संघ से संवाद: दक़ियानूसी विचारों को नई पैकेजिंग के ज़रिये आकर्षक बनाने का पैंतरा

वे सभी लोग जो नए कलेवर में प्रस्तुत संघ को लेकर प्रसन्न हो रहे हैं, उन्हें यह जानना होगा कि यह कोई पहली बार नहीं है जब संघ इस क़वायद में जुटा है. उन्हें 1977 के अख़बारों को पलट कर देखना चाहिए जब यह बात फैलाई जा रही थी कि संघ अब अपनी कतारों में मुसलमानों को भी शामिल करेगा. लेकिन यह शिगूफ़ा साबित हुआ.

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New Delhi: RSS chief Mohan Bhagwat speaks during a book release function in New Delhi, Thursday, Sep 20, 2018. (PTI Photo/Subhav Shukla) (PTI9_20_2018_000153B)
New Delhi: RSS chief Mohan Bhagwat speaks during a book release function in New Delhi, Thursday, Sep 20, 2018. (PTI Photo/Subhav Shukla) (PTI9_20_2018_000153B)

वे सभी लोग जो नए कलेवर में प्रस्तुत संघ को लेकर प्रसन्न हो रहे हैं, उन्हें यह जानना होगा कि यह कोई पहली बार नहीं है जब संघ इस क़वायद में जुटा है. उन्हें 1977 के अख़बारों को पलट कर देखना चाहिए जब यह बात फैलाई जा रही थी कि संघ अब अपनी कतारों में मुसलमानों को भी शामिल करेगा. लेकिन यह शिगूफ़ा साबित हुआ.

New Delhi: RSS chief Mohan Bhagwat speaks on the last day at the event titled 'Future of Bharat: An RSS perspective', in New Delhi, Wednesday, Sept 19, 2018. (PTI Photo) (PTI9_19_2018_000185B)
मोहन भागवत (फोटो: पीटीआई)

राष्ट्रीय राजधानी से बमुश्किल सौ किमी दूर गांव टिटोली पिछले दिनों अचानक सुर्खियों में आया. पता चला कि गांव में हुई पंचायत ने गांव के मुस्लिम निवासियों को बाकायदा यह फरमान सुना दिया कि वह न सार्वजनिक स्थानों पर नमाज अता कर सकते हैं, दाढ़ी रख सकते हैं, इतना ही नहीं अपनी संतानों को भी उन्हें हिंदू नाम देने होंगे.

कब्रगाह के तौर पर मुसलमानों द्वारा इस्तेमाल की जाती रही जमीन के भी पंचायत द्वारा कथित तौर पर अधिग्रहण किए जाने तथा उसके एवज में मुसलमानों को गांव के बाहर जमीन का कोई टुकड़ा दिए जाने का समाचार भी मिला.

यह भी पता चला कि विगत माह गांव के ही एक धोबी मुस्लिम समाज के युवक की गिरफ्तारी हुई थी क्योंकि कथित तौर पर उसके हाथों एक बछिया की जान गई थी, तबसे उस युवक को ‘ताउम्र’ गांव बदर कर दिया गया है.

गौरतलब था कि यह खबर तभी सुर्खियां बनी जब संघ के सुप्रीमो जनाब मोहन भागवत राष्ट्रीय राजधानी के विज्ञान भवन में अपने तीन दिनी व्याख्यान श्रंखला में मुब्तिला थे, जिसका शीर्षक था ‘भविष्य का भारत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नजरिया.’ प्रस्तुत व्याख्यानमाला के आयोजन के पीछे यह तर्क दिया गया था कि संघ के बारे में जो ‘गलतफहमियां’ फैली हैं, उन्हें दूर करना और संघ की ‘वास्तविक छवि’ को उजागर करना.

मालूम हो कि जनाब भागवत के इन व्याख्यानों को कई टीवी चैनलों ने बाकायदा ‘लाइव’ दिखा दिया और विश्लेषकों के बीच या रिपोर्टरों के बीच यह साबित करने की गोया होड़ लग गई कि वह ‘बदले हुए संघ’ की तारीफ में कसीदे पढ़ें.

कई सारे लिबरल लोग भी इस अलग किस्म के हिंदुत्व पर थोड़ा फिदा होते दिखे जब सरसंघचालक महोदय ने अपनी तकरीर में स्वतंत्रता आंदोलन में कांग्रेस की भूमिका की तारीफ की यहां तक कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक सर सैयद अहमद के किसी व्याख्यान का भी हवाला दिया जब उन्हें कथित तौर पर आर्य समाज द्वारा सम्मानित किया गया था.

मुमकिन है उनके लिए यह बात भी सुकूनदेह लगी होगी कि भागवत के व्याख्यान में संविधान की भी प्रशंसा की गई और साथ-साथ एक ही सुर में यह कहा गया कि ‘हिंदू राष्ट्र के मायने यह नहीं है कि वहां मुसलमानों के लिए स्थान नहीं होगा.’

अगर थोड़ा रुककर सोचें तो पता चलेगा कि व्याख्यान में जो तमाम लोग आमंत्रित थे (जिनमें से कई सेलेब्रिटीज भी थे) वह इसीलिए बुलाए गए थे कि एक ऐसे मुकाम पर जब संघ अपनी नई छवि पेश करने की कवायद में जुटा है, तब वह सभी उसे नया ग्लैमर/ नई वैधता दे सकें और शेष दुनिया को बता सकें कि संघ वैसा नहीं है, जैसा कि उसके बारे में बताया जाता है. और जैसे कि उम्मीद की जा सकती है इनमें से किसी ने भी संघ सुप्रीमो के सामने कोई भी असुविधाजनक सवाल नहीं रखा.

मसलन, एक आसान सा सवाल यह हो सकता था कि आखिर हिंदू राष्ट्र की समूची संकल्पना (जो खास आस्था को माननेवालों को अहमियत देने पर टिकी है) उसका किस तरह भारत के संविधान के साथ सामंजस्य हो सकता है, जो आस्था, लिंग, जाति, नस्ल या अन्य किसी भी आधार पर भेदभाव न करने के लिए प्रतिबद्ध है और वह सभी के लिए समान अधिकार एवं अवसरों की गारंटी की बात करता है.

