उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार के शुरुआती 10 महीने में तकरीबन 160 लोग रासुका के तहत गिरफ़्तार किए गए. इनमें शामिल पीड़ित मुस्लिम परिवारों का कहना है कि सांप्रदायिक कारणों से उन्हें निशाना बनाया जा रहा है.
लखनऊ: उत्तर प्रदेश में कानून और व्यवस्था की स्थिति में सुधार लाने के दावे के आधार पर भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के एक साल बाद 4 मार्च 2018 को मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने दावा किया कि उनके सत्ता में आने के बाद से राज्य में सांप्रदायिक हिंसा की एक भी वारदात नहीं हुई है.
10 दिन बाद केंद्र सरकार ने संसद में जो आंकड़े पेश किए वे दर्शाते हैं कि सांप्रदायिक हिंसा की वारदातों और उससे जुड़ी मौतों की संख्या के मामले में उत्तर प्रदेश राज्यों की सूची में सबसे ऊपर है– 2017 में उत्तर प्रदेश में 44 लोग मारे गए और 540 लोग घायल हुए.
ये आंकड़े 2016 की 29 मौतों और 490 लोगों के घायल होने और उससे पिछले साल की 22 मौतों और 410 लोगों के घायल होने के आंकड़ों की तुलना में काफी बदतर हैं.
बुलंदशहर और सहारनपुर जैसी जगहों पर हुई सांप्रदायिक हिंसा की वारदातों में आरोप है कि उनमें आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली हिंदू युवा वाहिनी और भाजपा के स्थानीय कार्यकर्ता शामिल थे. उन घटनाओं में शामिल लोगों की निंदा की गई लेकिन उसके बाद दोषियों के खिलाफ कोई सख्त कानूनी कार्रवाई नहीं की गई थी.
16 जनवरी 2018 को आदित्यनाथ सरकार ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी करके कहा कि उत्तर प्रदेश सरकार ने कानून और व्यवस्था की स्थिति पर नियंत्रण रखने के लिए 160 लोगों के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) लगाया है.
10 महीने में 1200 पुलिस मुठभेड़ कराने के अलावा यह उनकी मूल्यवान उपलब्धि थी. रासुका के तहत गिरफ्तार लोगों में सबसे प्रमुख नाम भीम सेना के संस्थापक चंद्रशेखर आज़ाद का है जो मई 2017 से अभी हाल तक जेल में रहे हैं.
आम बोलचाल में रासुका को एक ऐसे कानून के रूप में जाना जाता है जिसमें ‘कोई वकील, कोई अपील, कोई दलील’ नहीं काम आता है.
यह कानून जिसका घोषित उद्देश्य ‘कुछ मामलों और उनसे संबंधित विषयों में निरोधक गिरफ़्तारी (Preventive detention) का प्रावधान करना’ है, 23 सितंबर 1980 को लागू हुआ था.
यह केंद्र और राज्य सरकारों को किसी भी व्यक्ति को हिरासत में रखने का अधिकार देता है ताकि उसे भारत की सुरक्षा, विदेशों के साथ भारत के संबंधों, सार्वजनिक व्यवस्था को कायम रखने या समुदाय के लिए जरूरी और सेवाओं की आपूर्ति बनाए रखने के विरुद्ध किसी भी तरह की हानिकारक गतिविधि को अंजाम देने से रोका जा सके.
हिरासत की अधिकतम अवधि 12 महीने है. यह आदेश जिलाधिकारी या पुलिस आयुक्त भी अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में दे सकते हैं लेकिन गिरफ्तारी के कारण के साथ गिरफ्तारी की सूचना राज्य सरकार को देना आवश्यक होता है.
इस कानून के तहत किसी व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के कारणों की सूचना दिए बिना भी 10 दिन तक हिरासत में रखा जा सकता है. सरकार को यह अनुमति प्राप्त है कि वह गिरफ्तारी को जायज़ ठहराने वाली सूचना को ‘जनहित में’ केवल अपने तक सीमित रख सकती है.
गिरफ्तार व्यक्ति को अपने अभियोगियों से सवाल करने या अपने गिरफ्तारी के समर्थन में सबूत मांगने की अनुमति नहीं होती. उसे इस अवधि में वकील की सहायता लेने की भी अनुमति नहीं होती.
तीन महीने से अधिक अवधि की हिरासत के लिए दिए गए किसी आदेश का औचित्य उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों या उच्च न्यायालय का न्यायाधीश होने की योग्यता रखने वाले किन्हीं तीन व्यक्तियों का सलाहकार बोर्ड तय करता है. मंजूरी मिलने पर किसी व्यक्ति को न्यायेतर ढंग से 12 महीने तक हिरासत में रखा जा सकता है.
इस रिपोर्ट के तहत उत्तर प्रदेश के चार पूर्वी जिलों, जिन्हें पूर्वांचल कहा जाता है, में पिछले एक वर्ष में रासुका के तहत गिरफ्तार 15 व्यक्तियों के परिवारों से मुलाकात की गई; ये सभी गिरफ्तारियां सांप्रदायिक झड़पों की घटनाओं के बाद हुई थीं.
हालांकि इनमें हिंदू युवा वाहिनी, हिंदू समाज पार्टी और अखिल भारतीय हिंदू महासभा जैसे उग्र हिंदू संगठनों की लिप्तता के आरोप थे लेकिन जिन लोगों को सलाखों के पीछे बंद किया गया वे सभी निरपवाद रूप से मुसलमान थे.
सभी अभियुक्तों को पहले सत्र न्यायालय ने जमानत पर रिहा कर दिया था लेकिन जैसे ही वे जमानत पर छूटे उन्हें रासुका के तहत फिर से गिरफ्तार कर लिया गया.
स्थानीय लोगों का मानना है कि जिस प्रकार 2014 के चुनावों से पहले बड़ी संख्या में छोटी-छोटी सांप्रदायिक झड़पें हुई थीं जिनसे मतदाताओं का ध्रुवीकरण हुआ था, उसी तरह ये झड़पें और रासुका के तहत चयनित गिरफ्तारियां संघ परिवार की 2019 के आम चुनावों की तैयारी का हिस्सा हैं.
कानपुर: दो झड़पें लेकिन रासुका केवल मुसलमानों पर
मीडिया में उत्तर प्रदेश के पुलिस थानों में धार्मिक उत्सव मनाने की आलोचनात्मक रिपोर्टों पर प्रतिक्रिया देते हुए आदित्यनाथ ने 19 अगस्त 2017 को कहा था कि ‘यदि मैं सड़क पर नमाज़ नहीं रुकवा सकता तो मुझे किसी थाने में जन्माष्टमी रुकवाने का कोई अधिकार नहीं है.’
वास्तव में जब कांवरियों द्वारा लाउडस्पीकरों, डीजे, रोड शो के जरिये गुंडागर्दी करने की ख़बरों पर उनका ध्यान दिलाया गया तो उन्होंने कहा कि वह शिवभक्तों की यात्रा थी, कोई ‘शव यात्रा‘ नहीं. कानून और व्यवस्था को कायम रखने के मामले में धार्मिक भावनाओं का हवाला देकर मुख्यमंत्री ने स्पष्ट संकेत दे दिया था कि धार्मिक जश्न कानून से बढ़कर हैं.
पिछले साल मुहर्रम 1 अक्तूबर को था. यह वही समय था जब हिंदुओं द्वारा दुर्गा विसर्जन किया जाता है. उस समय देश भर की खुफिया इकाइयों ने सांप्रदायिक तनाव की आशंका व्यक्त की थी क्योंकि दोनों त्योहार ऐसे हैं जिनमें सड़कों पर जुलूस निकलते हैं.
ऐसे में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने 1 अक्तूबर को दुर्गा की मूर्तियों के विसर्जन पर रोक लगा दी थी और लोगों से 2 और 4 अक्तूबर के बीच मूर्ति विसर्जन करने का अनुरोध किया. भाजपा ने इसके लिए पश्चिम बंगाल की तीखी आलोचना की.
बहरहाल, प्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा की कोई घटना नहीं हुई. दूसरी ओर, उत्तर प्रदेश में सड़कों पर धार्मिक भावनाओं के बेरोकटोक प्रदर्शन करने के मुख्यमंत्री के आह्वान से प्रेरित राज्य के नौ जिलों– कानपुर, बलिया, पीलीभीत, गोंडा, आंबेडकर नगर, संभल, इलाहाबाद, कौशांबी और कुशीनगर में 1 अक्तूबर को दो धार्मिक जूलूसों की वजह से सांप्रदायिक तनाव और हिंसक वारदातें देखने में आयीं.
1 अक्तूबर को कानपुर में दो बड़ी सांप्रदायिक झड़पें हुईं. एक झड़प रावतपुरा में हुई जहां विश्व हिंदू परिषद (विहिप) की रामलला कमेटी द्वारा आयोजित राम बारात, ताज़िये के जुलूस की राह में आ गई.
लखनऊ की स्थानीय खुफिया इकाइयों ने पहले ही झड़पों की चेतावनी दी थी, लेकिन फिर भी रोकथाम के कोई भी उपाय नहीं किए थे. नतीजतन, एक झड़प हुई जिसके कारण पथराव हुआ और हवाई फायरिंग हुई, जिनमें दो पुलिसकर्मियों सहित कई लोग घायल हुए. रामलला कमेटी के कई लोग गिरफ्तार किए गए जिन्हें बाद में रिहा कर दिया गया.
