विशेष साक्षात्कार: डेटा सुरक्षा बिल, सूचना के अधिकार और निजता के अधिकार से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर केंद्रीय सूचना आयुक्त प्रो. मदाभूषनम श्रीधर आचार्युलु से धीरज मिश्रा की बातचीत.
नई दिल्ली: केंद्रीय सूचना आयुक्त प्रो. मदाभूषनम श्रीधर आचार्युलु आरटीआई और पारदर्शिता के मुद्दे पर अपने बेबाक फैसलों के लिए जाने जाते हैं. हाल ही में अपने एक फैसले में उन्होंने राज्यसभा के अध्यक्ष और लोकसभा के स्पीकर से सिफारिश की है कि सांसद निधि के धन का उचित उपयोग करने के लिए पारदर्शी व्यवस्था बनाया जाए.
आचार्युलु उन कुछ चुनिंदा आयुक्तों में एक हैं जो पद पर रहते हुए भी आरटीआई से संबंधीत सरकार के फैसलों का खुला विरोध किया है. बीते जुलाई महीने में आचार्युलु ने आयोग के सभी सूचना आयुक्तों को पत्र लिख कर सरकार द्वारा प्रस्तावित आरटीआई संशोधन वापस लेने की मांग की थी.
आचार्युलु हैदराबाद के नालसर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रह चुके हैं और 22 नवंबर 2013 को केंद्रीय सूचना आयुक्त नियुक्त किए गए थे. 21 नवंबर को आचार्युलु रिटायर हो रहे हैं और उन्होंने हाल ही में जस्टिस बीएन श्रीकृष्णा कमेटी द्वारा सुझाए गए आरटीआई संशोधन पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की है. सूचना का अधिकार से जुड़े तमाम मुद्दों पर द वायर की श्रीधर आचार्युलु से बातचीत.
ऐसा क्यों मानते हैं कि जस्टिस बीएन श्रीकृष्णा कमेटी द्वारा तैयार किए गए डेटा सुरक्षा विधेयक से सूचना का अधिकार कानून को खतरा है?
जस्टिस बीएन श्रीकृष्णा कमेटी द्वारा तैयार किए गए मसौदे में एक प्रावधान है कि सूचना का अधिकार कानून की धारा 8 (1) (ज) में संशोधन किया जाएगा और उसमें निजता संबंधी कई सारी चीजों को जोड़ा जाएगा. इसका तात्पर्य है कि निजता का हवाला दे कर सरकार में बैठ लोग, आधिकारी और नौकरशाह जानकारी देने से मना कर देंगे.
डेटा सुरक्षा और निजता दोनों चीजें बहुत ही महत्वपूर्ण हैं. मैं इसका विरोध नहीं कर रहा हूं. देश के प्रत्येक नागरिक की निजता को मीडिया, सत्ताधारी लोग, कॉरपोरेट और निजी एजेंसियों से बचाया जाना चाहिए. मेरे विचार में टेलीफोन टैपिंग लोगों की निजता पर बेहद गंभीर हमला है. सत्ता में बैठे लोग आसानी से टैपिंग कर सकते हैं क्योंकि उनके पास इससे संबंधीत तकनीकि मौजूद है.
इसी बात को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पीयूसीएल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के फैसले में कई सारे निर्देश दिए हैं ताकि सत्ता या राज्य द्वारा लोगों के अधिकारों का हनन न किया जाए. यह फैसला भारतीय संविधान में निवारक रोकथाम की तरह है.
लेकिन समस्या ये है कि सरकार जनता से जरूरत से ज्यादा जानकारी मांग रही है. सरकार आधार के जरिए जनता से जुड़ी सारी जानकारी ले रही है लेकिन सरकार में बैठे अधिकारी और सरकारी कर्मचारी अपनी जानकारी नहीं देना चाह रहे हैं. ये एक विरोधाभास है. ये बिल्कुल गलत है.
