विष्णु खरे: एक सांस्कृतिक योद्धा जो आख़िर तक वैचारिक युद्ध लड़ता रहा

विष्णु खरे ने न सिर्फ एक नई तरह की भाषा और संवेदना से समकालीन हिंदी कविता को नया मिज़ाज़ दिया बल्कि उसे बदला भी. एक बड़े कवि की पहचान इस बात से भी होती है कि वह पहले से चली आ रही कविता को कितना बदलता है. और इस लिहाज़ से खरे अपनी पीढ़ी और समय के एक बड़े उदाहरण हैं.

साहित्यकार विष्णु खरे. (जन्म: 9 फरवरी 1940 - अवसान: 19 सितंबर 2018) (फोटो साभार: हिंदी कविता/यूट्यूब)

विष्णु खरे ने न सिर्फ एक नई तरह की भाषा और संवेदना से समकालीन हिंदी कविता को नया मिज़ाज़ दिया बल्कि उसे बदला भी. एक बड़े कवि की पहचान इस बात से भी होती है कि वह पहले से चली आ रही कविता को कितना बदलता है. और इस लिहाज़ से खरे अपनी पीढ़ी और समय के एक बड़े उदाहरण हैं.

साहित्यकार विष्णु खरे. (जन्म: 9 फरवरी 1940 - अवसान: 19 सितंबर 2018) (फोटो साभार: हिंदी कविता/यूट्यूब)
साहित्यकार विष्णु खरे. (जन्म: 9 फरवरी 1940 – अवसान: 19 सितंबर 2018) (फोटो साभार: हिंदी कविता/यूट्यूब)

विष्णु खरे (9 फरवरी, 1940-19 सितंबर, 2018) एक बड़े कवि, उत्कृष्ट अनुवादक, हिंदी और विश्व-सिनेमा के गंभीर अध्येता, तीखे तेवर वाले साहित्य समीक्षक, संगीत रसिक और निर्भीक पत्रकार थे. हिंदी की दुनिया उनको इन सभी रूपों मे याद रखेगी.

मानवीय रिश्तों के प्रति गहरा लगाव रखने वाले खरे रिश्तों की परवाह किए बिना जरूरत पड़ने पर खरी-खरी कहने और लिखने में विश्वास करते थे. समकालीन हिंदी जगत में उनके जैसा कोई मूर्तिभंजक नहीं था. लेकिन वे साहित्य संसार के एक बड़े मूर्तिकार भी इस मायने में थे कि हिंदी कविता में युवा प्रतिभाओं को सामने लाने और उनको स्थापित करने के लिए रुचि दिखाने वाला उनके जैसा कोई नहीं है. वे कई मामलों में बेजोड़ थे.

बतौर कवि विष्णु खरे ने न सिर्फ एक नई तरह की भाषा और संवेदना से समकालीन हिंदी कविता को नया मिजाज दिया बल्कि उसे बदला भी. एक बड़े कवि की पहचान इस बात से भी होती है कि वह पहले से चली आ रही कविता को कितना बदलता है.

और इस लिहाज से खरे अपनी पीढ़ी और समय के एक बड़े उदाहरण हैं. ‘खुद अपनी आंख से’, ‘सबकी आवाज के पर्दे में’, ‘काल और अवधि के दरमियान’, ‘पिछला बाकी’, ‘आलैन और अन्य कविताएं’ जैसे काव्य संग्रहों में उनका जो काव्य- व्यक्तित्व उभरता है उसकी मुकम्मल पहचान तो आने वाले समय में होगी. फिलवक्त तो इतना ही कहा जा सकता है कि उनका काव्य संसार कई तरह की आवाजों से भरपूर हैं.

‘लालटेन जलाना’ खरे की एक अविस्मरणीय कविता है. खास अर्थ में प्रतिनिधि भी. इस कविता में कवि लालटेन जलाने की प्रक्रिया का उल्लेख करते हुए इस सिलसिले में बारीक से बारीक पहलू को उद्घाटित करता जाता है. सामान्य जीवन में लालटेन जलाना एक मामूली-सी चीज मानी जाती है.

