अटल बिहारी वाजपेयी ऐसे प्रधानमंत्री थे, जो सत्ता की सीमाओं और ज़िम्मेदारियों को समझते थे.
अटल बिहारी वाजपेयी की सराहना करने का एक तरीका यह याद करना हो सकता है कि जब तक उनके वश में रहा, उन्होंने सुब्रमण्यम स्वामी को भाजपा में शामिल नहीं होने दिया. प्रधानमंत्री के तौर पर वाजपेयी के कार्यकाल में सुब्रमण्यम स्वामी को भाजपा के मामलों में थोड़ी सी भी तवज्जो नहीं दी गई.
ऐसा नहीं है कि वाजपेयी स्वामी की योग्यता और प्रतिभा से परिचित नहीं थे; बात बस इतनी थी कि वे राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को परेशान और अपमानित करने के लिए कानून, अदालत और सरकारी शक्ति का इस्तेमाल करने की स्वामी की प्रवृत्ति से पूरी तरह असहमत थे.
वाजपेयी का मानना था कि राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों से राजनीतिक, वैचारिक, और चुनावी लड़ाई लड़ी जानी चाहिए. वे राजनीति में निजी रंजिश के लिए कोई स्थान नहीं देखते थे. क्षुद्रता और द्वेष उनकी विशेषताओं में शामिल नहीं है. कटुता और बदलते की भावना को वे पसंद नहीं करते थे और यही वाजपेयी की लोकप्रियता का मुख्य कारण था.
उनकी विनम्रता की पहली झलक मैंने राष्ट्रपति भवन में आयोजित एक भोज में देखी. यह 1997 के आखिरी दिनों की बात है. उस समय वे विपक्ष के नेता थे.
उस दिन मैंने द हिंदू में एक स्टोरी की थी, जो एक तरह से उनके प्रति आलोचनात्मक थी. शायद यह उनके प्रति अन्यायपूर्ण भी थी. मुझे याद है उन्होंने कोमलता के साथ मेरा कंथा थपथपया और विनम्रता के साथ मुझे डांट लगाते हुए कहा कि तुमने जो तथ्य दिए हैं, वे सब गलत हैं.
दिलचस्प यह है कि उस स्टोरी के साथ किसी का नाम नहीं गया था; इसमें लेखक के तौर पर ‘स्पेशल कॉरेस्पोंडेंट’ (विशेष संवाददाता) लिखा हुआ था. जब मैंने थोड़ी चालाकी दिखाने की कोशिश करते हुए यह जताने की कोशिश की कि वह मेरी स्टोरी नहीं है, तब उन्होंने सौम्य तरीके मुस्कराते हुए और चमकती आंखों के साथ कहा, ‘तुम्हारा स्रोत गलत हो सकता है, लेकिन मेरा नहीं.’
मैं हकलाने लगा और खुद को बचाने के लिए हाजिरजवाबी में शरण ढूंढने लगा, लेकिन यह कोशिश बेकार गई. उस क्षण मुझे स्टोरी के लिए पूरी तरह से एक स्रोत पर निर्भर रहने, वह भी ऐसे स्रोत पर जो उन्हें पसंद नहीं करता, की गलती का एहसास हुआ. यह एक उपयोगी पेशेवर संबंध की तरफ पहला डगमगाता हुआ कदम था.
चूंकि वे पांच दशक से ज्यादा समय तक दिल्ली में रहे थे, इसलिए शहर के लगभग हर वरिष्ठ पत्रकार के साथ उनका सिर हिला कर अभिवादन करनेवाला संबंध था. कई के साथ उनका भरोसे और आत्मीयता का संबंध था. वे पांच दशक मिले-जुले वर्ष थे, जिनमें वे हमेशा राजनीतिक श्रेष्ठता के पाले में खड़े नहीं रहे थे.
कुछ भी हो, वे एक ऐसी राजनीतिक पार्टी से वास्ता रखते थे, जिसके लिए राजनीतिक दुर्भावना और संगठनात्मक कुरूपता कोई अजनबी चीज नहीं थी. उन्होंने खुद को बेमेल व्यक्ति के तौर पर पेश किया; और ज्यादातर संपादक और रिपोर्टर ‘अनिच्छुक स्वयंसेवक’ की उनकी गढ़ी गई छवि को स्वीकार करने के लिए तैयार थे.