सरकार जितना जनता के बारे में जानकारी इकट्ठा कर रही है, उसके मुकाबले जनता को सरकार और सरकारी कर्मचारियों के बारे में ज्यादा जानने का अधिकार है.
निजता के मामले में एक व्यापक अपवाद है और यह है सार्वजनिक हित या जनहित. जहां पर जनहित का मामला होगा वहां पर निजता की दलील नहीं दी जा सकती है.
जनहित में अपराध शामिल है, अपराध में राजनेताओं के भ्रष्टाचार शामिल हैं, अपराध में कॉर्पोरेट भ्रष्टाचार, अनियमितताएं, कुशासन, राजनीतिक दलों द्वारा किए गए लोकतांत्रिक गलतियों को शामिल किया गया है, ये सभी चीजें निजता के दायरे से बाहर हैं. कोई भी निजता का हवाला दे कर इन सब चीजों से बच नहीं सकता है.
इन सभी चीजों के बारे में बात करने के लिए हमें बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी होनी चाहिए. अपराध पर सवाल उठाने के लिए, गलत पर सवाल पूछने के लिए, अलोकतांत्रिक गतिविधि, आधिकारिक दुरूपयोग पर सवाल पूछने के लिए, हमें बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आवश्यकता है.
इसलिए संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (अ) के तहत हमें बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी दी गई है और अनुच्छेद 19 (2) के तहत कुछ उचित प्रतिबंध लगाया गया है. इन सभी के बीच में कही भी ये नहीं कहा गया है कि निजता के आधार पर बोलने और अभिव्यक्ति पर कोई प्रतिबंध लगाया जाएगा. अनुच्छेद 19 (2) में कहीं पर भी इसके बारे में ज़िक्र भी नहीं है.
ये सबसे मुख्य बात है जहां पर जस्टिस बीएन श्रीकृष्णा कमेटी ने बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया. ये बेहद चिंताजनक है कि इस कमेटी में बैठे कानूनी विशेषज्ञों ने इस बात को बिल्कुल नजरअंदाज कर दिया. किस आधार पर निजता के नाम पर बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाम लगाया जा सकता है?
मैं अपने सूचना के अधिकार कानून को लेकर चिंतित हूं. मैं अपने बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को लेकर चिंतित हूं. इस बात से बिल्कुल फर्क नहीं पड़ता है कि किसने रिपोर्ट लिखी है. मैं रिपोर्ट में लिखी बातों को लेकर चिंतित हूं.
यह कानून, तंत्र, पारदर्शिता और संवैधानिक अधिकारों का सवाल है. लोग इस पर समझौता नहीं कर सकते हैं. अगर इस मसौदे को स्वीकार किया जाता है तो सूचना का अधिकार कानून बहुत ही ज्यादा प्रभावित होगा. आम जनता को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा.
यह मसौदा नौकरशाहों को जानकारी छिपाने के लिए एकदम खुली छूट देता है. हर अधिकारी अपनी निजता का हवाला दे कर जानकारी देने से मना कर देगा.
इसका क्या समाधान देखते हैं?
सूचना के अधिकार अधिनियम की धारा 8 (1) (ज) में सुझाए गए संशोधन को पूरी तरह वापस लिया जाना चाहिए. इस संशोधन का प्रस्ताव आरटीआई के तहत काम करने वाले किसी भी शख्स से राय-सलाह लिए बिना ही दिया गया है.
कमेटी ने केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोग के किसी भी कमिश्नर से संपर्क नहीं किया और बिना व्यापक विचार-विमर्श के आरटीआई में संशोधन का प्रस्ताव दे दिया गया.
