक टैंक भारत के लिए मौलिक काम नहीं कर रहे हैं, क्योंकि वे अभी भी सबको एक छड़ी से हांकते हैं… (नोटबंदी के बाद) मीडिया दंगे चाहता था, सुप्रीम कोर्ट दंगे चाहता था. लेकिन लोगों ने दंगा नहीं किया. यह एक शांतिपूर्ण देश के तौर पर भारतीयों के मनोविज्ञान को साबित करता है.
बताया जाता है कि गुरुमूर्ति नेटवर्क बनाने में काफी माहिर हैं. उनके संपर्क सभी तबकों और वर्गों में हैं. जिस अकाउंटेंसी फर्म से वे जुड़े हुए हैं, उससे सेवा लेने वालों में छाबरिया परिवार, शराब कारोबारी विजय माल्या की कंपनियां हैं.
2003 में राहुल बजाज और उनके छोटे भाई शिशिर बजाज के परिवार के बीच संपत्तियों और कारोबारों के नियंत्रण को लेकर एक छह साल से चल रहे विवाद को सुलझाने में उन्होंने एक अहम भूमिका निभाई थी. बताया जाता है कि हाल ही में गुरुमूर्ति ने रूस के रॉसनेट और ऑयल एंड नैचुरल गैस कॉरपोरेशन (ओएनजीसी) और एस्सार समूह के बीच एक सौदा कराने में भी उनकी मध्यस्थ के रूप में एक अहम भूमिका निभाई.
वे इंडियन एक्सप्रेस समूह के संस्थापक रामनाथ गोएनका के काफी विश्वस्त थे. 1986 में उन्होंने (अरुण शौरी के साथ मिलकर) रिलायंस ग्रुप ऑफ कंपनीज के खि़लाफ़ लेखों की झड़ी लगा दी थी, जिसे तब धीरूभाई अंबानी संभाल रहे थे.
2003 में गुरुमूर्ति ने स्वदेशी जागरण मंच की तरफ से महाराष्ट्र के दाभोल में एनरॉन विद्युत परियोजना में एक आपराधिक जांच की मांग की थी. वे 2011-12 में भाजपा द्वारा काले धन पर बनाए गए एक टास्क फोर्स के संयोजक थे. 2012 में उन्होंने नितिन गडकरी (जो उस समय भाजपा अध्यक्ष थे) को क्लीन चिट देने का काम किया था, जिनके पूर्ति ग्रुप ऑफ कंपनीज के ख़िलाफ़ वित्तीय गड़बड़ी के आरोप लगाए गए थे.
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तमिल पत्रिका तुगलक़ के संस्थापक चो रंगास्वामी के निधन के बाद गुरुमूर्ति इस पत्रिका का संपादन कर रहे हैं. उनके करीबी दोस्तों में राजस्व सचिव हसमुख अधिया शामिल हैं, जो गुजरात सरकार से दिल्ली के नॉर्थ ब्लॉक में वित्त मंत्रालय में बतौर सचिव, वित्तीय सेवा के तौर पर आए.
अधिया मोदी के विश्वासपात्र हैं. ऐसा कहा जाता है कि गुरुमूर्ति ने अधिया को योग और हिंदू धर्म की बारीकियों से परिचित कराया. अधिया के पास स्वामी विवेकानंद योगा यूनिवर्सिटी, बेंगलुरु से योग में डाक्टरेट की डिग्री है. अधिया के अलावा, गुरुमूर्ति प्रधानमंत्री कार्यालय के एक आईएएस अधिकारी टीवी सोमनाथन के भी क़रीब माने जाते हैं. असल में कहा जाता है कि गुरुमूर्ति ने ही उनके नाम की सिफ़ारिश की थी.
इंडिया टुडे ने 2017 में गुरुमूर्ति को ‘भारत के सबसे ताकतवर लोगों’ की सूची में 30वां स्थान दिया था. वे 1997 में मीडिया में छाए रहे थे, जब उन्होंने प्रत्यक्ष तौर पर नाम लिए बगैर दो वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों पर अमेरिकी ‘जासूस’ के तौर पर काम करने का आरोप लगाया था.
बाद में, 2006 में एक अख़बार के एक लेख में उन्होंने उनके नामों का ज़िक्र किया था, जिन पर वे आरोप लगा रहे थे. ये थे, वीएस अरुणाचलम और अमेरिका में भारत के पूर्व राजदूत नरेश चंद्रा.
पिछले कुछ समय से ऐसा लगता है कि स्वामी के साथ उनके संबंध थोड़े बदल गए हैं. 22 सितंबर के एक ट्वीट में स्वामी ने तंज कसा था,
Spin talk can never cure our economic ailments. In fact it ends up in tailspin. CAs and laymen must know macro economics is complex Maths
— Subramanian Swamy (@Swamy39) September 22, 2017
यानी ‘घुमावदार बातों से आर्थिक रोगों का निदान नहीं किया जा सकता है. वास्तव में इसका अंजाम औंधे मुंह गिरने के तौर पर निकलता है. सीए और साधारण लोगों को यह बात समझनी चाहिए कि मैक्रो इकोनॉमिक्स एक जटिल गणित है.’ यहां ऐसा लगता है कि सीए से उनका मतलब चार्टर्ड अकाउंटेंट से है.
मैं बीते काफी अरसे से गुरुमूर्ति को जानता हूं. 1997 में एक टेलीविजन कार्यक्रम पर आए थे, जिसे मैं सीएनबीसी-टीवी 18 पर प्रस्तुत करता था. उन्होंने तब ‘स्वदेशी अर्थव्यवस्था’ पर एक बहस में पूरे जोश के साथ हिस्सा लिया था. उनके साथ बिबेक देबरॉय थे, जो वर्तमान में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकर परिषद का नेतृत्व करते हैं. इस लेख को लिखने से पहले, मैं कुछ जगहों पर स्पष्टीकरणों के लिए गुरुमूर्ति से बात करना चाहता है, मगर मुझे इसमें कामयाबी नहीं मिली.
प्रंजॉय गुहा ठाकुरता स्वतंत्र पत्रकार हैं.
यह लेख मूल रूप से 7 अक्टूबर, 2017 को अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ था. भारतीय रिज़र्व बैंक के बोर्ड में गुरुमूर्ति की नियुक्ति के आलोक में इसे दोबारा प्रकाशित किया जा रहा है.