मुमकिन है कि एक उपप्रश्न यह भी हो सकता था कि ‘मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के लिए हिंदू राष्ट्र में किस तरह का स्थान तय है.’

जैसे क्या उनकी स्थिति किसी इस्लामिक राष्ट्र में या जियनवादी मुल्क में धार्मिक अल्पसंख्यकों की स्थिति की तरह दोयम दर्जे की तरह होगी या वह अलग होगी? क्या अल्पसंख्यक वहां ‘बहुसंख्यक हिंदुओं की दया पर होंगे’ (जैसा कि भागवत के पूर्ववर्ती सुप्रीमो कहते आए हैं) जहां वह औपचारिक तौर पर सोपानक्रम में नीचे स्थित होंगे तथा बुनियादी तौर पर दोयम दर्जे के नागरिक होंगे या राष्ट्र पर उनका भी बराबर का अधिकार होगा.

क्या उन्हें अभी भी ‘आंतरिक दुश्मन’ घोषित किया जाएगा जैसा कि अपनी बहुचर्चित किताब विचारसुमन (बंच ऑफ थॉट्स) में संघ के दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर सूत्रबद्ध किए हैं.

निश्चित तौर पर विज्ञान भवन में एकत्र श्रोतासमूह से ऐसे सवाल की उम्मीद करना बेकार ही होता कि वह पूछते कि टिटोली के घटनाक्रम पर जनाब भागवत क्या सोचते हैं? हिंदुत्व को जिस नए कलेवर में पेश करने में वह मुब्तिला हैं, उसमें टिटोली अब नियम होगा या अपवाद होगा?

लेकिन कोई यह भी कह सकता है कि आखिर सभागार में उठ कर किसी को जनाब भागवत से सवाल पूछने की जरूरत क्या थी? देश भर में सुर्खियों में रही इस खबर (यह अलग बात है कि जिला प्रशासन को औपचारिक तौर पर इसकी जानकारी नहीं थी) को वह नजीर बना सकते थे.

अगर वह हिंदुत्व की अपनी समझदारी को अपने पूर्ववर्तियों से अलग दिखाने के बारे में गंभीर होते तो टिटोली के घटनाक्रम पर अपनी अलग राय रखते और साबित करते कि तीन दिनी व्याख्यानों की यह श्रंखला उनके लिए महज दिखावा नहीं है, न ही हिंदुत्व के अधिक सैनिटाइज्ड/साफसुथराकृत संस्करण को पेश करने का अवसर है.

सभी रिपोर्टें बताती हैं, यहां तक कि उनके भाषणों की ‘लाइव’ प्रस्तुति यही उजागर करती है कि न ही उन्होंने हिंदू राष्ट्र के उनके कल्पनाजगत में अल्पसंख्यक किस दर्जे पर (बराबरी पर या दोयम दर्जे के नागरिक के तौर पर) रहेंगे यह स्पष्ट किया, न ही टिटोली के घटनाक्रम को लेकर एक लफ्ज भी बोला. और इस तरह उन्होंने अपने मौन को ही ‘बोलने दिया.’

आप इस मौन की जैसे भी व्याख्या करें या उनके विचार बिंदुओं को जैसे भी समझने की बात करें, उन्होंने एक तरह से इसी बात को प्रमाणित किया कि यह पूरी कवायद उनके लिए हिंदुत्व की बुनियादी अन्तर्वस्तु को अक्षुण्ण रखते हुए महज ऊपरी पैकेजिंग को अधिक ‘कूल’ दिखाने से कुछ भी नहीं है.

अब संघ के तमाम अग्रणी ‘दुनिया के इस सबसे बड़े सांस्कृतिक संगठन’ के राजनीति से परे होने या महज सलाहकारी भूमिका में रहने की जितनी भी बात करें, केंद्र में सत्तासीन सरकार और तमाम राज्यों में बनी सरकारों में अहम पदों पर तैनात प्रचारकों एवं स्वयंसेवकों की तादाद देखते हुए हम फिलवक्त संघ की ताकत का अंदाजा लगा ही सकते हैं.

यह अकारण नहीं कि प्रस्तुत संगठन के सामने अपने कामों की रिपोर्ट पेश करने में कबीना मंत्री भी स्वेच्छा से पहुंचते रहे हैं. दो साल पहले का वह दृश्य याद कर सकते हैं कि केंद्र के तमाम मंत्रियों ने संघ के ऐसे ही शिष्टमंडल के सामने इसी तरह की प्रस्तुति दी थी और कुछ सलाह पायी थी.

लाजिम है कि भागवत की तकरीर में टिटोली का महज उल्लेख (घटना से औपचारिक तौर पर बेखबर) जिला प्रशासन को सक्रिय कर देता और गांव के मुसलमानों के छीने गए संवैधानिक अधिकार बहाल हो जाते.

यही प्रतीत होता है कि भागवत गांव में कायम नए किस्म के ‘संतुलन’ को किसी तरह बिगाड़ना नहीं चाहते थे. उन्हें इस बात का पूरी तौर पर गुमान रहा होगा कि अगर टिटोली का उल्लेख होगा तो पीछे-पीछे अटाली और उसके जैसे कई गांवों, कस्बों का उल्लेख होता, जहां इसी तरह अल्पसंख्यकों को अधिकाधिक हाशिये पर डालने की कोशिश हुई है. उन्हें पूछा जाता कि चौरतफा यह बात क्यों महसूस हो रही है कि उम्मीदों का यह गणतंत्र धीरे-धीरे डर के गणतंत्र में तब्दील हो रहा है?

New Delhi: RSS chief Mohan Bhagwat with other leaders at the event titled "Future of Bharat: An RSS perspective" in New Delhi, Monday, Sept. 17, 2018. (PTI Photo) (PTI9_17_2018_000232B)
(फोटो: पीटीआई)

कुल मिला कर असर यही होता कि वही बहस सुर्खियां बनती और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा बड़ी मेहनत से की जा रही यह कवायद एक तरह से बेकार होती. संघ को नए अंदाज में पेश करने का यह प्रयास असफल हो जाता.