‘गलत पार्टी’ में अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए उन्हें मीडिया की दरकार थी और मीडिया को जनसंघ/भाजपा को रोके रखने के लिए और उसकी बर्बर प्रवृत्तियों का उपचार करने के लिए मीडिया को उनकी जरूरत थी.
यह एक लगभग सर्वमान्य धारणा है कि प्रधानमंत्री का व्यक्तित्व प्रधानमंत्री कार्यालय और इसके मिजाज को प्रभावित करता है. ऐसे में कोई अचरज की बात नहीं है कि वाजपेयी के व्यक्तित्व- उनका मिलनसार स्वभाव, उनकी जबरदस्त दृढ़ता, एक राष्ट्रवादी खरापन, पाखंड और बनावटीपन से उनकी चिढ़ और निजी शिष्टाचार की मर्यादा- ये सब मिलकर वाजपेयी के प्रधानमंत्री कार्यालय को परिभाषित करते हैं.
यह एक खुला हुआ, आत्मविश्वास से भरा हुआ, भीतर से आश्वस्त और प्रायः अभिवादन की मुद्रा में रहनेवाला प्रधानमंत्री कार्यालय था, जिसका दायित्व काफी मधुर स्वभाव वाले ब्रजेश मिश्रा के कंधों पर था.
वाजपेयी एक ऐसे प्रधानमंत्री थे, जो एक संस्था के तौर पर आज़ाद प्रेस और लोकतांत्रिक व्यवस्था के साजो-सामान के तौर पर आलोचना करनेवाले और सवाल पूछनेवाले पत्रकारों की अहमियत को समझते थे.
वे ऐसा नहीं मानते थे कि मीडिया में गैर-दोस्ताना आवाजों को दबाने के लिए उनके कार्यालय की शक्ति का इस्तेमाल किया जाना चाहिए.
उन्होंने अपने क्रोधित मंत्रिमंडलीय सहयोगियों या प्रधानमंत्री कार्यालय के नाराज अधिकारियों द्वारा किसी को ठिकाने लगाने या किसी रिपोर्टर को उसकी हैसियत बताने की सलाहों को सिरे से खारिज कर दिया.
मुझे पता है कि दो मौकों पर एक रिपोर्टर के तौर पर मैंने एनडीए के राजनीतिक सूत्रधारों को नाराज कर दिया था, लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय के मन में मुझे या द हिंदू को ‘सबक सिखाने’ का कोई विचार नहीं आया.
इसका रिश्ता शायद सार्वजनिक कार्यालय को लेकर उनके नज़रिए से था. एक नेहरूवादी राजनीतिज्ञ होने के नाते, उन्हें सत्ता की सीमाओं और जिम्मेदारियों और इसलिए संयम के महत्व का पता था.
इसलिए उन्होंने पूरी शिद्दत के साथ हाशिए और उन्मादियों को केंद्र पर चढ़ बैठने से रोकने की कोशिश की. राजधर्म के पालन का विचार का स्रोत यहीं छिपा था. एक बार और केवल एक बार, वे 2002 में राजधर्म का निर्वाह करने में नाकाम रहे.
राजधर्म का तकाजा यही कहता था कि मार्च, 2002 में गुजरात में मुस्लिमों के नरसंहार के बाद प्रधानमंत्री वाजपेयी मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को बाहर का रास्ता दिखा देते. लेकिन वाजपेयी मुख्यमंत्री को राजधर्म का पालन करने की सलाह देने के अलावा और कुछ नहीं कर पाए.
जब प्रधानमंत्री की सलाह को मानने से इनकार कर दिया गया और वाजपेयी राजधर्म की पवित्रता की रक्षा को सुनिश्चित कर पाने में नाकाम रहे तब 2004 के लोकसभा चुनाव में भारत की जनता ने अपने धर्म का निर्वाह किया.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)
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