आयोग रोजना धारा 8 (1) (ज) से जूझ रहा है. हमें इसकी हकीकत पता है. जन सूचना अधिकारियों द्वारा धारा 8 (1) (ज) के तहत सूचना नहीं देने की वजह से देश के सभी आयोग सूचना प्रदान करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
इसकी भयानकता इस बात से समझी जा सकती है कि उदाहरण के लिए एक बार किसी ने आरटीआई लगाकर ये जानकारी मांगी की उसे दी गई स्कॉलरशिप की लिस्ट मुहैया कराया जाए. इस पर जनसूचना अधिकारी ने कहा कि ये निजी जानकारी है और धारा 8 (1) (ज) के तहत नहीं दी जा सकती है.
इसी तरह बॉम्बे के एक अधिकारी ने कहा कि वो मौसम विभाग की रिपोर्ट नहीं दे सकते हैं क्योंकि ये निजी जानकारी है. इसके पीछे का तर्क ये था कि चूंकि इस रिपोर्ट पर किसी के द्वारा हस्ताक्षर किया गया है इसलिए ये निजी जानकारी है. ये हाल है देश के जन सूचना अधिकारियों का.
अगर हम आरटीआई कानून में संशोधन करते हैं और श्रीकृष्णा कमेटी के सुझावों को स्वीकार करते हैं तो ये सूचना के अधिकार कानून को बर्बाद कर देगा. कमेटी ने नए-नए क्लॉज का सुझाव देकर बहुत ज्यादा अस्पष्टता पैदा कर दी है.
जैसे उन्होंने ‘नुकसान (हार्म)’ शब्द का प्रयोग किया है. मतलब अगर किसी सूचना से किसी को नुकसान होता है तो उसे मना किया जा सकता है. नुकसान का मतलब क्या है? शारीरिक नुकसान को परिभाषित किया जा सकता है लेकिन अगर सूचना जारी की जाती है, तो क्या यह शारीरिक नुकसान पैदा करेगी? यह किस प्रकार का सुझाव है?
अगर मानसिक नुकसान है तो मानसिक नुकसान कैसे परिभाषित किया जा सकता है? क्या सूचना देने वाला जन सूचना अधिकारी, जो एक सामान्य क्लर्क है, क्या वो मानसिक नुकसान का आंकलन कर सकता है कि किस जानकारी को देने से मानसिक नुकसान होगा और किससे नहीं.
हम ये कैसे साबित कर सकते हैं कि कोई सूचना देने की वजह से मानसिक नुकसान होगा. क्या कमेटी ने मानसिक नुकसान को परिभाषित किया? इससे होगा ये कि जन सूचना अधिकारी आसानी से ये कह देगा कि मैं ये जानकारी नहीं दे सकता क्योंकि इससे मानसिक नुकसान होगा. आम जनता को इसका भयानक खामियाजा भुगतना पड़ेगा.
कमेटी द्वारा प्रस्तावित ‘भुलाए जाने का अधिकार’ (Right to be forgotten) के बारे में क्या कहना है.
श्रीकृष्णा कमेटी द्वारा प्रस्तावित यह सबसे खतरनाक अधिकारों में से एक है. ये एक यूरोपियन विचार है. इसका मतलब है कि अगर किसी के साथ पूर्व में कोई अप्रिय घटना हुई थी और वो चाहता है कि उस चीज के बारे में उसे याद न दिलाया जाए, तो शख्स के पास उस घटना को भुलाए जाने का अधिकार है.
भारतीय परिदृश्य में जहां निजता गोपनीयता के रूप में इस्तेमाल की जाती है, जहां लोग आपराधिकता से दूर होने के लिए निजता का दुरूपयोग करते हैं.
जहां निजता का इस्तेमाल करके लोगों को बात करने से रोका जाता है, निजता के नाम पर मीडिया को इसके बारे में लिखने से रोका जाता है, ऐसी परिस्थितियों में यह पूरी तरह से बकवास है. इस बात को ऐसे समझा जा सकता है.
मान लीजिए की कोई पूर्व मुख्यमंत्री है और वो किसी अपराध में गिरफ्तार होता है और उसे कुछ साल की सजा होती है. सजा काटने के बाद वो जेल से बाहर से निकलता है और दोबारा से चुनाव मैदान में है.