प्रश्न उठता है कि क्या टिटोली पर खामोशी या हिंदुत्व के नजरिये में अल्पसंख्यकों की वास्तविक स्थिति पर मौन, यही एकमात्र मौन इन तीन दिनी श्रंखला में नजर आया? तीन दिनी व्याख्यान में संघ के संस्थापक सदस्य डॉ हेडगेवार को न केवल ‘जन्मजात राष्ट्रभक्त’ घोषित किया गया बल्कि उन्हें आजादी के लिए लड़ने वाले महान क्रांतिकारियों एवं स्वतंत्रता सेनानियों की कतार में रखने की बार-बार कोशिश हुई.

शुरुआती दो दिन के व्याख्यान में जिन 32 विभूतियों का भागवत ने लगभग 102 बार उल्लेख किया उसमें हेडगेवार को 45 बार उल्लेख करके उन्होंने साफ भी किया कि उनके चिंतन में हेडगेवार की क्या अहमियत है.

दिलचस्प था कि इस व्याख्यान में ‘महात्मा गांधी, डॉ आंबेडकर, मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, रवींद्रनाथ टैगोर, सुभाषचंद्र बोस, सावरकर, मानवेंद्र नाथ रॉय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक सर सैयद अहमद खान यहां तक कि संघ के कुछ कम चर्चित कार्यकर्ताओं से लेकर बुद्ध, ज़रथुष्ट्र, रामकृष्ण परमहंस, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद, गुरु नानक और शिवाजी’ आदि का उल्लेख करके उन्होंने यह साबित करने की केशिश की कि संघ किस तरह विविध किस्म की शख्सियतों से प्रेरणा ग्रहण करता है.

विडंबना ही थी कि संघ के कुछ नामालूम कार्यकर्ताओं तक का उल्लेख करने वाले भागवत ने न संघ के पांचों संस्थापकों का नामोल्लख करना जरूरी समझा. याद रहे कि 1925 में विजयादशमी के दिन जब संघ की स्थापना की गयी तो डॉ हेडगेवार के अलावा उपस्थिति चार अन्य लोग थे : डॉ बीएस मुंजे, डॉ एलवी परांजपे, डॉ बीबी थलकर और बाबूराव सावरकर. क्या इन सभी का नामोल्लेख इसलिए नहीं किया गया क्योंकि ये सभी हिंदू महासभा के कार्यकर्ता थे तथा सभी जानते हैं कि हिंदू महासभा तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आपसी संबंध बहुत सौहार्दपूर्ण नहीं रहे हैं.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को तराशने में डॉ बीएस मुंजे का तो विशेष योगदान था जिन्होंने इटली की अपनी यात्रा में मुसोलिनी से मुलाकात की थी तथा फासी संगठन का नजदीकी से अध्ययन किया था और उसी के मुताबिक संघ को ढालने के लिए उन्होंने विशेष कोशिश की थी.

मार्जिया कोसोलारी जैसी विदुषियों ने अभिलेखागारों के अध्ययन से डॉ मुंजे की इटली यात्रा तथा संघ निर्माण में उनके योगदान पर बखूबी रोशनी डाली है. जाहिर सी बात है कि डॉ हेडगेवार को महान देशभक्त साबित करना है, तो किसी भी सूरत में उनके प्रयासों और प्रेरणाओं के विदेशी स्त्रोतों को, खासकर ऐसे स्त्रोत जो प्रगट रूप में मानवद्रोही दिखते हों, उन्हें ढंकना ही जरूरी समझा गया होगा.

मगर इससे भी अधिक आश्चर्यजनक था कि डॉ हेडगेवार ने जिस माधव सदाशिव गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और जो संघ के इतिहास में अब तक के सबसे लंबे कार्यकाल तक सुप्रीमो रह चुके हैं (1940-1973) तथा आनुषंगिक संगठनों का जाल बिछाने की उनकी नीति के चलते संघ ने ताकत ग्रहण की है, उनका नाम तक लेना भागवत ने गंवारा नहीं किया. व्याख्यान माला के तीसरे दिन प्रश्नोत्तर सत्र में उनका नाम तब आया जब गोलवलकर की एक रचना का उल्लेख आया.

बालासाहब देवरस- जिन्होंने संघ को जन आंदोलनों के साथ जुड़ने की नीति अपना कर तथा महज भद्र जातियों तक सीमित उसके जनाधार को व्यापक बनाने में भूमिका अदा की, उनका नामोल्लेख तक करना भागवत ने जरूरी नहीं समझा. न मूल व्याख्यान में, न ही सवाल-जवाब सत्र में.

क्या इसकी वजह यह थी कि आपातकाल के दिनों में जब संघ पर भी पाबंदी लगी थी तब संघ से पाबंदी हटाने के लिए बालासाहब देवरस ने इंदिरा गांधी से पत्र व्यवहार किया था और जेल में बंद स्वयंसेवकों को भी यह निर्देश दिया था कि वह अपने-अपने एफिडेविट( शपथपत्र) जेल अधिकारियों को लिख कर दें. ( Page 52, Tapan Basu, Pradip Datta, Sumit Sarkar and Tanika Sarkar, “Khaki Shorts and Saffrn Flags “, Orient Longman, 1993) या उन्होंने कभी बेबाकी से कहा था कि उपनिवेशवादविरोधी संघर्ष की उत्ताल तरंग के दिनों में स्थापित हुआ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ‘स्वतंत्रता के आगमन का पूर्वाभास’ नहीं कर पाया और ‘हम असावधान पकड़े गए.‘ ( देखें, ‘संप्रदाय में रूपांतरित होता संघ, 28 जून 2003, रामबहादुर राय)

क्या संघ के इन दो सुप्रीमो का नामोल्लेख तक न करना भागवत की मानवीय भूल कही जाएगी या उसके पीछे कोई डिजाइन थी?

इतना ही नहीं संघ के संस्थापक सदस्य डॉ हेडगेवार को राष्ट्रनिर्माताओं की कतार में खड़ी करने की कोशिश भी तथ्यों से इसी तरह खिलवाड़ करती दिख रही थी.

डॉ हेडगेवार के सबसे पहले आधिकारिक चरित्र ‘संघवृक्ष के बीज- डा केशवराव हेडगेवार’ जिसे सीपी भिशीकर ने लिखा है, उस पर गौर करें. इस किताब में भिशीकर लिखते हैं कि संघ की स्थापना के बाद डॉ साहब अपने भाषणों में हिंदू संगठन के बारे में ही बोला करते थे. सरकार पर प्रत्यक्ष टीका नहीं के बराबर रहती थी (पृष्ठ 24, सन 1966, दिल्ली) यही भिशीकर अपनी किताब में पृष्ठ 20 पर बताते हैं कि डॉ हेडगेवार ने विभिन्न शाखाओं को निर्देश दिया था कि वे नमक सत्याग्रह से दूर रहें.