उसी दिन जूही परम पुरवा की झुग्गी-झोंपड़ी वाली बस्ती में दुर्गा विसर्जन के जुलूस की अगुवाई कर रहे हिंदू समाज पार्टी के सदस्यों ने उस बस्ती के चौराहे पर मोहर्रम का जुलूस रुकवा दिया. वहां भी गोलियां चलीं और पथराव हुए.
जूही परम पुरवा एक छोटी-सी बस्ती है जिसमें मुख्य रूप से मुसलमान और दलित आबादी रहती है. उस हिंसा में पुलिस के एक वाहन, दलित बस्ती की तरफ स्थित एक मुसलमान की अकेली दुकान और घर को आग के हवाले कर दिया गया.
पुलिस घटनास्थल पर पहुंची और शाम तक कुल 57 लोग गिरफ्तार किए गए थे. उनमें से अधिकांश रिहा कर दिए गए सिवाय हाक़िम ख़ान, फ़रकुन सिद्दीक़ी और मोहम्मद सलीम के, जिन पर गिरफ्तारी के महीने भर बाद स्थानीय अदालत से जमानत मिलते ही रासुका लगाया गया था.
पिछले दस महीनों में जिस दौरान वे तीनों सलाखों के पीछे हैं, हाक़िम के यहां बेटी पैदा हुई, फ़रकुन की बेटी को एक अपराधी की बेटी होने का दाग लगने के कारण अपना स्कूल छोड़ना पड़ा और सलीम के बच्चे रिश्तेदारों के यहां दर-दर भटक रहे हैं.
35 वर्षीय हाक़िम ख़ान सहारा समूह में बीमा एजेंट के रूप में काम करते थे और इलाके की अनेक शांति और सांप्रदायिक सद्भाव पहलों का हिस्सा रहा करते थे है. 1 अक्तूबर को जब ताज़िये का जुलूस रोका गया था, तब वह दोनों पक्षों के बीच शांति कायम कराने के लिए पहुंचे और घटनास्थल पर पुलिस के आ जाने के बाद घर लौट गए.
उनके पड़ोसी राम प्रकाश बताते हैं, ‘वह मंदिर के समारोहों में भाग लेते थे, मंगलवार को हनुमानजी के नाम पर होने वाले भंडारे में शिरकत करते थे और मंदिर की सीढ़ियां बुहारते थे.’
पुलिस ने उन्हें 2 अक्तूबर की सुबह उनके घर से उठाया. उनके बड़े भाई मोहम्मद कासिम कहते हैं कि उन्हें बेल्ट से पीटा गया और पुलिस ने उनसे कहा, ‘तुम बहुत इस्लाम जिंदाबाद बोलते हो न?’
फ़रकुन सिद्दीक़ी की गिरफ्तारी के बाद उनकी 12 वर्षीय बेटी को अपने स्कूल में तरह-तरह के लांछनों का सामना करना पड़ा. उनके अध्यापक ने उसे ‘अपराधी की बेटी’ कहा जबकि सहपाठी उससे नियमित रूप से यह कहने लगे कि ‘मुसलमान आतंकवादी होते हैं.’
रोजाना के तानों से तंग आकर उसने साल के बीच में ही स्कूल जाना बंद कर दिया. पिछले महीने उसने दूसरे स्कूल में दाखिला लिया है और फिर से अपनी पिछली कक्षा की पढ़ाई कर रही है.
फ़रकुन की पत्नी सोफ़िया कहती हैं, ‘वह कई सालों से नगर निगम में ठेकेदारी का काम करते थे. एक आम करदाता अचानक राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन गया है और पिछले 10 महीने से सलाखों के पीछे है. आप ही बताएं कि यह धार्मिक भेदभाव नहीं तो और क्या है?’
वे यह भी यह भी बताती हैं कि कि जल्द ही उनकी सारी जमापूंजी ख़त्म हो जाएगी.
मंसूर टेंट हाउस उस इलाके की दलित बस्ती की तरफ स्थित अकेली ऐसी दुकान थी, जिसका मालिक मुसलमान था. इसके मालिक का नाम सलीम था, जिसे पप्पू के नाम से भी जाना जाता है. उनका घर उसकी दुकान से लगा हुआ था.
उनकी बीवी रुकी बेगम कहती हैं, ‘हम यहां सालों से रह रहे थे और पहले हमारे धर्म के आधार पर हमें कभी कोई खतरा नहीं था.’
उस दिन जब हिंसा भड़की तब पहले उनकी दुकान और फिर उनके मकान को आग के हवाले कर दिया गया. उनका कहना है कि दुर्गा मूर्ति के जुलूस में बहुत से लोग थे जिन्हें मैंने पहले कभी नहीं देखा था. यही वे लोग थे जिन्होंने पहले दुकान में तोड़-फोड़ शुरू की और उसके बाद दुकान और मकान को आग लगा दी.
उनके दो छोटे-छोटे बच्चे मुश्किलों के उन तीन घंटों के दौरान बेहोश पड़े थे, बाद में उन्हें उनके रिश्तेदारों ने वहां से निकाला. उनका 12 वर्षीय बेटा बबलू कहता है, ‘उनमें पड़ोस के भी दो-तीन लोग थे. मुझे पुलिस के पास ले चलिए, मैं उन सबको पहचान लूंगा.’
हैरत की बात तो यह है कि पुलिस ने मोहम्मद सलीम को गिरफ्तार कर लिया, बावजूद इसके कि उनकी दुकान और घर को आग के हवाले कर दिया गया था और वह और उनका परिवार सड़क पर आ गया था.
इस घटना के दो दिन बाद ही सलीम की दुकान के बगल में मां दुर्गा टेंट हाउस का उद्घाटन हुआ और सामने वाली दाहिनी पटरी पर एक मंदिर बना दिया गया. सलीम की गिरफ्तारी के बाद से आमदनी का कोई ज़रिया न होने के कारण उनका परिवार अलग-अलग रिश्तेदारों के यहां रहने को मजबूर है.
हालांकि भाजपा ने पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव आसानी से जीते था लेकिन उत्तर प्रदेश भर के स्थानीय निकायों में पार्टी का प्रतिनिधित्व एक दुखती रग बना आ रहा है. दिसंबर 2017 के स्थानीय निकाय चुनावों में भी उसे महज 29 प्रतिशत वोट मिले थे.
स्थानीय निकायों के चुनाव कानपुर सहित अनेक शहरों में मोहर्रम के महज दो महीने बाद हुए थे. हाक़िम परम पुरवा के जूही वार्ड से चुनाव लड़ने की योजना बना रहे थे. राम प्रकाश कहते हैं कि हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों के बीच हाक़िम की लोकप्रियता के मद्देनज़र यह कहा जा सकता है कि ‘अगर वह चुनाव लड़ते तो ज़रूर जीतते.’
मोहम्मद कासिम पूछते हैं, ‘यह पुलिस का पूर्वाग्रह नहीं तो और क्या है? हिंदू समाज पार्टी के किसी भी शख्स को गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया? एक ऐसे शख्स को निशाना क्यों बनाया गया जिसे हिंदू और मुसलमान, दोनों समुदायों का प्यार और सम्मान बराबर से मिलता था?’
सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने के लिए कुख्यात अखिल भारतीय हिंदू महासभा की शाखा हिंदू समाज पार्टी, घटना वाले दिन दुर्गा विसर्जन के जुलूस का हिस्सा थी.
सामाजिक संस्था रिहाई मंच के कार्यकर्ता राजीव यादव कहते हैं, ‘मंसूर टेंट हाउस में आग लगाकर उन्होंने साफ संदेश दिया- कि मुसलमानों और उनकी आजीविका को उखाड़ फेंको. दो दिन बाद उसी बाजार में मां दुर्गा टेंट हाउस खोलकर यह संदेश दिया गया कि आर्थिक रूप से बचे रहना केवल सांप्रदायिकता के जरिये ही संभव है.’
राजीव कहते हैं कि हिंदू समाज पार्टी के किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार न किया जाना पुलिसिया कार्रवाई के पूर्वाग्रह से ग्रसित होने का सबूत है. वे कहते हैं, ‘सोच यह है कि हिंदुओं के हाथ खुले हैं वे कुछ भी करके बच निकलेंगे जबकि मुसलमानों को सलाखों के पीछे बंद कर दिया जाएगा.’
कानपुर जिला अदालत के वकील शकील अहमद बुंदेला ने बताया कि रावतपुरा की हिंसा में पुलिस ने जिन लोगों को हिरासत में लिया था, उनमें से अधिकतर रामलला कमेटी के लोग थे.
वह कहते हैं, ‘दोनों घटनाएं एक दिन ही घटीं. दरअसल, रावतपुरा में पुलिस गंभीर रूप से घायल हुई थी. भला उस घटना में विहिप के लोगों पर रासुका क्यों नहीं लगाया गया और यहां इन्हीं लोगों पर क्यों लगाया गया? इस पक्षपात की गंभीर जांच की आवश्यकता है.’
ताज़िये की राजनीति कानपुर के लिए कोई नई बात नहीं है. हर साल शहर भर में प्रदर्शन होते हैं और तनाव रहता है. अब और तब के बीच अंतर बस यह है कि इस बार चुनाव जीतने के लिए इसका उपयोग न केवल हिंदू-मुसलमानों के बीच दरार डालने के लिए बल्कि स्थानीय लोगों को दलित बनाम मुसलमान के रूप में बांटने के लिए किया गया है.