अब अगर मीडिया उस शख्स के बारे में लिखता है तो पहले उसे डेटा प्रोटेक्शन अथॉरिटी के अभियोजन अधिकारी के पास आवेदन करना होगा और उससे इस पर इजाजत लेनी होगी. अभियोजन अधिकारी कोई जज नहीं, बल्कि वो एक बाबू होता है.
इसका तात्पर्य ये हुआ कि अगर ये मसौदा स्वीकार किया जाता है तो आने वाले समय में एक बाबू ये फैसला करेगा कि मीडिया क्या लिखेगा. क्योंकि संबंधित नेता ने अपनी पुरानी जानकारी को छपने पर आपत्ति दर्ज कराई है क्योंकि उसकी निजता का उलंघन हो रहा है. इसके कहते हैं प्री-सेंसरशिप.
संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (अ) के तहत ये अधिकार दिया गया है कि मीडिया को प्री-सेंसरशिप के बिना छापने का अधिकार है. भुलाने का अधिकार संवैधानिक अधिकार का पूरी तरह से उल्लंघन है.
सरकारी कर्मचारियों को दिया जाने वाला ये अधिकार आरटीआई के लिए भयानक खतरा है. अगर इसे स्वीकार किया जाता है तो इसमें ये संशोधन किया जाना चाहिए कि सरकारी कर्मचारियों और सरकार में बैठे लोगों पर यह लागू नहीं होगा.
एक फिल्म अभिनेता ये नहीं कह सकता है कि मीडिया उसकी उस फिल्म के बारे में न लिखे, जो उसने 20 साल पहले बनाई थी और जो सबसे खराब है. क्योंकि उसमें उसका प्रदर्शन सबसे खराब है और लोगों को इसकी याद नहीं दिलाया जाना चाहिए.
सार्वजनिक व्यक्ति ऐसा नहीं कह सकता है. यह प्रावधान बिल्कुल बकवास है.
इस मसौदे में दो तरीके का छूट दिया गया है. पहला राष्ट्रीय सुरक्षा और आपराधिक जांच पर डेटा सुरक्षा के नियम लागू नहीं होंगे. लेकिन हैरानी की बात ये है कि कमेटी ने इन दोनों को परिभाषित करने की जहमत नहीं उठाई और कहा कि भविष्य में इस पर कानून लाया जाना चाहिए.
ये कितनी बड़ी विडंबना है कि एक कमेटी इन दो चीजों से छूट देती है और इसको परिभाषित भी नहीं करती है. ये जिम्मेदारी किसी और पर डाल दिया कि पता नहीं कब भविष्य में इस पर कानून बनेगा.
निजता के अधिकार पर नौ जजों के फैसले को किस रूप में देखते हैं?
दार्शनिक विचारों और संवैधानिक अधिकारों के साथ यह एक शानदार फैसला है, लेकिन नौ न्यायाधीशों ने निजता के अधिकार परिभाषित ही नहीं किया है. आखिर निजता क्या है, इसे परिभाषा के बिना ही छोड़ दिया.
उन्होंने सोचा कि निजता को परिभाषित करने का अधिकार कोर्ट के पास नहीं है, इसे संसद द्वारा किया जाना चाहिए. ये बात और है कि फैसले में निजता को लेकर कई सारी चीजें सुझाई गईं हैं.
हालांकि जज ये सही बात कर रहे हैं लेकिन 545 सांसद एक साथ बैठकर इसे परिभाषित नहीं कर सकते हैं. इस विषय पर विशेषज्ञों की एक समिति होनी चाहिए, जो इसे परिभाषित कर सके.
जस्टिस श्रीकृष्णा कमेटी ये काम कर सकती थी. लेकिन ये बेहद चिंताजनक है कि उन्होंने ये काम नहीं किया और किसी अन्य पर इसे छोड़ दिया.