फोटो: रॉयटर्स
फोटो: रॉयटर्स

यह हकीकत है कि डॉ हेडगेवार अंग्रेजी शासन के खिलाफ आवाज उठाने के लिए दो बार जेल गए थे. लेकिन यह तथ्य उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि दोनों बार वे कांग्रेस कार्यकर्ता के तौर पर जेल गए थे. संघ के स्थापना के बाद की उनकी जेल यात्रा भी कांग्रेसी के तौर पर थी, जिसका मकसद यही था कि गांधी के आंदोलन से तोड़कर उत्साही हिंदू युवाओं को संघ में लाया जा सके.

इसके बाद हेडगेवार ने ब्रिटिश राज के खिलाफ अपने स्वयंसेवकों को कुछ नहीं सिखाया, और अपनी पूरी ताकत इसी में लगा दी कि किस तरह कांग्रेस और राष्ट्रवाद की उसकी समझ की मुखालिफत हो सके.

एक संगठन के तौर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने न कभी स्वतंत्रता आंदोलन में शिरकत की न उसके लिए कोई आह्वान किया. उल्टे जब-जब ऐसा मौका आया तो चुप रहना या अंग्रेजों के सामने झुक जाने में ही उसने गनीमत समझी. यह एक ऐसा अतीत है जिसके दस्तावेजी प्रमाण उपलब्ध है कि संघ चाह कर भी इससे छुटकारा नहीं पा सकता.

इतना ही नहीं उन्होंने ‘संघ के स्वयंसेवकों से अपील कि 1930 में कांग्रेस के प्रस्ताव पर देश भर में मनाये जाने वाले स्वतंत्रता दिवस के दिन सभी शाखाओं में कांग्रेसी तिरंगे की जगह भगवा ध्वज फहराया जाए. तिरंगे के प्रति यही विरक्ति आगे चलकर उसे ‘अशुभ’ मानने की सोच की बुनियाद बनी क्योंकि हेडगेवार के मुताबिक तो तिरंगा नहीं भगवा ही हिंदू राष्ट्र का ध्वज हो सकता था.’

स्वतंत्रता विरोधी व्यापक जनसंघर्ष से उद्वेलित कार्यकर्ताओं के प्रति खुद डॉ हेडगेवार का रुख क्या रहता था इस पर दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर गुरुजी की किताब ‘विचार नवनीत’ रोशनी डालती है. संघ की कार्यशैली में अन्तर्निहित नित्यकर्म की चर्चा करते वे लिखते हैं:

‘नित्यकर्म में सदैव संलग्न रहने की विचार की आवश्यकता का और भी एक कारण है. समय-समय पर देश में उत्पन्न परिस्थिति के कारण मन में बहुत उथल-पुथल होती रहती है. सन 1942 में ऐसी उथल-पुथल हुई थी. उसके पहले 1930-31 में भी आंदोलन हुआ था. उस समय कई लोग डॉक्टरजी के पास गए. इस ‘शिष्टमंडल’ ने डॉक्टरजी से अनुरोध किया था कि इस आंदोलन से स्वातंत्रय मिल जाएगा और संघ को पीछे नहीं रहना चाहिये. उस समय एक सज्जन ने जब डॉक्टरजी से कहा कि वे जेल जाने को तैयार हैं, तो डॉक्टरजी ने कहा .. जरूर जाओ . लेकिन पीछे आपके परिवार को कौन चलाएगा ?’ उस सज्जन ने बताया ‘- दो साल तक केवल परिवार चलाने के लिए ही नहीं तो आवश्यकतानुसार जुर्माना भरने की भी पर्याप्त व्यवस्था उन्होंने कर रखी है.’ तो डॉक्टरजी ने कहा ‘आपने पूरी व्यवस्था कर रखी है तो अब दो साल के लिए संघ का ही कार्य करने के लिए निकलो. घर जाने के बाद वह सज्जन न जेल गए न संघ का कार्य करने के लिए बाहर निकले .’ ( श्री गुरुजी समग्र दर्शन, खंड 4, नागपुर, प्रकाशन तिथि नहीं, पृष्ठ 39-40)

अगर हेडगेवार की अगुआई में नवनिर्मित संघ द्वारा हाथ में लिए गए पहले सार्वजनिक काम पर गौर करें तो वह था नागपुर में रामनवमी समारोह के दौरान हिंदूू नवयुवकों को लाठियों तथा अन्य हथियारों से लैस कर कथित तौर पर हिंदुओं को सुरक्षा प्रदान करना और हकीकत में मुसलमानों को आतंकित करना तथा दूसरा महत्वपूर्ण काम था 1927 में गणेश जयंती के जुलूस को गाना बजाना करते हुए नागपुर की उन सड़कों से ले जाना जिन्हें मस्जिद रोड कहा जाता है. साफ है इस कार्यक्रम का मकसद भी मुसलमानों को आतंकित रखना ही था.

अब अगर निष्पक्ष होकर गौर करें तो आप पाएंगे कि जब देश में उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष की लहर चढ़ान पर थी, दोनों तरह के सांप्रदायिक तत्वों की तमाम कोशिशों के बावजदू आम हिंदू-मुस्लिम जनता साझी लड़ाईयो में मसरूफ थी उस समूचे कालखंड में संघ ने अपने आप को ‘हिंदू संगठन’ ‘चरित्र निर्माण’ जैसी वायवीय बातों पर ही केंद्रित किया, हिंदू संगठन को ही राष्ट्र संगठन माना.

हेडगेवार के चिंतन की सीमा महज इतनी ही नहीं थी कि उन्होंने ‘हिन्दुओं के कमजोर होने’ के औपनिवेशिक दावों का आत्मसातीकरण किया और हिंदुओं को संगठित करने में जुट गये. वे उन साझी परम्पराओं को देखने में भी असफल हुए जिन्होंने सदियों से इस जमीन में आकार ग्रहण किया था.

