भाजपा के वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र सिंह 2014 के लोकसभा चुनाव के समय से पार्टी से निलंबित चल रहे हैं.
भाजपा के संस्थापक सदस्य और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री रहे जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र सिंह ने पार्टी से तौबा करने का मन बना लिया है. बाड़मेर के शिव क्षेत्र से विधायक मानवेंद्र ने 22 सितंबर को ज़िले के पचपदरा में स्वाभिमान सभा बुलाई है. सियासी गलियारों मे चल रही चर्चा के मुताबिक इस सभा में वे कांग्रेस का दामन थामने की घोषणा करेंगे.
हालांकि मानवेंद्र सिंह ने अधिकृत रूप से इसकी पुष्टि नहीं की है, लेकिन वे इसे नकार भी नहीं रहे. वे फिलहाल सब कुछ स्वाभिमान सभा पर छोड़ रहे हैं.
वे कहते हैं, ‘स्वाभिमान सभा में मेरे भविष्य पर जो भी जनसहमति बनेगी, मैं उसके साथ जाऊंगा. यह एक लोकतांत्रिक आवाज़ होगी. इसमें वे सभी लोग मौजूद रहेंगे, जिन्होंने मेरे पिता के आख़िरी चुनाव में उनका साथ दिया था. इसमें मेरे सभी साथी भी मौजूद होंगे.’
गौरतलब है कि मानवेंद्र सिंह 2014 के लोकसभा चुनाव के समय से भाजपा से निलंबित चल रहे हैं. इस चुनाव में उनके पिता जसवंत सिंह ने पार्टी के ख़िलाफ़ ताल ठोकते हुए निर्दलीय चुनाव लड़ा, जिसमें वे कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए कर्नल सोनाराम से 80 हज़ार वोटों से चुनाव हार गए.
इस चुनाव में मानवेंद्र सिंह द्वारा अपने पिता के लिए खुलकर वोट मांगने का प्रदेश भाजपा ने खूब विरोध किया. तत्कालीन उपाध्यक्ष ओंकार सिंह लखावत ने सार्वजनिक रूप से मानवेंद्र सिंह से पार्टी से त्याग-पत्र देने की अपील की. उन्होंने ऐसा नहीं करने पर अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए तैयार रहने को भी कहा.
जब मानवेंद्र सिंह ने प्रदेश भाजपा की चेतावनी पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी तो केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें पहले राष्ट्रीय कार्यकारिणी और बाद में पार्टी से निलंबित कर दिया, जो अभी भी बरक़रार है. पिछले साढ़े चार साल में न तो मानवेंद्र सिंह ने कभी निलंबन पर ऐतराज जताया और न ही कभी पार्टी ने ही उनकी सुध ली.
मानवेंद्र सिंह के करीबियों की मानें तो वे लोकसभा चुनाव में पिता की हार से उबर ही रहे थे, लेकिन नतीजों के तीन महीने के बाद ही जसवंत सिंह दिल्ली के अपने आवास में गिरने से घायल हो गए. तब से ही वह लगातार कोमा में हैं. इस दौरान मानवेंद्र ने अपनी राजनीति को शिव विधानसभा क्षेत्र तक ही सीमित रखा.
करीबियों के मुताबिक मानवेंद्र सिंह ने 2015 में ही भाजपा को छोड़ने का मन बना लिया था, लेकिन प्रधानमंत्री के आश्वासन के बाद उन्होंने ऐसा नहीं किया. काबिल-ए-गौर है कि नरेंद्र मोदी फरवरी, 2015 में जसवंत सिंह का हालचाल जानने उनके आवास पर गए थे.
ख़ुद मानवेंद्र सिंह ने यह स्वीकार किया था कि प्रधानमंत्री ने उन्हें निलंबन पर धैर्य रखने के लिए कहा. उन्होंने कहा, ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुझे इंतज़ार करने और धैर्य रखने के लिए कहा. उन्होंने मुझे मेरा निलंबन ख़त्म किए जाने तक इंतज़ार करने की सलाह दी है.’
संभवत: प्रधानमंत्री के आश्वासन के बाद ही मानवेंद्र निलंबित होने के बावजूद कभी भी पार्टी लाइन से इधर-उधर नहीं हुए. उन्होंने राज्यसभा और राष्ट्रपति चुनाव में भी भाजपा को वोट दिया. इसके बावजूद भी वे निलंबित ही हैं.
पश्चिमी राजस्थान की राजनीति के जानकारों की मानें तो मानवेंद्र सिंह का भाजपा में अब कोई भविष्य नहीं है. उन्हें न तो मोदी-शाह का वरदहस्त प्राप्त है और न ही वसुंधरा राजे का. ऐसे में उनके पास भाजपा छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.
मानवेंद्र सिंह के समर्थकों का भी यही मानना है. उनके मुताबिक भाजपा इस बार किसी भी सूरत में उनके नेता को विधानसभा या लोकसभा चुनाव में टिकट नहीं देगी. इस स्थिति में भाजपा को छोड़कर कोई दूसरी राह चलना मजबूरी है.
हालांकि मानवेंद्र सिंह के कई समर्थक उनके कांग्रेस में भविष्य को लेकर भी आशंकित हैं. उनके मुताबिक पिछले कई वर्षों से बाड़मेर की राजनीति में शह और मात का आधार जातीय ध्रुवीकरण है.