ऐसे में इसमें कतई आश्चर्य नहीं है कि 1 अक्तूबर की इस घटना के दो महीने बाद दिसंबर 2017 के निकाय चुनाव में जूही वार्ड से पासी जाति के भाजपा उम्मीदवार राकेश कुमार पासवान जीत गए.
परम पुरवा के एक मंदिर के स्थानीय पुजारी राम बहादुर कहते हैं, ‘कानपुर में एक कहावत है ‘अमा मठाधीशी बंद करो.’ मठाधीश समस्याएं पैदा करता है, राजनीतिक लाभ के लिए लोगों को बांटता है. मेरा मानना है कि अब हमें इसे हर दिन दोहराने की जरूरत है.’
मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने से पहले योगी आदित्यनाथ मठाधीश- गोरखनाथ मठ के महंत थे.
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बहराइच: दलितों को मुसलमानों के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है
यहां के स्थानीय निवासी 70 वर्षीय बशीर कहते हैं, ‘क्या आपने ज़रीना बेगम का नाम सुना है? वह अवध के शाही दरबार की आखिरी गायिका थीं. वह बेगम अख़्तर की शागिर्द थीं और बैठक तर्ज की ठुमरी के लिए मशहूर थीं. अभी दो महीने पहले लखनऊ में वह घोर दरिद्रता की हालत में मरी हैं. वह नानपारा, बहराइच की शान थीं,’
अपने मोबाइल पर एक क्लिप चलाते हुए वह कहते हैं. एक बूढ़ी महिला हारमोनियम पर गा रही है, ‘नज़र लागी राजा तोरे बंगले पे’… वह बड़ी कशिश के साथ गा रही हैं. वह कहते हैं, ‘नानपारा को भी नज़र लग गई है, यह बुरी नज़र है.’
बहराइच भारत के 250 सबसे पिछड़े उन जिलों में से एक है, जहां निम्न सामाजिक-आर्थिक हैं और मूलभूत सुविधाओं से वंचित है. नानपारा इसी जिले का एक छोटा सा कस्बा है. घने जंगलों से घिरा यह क्षेत्र भारत-नेपाल सीमा से महज 16 किलोमीटर की दूरी पर है और सीमा के करीब होने के कारण इसका रणनीतिक आर्थिक महत्व है.
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के सत्ता में आने के करीब एक साल बाद, अगस्त 2015 में, 2011 की जनगणना के धर्म-आधारित आंकड़े जारी किए गए थे.
हिंदुत्ववादी समूहों ने उन आंकड़ों का उपयोग इस प्रोपगेंडा के लिए किया कि हिंदुओं की आबादी घट रही है और इस्लामिस्ट जिहाद के रूप में मुसलमान अपनी आबादी बढ़ाते जा रहे हैं. आरएसएस, विहिप और बजरंग दल जैसे संगठनों ने ‘घर वापसी’ जैसे अभियान शुरू किए.
योगी आदित्यनाथ ने भी दावा किया है कि सभी धर्मों में धर्मांतरण पर पाबंदी लगने तक ‘घर वापसी’ जारी रहेगी. ऐसा दावा करने वाली खबरें भी आई थीं कि नानपारा में मुसलमानों की आबादी में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है, जहां कस्बे की कुल आबादी के 70 फ़ीसदी मुसलमान हैं.
तभी से संघ के कार्यकर्ता नानपारा को ‘आबादी जिहाद परियोजना’ कहने लगे हैं, जैसा कि बहराइच मंडल के बजरंग दल प्रमुख मनीष गुप्ता ने इस संवाददाता को बताया.
बहराइच में दलितों की भी बड़ी आबादी है और लोकसभा की सीट भी अनुसूचित जाति के उम्मीदवार के लिए आरक्षित है. 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनावों से पहले सांप्रदायिक आधार पर वोटों के ध्रुवीकरण के लिए भाजपा और आरएसएस ने दलितों के प्रतीकों को हिंदू नायकों के रूप में पेश करना शुरू किया था.
संघ द्वारा वितरित एक बुकलेट की एक कहानी में आज के बहराइच के निकट ग्यारहवीं शताब्दी में हुई एक लड़ाई की ‘बादशाह और राजा’ शीर्षक एक कहानी शामिल थी. वह लड़ाई एक मुसलमान राजा ग़ाजी सैय्यद सालार मसूद और एक स्थानीय सरदार सुहेलदेव के बीच हुई थी जिनके बारे में माना जाता है कि वह पासी जाति के थे.
आज उत्तर प्रदेश में जाटवों के बाद पासी अनुसूचित जातियों में दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाली जाति है. उस बुकलेट के अनुसार मसूद ने दूसरी शताब्दी की शुरुआत में भारत पर हमला किया था और सुहेलदेव से सामना होने तक उसने आक्रामक अभियान चला रखा था.
लड़ाई से पहले मसूद ने अपनी सेना के आगे गायों का एक झुंड रखने का फ़ैसला किया ताकि अपने हिंदू विरोधी के हमले को नाकाम किया जा सके जो गाय को पवित्र मानते हैं, इस किताब की कहानी के अनुसार सुहेलदेव ने रात के अंधेरे का फायदा उठाकर गायों को आज़ाद करा लिया और उनकी रक्षा की.
बुकलेट में कहा गया है कि उसके बाद सुहेलदेव ने मसूद को मार डाला. हालांकि इस दावे को कुछ इतिहासकारों ने चुनौती दी है. हरबंस मुखिया ने द वायर को बताया, ‘इस बात के लिखित प्रमाण हैं कि वह मसूद को उत्तर प्रदेश में आगे बढ़ने से नहीं रोक सके थे.’
उस बुकलेट में सुहेलदेव की प्रशंसा की गई थी और पाठकों से बहराइच में हर साल मई महीने में मसूद की बरसी पर उसकी दरगाह पर लगने वाले उर्स का विरोध करने का आह्वान किया गया. ये कोशिशें दलितों और मुसलमानों के बीच अलगाव पैदा करने के लिए की गई थीं.
2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनावों में भाजपा ने यहां की 07 में से 06 सीटें जीती थीं. भाजपा की 33 वर्षीय उम्मीदवार सावित्रीबाई फुले जो खुद को ‘साध्वी’ कहती हैं, यहां की सांसद हैं.
बशीर पूछते हैं, ‘आपको क्या लगता है? जब संघ इस तरह के संगठित प्रयास कर रहा है तो नानपारा के लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, जो पहले से ही बेरोजगारी और भूख से जूझ रहे हैं?’
02 दिसंबर, 2017 की सुबह लगभग 300 लोग नानपारा के गुरगुट्टा गांव में बारावफ़ात का जुलूस निकाल रहे थे. मुसलमान पैगंबर मोहम्मद की वर्षगांठ के रूप में बारावफ़ात मनाते हैं.
सांस्कृतिक रूप से उत्तर प्रदेश में मुसलमान और हिंदू दोनों के इन जुलूसों में भाग लेने का इतिहास रहा है. योगी सरकार के सत्ता में आने के बाद से यह त्योहार राज्य की सरकारी छुट्टियों की सूची से निकाल दिया गया था.
प्रत्यक्षदर्शियों का ने बताया कि सुबह के 10-11 बजे का समय था और यह सच है कि जुलूस निर्धारित रास्ते से अलग रास्ते पर जा रहा था. जैसे ही वह गांव के चौराहे पर पहुंचा, दूसरी ओर से हिंदू समाज पार्टी और बजरंग दल के सदस्यों ने पथराव शुरू कर दिया. इसके बाद कुछ राउंड हवाई फायरिंग के बाद उपद्रव शुरू हुआ.
चश्मदीदों ने यह भी बताया कि दोनों और से धार्मिक नारेबाजी हुई. सड़क के किनारे की कुछ गुमटियों को नुकसान पहुंचा. सीमा सुरक्षा बल (एसएसबी) के साथ पुलिस आ गई और स्थिति पर काबू पा लिया गया. उस दिन और उसके अगले दिन तक कुल मिलाकर पूरे गांव से 38 लोग गिरफ्तार किए गए.
एक स्थानीय निवासी कन्हैया बताते हैं, ‘तनाव पर काबू पाने के नाम पर एसएसबी के लोग हमारे मुर्गे-मुर्गियां और बकरियां उठा ले गए. कुछ ने तो हमसे एसएसबी के लिए उनको पकाने को भी कहा.’
अंत में 9 स्थानीय लोगों को अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार (रोकथाम) अधिनियम की धाराओं के तहत गिरफ्तार किया गया.
बाद में सभी 9 लोगों की जमानत हो गई मगर उसके तुरंत बाद पांच लोगों को रासुका के तहत गिरफ्तार कर लिया गया. ये सभी मुसलमान थे. ईंट भट्ठा मजदूर मुन्ना, चूड़ी विक्रेता असलम, मदरसे में अध्यापक मक़सूद रज़ा, रिक्शा चालक नूर हसन और एक छात्र रासुका के तहत पिछले नौ महीने से जेल में हैं.
जिस दिन मैं अक़ीला बानो और उनकी बेटियों से मिलने गई उस दिन फूस के टूटे-फूटे छप्पर वाले एक कमरे के बाहर मिट्टी के चूल्हे पर हल्दी-नमक के पानी में छह आलू उबल रहे थे. यह उनका रात का खाना था.