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(फोटो: पीटीआई)

अंग्रेज विचारकों द्वारा अपने राज को स्थायित्व प्रदान करने के लिए भारतीय इतिहास को हिंदू, मुस्लिम और ब्रिटिश कालखंड में बांटे जाने की साजिश को भी उन्होंने अपने व्यवहार से वैधता प्रदान की.

वैसे उनकी बड़ी सीमा इस मायने में भी दिखाई दी कि समूचे हिंदू समाज को एक अखंड माना और इस बात पर कभी गौर नहीं किया कि सदियों से चली आ रही जातिप्रथा ने इंसानों के एक बड़े हिस्से को इंसान समझे जाने से भी वंचित कर रखा है.

अपने तमाम आदर्शवाद के बावजूद हेडगेवार ने एक ऐसे संगठन की नींव डाली जो एक साथ धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरोध में विशेषतः मुसलमानों के खिलाफ और शूद्रों-अतिशूद्रों में वर्णाश्रम की गुलामी के खिलाफ उठ रही हलचलों की मुखालिफत करता था और चातुर्वर्ण्य आधारित समाज के निर्माण की आकांक्षा रखता था. गौरतलब है कि हेडगेवार के प्रिय शिष्य तथा दूसरे सरसंघचालक अपनी दूसरी पुस्तक ‘विचार सुमन’ में चातुवर्ण्य की हिमायत करते हुए लिखते हैं कि

‘कोई भी ऐसी बात नहीं है जो यह सिद्ध कर सके कि इसने हमारे सामाजिक विकास में बाधा डाली है. असल में जातिप्रथा ने हमारे समाज की एकता बनाए रखने में मदद की है.’

महिलाओं के बारे में भी उनके विचार परंपरा और संस्कृति की उनकी संकीर्ण समझदारी से प्रवाहित होते हैं जिसमें वे नारी को माता के अलावा अन्य किसी पहचान में देखना नहीं चाहते हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की महिला शाखा ‘राष्ट्र सेविका समिति’ के प्रथम सम्मेलन (1936) के उद्घाटन में उन्होंने कहा था,

‘समिति का मकसद है हिंदू राष्ट्र की तरक्की के लिए हिंदू महिलाओं में जागृति लाना. यह राष्ट्र उन सभी का है जो जिनकी समान संस्कृति और परम्परा है और जो बहुसंख्यक हैं .. आदर्श हिंदू नारी वो है जो हमारा धर्म, संस्कृति और राष्ट्र की रक्षा के लिए जरूरी संस्कारों को प्रदान करती है.’

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“We respect the Indian Constitution. A lot of thought has gone into making it. It was done through consensus. The Sangh has never gone against the Constitution.”

गौरतलब था कि अपने व्याख्यान में भागवत ने भारतीय संविधान के बारे में सकारात्मक ढंग से बातें रखीं, इस हकीकत को सराहा कि उसके निर्माण में कईयों का वैचारिक योगदान और कोशिशें नजर आयी हैं. उनके मुताबिक इस काम को आपसी सहमति से अंजाम दिया गया है और यह भी कि संघ अब संविधान का सम्मान करता है. इतना ही नहीं उसने कभी भी संविधान का विरोध नहीं किया.

यह सभी बातें सुनने में अच्छी थीं. संविधान के प्रति सम्मान जताने की उनकी बात ने बरबस एक हिंदी कहावत की याद दिलायी ‘देर आए, दुरूस्त आए.’ यह लगा कि अपने स्थापना के 93वें वर्ष मे कम से कम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बदले हालात से समझौता करने के मूड में दिखता है, जबकि संघ के इतिहास से थोड़ा बहुत वाकिफ लोग भी जानते हैं कि सच्चाई बिल्कुल अलग है.

दरअसल इतिहास इस बात का गवाह है कि जब नवस्वाधीन भारत के अग्रणी व्यक्तिगत अधिकारों की अनुल्लंघनीयता पर केंद्रित करते हुए संविधान में निर्माण में लगे थे जहां साथ ही साथ सदियों से अपने मानवीय अधिकारों से वंचित रहे समुदायों के लिए विशेष प्रावधान बनाने की योजना का खाका खींचा जा रहा था तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ से संविधान निर्माण का विरोध किया गया था.

गोलवलकर की अगुआई में उन दिनों संचालित संगठन की तरफ से यह मांग की गई थी कि स्वतंत्र भारत के संविधान के तौर पर मनुस्मृति को कायम किया जाए. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनौपचारिक मुखपत्र समझे जाने वाले ‘ऑर्गनाइजर’ के अंक में (30 नवंबर, 1949, पेज संख्या 3) लिखा गया:

लेकिन हमारे संविधान में प्राचीन भारत के इस अनोखे संवैधानिक विकासक्रम का उल्लेख तक नहीं है. मनु के नियम स्पार्टा के लिकर्गस और पर्शिया के सोलोन से बहुत पहले लिखे गए थे. आज तक मनुस्मृति के बने कानून दुनिया में तारीफ पाते हैं और स्वतःस्फूर्त पालन और पुष्टि की बात को प्रेरित करते हैं. मगर हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए उसके कोई मायने नहीं है. (मूल अंग्रेजी से अनूदित)

जब आंबेडकर और नेहरू की अगुआई में चालीस के दशक के उत्तरार्द्ध में हिंदू कोड बिल के माध्यम से हिंदू महिलाओं को इतिहास में पहली दफा सम्पत्ति और विरासत में सीमित अधिकार दिलाने की कोशिश चली थी, जब गोलवलकर और उनके सहयोगियों ने इस ऐतिहासिक कदम की मुखालिफत करने के लिए जबरदस्त आंदोलन छेड़ा था. उनका दावा आसान था कि यह कदम (अर्थात हिंदू स्त्रियों को अधिकार देने की कोशिश) हिंदू परम्परा और संस्कृति के खिलाफ है.

और भले ही संघ का विरोध निष्फल साबित हुआ, 26 जनवरी 1950 को भारत ने अपने आप को गणतंत्र घोषित किया, हिंदू कोड बिल टुकड़ों-टुकड़ों में पारित हुआ, मगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कोशिशें बदस्तूर जारी रहीं. संविधान की समीक्षा की जाए यह धुन वह अलापते ही रहे. और जब पहली दफा केंद्र में सत्ता में आने का मौका संघ के आनुषंगिक संगठन भाजपा को मिला तब अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई वाली इस सरकार के शुरुआती कदमों में से एक था कि संविधान की समीक्षा करने के लिए आयोग का गठन किया जाए. यह अलग बात है कि संसद के दोनों सदनों में पर्याप्त बहुमत न होने के कारण आयोग की सिफारिशें ठंडे बस्ते में डाल दी गईं.

