‘अगर आप एक नेता हैं और आपकी नज़रों के सामने बड़ी संख्या में लोगों का क़त्ल किया जाता है, तब आप लोगों की ज़िंदगी बचा पाने में नाकाम रहने की जवाबदेही से मुकर नहीं सकते.’
(यह लेख मूल रूप से 28 अगस्त 2018 को प्रकाशित हुआ था. 1984 के सिख दंगों को लेकर आए दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले के मद्देनज़र इसे फिर से प्रकाशित किया गया है.)
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1984 में सिखों के नरसंहार में कांग्रेस पार्टी की संलिप्तता को नकाराने की राहुल गांधी की कोशिश से भी ज्यादा आघातकारी सिर्फ एक चीज है- 34 वर्षों से आजाद भारत के सबसे जघन्य अपराधों में एक पर पर्दा डालने की कोशिशों के सह-अपराधी होने के बाद हम में से कई इस घटना के बारे में जिस स्वार्थपूर्ण तरीक़े से बात करते हैं.
इन तथ्यों पर गौर कीजिएः नागरिकों की सामूहिक हत्या में कांग्रेस नेताओं की संलिप्तता की सच्चाई के बावजूद, पार्टी ने इस त्रासदी के लगभग चार हफ़्ते बाद हुए लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा सीटों पर जीत हासिल की.
भले ही हम यह मान लें कि इंदिरा गांधी की हत्या के कारण पैदा हुई ‘सहानुभूति’ ने मानवता के बुनियादी तकाजों को भी पीछे छोड़ दिया, लेकिन इसके बावजूद इंसाफ की ज़रूरत को स्वीकार करने में हम सबकी सामूहिक विफलता की मियाद बहुत लंबी हो गई है, और हम भले यह स्वीकार न करना चाहें, लेकिन यह कहीं गहरे तक बैठ गई है.
1985 से 1989 तक मीडिया और मध्यवर्ग राजीव गांधी की आलोचना रहित प्रशंसा में मुब्तला रहा. यह मत भूलिए कि वे एक ऐसे प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने इस नरसंहार को को हल्का बनाते हुए बड़े पेड़ के गिरने पर जमीन के हिलने की बात की थी और जिन्होंने सभी प्रशासनिक और कानूनी हथकंडों का इस्तेमाल यह सुनिश्चित करने के लिए किया कि नेताओं, पुलिस अधिकारियों और गली के गुंडों पर कोई मुकदमा प्रभावशाली ढंग से न चल पाए.
आख़िर में राजीव गांधी के सितारे गर्दिश में आए, लेकिन इसका संबंध 1984 के दंगों में उनकी जवाबदेही और उसके बाद न्याय की राह में रोड़ा अटकाने से न होकर बोफोर्स भ्रष्टाचार कांड से था.
उनके बाद वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने, जिन्हें भारतीय जनता पार्टी और वाम मोर्चे का समर्थन था. उनके बाद चंद्रशेखर की सरकार आई. यह एक तथ्य है कि इन दो वर्षों में इस नरसंहार के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा देने के लिए कुछ भी ठोस नहीं किया गया.
वैसे भी भाजपा की ज्यादा दिलचस्पी हालिया इतिहास में अंजाम दिए गए एक जघन्य अपराध को लेकर परेशान होने के बजाय 16वीं सदी में बाबर द्वारा तथाकथित तौर पर किए गए किसी काम में ज्यादा थी.
1991 में पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने जो 1984 के दंगे और उसके बाद पर उस पर पर्दा डालने के दौरान गृहमंत्री थे. उनके बाद एचडी देवगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने. मनमोहन सिंह 2004 में प्रधानमंत्री बने और नरेंद्र मोदी ने 2014 से लेकर अब तक देश का नेतृत्व किया है.
समय के अलग-अलग बिंदुओं पर गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों, विशेषकर वाजपेयी और मोदी ने 1984 के पीड़ितों को न्याय दिलाने के सवाल पर जुबानी जमा खर्च ही किया है, जिसकी परिणति दंतविहीन और अप्रभावी आयोगों और समितियों के गठन के तौर पर हुई है.
