देशभर से आए हज़ारों की संख्या में किसानों और मज़दूरों ने दिल्ली के संसद मार्ग पर केंद्र की मोदी सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया और अपनी मांगों को रखा.
नई दिल्ली: दिल्ली के संसद मार्ग पर देश के विभिन्न राज्यों से आए किसानों और मज़दूरों ने अखिल भारतीय किसान सभा (एआईकेएस), भारतीय ट्रेड यूनियन केंद्र (सीआईटीयू) और अखिल भारतीय कृषि श्रमिक संघ (एआईएडब्ल्यूयू) के झंडे तले सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया.
भारी संख्या में लोगों ने फसलों की लागत पर 50 प्रतिशत अधिक का दाम, 18000 रुपये न्यूनतम वेतन, मनरेगा में 200 दिन का रोजगार के साथ-साथ ठेका प्रथा ख़त्म करने जैसे प्रमुख मांगों को लेकर प्रदर्शन किया और सरकार को चेतावनी दी कि अगर वो किसानों और मजदूरों को लेकर अपनी आर्थिक नीतियों में बदलाव नहीं करती, तो आगामी चुनावों में सरकार को सबक सिखाएंगे.
नासिक (महाराष्ट्र) के ढिंढोरी गांव से आए 75 वर्षीय सीताराम धुले भूमिहीन किसान हैं और खेती में बढ़ते संकट की वजह से सात लोगों के परिवार का पालन पोषण अब मुश्किल हो गया है. सरकार से खेती की ज़मीन की मांग को लेकर दिल्ली के संसद मार्ग पर आए थे.
सीताराम ने द वायर से बातचीत में बताया, ‘हमारे पास इतनी ही ज़मीन है कि दो से तीन कमरों का मकान बन सकता है. हम भूमिहीन किसान है और हमारी समस्या भूमि वाले किसानों से ज्यादा दयनीय है, लेकिन सरकार कुछ नहीं सोच रही है. मेरा बेटा भी किसान है और उसके दो बच्चे हैं. खेतिहर मजदूरी करके पालन पोषण नमुमकिन है.’
इससे पहले 11 मार्च को लगभग 40,000 किसानों ने नासिक से मुंबई पैदल यात्रा करके अपनी मांगों को महाराष्ट्र सरकार के सामने रखा था. सरकार ने साल के अंत तक मांगों को मानने का आश्वासन दिया है.
संसद मार्ग पर आए 50 वर्षीय विष्णु रामा गंगोड़े भी उन 40 हजार किसानों में शामिल थे, जो नासिक से मुंबई पद यात्रा कर के अपनी मांगों को लेकर मुंबई के आज़ाद मैदान के प्रदर्शन में शामिल होने गए थे.
वो बताते हैं, ‘किसान अपनी मांगों को लेकर कई बार और कई सरकारों के सामने जाता है, लेकिन उसे सिर्फ आश्वासन मिलता है. नेता लोग भाषण में किसान बोलते हैं और ज़मीन पर हिंदू-मुसलमान करते हैं. हमें तो ऐसा लगता है इस सरकार ने हमें ठग लिया है. हमें उचित फसलों की कीमत, स्कूल और स्वास्थ्य सुविधाएं चाहिए, लेकिन ये सिर्फ महज चुनावी नारा साबित हो जाता है.’
2014 में सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफ़नामा दायर कर स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के अनुसार लागत पर 50 प्रतिशत बढ़ाकर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) देने के नियम को लागू नहीं करने की बात कही थी. सरकार ने तर्क दिया था कि ऐसा करने से बाजार बर्बाद हो जाएगा.
हालांकि इस साल का बजट पेश करते हुए सरकार ने फसलों की लागत पर डेढ़ गुना बढ़ाकर एमएसपी देने की बात कही है. लेकिन किसानों और किसान संगठनों का कहना है कि सरकार लागत का मूल्य तय करते समय कई सारी जरुरी चीजों का गणना नहीं करती है, जिसकी वजह से लागत का मूल्य हमेशा कम रह जाता है.