उनके पति नूर हसन, जिनकी उम्र करीब 40-42 साल है, दिल्ली में रिक्शा चलाते हैं. वह हर दिन 200-300 रुपये कमा लेते थे और हर तीसरे महीने घर आया करते थे. 2 दिसंबर को पुलिस ने जिन्हें उठाया था, उनमें एक वह भी थे.
अक़ीला बताती हैं कि वो डॉक्टर के क्लिनिक से वापस लौट रहे थे. हमारे बीमार बच्चे को इलाज के लिए ले गए थे, पर उनको वापस लौट आना पड़ा क्योंकि बारावफ़ात के कारण हुए तनाव की वजह से क्लिनिक बंद था.
उनकी गिरफ्तारी के बाद से बिना पढ़ी-लिखी अक़ीला खेतिहर मजदूर के रूप में काम करती हैं और रोजाना करीब 120 रुपये कमा लेती हैं. अलग-अलग वकील नूर हसन को छुड़ाने में उसकी मदद के नाम पर उससे 35,000 रुपये झटक चुके हैं.
वे बताती हैं, ‘ये पैसै मैंने कई जगहों से उधार लिए हैं. मुझे पता नहीं कि मैं इन्हें कैसे चुकाऊंगी?’ वे बताती हैं कि सफर के लिए पैसे न होने की वजह से परिवार नूर हसन से नहीं मिल सका है, जो महीनों से बहराइच जेल में बंद है.
जुलूस वाले दिन असलम को अपनी चूड़ी की दुकान खोले अभी केवल एक घंटा ही हुआ था कि तनाव बढ़ गया. यह देखकर कि गुस्साई भीड़ ने किस तरह पास की गुमटी तहस-नहस कर दी है, वह अपनी दुकान की हिफ़ाज़त के लिए वहीं रुके रहे.
उसकी 30 वर्षीय पत्नी सम्मो बताती हैं, ‘उन्होंने चूड़ियों का नया स्टॉक खरीदा था. पुलिस ने उन्हें दुकान से ही उठाया.’ असलम ने दुकान भाड़े पर ली थी और महीने के 4000 रुपये तक कमा लेता था.
सम्मो अपने छह बच्चों का पेट भरने के लिए खेतिहर मजदूर के रूप में काम करती है. वह बताती हैं, ‘जेल में उन्हें जली हुई छोटी-छोटी सात रोटियां मिलती हैं. इन 9 महीनों में उन्होंने भरपेट खाना भी नहीं खाया.’
सम्मो ने भी असलम की रिहाई के लिए किसी वकील को 40,000 रुपये दिए हैं, हालांकि उसके खिलाफ रासुका के तहत लगे आरोपों की समीक्षा के बारे में अब तक क्या हुआ है, उन्हें इसकी कोई जानकारी नहीं है.
स्थानीय चाय विक्रेता राम निवास कहते हैं, ‘सारे पैसे वाले लोग बच निकले और गरीबों को रासुका के तहत गिरफ्तार कर लिया गया. पुलिस बस घूस वसूल रही है. जब तक लोग पैसे देते रहते हैं, यह चलता रहता है. फिर जिसने सबसे ज्यादा दिए, वे उसे छोड़ देते हैं.’
इसी तरह 32 वर्षीय मक़सूद रज़ा मदरसे के अध्यापक के रूप में 4000 रुपये महीना कमाते थे और उनको भी पुलिस उठा ले गई थी. उनकी दो साल की बेटी कई महीनों से बीमार है और परिवार के पास उसके इलाज के लिए पैसे नहीं हैं.
उसकी पत्नी सैफुन्निसा कहती हैं, ‘मुझे एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर में भटकना पड़ता है. मुझे अपने मां-बाप के घर जाना पड़ेगा क्योंकि अब गुजारे के लिए बिल्कुल पैसे नहीं बचे हैं.’
मोहम्मद मुन्ना जिनकी उम्र मक़सूद जितनी ही है, नेपाल की एक ईंट के भट्ठे पर कच्ची ईंटों की ढुलाई का काम करते थे और महीने के 5,000 रुपये कमाते थे.
उनके छोटे भाई अब्दुल ख़ालिद बताते हैं, ‘उनके बेटों ने पढ़ाई छोड़ दी है और परिवार चलाने के लिए दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करने लगे हैं.’
18 वर्षीय मोहम्मद अरशद कोझिकोड, केरल के एक मदरसे के छात्र हैं और घटना से एक रोज पहले ही छह महीने बाद अपने माता-पिता से मिलने घर पहुंचे थे.
उनकी मां शमा बताती हैं, ‘वह जुलूस में शामिल था लेकिन जैसे ही जुलूस उग्र हुआ वह घर आ गया. जो लोग लोगों को बांटने की कोशिश कर रहे हैं, उन्हें यह बात खतरनाक लगती है कि वह पढ़ रहा था.’
वह बताती हैं कि जेल में अरशद अवसाद में चले गए हैं. वह कहती हैं, ‘वह कहता है कि अगर मैं और यहां रहा हूं तो मैं पागल हो जाऊंगा या खुदकुशी कर लूंगा.’
गांव के स्थानीय लोगों का मानना है कि यह टकराव व्यापक चुनावी फ़ायदे के लिए पैदा किए जा रहे हैं.
मौलाना अकबर बताते हैं, ‘पिछले साल रमज़ान के दौरान किसी ने स्थानीय मस्जिद में सुअर बांध दिया. हमने समझदारी से काम लिया और तनाव नहीं बढ़ने दिया. हम चुप रहे और पुलिस में शिकायत की. हम यहां दंगा नहीं चाहते. लेकिन वे इस पर आमादा हैं.’
उनके पड़ोसी राम किशन बताते हैं, ‘हमारे गांव में मुसलमान दशहरा, रामलीला, दुर्गा पूजा और होली में भाग लेते थे और हिंदू बारावफ़ात में हिस्सा लेते थे और मुहर्रम में ताज़िए रखते थे. जबसे मुसलमानों की बढ़ती आबादी के बारे में संघी प्रोपगेंडा शुरू हुआ है, वे लोग हमारी दलित-मुसलमान एकता को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं.’
बहराइच में एक कहावत है कि करी मसाला की जड़ प्याज़ है. बशीर अहमद कहते हैं, ‘संघ वह प्याज है, जिसे सांप्रदायिक मसाले से निजात पाने और हमारे गांव में शांति और सद्भाव बनाए रखने के लिए यहां से उखाड़ फेंकना होगा.’
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बाराबंकी: मेलजोल की परंपरा को आपसी बंटवारे की चीज़ में बदलने की कोशिश
बाराबंकी जिले में स्थित सूफी संत हाजी वारिस अली शाह की सफेद दरगाह, देवा शरीफ, हर होली पर लाल, पीली, गुलाबी, सिंदूरी जैसे अनगिनत रंगों में रंग जाती है. वारिस अली शाह उन्नीसवीं शताब्दी के संत और सूफी संप्रदाय के वारसी धड़े के संस्थापक थे.
उनका मानना था कि सारे धर्म प्रेम और भाईचारे पर आधारित हैं. हिंदू, मुसलमान, ईसाई और सिख उनके अनुयायी थे और उन्हें अपने-अपने धर्मों में बने रहने की अनुमति थी. इस सहिष्णुता को पुख्ता करने के लिए उन्होंने हर साल इस दरगाह पर होली मनाने की परंपरा शुरू की जो एक सदी से चली आ रही है.
उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के सत्ता में आने के करीब एक महीने बाद, 27 अप्रैल, 2017 को उत्तर प्रदेश के काबीना मंत्री राजेंद्र प्रताप सिंह ने दावा किया कि समाजवादी पार्टी के नेतृत्व वाली पिछली सरकार ने मुस्लिम देवस्थान देवा शरीफ को बिजली प्रदान की, लेकिन उसी जिले के हिंदू मंदिर लोधेश्वर महादेव को बिजली नहीं मुहैया कराई.
दोनों देवस्थानों को उनकी धर्मनिरपेक्ष परंपराओं के बावजूद सांप्रदायिक पहचान दे दी गई.
लोधेश्वर महादेव मंदिर बाराबंकी जिले की रामनगर तहसील के महादेवा गांव में घाघरा नदी के किनारे देवा शरीफ से कोई घंटे भर की दूरी पर स्थित है. ऐसी मान्यता है कि पांडवों ने अज्ञातवास के समय यहां भगवान शिव के लिए यज्ञ किया था.
पांडव कूप के नाम से यहां एक कुआं है, जिसका जल पवित्र माना जाता है. यह मंदिर भी अपनी मिली-जुली संस्कृति के लिए जाना जाता है. सदियों से हिंदू-मुसलमान दोनों ही मंदिर के अहाते के बाहर चढ़ावे, अनुष्ठानों के लिए आवश्यक सामग्रियां, हाथ की बनी कलात्मक वस्तुएं, क्रॉकरी, बर्तन, खिलौने आदि की दुकानें चला रहे हैं.
वास्तव में, इस मंदिर पर हर साल दो मेले लगते हैं, एक मार्च-अप्रैल के महीने में शिवरात्रि पर और दूसरा अक्तूबर-नवंबर के महीने में मवेशियों का मेला होता है. ये मेले गांव की अर्थव्यवस्था में बड़ी भूमिका निभाते हैं.
हिंदू और मुसलमान समान उत्साह से इनमें भाग लेते हैं. पहले के समय में मंदिर के पीठासीन पुजारी सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे.
