इमरजेंसी लगाकर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘नए भारत’ का उद्घोष किया था. अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘न्यू इंडिया’ का ऐलान करेंगे.
15 अगस्त, 1975 और 15 अगस्त, 2018. दोनों में ख़ास अंतर है लेकिन कुछ समानताएं भी हैं. 43 बरस का अंतर है. 43 बरस पहले 15 अगस्त 1975 को देश इंतज़ार कर रहा था कि इमरजेंसी थोपने के 50 दिन बाद तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी लाल क़िले की प्राचीर से कौन सा ऐलान करेंगी या फिर आपातकाल के ज़रिये नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों को सस्पेंड करने के बाद भी इंदिरा गांधी के भाषण का मूल तत्व क्या होगा?
और अब 43 बरस बाद 15 अगस्त 2018 के दिन का इंतज़ार करते हुए देश फिर प्रतीक्षा कर रहा है कि लोकतंत्र के नाम पर कौन सा राग लाल क़िले की प्राचीर से प्रधानमंत्री मोदी गाएंगे.
क्योंकि पहली बार सुप्रीम कोर्ट के चार चीफ जस्टिस ये कहकर सार्वजनिक तौर पर सामने आए कि ‘लोकतंत्र ख़तरे में है.’
पहली बार देश की प्रीमियर जांच एजेंसी सीबीआई के निदेशक और स्पेशल डायरेक्टर ये कहते हुए आमने-सामने आ खड़े हुए कि वीवीआईपी जांच में असर डालने से लेकर सीबीआई के भीतर ऐसे अधिकारियों को नियुक्त किया जा रहा है जो ख़ुद दागदार हैं.
पहली बार एक केंद्रीय सूचना आयुक्त ने ही सरकार पर आरोप लगाया है कि सूचना के अधिकार को ही वो ख़त्म करने पर आमादा है.
पहली बार चुनाव आयोग को विपक्ष ने ये कहकर कटघरे में खड़ा किया है कि वह चुनावी तारीख़ से लेकर चुनावी जीत तक के लिए सत्ता का मोहरा बना दिया गया है.
पहली बार सत्ताधारियों पर निगरानी के लिए लोकपाल की नियुक्ति का सवाल सुप्रीम कोर्ट पांच बार उठा चुका है पर सरकार चार बरस से टाल रही है.
पहली बार मीडिया पर नकेल की हद सीधे तौर पर कुछ ऐसी हो चली है कि साथ खड़े हो जाओ नहीं तो न्यूज़ चैनल बंद हो जाएंगे.
पहली बार भीड़तंत्र देश में ऐसा हावी हुआ कि सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा कि कहीं लोग क़ानून के राज को भूल न जाएं यानी भीड़तंत्र या लिचिंग के अभ्यस्त न हो जाएं.
और पहली बार सत्ता ने देश के हर संस्थानों के सामने ख़ुद को इस तरह परोसा है जैसे वह सबसे बड़ी बिज़नेस कंपनी है. यानी जो साथ रहेगा उसे मुनाफ़ा मिलेगा. जो साथ न होगा उसे नुकसान उठाना होगा.
तो फिर आज़ादी के 71वें जन्मदिन के मौके पर प्रधानमंत्री मोदी क्या कहेंगे?
इस इंतज़ार से पहले ये ज़रूर जानना चाहिए कि देश में इमरजेंसी लगाने के बाद आज़ादी के 28वें जन्मदिन पर इंदिरा गांधी ने लाल क़िले की प्राचीर से क्या कहा था.
इंदिरा गांधी ने तब अपने लंबे भाषण के बीच में कहा था, ‘इमरजेंसी की घोषणा करके हमें कोई ख़ुशी नहीं हुई लेकिन परिस्थितियों के तकाज़े के कारण हमें ऐसा करना पड़ा. परंतु प्रत्येक बुराई में भी कोई न कोई भलाई छिपी होती है. कड़े क़दम इस प्रकार उठाए जैसे कोई डॉक्टर रोगी को कड़वी दवा पिलाता है जिससे रोगी स्वास्थ्य लाभ कर सके.’