हरियाणा के भिवानी से आए 57 वर्षीय वेद प्रकाश का कहना है कि सरकार ने उन्हें धोखा दिया है. वो कहते हैं, ‘हमारी मांग है कि स्वामीनाथन की रिपोर्ट लागू हो पर सरकार तो मना कर चुकी है. हम चाहते हैं अगर हमारा 100 रुपये लगे तो आमदनी 150 रुपये की होनी चाहिए और इतनी आसान बात सरकार को क्यों नहीं समझ आरही है. मोदी जी ने किसानों को धोखा दिया है तो 2019 में किसान उन्हें धोखा देगा.’
उन्होंने आगे बताया, ‘ये सरकार सिर्फ गोरक्षा की बात करती है, लेकिन जो आवारा जानवर हैं उसका कोई इलाज नहीं करती है. हमारी फसलें ख़राब हो रही है. हमारा कर्ज माफ मत करो हमें कर्ज मुक्त करो. तभी किसान की हालत में सुधार होगा और तब देश का विकास होगा. अब न्याय चाहिए वरना किसान मज़दूर सबक सीखना जानता है.’
सांसद मार्ग पर सिर्फ किसान नहीं बल्कि देश के विभिन्न राज्यों से मज़दूर संघ के लोग भी आए थे. आंगनवाड़ी कर्मचारियों के अलावा ठेका प्रथा के तहत काम करने वाले अपनी न्यूनतम वेतन और पक्की नौकरी की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे.
हरियाणा के झज्जर जिले से मिड-डे मील के लिए काम करने वाली सैकड़ों महिलाएं भी अपनी न्यूनतम वेतन और नौकरी की सुरक्षा को लेकर प्रदर्शन कर रही थीं. 40 वर्षीय सरोज झज्जर में मिड-डे मील का काम करती हैं और पति के मौत के बाद मात्र 3500 रुपये में बच्चों का पालन पोषण करना मुश्किल हो गया है.
सरोज बताती हैं, ‘हमें 3500 रुपये वेतन मिलता है और हमारी मांगें हैं कि हमें 18000 रुपये न्यूनतम वेतन मिलना चाहिए. हमारे यहां इस काम में ज़्यादातर विधवा लोग हैं, जिनका कोई सहारा नहीं है. सरकार उन्हें नौकरी की सुरक्षा भी नहीं देती. 25 बच्चों पर एक व्यक्ति को रखा जाता है, लेकिन अगर बच्चे कम होते हैं, तो नौकरी से निकाल देते हैं. लेकिन बच्चे सिर्फ एक होंगे तो मास्टर को नहीं निकालेंगे.’
वो आगे बताती हैं, ‘हमें छुट्टी नहीं मिलती और छुट्टी का पैसा काट लिया जाता है. मास्टर लोग अपना निजी काम करवाते हैं और नहीं करो तो नौकरी से निकालने की धमकी देते हैं. अपने जूठे बर्तन तक धुलवाते हैं. बहुत शोषण है, लेकिन कोई सुनवाई नहीं है. सरकार बहरी हो गई है और हम उन्हें चुनाव में बताएंगे कि हमारी मांगों को न मानने का अंजाम क्या होता है.’
देश में ठेकाप्रथा के तहत काम करने वालों की संख्या काफी बड़ी है. पंजाब के संगरुर में अनाज की बोरी उठाने का काम करने वाले 40 वर्षीय रोहित सिंह बताते हैं कि उन्हें एक बोरी उठाने का महज दो से पांच रुपये मिलते हैं. लगभग आठ सालों से ठेकाप्रथा के तहत काम कर रहे हैं. उनकी मांग है कि उन्हें पक्की नौकरी मिलनी चाहिए.
रोहित कहते हैं, ‘दो-पांच रुपये एक बोरी का मिलता है और क्या इतने पैसे में सामान्य व्यक्ति जी सकता है. 100 बोरी उठाया जायेगा तब जाकर कुछ पैसे बनेंगे, लेकिन हम इंसान हैं और हमारी एक निश्चित क्षमता होती है. जानवर नहीं हैं कि कितना भी काम करेंगे. सरकार बदलती है लेकिन हमारी किस्मत नहीं बदलती.’
आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले से आए एम. कृष्णमूर्ति ने बताया कि उनके जिले में मनरेगा के तहत अभी तक 80 करोड़ रूपए का भुगतान बाकी है, जो सरकार नहीं दे रही है. उनका कहना है कि अधिकतर खेतिहर मज़दूर मनरेगा में भी काम करते हैं. उनकी मांग है कि साल में 200 दिन काम मिलना चाहिए और न्यूनतम 350 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से मज़दूरी मिलनी चाहिए.
अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव बृजलाल भर्ती का कहना है कि इस देश में सबसे ज़्यादा शोषण खेतिहर मजदूरों का होता है. उन्होंने कहा, ‘खेतिहर मज़दूर के बारे में किसी भी पार्टी के घोषणापत्र में कुछ नहीं कहा जाता है. हम मांग कर रहे हैं की खेतिहर मजदूरों को सरकार कम से कम दो एकड़ ज़मीन दे, ताकी उनका शोषण न हो सके.’
उन्होंने आगे कहा, ‘हम सब्सिडी को बैंक अकाउंट में भेजने का विरोध करते हैं. हमारी मांग है की हमें भोजन की सुरक्षा मिलनी चाहिए और सब्सिडी प्रत्यक्ष रूप से मिलनी चाहिए. पेंशन के साथ खेतिहर मजदूरों की आमदनी सुनिश्चित की जानी चाहिए. इसमें सबसे ज़्यादा शोषण दलितों का होता है क्योंकि उसी समाज के लोग ज़्यादा खेतिहर मज़दूर हैं. सामाजिक शोषण के साथ उनका आर्थिक शोषण होता है.’
बिहार से आए ऑल इंडिया किसान सभा के विनोद कुमार ने मोदी सरकार पर हमला बोलते हुए कहा कि सरकार को गाय की चिंता है लेकिन उसे पालने वालों की चिंता क्यों नहीं है. उन्होंने कहा, ‘इन सरकारों को शर्म नहीं आती है कि एक लीटर पानी 20 रुपये का बिकता है, लेकिन किसान जब दूध बेचता है तो उसे 12-15 रुपये भी नहीं मिलते हैं. सरकार ने डेरी किसानों के बारे में कुछ नहीं सोचा. शहरों के विकास में लगी सरकार भूल जाती है कि लोकतंत्र और सरकार गांव से चलता है. उसे नाराज कर के कुछ हासिल नहीं होगा.’
अहमदाबाद से मुंबई के बीच बुलेट ट्रेन चलाने के लिए प्रस्तावित योजना के ख़िलाफ़ भी महाराष्ट्र में किसान विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. हाल ही में पालघर के किसानों ने एक बैठक बुलाकर बुलेट ट्रेन योजना को किसान और आदिवासी विरोधी घोषित किया था. किसानों ने अपनी ग्रामसभा में प्रस्ताव पारित कर योजना के लिए जमीन देने से इंकार कर दिया है.
रैली में आल इंडिया किसान सभा द्वारा रखी गई प्रमुख मांग
संसद मार्ग पर हुई रैली के दौरान किसान और मजदूर संगठनों ने महंगाई में कमी, रोज़गार, 18000 न्यूनतम वेतन, मजदूर विरोधी कानून पर रोक, स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करना, किसानों को कर्ज़ से मुक्ति, खेतिहर मज़दूरों के लिए कानून, सभी गांव में मनरेगा लागू करना, साल में 200 दिन काम, न्यूनतम 350 रुपये एक दिन की मज़दूरी, भोजन सुरक्षा के साथ सभी किसान और मजदूरों को शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा, घर मुहैया कराना, भूमिहीन किसानों को भूमि आवंटित करना, जबरन ज़मीन अधिग्रहण पर रोक, प्राकृतिक आपदा के समय गरीब मज़दूर और किसानों का पुनर्वास और उन्हें उचित मुआवजा देने की मांगे रखीं.