मंदिर का प्रबंधन मुख्य पुजारी नामजद करने के लिए एक अजीब तरीका अपनाता है. हर चौथे साल मंदिर ट्रस्ट सबसे ज्यादा बोली लगाने वाले को लोधेश्वर मंदिर के पीठासीन अधिकार का ठेका देता है.
समझा जाता है कि उत्तर भारत के ज्यादातर मंदिरों के प्रबंधन यही विधि अपनाते हैं. पिछले साल महंत आदित्यनाथ तिवारी, जो योगी आदित्यनाथ की वेश-भूषा में रहते हैं, को पांच लाख रुपये में यह ठेका दिया गया.
तब से वह गोरखनाथ मठ, जिसके मठाधीश योगी आदित्यनाथ रहे हैं, की तर्ज़ पर विभिन्न देवी-देवताओं के मंदिरों के एक संकुल का निर्माण करा रहे हैं. उन्होंने निर्माणाधीन मंदिर कॉम्प्लेक्स के ठीक बगल में ‘शिव ट्रेडर्स’ नाम से भवन निर्माण सामग्री का कारोबार भी शुरू कर दिया है.
26 नवंबर, 2017 को स्थानीय निकाय चुनाव में प्रचार के दौरान मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने देवा शरीफ को बिजली देने के मामले को चुनावी मुद्दा बनाते हुए सांप्रदायिक विभाजन को भी बढ़ावा दिया. उन्होंने कहा, ‘देवा को 24 घंटे बिजली, महादेवा को कुछ नहीं. हम इसे बदलेंगे.’
इसी चुनाव में महंत आदित्यनाथ तिवारी भी ग्राम प्रधान पद के उम्मीदवार थे. अपने चुनाव प्रचार में उन्होंने 200 वर्ष से मंदिर के बगल में स्थित मस्जिद से लाउडस्पीकर हटाने का अभियान शुरू किया.
विभाजनकारी भावनाओं को भड़काने के बावजूद दोनों इसका फायदा नहीं उठा पाए और ‘छोटा योगी’ एक मुस्लिम उम्मीदवार जान मोहम्मद से 122 वोटों से चुनाव हार गए.
चार महीने बाद, 14 मार्च, 2018 को दोपहर में, आदित्यनाथ द्वारा स्थापित हिंदू युवा वाहिनी के सदस्य शिव भगवान शुक्ला के नेतृत्व में पड़ोस के गांव सूरजपुर से निकाले गए एक मूर्ति जुलूस ने महादेवा गांव में प्रवेश किया.
जुलूस में ट्रैक्टरों और मोटरसाइकिलों पर सवार कम से कम सौ लोग शामिल थे. ये लोग लड्डू गोपाल की मूर्ति को लोधेश्वर मंदिर में आशीर्वाद दिलाने ले जा रहे थे.
प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, नशे में धुत युवकों ने जोर-जोर से नारेबाजी करते हुए हंगामा कर दिया. भीड़ भरी सड़क पर, ट्रैक्टर पर सवार कुछ लोगों ने अश्लील भाषा में कुछ कहते हुए मोटरसाइकिल पर अपने भाई शाह फहद के साथ जा रही तेरह वर्षीय लड़की के ऊपर गुलाल फेंक दिया.
जब शाह फहद ने इस यौन उत्पीड़न का विरोध किया तो कुछ और लोग भी उसके समर्थन में आ गए. दोनों पक्षों में गर्मा-गर्मी जल्दी ही हिंसक हो गई.
इस बीच, एक झूठी अफवाह फैलाई गई कि मुस्लिमों ने लड्डू गोपाल की मूर्ति को नीचे गिराकर फेंक दिया. इससे आस-पास के क्षेत्रों में तनाव फैल गया. मिनटों में इस घटना को सांप्रदायिक रंग दे दिया गया और स्थानीय पुलिस वहां पहुंच गई.
उसी दिन शाम को रामनगर थाने की पुलिस ने शिव भगवान शुक्ला की शिकायत पर एक प्राथमिकी दर्ज की जिसमें शुक्ला का दावा था कि लगभग 40 मुस्लिम लोगों की भीड़ ने मूर्ति ले जा रहे जुलूस पर हमला किया और ‘हिंदू’ लड़कियों और महिलाओं के गहने लूटने लगे और 12 लोगों को घायल कर दिया.
पुलिस ने शाह फहद की बहन के यौन उत्पीड़न का जिक्र तक नहीं किया, जिससे इस घटना की शुरुआत हुई थी. 12 मुस्लिमों के खिलाफ गंभीर आरोपों में और 40-45 अज्ञात लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई.
पुलिस की शिकायत में सभी गवाह हिंदू युवा वाहिनी की स्थानीय इकाई के सदस्य हैं. अगली सुबह 12 लोगों को गिरफ्तार कर बाराबंकी जेल भेज दिया गया.
मूर्ति जुलूस में शामिल किसी भी बाहरी व्यक्ति के खिलाफ़ न तो कोई प्राथमिकी दर्ज की गई और न ही किसी को गिरफ्तार किया गया.
5 दिन बाद सभी 12 लोगों को जमानत मिल गई. जैसे ही ये 12 लोग अदालत पहुंचे, इनमें से 4 रिज़वान, ज़ुबैर, अतीक और मुमताज को बताया गया कि उन्हें रासुका के तहत हिरासत में लिया जाएगा.
25 वर्षीय रिज़वान और 35 साल के मुमताज ‘बिसातिये’ का काम करते थे. यह एक आम शब्द है जो सड़क के हॉकरों के लिए उपयोग किया जाता है जो गांवों में नकली आभूषण, खिलौने, कपड़े और घरेलू सामान बेचते हैं.
दोनों लोधेश्वर मंदिर के बाहर अपनी दुकानें चलाते थे. गिरफ्तारी के समय, रिज़वान के पिता, जो साइकिल मरम्मत की दुकान चलाते थे, को लकवे का दौरा पड़ गया. उनका बड़ा भाई ताज, जो बचपन में ही पोलियो का शिकार हो गया था, अब दुकान चला रहा है.
उसकी मां शकीला कहती हैं, ‘गुज़ारे का कोई ज़रिया नहीं है, पूरा परिवार उस पर निर्भर था.’
रासुका के तहत रिज़वान की गिरफ्तारी को जायज ठहराते हुए पुलिस अधीक्षक को सौंपी गई रामनगर थाने की रिपोर्ट कहती है कि ‘यह निहायत दबंग, हिंसक एवं उत्तेजक प्रवृत्ति का व्यक्ति है.’
वहीं मुमताज के परिवार के पास उनके घर के छप्पर की मरम्मत कराने के लिए भी पैसे नहीं हैं. उनकी बीवी अलीमा कहती हैं, ‘मैं अपने एक साल के बच्चे को दूध की जगह गेहूं का आटा पानी में उबालकर पिला रही हूं. हमारे पास खाने या दूध खरीदने के पैसे नहीं हैं. जेल में अपने पति से मिलने जाने का खर्च भी नहीं उठा सकते.’
उनकी पांच से बारह साल के बीच की अन्य पांच बेटियां खाने के लिए पड़ोस के घरों में काम करती हैं.
ज़ुबैर (40) और अतीक (25) स्थानीय टेंट हाउसों में काम करते थे. जुबैर की बीवी सलमा दो वक्त की रोटी न जुटा पाने के कारण अपने मां-बाप के घर चली गई हैं.
उनके पिता हबीब अहमद कहते हैं, ‘उन्होंने अब जेल में उससे मिलने पर रोक लगा दी है. हाल ही उन्होंने मुझे बताया कि एक महीने में दो बार ही मिलने की इजाज़त है.’
अतीक उस लड़की के चाचा हैं, जिसका उस दिन उत्पीड़न हुआ था. उनके पिता बशीर बताते हैं, ‘पुलिस ने भी छोटा योगी की उस बात को नकार दिया है कि मुस्लिमों ने मूर्ति को छुआ या इधर-उधर फेंका था. दिक्कत यह है कि यह महंत हमारे इलाके का नहीं है. वह कुछ महीने पहले हरदोई से यहां आया और बस गया और अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के साथ सांप्रदायिक ज़हर ले आया. तब से वह हमारी धर्मनिरपेक्ष एकता, हमारी गंगा जमुनी तहज़ीब का अपमान कर रहा है. और यही काम हिंदू युवा वाहिनी की इकाइयां पूर्वी उत्तर प्रदेश में कर रही हैं.’
‘गंगा जमुनी’ शब्द का प्रयोग उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में ऐसी संस्कृति के लिए किया जाता है जो हिंदू-मुस्लिम तत्वों का सम्मिश्रण है.
बशीर आगे कहते हैं, ‘मैं इन लोगों से पूछना चाहता हूं कि क्या ये भूल गए हैं कि कैसे एक मुस्लिम दर्जी अयोध्या में वर्षों से रामलला की सेवा कर रहा है? क्या हमने सदियों से पांडव कूप आने वाले हजारों कांवड़ों की देखभाल करते हुए महादेवा की सेवा नहीं की?’
छोटा योगी ने अब सभी मुस्लिम दुकानदारों को मंदिर परिसर से बाहर निकालने का अभियान छेड़ रखा है. रिज़वान की मां शकीला का कहना है, ‘वे लोग रिज़वान और मुमताज का उदाहरण दे रहे हैं कि कैसे मुस्लिम लोग राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा हैं. यह इलाके के कामकाजी मुस्लिमों की आर्थिक स्थिति कमज़ोर करने का एक तरीका है.’