तो हो सकता है नोटबंदी और जीएसटी के सवाल को किसी डॉक्टर और रोगी की तरह प्रधानमंत्री भी जोड़ दें. ये भी हो सकता है कि जिन निर्णयों से जनता नाख़ुश है और चुनावी बरस की दिशा में देश बढ़ चुका है उसमें ख़ुद को सफल डॉक्टर क़रार देते हुए नीति आयोग से मिलने वाले आंकड़ों को ही लाल क़िले की प्राचीर से प्रधानमंत्री बताने निकल पड़े.
यानी डॉक्टर नहीं स्टेट्समैन की भूमिका में ख़ुद को खड़े रखने का वैसा ही प्रयास करें जैसा 43 बरस पहले इंदिरा गांधी ने लाल क़िले की प्राचीर से ये कहकर किया था…
‘हमारी सबसे अधिक मूल्यवान संपदा है हमारा साहस, हमारा मनोबल, हमारा आत्मविश्वास. जब ये गुण अटल रहेंगे, तभी हम अपने सपनों के भारत का निर्माण कर सकेंगें. तभी हम गरीबों के लिए कुछ कर सकेंगे. सभी संप्रदाओं और वर्गों के बेरोज़गारों को रोज़गार दिला सकेंगे. उनके लिए उनकी ज़रूरत की चीज़ें मुहैया करा सकेंगे. मैं आपसे अनुरोध करूंगी कि आप सब अपने आप में और अपने देश के भविष्य में आस्था रखें. हमारा रास्ता सरल नहीं है. हमारे सामने बहुत सी कठिनाइयां हैं. हमारी राह कांटों भरी है.’
ज़ाहिर है देश के सामने मुश्किल राह को लेकर इस बार प्रधानमंत्री मोदी ज़िक्र ज़रूर करेंगे और टारगेट 2022 को लेकर फिर एक नई दृष्टि देंगे. पर यहां समझना ज़रूरी है कि जब देश के सामने सवाल आज़ादी के लगते नारों का हो, चाहे वह अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात हो या फिर संवैधानिक संस्थानों को लेकर उठते सवाल हो या फिर पीएमओ ही देश चलाने का केंद्र हो चला हो तो ऐसे में किसी भी प्रधानमंत्री को हिम्मत तो चाहिए कि वह लाल क़िले की प्राचीर से आज़ादी का सवाल छेड़ दे.
इंदिरा गांधी में इमरजेंसी लगाने के बाद भी ये हिम्मत थी तो प्रधानमंत्री मोदी क्या कहेंगे ये तो दूर की कौड़ी है, लेकिन 43 बरस पहले इंदिरा गांधी ने आज़ादी का सवाल कुछ यूं उठाया था…
‘आज़ादी कोई ऐसा जादू नहीं है जो गरीबी को छूमंतर कर दे और सारी मुश्किलें हल हो जाएं… आज़ादी के मायने ये नहीं होते कि हम जो मनमानी करना चाहें उसके लिए हमें छूट मिल गई है. इसके विपरीत, वह हमें मौका देती है कि हम अपना फ़र्ज़ पूरा करें… इसका अर्थ यह है कि सरकार को साहस के साथ स्वतंत्र निर्णय लेना चाहिए. हम आज़ाद इसलिए हुए जिससे हम लोगों की ज़िंदगी बेहतर बना सके. हमारे अंदर जो कमज़ोरियां सामंतवाद, जाति प्रथा और अंधविश्वास के कारण पैदा हो गई थी. और जिनकी वजह से हम पिछड़े रह गए थे उनसे लोहा लें और उन्हें पछाड़ दें.’