अगर भागवत संविधान की तारीफ कर रहे थे यहां तक उन्होंने यह भी दावा किया था कि संघ अब उसका सम्मान करने लगा है तो एक छोटा सा स्पष्टीकरण आवश्यक था कि यह कब हुआ क्योंकि महज कुछ माह पहले ही अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद के सम्मेलन को संबोधित करते हुए उन्होंने ‘मुल्क की मूल्य प्रणाली की रोशनी संविधान और न्यायप्रणाली में बदलाव करने की हिमायत की थी.’

और किस तरह उनकी आंखों के सामने भाजपा ने ‘नागरिकता बिल’ का मसविदा तैयार किया है जिसका फोकस है भारत को ‘प्रताड़ित हिंदुओं के स्वाभाविक घर’ के तौर पर रूपांतरित किया जाए, ताकि दुनिया भर से कहीं से भी कथित तौर पर प्रताड़ित हिंदुओं को यहां नागरिकता प्रदान की जा सके, जैसा सिलसिला इजराइल में मौजूद है, जिसने दुनिया भर के यहूदियों के लिए अपने दरवाजे खुले रखे हैं. अगर बारीकी से देखें तो मानवतावाद के आवरण में वह ‘धीरे-धीरे धार्मिक आधारों पर वापसी का अधिकार देते हुए भारत के संविधान को पलटना चाहता है.’

निस्संदेह जनाब भागवत का यह कथन कि ‘संघ कभी संविधान के खिलाफ नहीं गया’ यह बात तथ्यों के साथ मेल नहीं खाती.

एक कार्यक्रम के दौरान संघ प्रमुख मोहन भागवत (बीच में). फोटो: पीटीआई
एक कार्यक्रम के दौरान संघ प्रमुख मोहन भागवत . फोटो: पीटीआई

दिलचस्प है कि अपने व्याख्यान में भागवत ने इस बात पर जोर दिया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक ‘जनतांत्रिक संगठन’ है जो अपने किसी आनुषंगिक संगठन पर न ‘रिमोट कंट्रोल’ रखता है और न ही ‘वर्चस्व’ की कामना करता है.

अगर हम बारीकी से पड़ताल करें तो पता चलता है कि अपने आप को ‘जनतांत्रिक’ कहलाने के इरादे नेक हो सकते हैं, मगर वह भी सच्चाई पर खरे नहीं उतरते दिखते.

मसलन, अपनी स्थापना के 93 साल बाद भी संघ ने अपने दरवाजे आधी आबादी के लिए – (अर्थात महिलाओं के लिए) बंद रखे हैं ताकि वह बराबर के सदस्य के तौर पर उसमें शामिल हो सकें, जिसका परिणाम यही हुआ है कि भले ही वह अपने आप को हिंदुओं का संगठन कहलाए वह बुनियादी तौर पर हिंदू पुरुषों का संगठन है.

जब सभागार में उपस्थित किसी ने स्त्रियों के लिए दरवाजे अभी बंद रखने के बारे में प्रश्न पूछा तो संघ सुप्रीमो ने बेझिझक बोला कि वह उसके संस्थापकों द्वारा बनाई नीति का ही पालन कर रहे हैं जैसा कि उस समय की स्थिति में आवश्यक था (जिसके पीछे संस्थापकों की अन्तर्निहित समझदारी यही थी कि समूचा वातावरण पुरुषों और स्त्रियों के साथ-साथ काम करने के लिए अनुकूल नहीं है) और इस वजह से उन्होंने स्त्रियों का अलग संगठन बनाया.

इक्कीसवीं सदी की दूसरी दहाई के अंत में भी भागवत को परिस्थिति में कोई गुणात्मक अंतर नहीं दिख रहा था. शायद उन्होंने इस बात को बयां नहीं किया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अभी भी उसके दूसरे सुप्रीमो गोलवलकर के सूत्रकरण पर टिका है.

मालूम हो कि ‘विचार नवनीत’ नामक अपने किताब में उन्होंने बाकायदा लिखा है कि महिलाएं बुनियादी तौर पर माता होती हैं, जिन्हें अपने बच्चों का लालन-पालन करना होता है.

यह मसला अधिक विचारणीय है कि किसी संगठन का यह दावा कि वह जनतांत्रिक है, वाजिब माना जा सकता है जिसने अपने दरवाजे आधी आबादी के लिए बंद रखे हों. अगर इसका जवाब ‘हां’ में दिया जाएगा तो फिर हमें मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे संगठन को भी जनतांत्रिक मानना पड़ेगा जिसने अपनी अलग ‘सिस्टर्स डिवीजन (भगिनी शाखा)’ का निर्माण किया है और जिसने अपने गठन के अस्सी साल बाद भी अपने सांगठनिक ढांचे में किसी महिला को स्थान नहीं दिया है.

सदस्यों की समानता के अलावा ‘जनतांत्रिक’ होने के एक अलग मायने भी हैं जिसके तहत वह ऐसी प्रणाली होती है जिसमें नेताओं का चयन चुनावों से होता है.

संघ की नब्बे साल से अधिक की यात्रा को देखें तो यही बात सामने आती है कि संघ का नेतृत्व (बेहद विशिष्ट है) और संघ के अंदर यही परंपरा अपनी स्थापना के सत्तर साल से अधिक समय तक चलती रही है कि सुप्रीम नेता अपने उत्तराधिकारी को नामांकित करते आए हैं. संघ के प्रथम सरसंघचालक हेडगेवार ने माधव सदाशिव गोलवलकर को नामांकित किया (1940) तो गोलवलकर ने संगठन की बागडोर बालासाहब देवरस को सौंपी (1973) जिन्होंने अपने जीते जी ही रज्जू भैया को अपना वारिस घोषित किया (1996) और एक तरह से संघ में चली आ रही इस परंपरा को तोड़ा जहां उत्तराधिकारी को मृत्यु के बाद कार्यभार सौंपने की परिपाठी चली रही थी. विगत लगभग दो दशकों से इसमें थोड़ा बदलाव आया है, जिसके तहत अब यह चुनाव प्रतिनिधि सभा के सदस्य करते हैं – जिसकी सदस्यता भी चुनाव नहीं बल्कि नामांकन पर आधारित होती है.