बढ़ाकर दिए गए राहत पैकेज, जिनका निर्माण मनमाने तरीके से एक नरसंहार के पीड़ितों का दूसरे नरसंहार के पीड़ितों की तुलना में पक्ष लेने के लिए किया जाता है, अपराध में शामिल लोगों पर आपराधिक मुकदमा चलाने का विकल्प नहीं है.
यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि आख़िर क्या कारण है कि गैर-कांग्रेसी सरकारें सतत तरीके से न्याय करने में नाकाम रहीं, इस तथ्य के बावजूद कि ऐसा करना उनके लिए राजनीतिक तौर पर फ़ायदेमंद होता.
जवाब सीधा सा है. क्योंकि इसके लिए पुलिस और सत्ताधारी वर्ग के समर्थकों को क़ानूनी कार्रवाई से निडर होकर लोगों के ख़िलाफ़ अपराध करने की मिली छूट को पर हमला होगा और उसे नष्ट करना होगा.
भारत को कमान जवाबदेही (कमांड रिस्पॉन्सिबिलिटी- जवाबदेही का सिद्धांत जिसमें निचले स्तर पर किए गए अपराधों के लिए ऊपर के स्तरों के पदाधिकारियों को आपराधिक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, इस आधार पर कि वे अपराध की जानकारी होने के बावजूद उसे रोकने और अपराध करनेवालों को सजा देने में नाकाम रहे.) के सिद्धांत की जरूरत है.
अंतरराष्ट्रीय आपराधिक कानून का यह एक जाना-पहचाना विचार है, लेकिन न ही कांग्रेस और न ही भाजपा कभी भी इस प्रावधान को कानून की किताबों में शामिल करने का जोखिम उठाएगी.
1984 के बाद के बाद भारत बड़े पैमाने की सांप्रदायिक हत्याओं की घटनाओं का गवाह रहा है- मेरठ के नजदीक मलियाना और हाशिमपुरा (1987), भागलपुर(1989), बॉम्बे (1992-93), गुजरात(2002), कोकराझार(2012) और मुजफ्फरनगर(2013). इन सारे मामलों में हिंसा पर काबू पाने में सरकार की नाकामी और हिंसा को अंजाम देनेवालों को गिरफ्तार करने और उन्हें सजा दिलाने में सरकार की नाकामी जगजाहिर है.
इनमें से एक घटना जिसकी दिल्ली से भीषण समानता है, वह है गुजरात. 31 अक्टूबर, 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस ने जिस प्रशासनिक और राजनीतिक तकनीक का इस्तेमाल किया था, उसने 27 फरवरी, 2002 को 58 हिंदू यात्रियों को जिंदा जलाने की घटना के बाद भाजपा के लिए सीधी प्रेरणा का काम किया.
जिस तरह से नरेंद्र मोदी की सरकार ने गुजरात में कानूनी मामलों को जानबूझकर कमजोर किया वह राजीव गांधी और नरसिम्हा राव के नेतृत्व में दिल्ली पुलिस के हथकंडों की हूबहू नकल था.
इन दोनों नरसंहारों में एकमात्र अंतर सुप्रीम कोर्ट की भूमिका का है. 1984 के दंगों के बाद देश की सर्वोच्च अदालत न्याय से इनकार किए जाने की मूकदर्शक बनी रही.
लेकिन, 2002 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की सक्रियता के कारण सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ इस मामले में दिलचस्पी ली, बल्कि नरसंहार के सबसे ज्यादा चर्चित मामलों में बुनियादी न्याय सुनिश्चित करने की दिशा में ठोस कदम भी उठाए.
मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर विश्वास न होने के कारण सुप्रीम कोर्ट ने इस मकसद से कुछ मामलों को राज्य से बाहर स्थानांतरित कर दिया या दूसरे मामलों की प्रगति को सीधी अपनी निगरानी में रखा.