छोटा योगी समर्थित हिंदू युवा वाहिनी और हिंदू समाज पार्टी की इकाइयां भी मंदिर के बगल में स्थित राजा जहांगीराबाद द्वारा निर्मित 200 वर्ष पुरानी जामा मस्जिद को हटाने के लिए आवाज़ उठा रही हैं.
शकीला के अनुसार, ‘तर्क यह है कि मंदिर महाभारत काल से था और मस्जिद को महज 200 वर्ष पहले मंदिर को ढंकने के इरादे से बनाया गया.’ स्थानीय लोगों का मानना है कि चुनावी राजनीति गांव के ताने-बाने को नुकसान पहुंचा रही है.
शकीला कहती हैं, ‘सबसे पहले उन्होंने निकाय चुनावों में लोगों को आपस में बांटने की कोशिश की. वह काम नहीं आया और छोटा योगी हार गया. फिर उन्होंने मुस्लिमों को गिरफ्तार किया. अब 2019 के चुनाव की दौड़ में वे मस्जिद से छुटकारा पाना चाहते हैं. क्या पुलिस को यह दिखाई नहीं देता? या ऐसी उम्मीद करना कुछ ज्यादा ही है?’
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आज़मगढ़ – जब तकनीक और सोशल मीडिया का मेल सांप्रदायिक राजनीति से होता है
‘जहां आदमी, वहां आज़मी.’ उत्तर भारत में यह आम कथन है जो आज़मगढ़ से बड़े पैमाने पर हुए उस पलायन की ओर इशारा करता है, जिसकी शुरुआत लगभग सौ साल पहले हुई थी और जो अब भी जारी है.
आज़मगढ़-लखनऊ राजमार्ग पर आज़मगढ़ जिले का एक छोटा कस्बा सरायमीर तीन चीजों के लिए जाना जाता है – सज़ायाफ्ता गैंगस्टर अबू सलेम, समाजवादी पार्टी के राजनेता अबू आज़मी और लौंगलता मिठाई.
आम बोलचाल में इसे छोटा दुबई कहा जाता है क्योंकि अधिकतर घरों का कम से कम एक सदस्य किसी खाड़ी देश में काम करता है. ऐसा कहा जाता है कि सरायमीर के लोग द्वितीय विश्व युद्ध के समय से काम के लिए दूसरे देशों में जाते रहे हैं.
1930 के दशक में कई लोग व्यापारी और मजदूर के रूप में म्यांमार गए और बेहतर वित्तीय स्थिति के साथ वापस आए. आज़मगढ़ के अन्य इलाकों की तुलना में यहां जीवन की औसत गुणवत्ता बेहतर है लेकिन पलायन को रोकने के लिए यहां आज भी गुणवत्तायुक्त उच्च शिक्षा के कॉलेज, औद्योगिक इकाइयां या रोजगार के अन्य अवसर उपलब्ध नहीं हैं.
2011 की जनगणना के अनुसार सरायमीर में मुस्लिमों की आबादी 52% है. कस्बे के लोग मीडिया और राजनेताओं दोनों से सावधान रहते हैं.
स्थानीय बाशिंदे शाह आलम का कहना है, ’19 सितंबर, 2008 को दिल्ली में बाटला हाउस पुलिस एनकाउंटर हुए आज दस साल हो चुके हैं लेकिन मीडिया और राजनेता अभी तक इस जगह को आतंक की फैक्टरी कहते हैं.’
बाटला हाउस एनकाउंटर में दो छात्रों, आतिफ अमीन और मोहम्मद साजिद को मार दिया गया था और पुलिस ने उस मामले में जीशान को गिरफ्तार किया था. तीनों यहीं के रहने वाले थे.
बाटला हाउस एनकाउंटर पर काफी बहस हुई, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और वकीलों ने पुलिस की कहानी का कड़ा विरोध किया था. इस घटना की प्रामाणिकता अभी तक जटिल सवालों में उलझी हुई है.
यहां तक कि, 2016 में, पुलिस ने दावा किया कि मोहम्मद साजिद एनकाउंटर में मरा नहीं था बल्कि भाग गया था और बाद में आईएसआईएस में शामिल हो गया. पुलिस द्वारा इस मामले में कोई भी सबूत पेश नहीं कर पाने के कारण इस पर भी काफी बहस हुई.
पिछले एक साल में, यूपी पुलिस और आतंकवाद निरोधी दस्ते (एटीएस) ने सरकारी ‘डिरैडिकलाइजे़शन’ (कट्टरता ख़त्म करने) की परियोजना के तहत आज़मगढ़, कानपुर और यूपी के कई हिस्सों से कई मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार किया. तब से, आज़मगढ़ और सराय मीर उनसे जुड़े कलंक का सामना कर रहे हैं.
फरवरी, 2017 में उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के सत्ता में आने के एक महीने के भीतर राज्य के विभिन्न हिस्सों से पांच लोगों को मुख्यमंत्री के खिलाफ सोशल मीडिया पर अपमानजनक टिप्पणियां करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया.
इसके एक साल के बाद 24 अप्रैल, 2017 को सरायमीर के 20 वर्षीय अमित साहू ने फेसबुक पर मोहम्मद साहब और इस्लाम के बारे में कथित तौर पर अपमानजनक पोस्ट डाली. अमित अखिल भारतीय हिंदू महासभा के सदस्य हैं. इससे पहले वह बजरंग दल में भी शामिल थे.
अखिल भारतीय हिंदू महासभा उत्तर प्रदेश में खासतौर पर 2014 से सक्रिय है. यह कई इलाकों में हिंदू समाज पार्टी सहित अलग-अलग नामों से भी काम करती है.
इसके अध्यक्ष कमलेश तिवारी ने 2 दिसंबर, 2015 को मोहम्मद साहब के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी की थी. देश भर में विरोध प्रदर्शनों के बाद उसे फरवरी 2016 में गिरफ्तार करके रासुका लगाया गया.
06 महीने बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उसे बरी कर दिया. तब से भड़काऊ टिप्पणियां करने और अयोध्या में विवादित राम मंदिर स्थल पर कारसेवा के लिए उकसाने के आरोप में वह कई बार गिरफ्तार और रिहा हो चुका है.
स्थानीय नागरिकों के प्रदर्शनों के बाद 27 अप्रैल 2017 को मोहम्मद साहब और इस्लाम के बारे में कथित तौर पर अपमानजनक पोस्ट लिखने के बाद साहू के खिलाफ सरायमीर थाने में एक शिकायत दर्ज की गई थी.
पुलिस ने आईटी कानून की धारा 295A और 66A के तहत प्राथमिकी दर्ज की और उसे जेल भेज दिया. (दिलचस्प यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में आईटी अधिनियम की धारा 66A को असंवैधानिक बताते हुए खत्म कर दिया था.)
पुलिस कार्रवाई से असंतुष्ट करीब 300 लोग अगले दिन 28 अप्रैल को पुलिस थाने के बाहर विरोध दर्ज करवाने के लिए एकत्र हुए और साहू पर रासुका लगाने की मांग की. हिंदू समाज पार्टी के सदस्य भी प्रदर्शन स्थल पर पहुंच गए और प्रदर्शनकारियों के खिलाफ नारेबाजी शुरू कर दी.
सर्कल ऑफिसर रवि शंकर प्रसाद, एसडीएम वागीश कुमार शुक्ला और पुलिस ने प्रदर्शनकारियों से पीछे हटने को कहा. परिणामस्वरूप, वहां पथराव शुरू हो गया. पुलिस ने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए लाठीचार्ज हुआ और आंसू गैस के गोले छोड़े.
हिंसा में पुलिस का एक वाहन भी नष्ट हो गया. पुलिस ने 34 लोगों को हिंसा का आरोपी बनाते हुए 18 लोगों को गिरफ्तार कर लिया. इनमें से कोई भी हिंदू समाज पार्टी का नहीं था.
8 मई को, जब सत्र न्यायालय ने गिरफ्तार लोगों को जमानत दी, उसके बाद उनमें से तीन लोगों पर रासुका लगा दिया गया. ये तीन लोग आसिफ, राक़िब और शारिब थे.
राक़िब के घर के निकट रहने वाले सभी किशारों और नौजवानों ने फंकी हेयरस्टाइल करा रखी है. अलग-अलग रंगों से बालों को रंगाये इन लड़कों को इन हेयरस्टाइल का नाम नहीं पता लेकिन राक़िब की वज़ह से वे अब जानते हैं कि उन्हें कैसा हेयरस्टाइल चाहिए.
राक़िब के पिता का पंद्रह साल पहले गुजर गए थे. उन्हें और उनके पांच भाइयों को उनकी मां सलमा बानो ने कई तरह के छोटे-मोटे काम करते हुए पाला. पिछले कुछ वर्षों में, राक़िब स्थानीय तौर पर एक कुशल हज्जाम और हेयर स्टाइलिस्ट बन गया.
पहले उन्होंने किराए की छोटी-सी दुकान में अपना सैलून खोला और दो साल के भीतर पैसे बचाकर लकड़ी की गुमटी खरीदकर सैलून वहां ले आए. उनके भतीजे दानिश बताते हैं, ‘उन्होंने सब खुद सीखा था. फिल्में देखते हुए वह अलग-अलग अभिनेताओं की हेयरस्टाइल को गौर से देखता और फिर पड़ोसियों, चचेरे भाइयों, भतीजों, जो पकड़ में आ जाता, उस पर अभ्यास करता था.’