तीन दिनी व्याख्यान में गोलवलकर का नामोल्लख तक न होना, जिन्हें संघ का ‘प्रधान शिल्पकार’ कहा जाता है, कई सवाल छोड़ गया. यहां इस बात को नोट किया जा सकता है कि न केवल भागवत बल्कि संघ के लिए गोलवलकर की ‘विरासत’ कई असुविधाजनक सवालों के साथ उपस्थित होती है. वजह स्पष्ट है कि 21 वीं सदी की दूसरी दहाई के मुताबिक गोलवलकर के किसी साफसुथराकृत/सैनिटाइज्ड संस्करण पेश करने में आने वाली मुश्किलें.

हिंदुस्थान में और महज हिंदुस्थान में ही प्राचीन हिंदू राष्ट्र और अन्य कुछ नहीं बल्कि हिंदू राष्ट्र बसता है. वे सभी जो राष्ट्रीय अर्थात हिंदू नस्ल, धर्म, संस्कृति और भाषा से नहीं जुड़े हैं, वे स्वाभाविक तौर पर वास्तविक ‘राष्ट्रीय’ जीवन के बाहर पड़ते हैं …वही लोग राष्ट्रवादी देशभक्त हैं, जो हिंदू नस्ल और राष्ट्र को महिमा प्रदान करने की आकांक्षा अपने हृदय में संजोये रहते हैं और उसी के तहत सक्रिय होते हैं और इस मकसद को पूरा करने के लिए जुटे रहते हैं. अन्य सभी या तो देशद्रोही हैं या राष्ट्रीय उद्देश्य के दुश्मन हैं या अगर थोड़ी सभ्य भाषा को इस्तेमाल करें तो,मूर्ख हैं. ( सन्दर्भ. 69 : गोलवलकर, वी आर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड, पेज 43-44)

संघ के अब तक के इतिहास में उसके छह सरसंघचालक हुए हैं: हेडगेवार, गोलवलकर, देवरस, राजेंद्र सिंह, केएस सुदर्शन तथा अब मोहन भागवत, मगर किसी का कार्यकाल इतना विवादित नहीं हुआ जितना गोलवलकर विवादों में आते रहे हैं.

अगर हम गोलवलकर के जीवन और कार्य की तरफ निगाह डालें तो पता चलता है कि यह वही दौर है जब विश्व इतिहास एक करवट लेता दिख रहा था. विश्व इतिहास का वह ऐसा मुकाम था कि सामंतवाद, उपनिवेशवाद की पुरानी दुनिया जनता के संघर्षों के आगे चरमरा रही थी और एक नयी दुनिया आकार ले रही थी. और अपने खास नजरिये के चलते जहां गोलवलकर ‘हिंदू धर्म की गौरवशाली परम्पराओं’ के आधार पर हिंदू राष्ट का निर्माण करना चाह रहे थे, जिसके चलते ब्रिटिश उपनिवेशवाद की तुलना में मुसलमानों को अधिक बड़ा खतरा मानते थे, वह इतिहास की इस धारा को समझ नहीं सके.

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(फोटो: पीटीआई)

मामला अधिक जटिल इस वजह से हुआ कि उन्होंने नात्सीवाद-फासीवाद के प्रयोगों से प्रेरणा ली और अपने ‘आंतरिक दुश्मनों’ से निपटने के लिए ‘नस्लीय शुद्धिकरण’ जैसे फार्मुले को सही ठहराया, जिसके तहत हिटलर ने लाखों यहूदियों को मौत के घाट उतारा था. अपने इस एकांगी नजरिये के चलते न केवल व्यक्तिगत तौर पर उन्होंने अपने आप को उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष से दूर रखा बल्कि अपने संगठन के लिए भी इस संदर्भ में कोई सकारात्मक कार्यक्रम नहीं दिया.

इस संदर्भ में गोलवलकर के विचार 1939 में प्रकाशित ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड’ शीर्षक किताब के संदर्भ में साफ प्रगट होते हैं. जानने योग्य है कि 77 पेज की उपरोक्त किताब गोलवलकर ने तब लिखी थी जब हेडगेवार ने उन्हें सरकार्यवाह के तौर पर नियुक्त किया था. इस किताब की प्रस्तावना कांग्रेस के अंदर सक्रिय एक हिन्दूवादी नेता एमएस अणे ने लिखी है. ‘गैरों’ के बारे में यह किताब इतना खुल कर बात करती है या जितना प्रगट रूप में हिटलर द्वारा यहूदियों के नस्लीय शुद्धिकरण के सिलसिले को अपने यहां भी दोहराने की बात करती है कि संघ तथा उसके अनुयायियों ने खुलेआम इस बात को कहना शुरू किया है कि वह किताब गोलवलकर की अपनी रचना नहीं है बल्कि बाबाराव सावरकर की किन्हीं किताब ‘राष्ट्र मीमांसा’ का गोलवलकर द्वारा किया गया अनुवाद है.

दिलचस्प बात है कि इस मामले में उपलब्ध सारे तथ्य इसी बात की ओर इशारा करते हैं कि इस किताब के असली लेखक गोलवलकर ही हैं. खुद गोलवलकर 22 मार्च 1939 को इस किताब के लिए लिखी गयी अपनी प्रस्तावना लिखते हैं कि प्रस्तुत किताब लिखने में राष्ट्र मीमांसा ‘ मेरे लिये ऊर्जा और सहायता का मुख्य स्त्रोत रहा है.’