जाति के जाजम पर खेले जाने वाले इस खेल में जसवंत सिंह और मानवेंद्र सिंह जाट विरोधी राजनीति का दांव आजमाते रहे हैं. जबकि कांग्रेस बाड़मेर में चुनावी चौसर पर जाटों को साधकर चाल चलती है. इस स्थिति में मानवेंद्र सिंह कांग्रेस के साथ कैसे कदमताल कर पाएंगे? चर्चा है कि मानवेंद्र सिंह बाड़मेर से लोकसभा का चुनाव लड़ना चाहते हैं.
इस सीट से राहुल गांधी के ख़ास माने जाने वाले हरीश चौधरी कांग्रेस के दावेदार हैं. वह यहां से 2009 में सांसद का चुनाव जीत चुके हैं. हालांकि 2014 के चुनाव में वे तीसरे स्थान पर रहे थे. क्या कांग्रेस उन्हें दरकिनार कर मानवेंद्र को टिकट देगी?
वहीं, भाजपा का वसुंधरा समर्थक धड़ा मानवेंद्र सिंह के कांग्रेस में जाने को पार्टी के लिए फायदे का सौदा बता रहा है.
सरकार के एक कैबिनेट मंत्री नाम उजागर नहीं करने की शर्त पर कहते हैं, ‘बाड़मेर में न तो जसवंत सिंह का बहुत बड़ा जनाधार है और न ही मानवेंद्र सिंह का. यदि मानवेंद्र कांग्रेस में जाते हैं तो इससे भाजपा को फायदा होगा, क्योंकि जाट और कलबी हमारे पक्ष में लामबंद हो जाएंगे.’
वे आगे कहते हैं, ‘2014 के लोकसभा चुनाव में जसवंत सिंह के पक्ष में राजपूत और मुसलमान तो जुटे लेकिन इसकी प्रतिक्रिया में जाट और कलबी समुदाय ने भाजपा को एकमुश्त वोट दिया. इसी वजह से वे 80 हज़ार से चुनाव हार गए. जसवंत का बाड़मेर में चुनाव जीतने लायक जनाधार कभी भी नहीं रहा. वे यहां से एक बार भी चुनाव नहीं जीते. मानवेंद्र सिंह की तो राजपूत और मुसलमानों में इतनी पकड़ भी नहीं है.’
हालांकि राजपूत समुदाय से ताल्लुक रखने वाले भाजपा के एक वरिष्ठ विधायक कहते हैं, ‘मानवेंद्र सिंह का भाजपा से अलग होना आग में घी का काम करेगा. राजपूतों की भाजपा से नाराज़गी की फेहरिस्त में 2014 में जसवंत सिंह का टिकट काटना भी है.’
वे आगे कहते हैं, ‘यदि मानवेंद्र सिंह भाजपा छोड़ते हैं तो इसका असर केवल बाड़मेर में ही नहीं, पूरे राजस्थान में होगा. 2014 के चुनाव में यदि मोदी लहर नहीं होती तो जसवंत सिंह किसी भी सूरत में चुनाव नहीं हारते. उन्हें राजपूतों के अलावा मुसलमानों और दलितों के भी वोट मिले. 4 लाख से ज़्यादा वोट लाना मज़ाक नहीं है.’
जहां तक भाजपा के प्रदेश नेतृत्व का सवाल है, पार्टी मानवेंद्र सिंह को मनाने के मूड में नहीं है. पार्टी उनकी टीम को तोड़ने की रणनीति पर ज़रूर काम कर रही है. इसके तहत ही प्रदेशाध्यक्ष मदन लाल सैनी ने दो पदाधिकारियों- स्वरूप सिंह और गिरवर सिंह कोटड़ा का निलंबन रद्द कर दिया है.
स्वरूप सिंह 2014 में भाजपा के प्रदेश मंत्री थे जबकि गिरवर सिंह कोटड़ा शिव विधानसभा क्षेत्र के मंडल अध्यक्ष थे. इन दोनों ने लोकसभा चुनाव में पार्टी प्रत्याशी की बजाय जसवंत सिंह का प्रचार किया था. पार्टी ने इसे अनुशासनहीनता मानते हुए इन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया था.
हालांकि निलंबन रद्द होने के बावजूद ये दोनों नेता मानवेंद्र सिंह का साथ छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं. स्वरूप सिंह कहते हैं, ‘भाजपा ने निष्कासन भी पूछकर या नोटिस देकर नहीं किया और न ही रद्द करने की जानकारी मुझे दी है. मेरे बारे में फैसला करने का हक़ अब मेरे समाज को है.’
वहीं, गिरवर सिंह कोटड़ा ने कहा, ‘मेरे बारे में फैसला करने का हक़ भाजपा को नहीं है. मेरा फैसला 2014 में वोट देने वाले चार लाख वोटर करेंगे. 22 सितंबर को पचपदरा में स्वाभिमान सभा भी आदेश देगी, मैं उसे ही मानूंगा.’
यह देखना रोचक होगा कि 22 सितंबर को पचपदरा में होने वाली स्वाभिमान सभा में ऊंट किस करवट बैठता है. मानवेंद्र सिंह जो भी फैसला लेंगे उससे न सिर्फ पश्चिमी राजस्थान, बल्कि पूरे प्रदेश की राजनीति प्रभावित होगी, जिसका असर विधानसभा और लोकसभा चुनावों पर भी पड़ सकता है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और जयपुर में रहते हैं.)