घटना वाले दिन वह भी दुकान पर ही था. उनकी मां सलमा बानो बताती हैं, ‘जब हिंसा भड़की तो उसने अपनी गुमटी बंद की और यह सोचकर खाना खाने घर चला आया कि कुछ घंटों में सब शांत हो जाएगा.’
पुलिस ने उन्हें घर से उठाया था. अब सलमा पुलिस थाने से लेकर वकीलों तक भागदौड़ कर रही हैं और अपनी जमीन के एकमात्र टुकड़े को गिरवी रखकर करीब दो लाख रुपये खर्च कर चुकी हैं.
वे कहती हैं, ‘हमें नहीं पता कि आगे गुजारा कैसे होगा. मैंने उसकी बीवी को भी वापस मायके भेज दिया है क्योंकि यहां दो वक्त की रोटी का भी ठिकाना नहीं है.’
23 का आसिफ़ पेशे से दर्ज़ी हैं, जो पहले मलेशिया में काम करते थे और 2 साल पहले उन्होंने सरायमीर में अपनी दुकान खोली है. उनकी दुकान में पत्र-पत्रिकाओं से काटी गई कपड़ों की डिजाइनों की तस्वीरें सजी हुई हैं.
ईद के ठीक पहले अप्रैल के महीने में उनके पास बहुत काम था. उसे ईद के लिए महिलाओं के कपड़े सिलने के ढेर सारे ऑर्डर मिले थे. 28 अप्रैल को शाम 6:30 बजे पुलिस ने न सिर्फ उसे गिरफ्तार कर लिया बल्कि उसकी दुकान से सारे सिले हुए और बिना सिले कपड़े भी जब्त कर लिये.
उसके पिता इफ़्तेख़ार अहमद कहते हैं, ‘उन्होंने आज तक सामान वापस नहीं किया है. पुलिस में उसका नया मोबाइल फोन भी नहीं लौटाया, उसने सालों पैसे बचाकर 12,000 रुपये में खरीदा था.’
गिरफ्तारी के वक़्त आसिफ़ का बेटा सिर्फ 3 महीने का था. इफ़्तेख़ार कहते हैं, ‘मुझे समझ नहीं आता कि अगर वह पत्थर फेंकने वालों में शामिल था तो गिरफ्तारी के समय अपनी दुकान में बैठकर सिलाई-कटाई क्यों कर रहा था? वह पुलिस के लिए आसान निशाना था. उन्होंने हिंदू समाज के सदस्यों को क्यों नहीं गिरफ्तार किया जो फरार हैं? ये तो वही बता सकते हैं कि उन्होंने पूर्वाग्रह के कारण ऐसा किया या उन पर कोई राजनीतिक दबाव था.’
24 साल के किसान शारिब की शादी उसकी गिरफ्तारी से सिर्फ 20 दिन पहले हुई थी. शारिब के पिता शाहिद कहते हैं, ‘जो बच्चे अभी अपनी जिंदगी शुरू ही कर रहे हैं उनको चुन-चुनकर रासुका में बंद करके पुलिस और प्रशासन यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि मुसलमान नौजवान हमेशा दोयम दर्जे के नागरिक ही बने रहेंगे. अमित साहू कैसे जमानत पर बाहर है और ये लड़के नहीं?’
वह कहते हैं कि हिंदू समाज पार्टी के सदस्य ऐसी अफवाहें फैला रहे हैं कि सरायमीर के मुसलमान ‘आतंकवादियों का समर्थन करने वाले कश्मीरी पत्थरबाजों’ की राह पर चल रहे हैं.
कई लोगों का मानना है कि यहां हुई हिंसा और हिंदू समाज पार्टी को खुला हाथ देना 2019 में होने वाले आम चुनाव की तैयारी से जुड़ा है.
स्थानीय कार्यकर्ता तारिक आलम कहते हैं, ‘इसके पीछे सोच यह है कि अगर आप आज़मगढ़ में दंगा भड़का दें तो पूरे पूर्वांचल में गड़बड़ मच जाएगी. और मीडिया के जरिये पहले ही बदनाम किया जा चुके सरायमीर में आसानी से इसकी शुरुआत की जा सकती है.’
किसके लिए राष्ट्रीय सुरक्षा?
1980 में जब इंदिरा गांधी रासुका लेकर आई थीं तो उन्होंने सांसदों को आश्वस्त किया था कि इस कानून का इस्तेमाल सिर्फ कालाबाज़ारियों और तस्करों के खिलाफ किया जाएगा. लेकिन इसके तहत होने वाली पहली कुछ गिरफ्तारियां ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं की थीं.
लोगों को न सिर्फ उनके कामों के लिए बल्कि सरकार की आलोचना करने के लिए भी गिरफ्तार कर लिया गया था. यहां तक सार्वजनिक सभा में भाग लेने, सरकार के साथ असहयोग का आह्वान करने, बकाया वेतन के भुगतान की मांग करने, जैसा दल्ली राजहरा कांड में हुआ था या फिर असम सरकार द्वारा 5 दिन का वेतन काटने जाने का विरोध करने पर, ऐसी बातों पर भी लोगों को रासुका में बंद कर दिया गया था.
रासुका पर गहन शोध करने वाले साउथ एशियन ह्यूमन राइट्स डॉक्यूमेंटेशन सेंटर के रवि नायर कहते हैं, ‘निरोधक गिरफ्तारी एक ख़राब कानून है. भारत उन कुछ देशों में है, जहां ऐसे कानूनों का इस्तेमाल होता है. ज्यादातर तानाशाही वाले मुल्कों में ही ऐसा होता है. यहां तक कि अर्द्ध-लोकतंत्र वाले देशों में भी सालों के अंतराल पर संसद में निरोधक गिरफ्तारी वाले कानूनों की समीक्षा करते हैं. पर भारत में ऐसा नहीं होता.’
सेंटर द्वारा बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं की आंतरिक समीक्षा दिखाती है कि जब पुलिस संवैधानिक और वैधानिक कानून की धाराओं के तहत ढंग का आपराधिक मुकदमा तैयार नहीं कर पाती या करना नहीं चाहती तो रासुका का सहारा लेती है.
समीक्षा में पता चला कि निरोधक गिरफ्तारी का इस्तेमाल करने का एक नियमित ढर्रा है. उदाहरण के लिए, बार-बार जुर्म करने वालों और संगठित अपराध की वर्तमान गतिविधियों को रोकने के लिए; जब गवाह बयान देने के लिए राज़ी न हो तो मुकदमे से बचने के लिए और जमानत पर रिहाई को रोकने के लिए ऐसा किया जाता है.
वास्तव में, ऐसा लगता है कि पुलिस उन मुश्किल फौजदारी मुकदमों में निरोधक गिरफ्तारी का नियमित इस्तेमाल करती है जिनमें उसकी अकुशलता या लापरवाही से उसे कठिनाइयों का सामना करने की संभावना लगती है.
नायर कहते हैं, ‘रासुका जैसे ‘सभी को पकड़ लेने वाले’ ज्यादातर कानून किसी निर्धारित प्रक्रिया का पालन नहीं करते. कानून पास करने के समय से आज तक जिस एकमात्र अनुच्छेद को संसद से मंज़ूरी नहीं मिली है वह यह है कि रासुका मामलों की समीक्षा करने वाले एडवाइज़री बोर्ड में न्यायिक अधिकारी होने चाहिए. इस समय एडवाइजरी बोर्ड में केवल राजस्व अधिकारी होते हैं जिन्हें न्यायपालिका या कानून का कोई प्रशिक्षण नहीं मिला होता है.’
फौजदारी कानून की सामान्य प्रक्रिया में किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति को कानूनी सलाह के अधिकार, यथाशीघ्र आरोपों की जानकारी दिए जाने के अधिकार, 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किए जाने के अधिकार, किसी गवाह से जिरह करने और पेश किए गए किसी साक्ष्य पर सवाल उठाने के अधिकार और अदालत में तर्कसंगत संदेह से परे दोषी सिद्ध किए जाने तक निर्दोष माने जाने की गारंटी होती है.
लेकिन रासुका के तहत निरोधक गिरफ्तारी के मामलों में इनमें से कोई भी अधिकार लागू नहीं होता. यह व्यक्तियों को गैर-न्यायिक ढंग से क़ैद में रखने की इजाज़त देता है – सरकार को बस इस बात से संतुष्ट होना चाहिए कि कोई व्यक्ति विदेशी संबंधों, राष्ट्रीय सुरक्षा, भारत की हिफाज़त, राजकीय सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था या आवश्यक आपूर्ति और सेवाओं को बनाए रखने के लिए खतरा है.
सरकार और पुलिस के लिए यह काफी सुविधाजनक है क्योंकि इससे आपराधिक प्रक्रिया संहिता और अदालतों को दरकिनार किया जा सकता है.
चूंकि रासुका आरोपियों के लिए वकील की इजाज़त नहीं देता, इसलिए उनके मुक़दमों की ठीक से पैरवी एक बड़ी बाधा बन जाती है. शकील अहमद कहते हैं, ‘उन आरोपियों का क्या होता है जो पढ़े-लिखे नहीं हैं? वे अपने मामलों को ज़रूरी तकनीकी और कानूनी साक्ष्य के साथ एडवाइज़री बोर्ड के सामने कैसे पेश करेंगे?’