उन्होंने निजी व्यक्तिगत जानकारी को दो तरीके से परिभाषित किया है. एक संवेदनशील निजी डेटा और दूसरा निजी डेटा. मेरे विचार से कमेटी द्वारा परिभाषित किया गया संवेदनशील निजी डेटा बिल्कुल सही है. केवल यही निजता है.
राजगोपाल बनाम तमिलनाडु मामले में जस्टिस जीवन रेड्डी ने निजता का एकदम वाजिब परिभाषा दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने निजता के अधिकार वाले फैसले में इसका ज़िक्र भी किया है.
मेरे हिसाब से मेरी निजता मेरी निजी ज़िंदगी, मेरा परिवार, मेरे बच्चे, मेरी पत्नी, मेरे कानूनी उत्तराधिकारी, मेरी संतान, टेलीफोन टैपिंग, मेरे घर के आसपास कोई सीसीटीवी न हो, मुझे शांति से जीने का अधिकारी मिले जैसी चीजें हैं.
लेकिन जब मैं सरकारी नागरिक हो जाता हूं, नेता बनता हूं तो मेरी कोई निजता नहीं है. इस स्थिति में भी निजता का अधिकार है हमें, लेकिन केवल संवेदनशील व्यक्तिगत सूचना तक. सरकार को इसकी रक्षा करनी चाहिए.
मौजूदा केंद्र सरकार ने सूचना आयोगों के कमिश्नरों की सैलरी और उनका कार्यकाल नए तरीके से निर्धारित करने के लिए आरटीआई कानून में संशोधन प्रस्ताव लेकर आई है. इससे क्या प्रभाव पड़ेगा?
आधिकारिक और व्यक्तिगत रूप से पिछले साढ़े चार सालों में बतौर कमिश्नर काम करते हुए मैं ये कह सकता हूं कि सूचना आयुक्तों के कमिश्नरों की नियुक्ति, उनकी सैलरी और उनके कार्यकाल से संबंधी प्रावधान पर गंभीरता से बहस करने के बाद पास किया गया था.
आरटीआई पर ईएमएस नचिअप्पन की अध्यक्षता में बनी संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट को अगर कोई पढ़ता है तो ये आसानी से समझा जा सकता है कि सूचना आयोगों और सूचना आयुक्तों को क्यों पूरी तरह से स्वतंत्रता दी गई है.
कमेटी चाहती थी कि आयोग को आला दर्जे की स्वायत्तता मिले ताकि सत्ता से किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप न हो. स्वायत्तता और स्वतंत्रता का मतलब यह है कि अगर कोई कमिश्नर कोई आदेश देता है और अगर वो आदेश सत्ता में बैठे लोगों के लिए आपत्तिजनक है और वे इससे खुश नहीं होते हैं तो इसकी वजह से न तो कमिश्नर और न ही आयोग पर किसी तरह का प्रभाव पड़े. यह है वास्तविक स्वतंत्रता.
स्वतंत्रता का मतलब है कि किसी फैसले में किसी का भी हस्तक्षेप न हो. मुझे कोई आदेश देने के लिए किसी भी व्यक्ति की इजाजत न लेनी पड़े और अगर मैं कोई आदेश देता हूं तो उसमें कोई मेरे साथ हस्तक्षेप न करे. यह है असली वास्तविक स्वतंत्रता. इसको बचाया जाना चाहिए. प्रस्तावित संशोधन इसे खत्म कर देगा.
इस मामले में अगर देखें तो अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट जजों के पास बेहतरीन स्वतंत्रता हैं. वहां उनकी कोई रिटायरमेंट नहीं है और न ही कोई उन्हें हटा सकता है. केवल महाभियोग ही एकमात्र संभावना है.
भारत के उलट अमेरिका में जजों के ऊपर महाभियोग चलाया भी गया है. भारत में अमेरिका के जितना तो नहीं, लेकिन एक स्तर तक की स्वतंत्रता हमारे संविधान में दी गई है. हमारे यहां जज 65 साल में रिटायर होते हैं. अगर एक बार वो चुन लिए जाते हैं तो उन्हें हटाया नहीं जा सकता है. इस स्तर तक स्वतंत्रता यहां भी है.
