पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल का आगाज़ भी भारत के कई हिस्सों में धार्मिक अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हिंसा से हुआ था.
वर्तमान दौर में यह कहना एक किस्म का तकियाकलाम बन गया है कि हिंदू राष्ट्रवाद के प्रतीक पुरुष के नेतृत्व वाली सरकार में ‘हाशिये’ की हिम्मत बहुत बढ़ गई है. इस ‘हाशिये’ से ताल्लुक रखने वाले लोगों ने मवेशियों का परिवहन कर रहे मुस्लिमों को इस शक के आधार पर पीट-पीट कर मार दिया है कि वे इन मवेशियों का परिवहन उनका वध करने के लिए कर रहे हैं.
गोमांस रखने के शक में लोगों की हत्या कर दी गई है. कई लोगों को यकीन है कि इन घटनाओं पर सत्ताधारी पार्टी के नेतृत्व की चुप्पी इस बात का संकेत है कि यह ‘हाशिया’, मुख्यधारा का हिस्सा बन गया है. ये स्वयंभू दरोगा अब कोई बेकाबू बाहरी समूह नहीं हैं, बल्कि सत्ताधारी दल के आशीर्वाद से काम करते हैं.
इस बात की तस्दीक गोकशी के आरोप में एक मुस्लिम व्यक्ति की पीट-पीट की हत्या करने के आठ आरोपियों को भाजपा के मंत्री जयंत सिन्हा द्वारा फूल माला पहनाने की मीडिया में आई तस्वीरों ने की.
‘हाशिये’ को पहली बार 2015 अखलाक की हत्या के बाद अपनी राजनीतिक शक्ति का एहसास हुआ और गाय से जुड़ी हिंसा पर नजर रखने वाले नफरत के मीटर (हेट ट्रैकर) के मुताबिक हर बीतते साल के साथ इस हाशिये ने अपनी गतिविधियों का विस्तार किया है.
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल का आगाज भी भारत के कई हिस्सों में धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा से हुआ था. आज की ही तरह उस समय भी, अगर विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के भूतपूर्व नेता प्रवीण तोगड़िया के शब्दों को उधार लेकर कहें, गुजरात हिंदुत्व की प्रयोगशाला था.
कम्युनलिज्म कॉम्बैट, नेशनल अलायंस ऑफ वुमेन और ह्यूमन राइट्स वॉच की फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्टों से हमें यह जानकारी मिलती है कि गुजरात में 1998 में मुस्लिमों और ईसाइयों के खिलाफ कई हमलों को अंजाम दिया गया.
विहिप, बजरंग दल और हिंदू जागरण मंच जैसे संगठनों द्वारा अंजाम दिए गए इन हमलों में लोगों, इबादत स्थलों, कब्रिस्तानों, स्कूलों, सभाओं, बारातों, घरों और कारोबारों को एकतरफा तरीके से निशाना बनाया गया था.
ईसाई समुदाय पर हमले
हिंदुत्व गिरोहों ने पूरी तरह से बेखौफ होकर काम किया. ‘गुजरातः माइनॉरिटीज इन द स्टॉर्म ऑफ कम्युनल अटैक्स’ में एक पुरोहित/पादरी जो कि अहमदाबाद में संत जेवियर्स सोशल सर्विस ट्रस्ट के बाड़े को उखाड़े जाने और वहां एक हिंदू मंदिर की घोषणा करने वाली तख्ती लगाने का गवाह थे, ने इस वाकये को याद करते हुए बताया था कि स्वयंभू दरोगाओं का विश्वास उनके इस बार-बार दोहराए जाने वाले कथन से प्रकट हो रहा था कि ‘अब हमारी सरकार सत्ता में है, अब हम जो चाहे कर सकते हैं.’
सत्ता और उपद्रव के बीच रिश्ता इससे ज्यादा स्पष्ट नहीं हो सकता था. वाजपेयी ने 19 मार्च, 1998 को शपथग्रहण किया था. 5 अप्रैल, 1998 को उस समय अहमदाबाद एक उपनगर नरोदा में निर्माणाधीन चर्च पर हमला किया गया. पुलिस हमलावरों के इन दावों के बीच मूकदर्शक बनी रही कि यह ढांचा गैरकानूनी तरीके से बन रहा था.
कार्यकारी पादरी द्वारा इसके खंडन को नजरअंदाज कर दिया गया और स्थानीय माफिया और सरकार की तरह पेश आ रहे संघ से जुड़े लोगों ने उस ढांचे का ढाह दिया. उसके बाद 16 जुलाई, 1998 को सूरत जिले के जंखवाव गांव में लोयला ट्रस्ट द्वारा चलाए जाने वाले शांतिनिकेतन हाईस्कूल को तोड़ कर गिरा दिया गया.
स्कूल के परिसर में ट्रैक्टर चलाकर खेल के मैदान को जोत दिया गया. राजकोट में, 20 जुलाई को राजकोट के आईपी मिशन स्कूल में बाइबल की प्रतियों को आग के हवाले कर दिया गया. उपद्रवियों ने दावा किया कि स्कूल के अधिकारी छात्रों को जबरदस्ती ईसाई बनाने की कोशिश कर रहे थे.