पिछला रिकॉर्ड दिखाता है कि एडवाइज़री बोर्ड राज्य के विरुद्ध कार्रवाई करने और गिरफ्तारी के आदेशों को खारिज करने में हिचकिचाते हैं, मुख्यतया इस आधार पर कि कार्यपालिका ही कानून-व्यवस्था को ख़तरे का आकलन करने के लिए सबसे अच्छी स्थिति में होती है.
जहां तक हमें जानकारी मिली, उत्तर प्रदेश में एडवाइज़री बोर्ड ने अपनी ओर से अब तक किसी को भी रिहा नहीं किया है. नायर कहते हैं कि उनके शोध के मुताबिक, रासुका में गिरफ़्तार किए जाने वाले ज्यादातर लोग गरीब हैं.
वे बताते हैं, ‘बिहार, तेलंगाना और उड़ीसा में रासुका के ऐसे कई मामले सामने आए हैं जिनमें ज्यादातर आदिवासियों और कमज़ोर लोगों के खिलाफ इसका प्रयोग किया गया है. ऐसे लोग संसाधनों के अभाव में एडवाइज़री बोर्ड तक पहुंच ही नहीं पाते और राज्य की ओर से कानूनी सहायता भी नहीं मिलती, जैसा कि उत्तर प्रदेश में है.’
रिहाई मंच के राजीव यादव का मानना है कि उत्तर प्रदेश में हाल में रासुका के तहत जो गिरफ्तारियां हुई हैं और रिहाई के मानदंड जितने अपारदर्शी हैं, उनमें पक्षपात नज़र आता है.
वे कहते हैं, ‘मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के आरोपी भाजपा के विधायक संगीत सोम और सुरेश राणा रासुका में गिरफ्तारी के कुछ ही महीनों के भीतर कैसे रिहा कर दिए गए? और तमाम कामकाजी मुसलमान जिनका कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है, अब तक बंद हैं, ऐसा क्यों?’
सुप्रीम कोर्ट की वकील इंदिरा जयसिंह की राय है कि राष्ट्रीय सुरक्षा कानून का ढांचा ही ऐसा है जिसमें दुरुपयोग की पूरी संभावना है.
उनका कहना है, ‘इस कानून के तहत, आरोपियों के विरुद्ध कोई आपराधिक मामला न होने के बावजूद उन्हें आरोप की जानकारी दिए बिना बंद रखा जा सकता है. यह सीधे-सीधे जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है. इस तरह के कानून का इस्तेमाल कानून के तौर पर नहीं बल्कि एक राजनीतिक हथियार बतौर किए जाने की पूरी आशंका रहती है.’
पूर्वी उत्तर प्रदेश में जिन मामलों की चर्चा ऊपर की गई है, उनमें पुलिस द्वारा कानून के दुरुपयोग और ज़िम्मेदारी से बचने की बात इस तथ्य से साफ़ ज़ाहिर है कि पुलिस हिंदू समाज पार्टी, हिंदू युवा वाहिनी और स्थानीय लोगों की ओर से किए गए एफआईआर के आधार पर रासुका लगाती रही है.
नियमों के अनुसार, पुलिस के लिए अपना ब्यौरा देते हुए अलग एफआईआर दायर करना ज़रूरी है लेकिन ऊपर की चारों घटनाओं में ऐसा नहीं किया गया है. राजीव यादव कहते हैं कि ‘हिंदू राष्ट्रवादियों को बचाने के लिए’ ऐसा किया गया है.
पुलिस का जवाब
उत्तर प्रदेश पुलिस के डीआईजी (कानून-व्यवस्था) प्रवीण कुमार इस आरोप से इनकार करते हैं. उनका कहना है, ‘हम हिंदू-मुस्लिम के बीच भेदभाव नहीं करते. सारी गिरफ्तारियां अलग-अलग हैं और ऐसे व्यक्तियों के विरुद्ध हैं जो इलाके में शांति और सौहार्द को नुकसान पहुंचा रहे हैं.’
पिछले एक वर्ष में उत्तर प्रदेश में रासुका के मामलों में अप्रत्याशित बढ़ोतरी के बारे में पूछे जाने पर वे कहते हैं, ‘वास्तव में अगर आप पिछले 10 वर्षों को देखें तो संख्या इतनी ज्यादा नहीं है. केवल 10 से 10 प्रतिशत बढ़ी है. उत्तर प्रदेश में अपराध की दर बहुत ज्यादा है, इसीलिए सांप्रदायिक झगड़ों के मामलों में या नकली मुद्रा के मामलों में हमने ज़िलाधिकारियों को रासुका लगाने का अधिकार दिया है.’
चूंकि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो रासुका में बंद होने वालों का डाटा प्रकाशित नहीं करता, इसलिए हर साल के वास्तविक आधिकारिक आंकड़ों का उपयोग कर पाना असंभव है.
जब प्रवीण कुमार से पूछा गया कि हिंदू समाज पार्टी और हिंदू युवा वाहिनी के शामिल होने के बावजूद सिर्फ कामकाजी मुसलमानों को ही क्यों गिरफ्तार किया गया है, तो उन्होंने कहा, ‘मेरे पास अलग-अलग जिलों और वारदात के ब्यौरे तो नहीं हैं लेकिन हम लोग किसी जाति या संप्रदाय के विरुद्ध काम नहीं कर रहे हैं.’
सुप्रीम कोर्ट की वकील रेबेका जॉन कहती हैं, ‘निरोधक गिरफ्तारी अब ‘राजनीतिक और सामाजिक गिरफ्तारी’ बन गई है और इसने राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान को ‘असुविधाजनक’ लगने वाले नागरिकों को बिना किसी मुकदमे के हिरासत में रखने के लिए सत्ता के मनमाने इस्तेमाल को संस्थागत रूप दे दिया है.’
ऊपर बताए गए 15 मामलों में सभी को सत्र न्यायालय से जमानत मिलते ही उन पर रासुका लगा दिया गया था. बिल्कुल यही ढर्रा चंद्रशेखर के मामले में और कासगंज मामले में भी दिखता है जहां तीन भाइयों को गिरफ्तार किया गया था.
राजीव कहते हैं, ‘यह गौरतलब है कि अदालत उन्हीं मामलों में उनको जमानत दे रही है जिन मामलों में पुलिस उन पर रासुका लगा रही है. अदालत उन्हें जमानत पर रिहा कर रही है ताकि आरोपी न्यायपालिका में अपनी लड़ाई लड़ सकें और उन पर निष्पक्ष ढंग से मुकदमा चल सके लेकिन पुलिस बिना किसी औचित्य के उन पर रासुका लगाकर उनके इस संवैधानिक अधिकार को छीन रही है.’
रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी एसआर दारापुरी का मानना है कि रासुका के तहत दर्ज मामले उत्तर प्रदेश में मुसलमानों और दलितों को प्रताड़ित करने की हिंदुत्व परियोजना का अंग हैं.
वे कहते हैं, ‘मुख्यमंत्री योगी ने उत्तर प्रदेश को एक पुलिस राज्य में तब्दील कर दिया है. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि उनके पास प्रशासन चलाने का अनुभव नहीं है. अपराध पर काबू पाने के योगी सरकार के दावे गलत साबित हुए हैं. भारत के इतिहास में पहली बार इस कानून का इतना ज्यादा दुरुपयोग किया जा रहा है. यह आतंक के जरिये शासन करने की भाजपा की नीति का हिस्सा है. वे दलितों और अल्पसंख्यकों को दबाकर रखने के लिए पुलिस की ताकत का इस्तेमाल कर रहे हैं. अगर बहराइच, बाराबंकी, आज़मगढ़ और कानपुर जैसी हिंसक झड़पों की घटनाएं होती हैं तो दोनों पक्षों के विरुद्ध पुलिस कार्रवाई होनी चाहिए लेकिन जानबूझकर ऐसा नहीं किया जाता.’
ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क के कार्यकारी निदेशक क्रान्ति एलसी यह तर्क रखते हैं कि ऐसे बहुत से मामले न्यायपालिका के सामने आने चाहिए. वे कहते हैं, ‘यह स्पष्ट है कि जांच निष्पक्ष नहीं है क्योंकि सभी गिरफ्तारियां हाशिए के समुदायों के लोगों की हैं. इस पर संवैधानिक ढंग से विचार किया जाना चाहिए. अदालतें निष्पक्षता की इस कमी को देख सकती हैं.’
सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि योगी सरकार यह साबित करने की कोशिश कर रही है कि बड़ी संख्या में मुसलमान राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा हैं.
राजीव यादव कहते हैं, ‘यह एक मनुवादी प्रवृत्ति है. आरएसएस और हिंदू राष्ट्रवादी पार्टियां मुसलमानों और दलितों को हिंदू राष्ट्र की परियोजना का हिस्सा नहीं मानतीं. 2019 के चुनाव से पहले चुन-चुनकर रासुका लगाया जा रहा है ताकि उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरे के तौर पर पेश करके सांप्रदायिक आधार पर स्थानीय वोट बैंक पक्का कर लिया जाए.’
(नेहा दीक्षित स्वतंत्र पत्रकार हैं.)
यह रिपोर्ट भारत में हाशिये के समुदायों से संबंधित विषयों पर फील्ड-आधारित इनवेस्टिगेटिव रिसर्च के लिए कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (सीएचआरआई) की फेलोशिप का हिस्सा है.
अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. सत्य नारायण, संजय श्रीवास्तव और बीपी सिंह द्वारा हिंदी में अनूदित.