लेकिन एक समस्या ये है कि कोर्ट में ताकतवर लोगों की एक लॉबी चलती है. अगर कोई जज रिटायर होने वाला है तो वे हर संभव कोशिश करेंगे कि उनका केस उस जज के पास न जाने पाए क्योंकि वो कड़ा फैसला दे सकता है. लेकिन ऐसी सुविधा लोगों को अमेरिका के कोर्ट में नहीं मिलती है.
सूचना आयोग को बनाते वक्त इन सभी पहलुओं पर गंभीरता से सोचा गया था. कानून में केंद्रीय सूचना आयोग का दर्जा चुनाव आयोग के बराबर दिया गया है और केंद्रीय सूचना आयोग का दर्जा सुप्रीम कोर्ट के बराबर है. इस तरह सूचना आयोग को सुप्रीम कोर्ट के बराबर स्वायत्तता और स्वतंत्रता दी गई है.
तो सरकार क्यों इसे डिस्टर्ब कर रही है? कौन-सा पहाड़ टूट रहा है? अचानक ऐसी कौन-सी असमान्यता आ गई कि सरकार संशोधन करने जा रही है. ऐसा कौन सा संकट इनके ऊपर आ गया है?
इन सब का सीधा-सा जवाब है- कुछ भी नहीं, शून्य. इसकी कोई वजह नहीं है, अगर ये संशोधन होता है तो सूचना आयोगों की स्वतंत्रता बहुत ज़्यादा प्रभावित होगी.
सरकार कह रही है कि वो सूचना आयुक्तों की सैलरी और उनके कार्यकाल को उस तरह निर्धारित करना चाहती है जैसा कि भारत सरकार द्वारा सुझाया जाएगा.
‘जैसा भारत सरकार द्वारा सुझाया जाएगा.’ इस लाइन को ध्यान से समझने की जरूरत है. इसका मतलब है कि जैसा सरकार सुझाएगी वैसी सैलरी और कार्यकाल होगा.
यानी कि आज एक सरकार आती है और कहती है कि कमिश्नर का कार्यकाल चार साल का होगा और कल कोई और आता है और वो कहता है कि नहीं… नहीं ये तो बहुत ज्यादा है, इनका कार्यकाल घटा कर दो साल करो.
इसका मतलब है कि इन्हें कानून से कोई लेना-देना नहीं है. जिस सरकार का जैसा मन करेगा वो अपने हिसाब से सूचना आयुक्तों के कार्यकाल और सैलरी को तय कर देंगे.
ये क्या कोई मनमानी है क्या कि कोई भी आएगा और अपने मनमुताबिक सैलरी और कार्यकाल तय करेगा! ये भी स्पष्ट नहीं है कि अगर सरकार ये कह रही है कि ये नियम सभी आयुक्तों पर समान रूप से लागू होगा या फिर किसी को दो साल, किसी को एक साल का कार्यकाल दिया जाएगा. एकदम खुली मनमानी चल रही है.
सूचना आयोग किसी भी तरीके से राजनीतिक नौकरशाही पर कभी भी निर्भर नहीं होना चाहिए. ये हमेशा के लिए निर्धारित किया जाना चाहिए.
सरकार का तर्क है कि सूचना आयोग संवैधानिक संस्था नहीं, ये एक कानूनी संस्था है इसलिए इसे चुनाव आयोग के बराबर का दर्जा नहीं दिया जा सकता है?
संवैधानिक संस्था किसे कहते हैं? अगर हम संविधान और कानून की भावना को देखें तो हमें संवैधानिक संस्था की असली परिभाषा मिलेगी.