इसके बाद 21 जून और 18 जुलाई के बीच हिंदू धर्म जागरण मंच के कार्यकर्ताओं ने डांग जिले में सिंगाना, लाहन, कडमड और भपकल गांव के चर्चों को फूंक दिया. डांग के हमले क्रिसमस के आसपास किए गए. उदाहरण के लिए दिसंबर में हिंदू जागरण मंच ने डांग की राजधानी अहवा में क्रिसमस के दिन रैली करने की अनुमति ले ली.
इस रैली में 4,000 से ज्यादा लोगों ने भाग लिया और उन्होंने ईसाई विरोधी नारे लगाए. इसके बाद श्रृंखलाबद्ध तरीके से हमले हुए. उदाहरण के लिए 25 दिसंबर को रैली में शामिल होने वाले करीब 120 लोगों ने दीप दर्शन स्कूल में तोड़-फोड़ की.
मुस्लिमों के मामले में, पंचमहल में रणधीरपुर और संजेली गांवों में वयस्क हिंदू स्त्रियों और मुस्लिम पुरुषों के बीच विवाह जुन, 1998 में हिंसा की वजह बने. 5000 से ज्यादा लोगों की भीड़ द्वारा की गयी यह हिंसा 10 घंटे से ज्यादा समय तक चली. यही पैटर्न बारदोली में भी दोहराया गया.
वहां संघ ने एक अंतरधार्मिक विवाह को हिंदू लड़कियों को ठग-फुसलाकर खाड़ी देशों में यौन-दासियों के तौर पर भेजने की अंतरराष्ट्रीय साजिश का हिस्सा करार दिया. गुजराती अखबारों ने इस प्रोपगेंडा को दोहरा कर उसे हवा देने का काम किया जिससे यह तनाव आस-पड़ोस के इलाकों में भी फैल गया.
यह ‘लव जिहाद’ के राजनीतिक प्रोपगेंडा और वर्तमान समय के दब्बू मीडिया का पुराना संस्करण था, जो आज हमारे समाज का हिस्सा बन गया है.
संसद में बहस
गुजरात में मुस्लिमों और ईसाइयों पर हमलों की राष्ट्रीय प्रेस में व्यापक रिपोर्टिंग हुई और अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने भी इस मसले को उठाया. संसद के भीतर भी इस पर चर्चा हुई, जहां इस बात का खुलासा हुआ कि जनवरी, 1998 से फरवरी 1999 के बीच ऐसी कम से कम 94 घटनाएं हुईं.
इसके अलावा केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और ओड़िशा में ननों के साथ बलात्कार किया गया, चर्चों को क्षतिग्रस्त किया गया और मिशनरियों की हत्याएं की गईं. राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने भी गुजरात सरकार की तीखी आलोचना की.
आयोग की एक टीम एक के बाद हुए हमलों की जांच करने करने के लिए गुजरात गई और इसने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 355 के तहत कार्रवाई कर ने की सिफारिश की. यह अनुच्छेद केंद्र को राज्य सरकार को संविधान के विशिष्ट प्रावधानों का ईमानदारी के साथ पालन करने का निर्देश देने का अधिकार देता है, जिनमें धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकार भी शामिल हैं.
संवैधानिक निकायों, नागरिक समूहों, मीडिया और राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय नागरिक समाज द्वारा इस मसले को उठाए जाने ने रंग दिखाया और सरकार को ईसाई अल्पसंख्यकों को सुरक्षा देने पर विवश होना पड़ा.
प्रधानमंत्री वाजपेयी ने आखिरकार डांग का दौरा किया, जो कि अल्पसंख्यक विरोधी हिंसा का केंद्र था. उनकी इस यात्रा के बाद एक जिला पुलिस अधीक्षक, जिस पर हिंदुत्व समूहों के प्रति पक्षपात का आरोप लगाया गया था, को उसके पद से हटा दिया गया. उसकी जगह ज्यादा तटस्थ पुलिस अधिकारी को लाया गया. जिले के कई दूसरे हिस्सों में भी नए पुलिस इंस्पेक्टरों और कॉन्सटेबलों की नियुक्ति की गई.
ये घटनाएं बताती हैं कि ‘अपनी सरकार’ की क्षत्रछाया में हिंदू राष्ट्र की स्थापना करने को उत्सुक हिंदुत्व समूहों को गुजरात के साथ ही दिल्ली की तरफ से अवरोधों का सामना करना पड़ा. उस समय विश्व हिंदू परिषद के एक नेता ने टिप्पणी की थी कि दिल्ली की सरकार अपना हिंदू एजेंडा लागू करने में इसलिए असमर्थ है, क्योंकि वह ‘बैसाखियों पर टिकी हुई है.’
ये बैसाखियां संविधानवाद, गठबंधन की राजनीति या संसदीय लोकतंत्र की थीं, वैसे सही अर्थों में यह इन सबसे पैदा होने वाले लोकतांत्रिक तकाजे का नतीजा था. आज ऐसे सारे अवरोधक खतरे में हैं. और इसका सवाल ही नहीं पैदा होता कि वाजपेयी जैसा कोई दूरदर्शी राजनेता आज देश के सबसे ज्यादा आरक्षित नागरिकों के खिलाफ हिंसा की जगहों पर ज्यादा प्रभावशाली, कम पक्षपाती शासन की मांग करे.
(निकिता सूद ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाती हैं. )
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