ज़ाहिर है अगर आज़ादी के बोल प्रधानमंत्री मोदी की जुबां पर लाल क़िले की प्राचीर से भाषण देते वक़्त आ ही गए तो दलित शब्द बखूबी रेंगेगा. आदिवासी शब्द भी आ सकता है और चुनावी बरस है तो आरक्षण के ज़रिये विकास की नई परिभाषा भी सुनने को मिलेगी.
पर इस कड़ी में ये समझना ज़रूरी है कि आज़ादी शब्द ही देश के हर नागरिक के भीतर तरंग तो पैदा करता ही है. फिर आज़ादी के दिन राष्ट्रवाद और उस पर भी सीमा की सुरक्षा या फ़ौजियों के शहीद होने का ज़िक्र हर दौर में किया गया. फिर मोदी सरकार के दौर में शांति के साथ किए गए सर्जिकल स्ट्राइक के बाद के सियासी हंगामे को पूरे देश ने देखा-समझा.
ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी लाल क़िले की प्राचीर से विपक्ष के सेकुलरिज़्म पर हमला करते हुए किस तरह के राष्ट्रवाद का ज़िक्र करेंगे इसका इंतज़ार तो देश ज़रूर करेगा लेकिन याद कीजिए 43 बरस पहले इंदिरा गांधी ने कैसे विपक्ष को निशाने पर लेकर राष्ट्रवाद जगाया था…
‘हमने आज यहां राष्ट्र का झंडा फहराया है और हम इसे हर साल फहराते हैं क्योंकि यह हमारी आज़ादी से पहले की इस गहरी इच्छा की पूर्ति करता है कि हम भारत का झंडा लाल क़िले पर फहराएंगे. विपक्ष के एक नेता ने एक बार कहा था, यह झंडा आख़िर कपड़े के एक टुकड़े के सिवाय और क्या है? निश्चय ही यह कपड़े का एक टुकड़ा है, लेकिन एक ऐसा टुकड़ा है जिसकी आन-बान-शान के लिए हज़ारों आज़ादी के दीवानों ने अपनी जानें क़ुर्बान कर दीं. कपड़े के इसी टुकड़े के लिए हमारे बहादुर जवानों ने हिमालय की बर्फ़ पर अपना ख़ून बहाया. कपड़े का ये टुकड़ा भारत की एकता और ताक़त की निशानी है. इसी वजह से इसे झुकने नहीं देना है. इसे हर भारतीय को, चाहे वह अमीर हो या गरीब, स्त्री हो या पुरुष, बच्चा हो या युवा अथवा बूढ़ा, सदा याद रखना है. यह कपड़े का टुकड़ा अवश्य है लेकिन हमें प्राणों से प्यारा है.’
तो इमरजेंसी लगाकर. नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों को सस्पेंड कर. 43 बरस पहले जब इंदिरा गांधी देश के लिए मर मिटने की कसम खाते हुए लाल क़िले की प्राचीर से अगर अपना भाषण ये कहते हुए ख़त्म करती हैं…
‘ये आराम करने और थकान मिटाने की मंज़िल नहीं है, यह कठोर परिश्रम करने की राह है. अगर आप इस रास्ते पर आगे बढ़ते रहे तो आपके सामने एक नई दुनिया आएगी, आपको एक नया संतोष प्राप्त होगा, क्योंकि आप महसूस करेंगे कि आपने एक नए भारत का, एक नए इतिहास का निर्माण किया है. जय हिंद.’
तो फिर अब इंतज़ार कीजिए 15 अगस्त को लाल क़िले की प्राचीर से प्रधानमंत्री मोदी के भाषण का. क्योंकि 43 बरस पहले इमरजेंसी लगाकर इंदिरा ने ‘नए भारत’ का सपना दिखाया था. और 43 बरस बाद लोकतंत्र का मित्र बनकर लोकतंत्र ख़त्म करने की सोच तले ‘न्यू इंडिया’ का सपना जगाया जा रहा है और 15 अगस्त को भी जगाया जाएगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)