लोगों को संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (अ) के तहत वोट देने का अधिकार है, तो चुनाव आयोग संवैधानिक संस्था हुई. इसी तरह सुप्रीम कोर्ट ने 2005 से पहले अपने कई सारे फैसलों में ये कहा है कि सूचना का अधिकार संवैधानिक अधिकार है और अनुच्छेद 19 (1) (अ) का हिस्सा है.
वहीं 2005 के बाद भी सुप्रीम कोर्ट ने अपने तीन फैसलों (थलाप्पलम कोऑपरेटिव बैंक बनाम केरल राज्य, नमित शर्मा बनाम भारत संघ और सीबीएसई बनाम आदित्य बंदोपाध्याय) में कहा कि आरटीआई संवैधानिक अधिकार है और अनुच्छेद 19 (1) (अ) का अभिन्न हिस्सा है. ये तीनों फैसले दोबारा से इस बात की पुष्टि करते हैं, आरटीआई संवैधानिक अधिकार है.
खास बात ये है कि जब सूचना का अधिकार कानून लाया जा रहा था तो केंद्र सरकार के सामने सवाल रखा गया कि आप राज्यों के लिए सूचना का अधिकार कैसे बनाएंगे/लागू करेंगे.
इस पर केंद्र सरकार ने बेहद रोचक जवाब दिया और इस पर हमें खास ध्यान देने की जरूरत है. सरकार ने कहा- हम एक संवैधानिक अधिकार को मजबूती प्रदान कर रहे हैं, हम इसे पूरे देश के लिए पास कर रहे हैं और राज्यों को इसे लेने के लिए स्वागत है. राज्य इस पर आगे आए और उन्होंने इसे अपने यहां लागू किया. उस समय कोई आपत्ति नहीं थी.
सरकार ने खुद कहा है कि ये संवैधानिक अधिकार है और अब वो अपनी बात से पीछे हट रहे हैं.
आरटीआई कानून में सभी राज्यों को ये स्वतंत्र शक्ति दी गई है कि वे अपने हिसाब से अपने यहां राज्य सूचना आयुक्त चुन सकते हैं. केंद्र सरकार इनके लिए नियुक्ति नहीं करेगी. केंद्र सरकार राज्य में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं करेगी. इसका मतलब है कि सरकार ने ये स्वीकार किया है कि ये एक संवैधानिक अधिकार है.
लेकिन अब सरकार कह रही है कि वो राज्य सरकार के लिए भी सूचना आयुक्तों के कार्यकाल और सैलरी को निर्धारित करेगी. ये कैसे संभव है? ये संघवाद के सिद्धांत को ही खत्म कर देगा. सरकार कह रही है कि ये कानूनी संस्था है. सरकार अपने आप के खिलाफ जा रही है.
क्या ऐसा मानते हैं कि उच्च स्तर पर पारदर्शिता के नाते दिल्ली विश्वविद्यालय को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की डिग्री से संबंधित जानकारी सार्वजनिक करनी चाहिए?
मैं अभी इस पर कुछ नहीं कह सकता.
सरकार ने ज़्यादातर नौकरशाहों को सूचना आयुक्त नियुक्त किया है. क्या ये सही तरीका है? सरकार ऐसा क्यों करती है?
ये बेहद हैरानी और चिंताजनक बात है कि ज्यादातर कमिश्नर पूर्व आईएएस अधिकारी रहे हैं, जो सरकार में काम कर चुके हैं. सरकार को आठ क्षेत्र सामाजिक कार्यकर्ता, अकादमिक क्षेत्र, मीडिया के लोगों, प्रशासक, वैज्ञानिक, कानून व्यक्ति जैसे क्षेत्रों से नियुक्ति करनी चाहिए. ये सब चीजें कानून में ही दी गई हैं.
अगर सरकार सबसे ज्यादा लोगों को नौकरशाहों में से नियुक्त कर रही है तो इसका मतलब है कि सरकार कानून तोड़ रही है. इन सभी आठ क्षेत्रों में से लोगों की नियुक्ति होनी चाहिए.