दुख की बात है कि 1984 के पीड़ितों को ऐसी मदद नसीब नहीं हुई. भाजपा और दूसरी पार्टियां इस नरसंहार के बारे में बात करती रहीं, लेकिन ऐसा उन्होंने सिर्फ़ कांग्रेस पर राजनीतिक बढ़त बनाने के लिए किया, न कि पीड़ितों को न्याय दिलाने की प्रतिबद्धता के कारण.
भाजपा का स्वार्थीपन कुछ ऐसा है कि इसके शीर्ष नेताओं ने खुशी-खुशी दिल्ली के बंगला साहिब गुरुद्वारे में एक शिलापट्ट का उद्घाटन किया जिसमें सिखों के कत्ल को ‘जातीय नरसंहार’ करार दिया गया था, लेकिन सरकार के तौर पर उनका कहना है कि यह जातीय नरसंहार नहीं था.
अगर राहुल गांधी वास्तव में राजनीति में रहने और एक सकारात्मक फ़र्क लाने को लेकर गंभीर होते तो वे, जिस सच के बारे में पूरे भारत को पता है, उसको लेकर घिस चुके इनकारों से चिपके नहीं रहते. इसकी जगह वे कुछ ऐसा कहने का साहस दिखाते :
‘हां, जब कांग्रेस सत्ता में थी, उस समय मासूम लोगों का नरसंहार हुआ. हां यह उस वक्त हुआ, जब मेरे पिता प्रधानमंत्री थे. हां कांग्रेस और इसके कई नेता, जिनमें से कई हिंसा में संलिप्त थे, इसकी जवाबदेही लेने से पीछे नहीं हट सकते. आपराधिकता को सिर्फ़ किसी के अपराध को अदालत में साबित होने तक ही सीमित नहीं किया जा सकता.
अगर आप एक नेता हैं और बड़ी संख्या में आपकी नजरों के सामने लोगों का कत्ल किया जाता है, तब आप लोगों के जीवन को बचा पाने में नाकाम करने की जवाबदेही से मुकर नहीं सकते. और कुछ नहीं तो कम से पीड़ितों को न्याय दिलाने में नाकाम रहने की जिम्मेदारी लेने से भी आप पीछे नहीं हट सकते. इस नाकामी के कारण ही बेगुनाह लोग लगातार सांप्रदायिक हिंसा का शिकार हो रहे हैं.
मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री के तौर पर देश से माफ़ी मांगी थी, लेकिन इसने न तो पीड़ितों को संतुष्ट किया और न देश को, क्योंकि यह काफ़ी नहीं था. माफ़ी मांगने का वक्त न्याय करने के बाद, अपराधियों को सजा देने के बाद और देश से ऐसे जघन्य अपराधों की संभावना को समाप्त करने के बाद आता है.
अगर इस देश के मीडिया ने मेरे पिता के प्रधानमंत्री रहते हुए उनसे 1984 के बारे में सवाल पूछा होता, तो चीजें शायद अलग होतीं. लोकतंत्र तभी जीवित रह सकता है और इसे तभी मजबूती मिल सकती है, जब पत्रकारों के पास राजनेताओं और अधिकारियों से सवाल पूछने का अधिकार हो और वे निडर होकर अपने इस अधिकार का इस्तेमाल करें. जब मीडिया अपना काम करने में नाकाम रहता है, तब नेता भी अपनी जिम्मेदारी निभाने में नाकाम रहते हैं.’
मुझे शक है कि राहुल गांधी कभी भी इस तरह का भाषण दे पाएंगे. यह अलग बात है कि ऐसा करना उनके राजनीतिक हित में होगा. उन्हें विरासत में मिली नैतिक योग्यता उन्हें इस दिशा में जाने के ख़िलाफ़ चेतावनी देगी. आख़िर मोदी, जिनके पास भी वही नैतिकता है और जिसे उन्होंने विरासत में न पाकर खुद खोजा है, इसके सहारे ही इस मुकाम तक पहुंचे हैं.
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