पर खरे जिस ढंग से इस मामूली-सी चीज के पहलुओं को सामने लाते हैं उससे ये बात खुलती जाती है आम जीवन का हर पक्ष तरह-तरह की पेचीदगियों और सौंदर्य से भरा है. ये कविता लालटेन जलाने की नहीं रह जाती है बल्कि जीवन जीने के उलझावों और सुंदरताओं की कविता भी बन जाती है-

लालटेन जलाने की प्रक्रिया में लालटेन बुझाना
या कम करना भी शामिल है
जब तक विवशता ही न हो तब तक रोशनी बुझाना ठीक नहीं
लेकिन सोने से पहले बाती कम करनी पड़ती है
कुछ लोग उसे इतनी कम कर देते हैं
कि वह बुझ ही जाती है
या उसे एकदम हल्की नीली लौ तक ले जाते हैं
जिसका एक तरह का सौंदर्य निर्विवाद है
लेकिन लालटेन के हिलने से या हवा के हल्के से झोंके से भी
उसे बुझने का जोखिम है
लिहाजा अच्छे जलाने वाले
लालटेन को अपनी पहुंच के पास लेकिन वहां रखते हैं
जहां वह किसी से गिर या बुझ न जाए
और बाती को वहीं तक नीची करते हैं
जब तक उसकी लौ सुबह उगते सूरज की तरह
लाल और सुखद न दिखने लगे

विष्णु खरे का जन्म मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा में हुआ था. हालांकि वहां उनका पैतृक घर नहीं था पर ये छोटा-सा शहर उनकी काव्य-चेतना का अविभाज्य हिस्सा रहा. मुंबई और दिल्ली को छोड़ कर यहां यदा-कदा लौटते भी थे.

अपने जीवन के उत्तरार्ध में उन्होंने यहां किराए पर एक कमरा भी लिया था हालांकि एक साल पहले उसे अस्वस्थता की वजह से छोड़ भी दिया था. छिंदवाड़ा के जन जीवन को लेकर उनकी कुछ यादगार कविताएं भी हैं.

उनकी कविता मे कस्बाई जीवन के बहुतेरे चित्र हैं जो शायद छिंदवाड़ा से उनके नाभिनाल के रिश्ते के कारण ही हैं. यानी उनकी कविता में गहरी स्थानीयता है. पर वे सिर्फ स्थानीयता के कवि नहीं है. वैश्विकता के भी हैं.

इसका एक प्रमाण है उनकी कविता ‘आलैन’ जो उनके आखिरी संग्रह में शामिल है. ये कविता सीरियाई-कुर्द मूल के उस बच्चे पर है जो अपने माता-पिता के साथ सीरिया के निकलने के वक्त नौका दुर्घटना के कारण पानी में डूब कर मर गया था. ‘आलैन’ कविता विश्व स्तर पर निर्वासित-प्रवासी-शरणार्थी समस्या एक संवेदनात्मक आख्यान है.

विष्णु जी समकालीन राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर कविता लिखने के साथ इतिहास और मिथकों की दुनिया भी गए और उनपर कविताए लिखी. उनकी एक प्रसिद्ध कविता ‘लापता’, ‘महाभारत’ के उस प्रसंग पर आधारित है जिसमें कुरुक्षेत्र से लापता हुए सैनिकों पर कई प्रश्न हैं.

‘महाभारत’ से ही प्रसंग लेकर वे बताते हैं कि इस युद्ध में 24,165 योद्धा बच गए थे. कविता ये प्रश्न पूछती है कि वे भगोड़े या लापता कहां गए. और भी विमर्श इस कविता से उत्पन्न होते हैं.

खरे ने हिंदी सिनेमा और विश्व सिनेमा पर भी काफी लिखा है. हिंदी में भी और अंग्रजी में भी. हिंदी फिल्म संगीत के चलते-फिरते विश्वकोष थे. किस फिल्म के कौन से गाने की धुन किस संगीतकार ने बनाई ये सब उनकी उंगलियों पर था.

अनुवाद एक बड़ा क्षेत्र है जहां खरे का योगदान ऐतिहासिक है. उन्होंने न सिर्फ विदेशी साहित्य-जर्मन, डच, फिनिश आदि का हिंदी में बड़े पैमाने पर अनुवाद किया बल्कि आधुनिक हिंदी कविता के अनुवाद अंग्रेजी के साथ-साथ जर्मन में भी किए.

इस लिहाज से खरे एक सेतु थे भारत और पश्चिम के बीच. विदेशी भाषाओं से हिंदी में अनुवाद करने वालों में और भी कई लोग हैं लेकिन हिंदी से अंग्रेजी और जर्मन में अनुवाद करने वाले बहुत कम. इस दृष्टिकोण से देखें तो खरे ने भारत और यूरोप के बीच एक नई खिड़की खोली, जो अभी अखखुली ही है. इन दिनों वे ‘रजा फाउंडेशन’ के लिए मुक्तिबोध की कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद कर रहे थे. शायद वे जल्द ही सामने आएंगे.

विष्णु खरे हिंदी में इसलिए भी बहसों के बीच में रहते थे कि साहित्य और संस्कृति के बड़े कहे जाने वाले लोगों के असहमत होने पर खुल कर बोलते थे. वे एक सांस्कृतिक योद्धा थे और आखिर तक वैचारिक युद्ध भी लड़ते रहे.

(लेखक साहित्य-फिल्म-रंगमंच-कला के आलोचक और डॉक्यूमेंट्री फिल्मकार हैं)