मूल किताब के शीर्षक में लेखक के बारे में निम्नलिखित विवरण दिया गया है : ‘माधव सदाशिव गोलवलकर, एमएससी, एलएलबी. ( कुछ समय तक प्रोफेसर काशी हिंदू विश्वविद्यालय).’ इसके अलावा, किताब की भूमिका में, गोलवलकर ने निम्नलिखित शब्दों में अपनी लेखकीय स्थिति को स्वीकारा था : ‘यह मेरे लिये व्यक्तिगत सन्तोष की बात है कि मेरे इस पहले प्रयास – एक ऐसा लेखक जो इस क्षेत्र में अनजाना है – की प्रस्तावना लोकनायक एमएस अणे ने लिख कर मुझे सम्मानित किया है.’ (‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड’ गोलवलकर की भूमिका से, पेज 3)

1951 में एक अमेरिकी विद्वान जीन ए कुरन ने संघ के प्रति बेहद हमदर्दी रखते हुए एक किताब लिखी थी ‘ मिलिटेंट हिन्दूइजम इन इण्डियन पालिटिक्सः ए स्टडी आफ द आरएसएस’. संघ परिवार के तमाम कार्यकर्ताओं से मिलने के आधार पर लिखी गयी यह किताब ऐलान करती है कि उपर उल्लेखित किताब दरअसल संघ की ‘बाईबिल’ है.

वर्ष 1978 में राजेन्द्र सिंह और भाऊराव देवरस ने एक आधिकारिक वक्तव्य में अनुच्छेद 10 में साफ लिखा था : ‘ऐतिहासिक तौर पर भारत एक हिंदू राष्ट्र रहा है इस बात को वैज्ञानिक आधार प्रदान करने के लिये गोलवलकर ने ‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड’ शीर्षक से किताब लिखी.’

भागवत के तीन दिनी व्याख्यानों की यह ‘उपलब्धि’ कही जा सकती है कि वह गोलवलकर के विचारों से औपचारिक तौर पर इस कदर दूरी बनाए रखना चाहते हैं कि उनकी दूसरी किताब ‘विचार नवनीत’ (बंच ऑफ थॉट्स) से भी तौबा करने के मूड में हैं, जिसे संघ अब तक पेश करता आया है. बंच ऑफ थॉट्स के विचारों की एक झलक यह है कि वह साफ-साफ मुसलमानों, ईसाइयों और कम्युनिस्टों को आंतरिक दुश्मन घोषित करती है.

इतना ही नहीं उसने संविधान, आरक्षण तथा आदि कई अहम मसलों पर विवादास्पद बातें लिखी हैं.

New Delhi: Workers fix a hoarding for the RSS event "Future of Bharat: An RSS Perspective", in New Delhi, Monday, Sept. 17, 2018. (PTI Photo/Kamal Singh) (PTI9_17_2018_000198B)
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‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड’ से आधिकारिक तौर पर दूरी बनाने के बाद उन्होंने ‘बंच ऑफ थॉट्स’ से भी दूरी बनाने का निर्णय लिया है, जिसके समाधान के तौर पर वह गोलवलकर के विचारों को संपादित करते हुए एक नयी किताब ले आए हैं. निश्चित ही भागवत तथा संघ के कर्णधार जानते हैं कि गोलवलकर के विवादास्पद विचार नए कलेवर में उपस्थित होते संघ के लिए मुफीद नहीं होंगे.

इस संबंध में भाषण के तीसरे दिन भागवत द्वारा दिया गया स्पष्टीकरण इस प्रकार था :

‘रही बात बंच ऑफ थॉट्स की, बातें जो बोली जाती हैं, वह परिस्थिति विशेष, प्रसंग विशेष के सन्दर्भ में बोली जाती हैं. वो शाश्वत नहीं रहतीं. एक बात तो यही है कि गुरुजी के जो शाश्वत विचार हैं, उनका एक संकलन प्रसिद्ध हुआ है ‘श्रीगुरुजी : विजन एंड मिशन’ , उसमें तात्कालिक संदर्भ में आनेवाली सारी बातें हटा कर जो सदा काल के लिए उपयुक्त विचार हैं, वो रखे हैं. वो आप पढ़िए. उसमें आप को ऐसी बातें नहीं मिलेंगी.’

जनाब मोहन भागवत, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इतिहास के अब तक के सबसे ताकतवर सुप्रीमो कहे जा सकते हैं, उनकी यह निजी आजादी है कि वह संघ के असमावेशी विश्व नजरिये को अधिक आकर्षक रूप में प्रस्तुत करने के लिए नए-नए जतन करें, उन विचारों की नई पैकेजिंग करके प्रस्तुत करें.

लेकिन उन्हें यह समझना ही होगा कि इस किस्म का टुकड़े-टुकड़े वाला तरीका (piecemeal approach) जहां वह किसी सरसंघचालक को इस तरह महिमामंडित कर रहे हैं गोया वही सबकुछ हों और किसी दूसरे सुप्रीमो का नाम तक लेना गंवारा नहीं करते या उसके प्रगट मानवद्रोही विचारों को यह कह कर औचित्य प्रदान करते हैं कि वह ‘परिस्थितिविशेष’ बोले गए हैं – अंततः असफल होगा जब तक कि वह उनके संगठन को दिशानिर्देशित करने वाले विचार में ही आमूलचूल बदलाव के लिए तैयार नहीं होते.

अंततः वे सभी लिबरल – जो नए कलेवर में प्रस्तुत संघ को लेकर अंदर ही अंदर प्रसन्न हो रहे हैं – उन्हें यह भी जानना होगा कि यह कोई पहली मर्तबा नहीं है जब संघ अपने आप को नए कलेवर में प्रस्तुत करने की कवायद में जुटा है.

उन्हें 1977 के अखबारों को पलट कर देखना चाहिए जब जनता पार्टी का शासन बना था और यह बात फैलायी जा रही थी कि संघ अब अपनी कतारों में मुसलमानों को भी शामिल करेगा. आपातकाल में संघ एवं जमाते इस्लामी दोनों के कार्यकर्ता चूंकि जेल में बंद थे, इन बातों को अधिक हवा मिल रही थी.

इसकी हकीकत उजागर होने में थोड़ा वक्त़ लगा जब पता चला कि इन बातों को यूंही प्रसारित किया गया था. दरअसल आपातकाल के दौरान अपने समझौतापरस्त रुख के चलते एक प्रबुद्ध तबके में संघ की आलोचना हो रही थी ( Page 52, Tapan Basu, Pradip Datta, Sumit Sarkar and Tanika Sarkar, “Khaki Shorts and Saffrn Flags “, Orient Longman, 1993) और इस विवाद से बचने के लिए यह नया शगूफा छोड़ दिया गया था.

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और चिंतक हैं.)