अगर इन सभी क्षेत्रों से लोग आते हैं तो आयोग की स्वायत्तता भी बरकरार रहेगी, व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी रहेगी. आयोग में विविधता होगी और फैसले में भी इसकी झलक दिखेगी.
मैं पहले भी इस पर बोलता रहा हूं और आगे भी बोलता रहूंगा. ये बिल्कुल सही नहीं है कि आयोग में सबसे ज्यादा नौकरशाहों की संख्या हो.
आरटीआई पर दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को आप किस तरह से देखते हैं?
सुप्रीम कोर्ट ने आरटीआई को पहचानने और उसे स्वीकृति देने की दिशा में कई सारे फैसले दिए हैं. 2005 से पहले इस दिशा बेहतरीन फैसले दिए गए और 2005 के बाद भी कोर्ट ने तीन फैसले दिए जो आरटीआई को संवैधानिक अधिकार की मान्यता देता है.
हालांकि गिरीश देशपांडे जैसे कुछ फैसले हैं जो आरटीआई कानून को काफी नुकसान पहुंचा रहे हैं.
पिछले 13 सालों से आरटीआई लगातार काम कर रहा है. इसे किसी भी सूरत में प्रभावित नहीं किया जाना चाहिए. इसको अपने वास्तविक रूप में काम करने का मौका मिलना चाहिए. कुछ जन सूचना अधिकारी धारा 8 (1) (अ) बहुत गलत तरीके से इस्तेमाल करते हैं. इसे तत्काल प्रभाव से रोका जाना चाहिए.
क्या आरटीआई कानून धीरे-धीरे खत्म हो रहा है?
मैं इस पर बिल्कुल विश्वास नहीं करता हूं. ये गलत बात है. 90 प्रतिशत मामले आम जनता से जुड़े है. बस कुछ मामले ऐसे हैं जिसमें बड़े नेता, घोटालेबाज लोग शामिल हैं. 90 प्रतिशत मामलों में आरटीआई अपना काम कर रहा है और जनता इससे खुश है.
मैं आरटीआई को 10 रुपये वाला पिल (पीआईएल यानी जनहित याचिका) कहता हूं. एक छोटा-सा उदाहरण लीजिए. कोई एक सामान्य क्लर्क रिटायर होता है और कुछ साल बाद उसकी पेंशन रुक जाती है या रोक दी जाती है.
जैसे ही वो 10 रुपये वाले इस पिल यानी आरटीआई का इस्तेमाल करता है, उसकी पेंशन जारी हो जाती है. एक सामान्य व्यक्ति के पास इतने पैसे नहीं होते हैं कि वो हाईकोर्ट में याचिका लगाकर अपनी पेंशन जारी करवा पाए, लेकिन यहां पर आरटीआई लोगों के लिए मददगार है.
ज्यादातर मामलों में लोगों को जानकारी मिल रही है और लोग इससे खुश हैं. बस कुछ मामले हैं जो विवादित हैं, वो हाईकोर्ट जाते हैं जहां से याचिकाकर्ता को जानकारी मिल जाती है.
इस आयोग का कमिश्नर होने के नाते मेरी ये जिम्मेदारी है कि मैं सूचना के अधिकार कानून की रक्षा करूं. भारत के संविधान के बाद सूचना का अधिकार अधिनियम ही अच्छी तरह से चर्चा, अच्छी तरह से बहस के बाद बनाया गया कानून है.
ये एकमात्र कानून है जिसका देश के हर एक हिस्से में गहराई के साथ बहस करके तैयार किया गया है. हमारी आरटीआई दुनिया में तीसरे नंबर पर है. यह एकमात्र ऐसा कानून है जो आम आदमी के पूरी तरह से हक में है.
आरटीआई के वजह से लोग अन्य संवैधानिक अधिकारों का भी फायदा ले पाते हैं. इसके जरिए लोग आम आदमी के असली पावर का एहसास कर सकते हैं. ये असली सशक्तिकरण है.