आज हमारे सामने ऐसे नेता हैं जो केवल तीन काम करते हैं: वे भाषण देते हैं, उसके बाद भाषण देते हैं और फिर भाषण देते हैं. सार्वजनिक राजनीति से करनी और कथनी में केवल कथनी बची है. गांधी उस कथनी को करनी में तब्दील करने के लिए ज़रूरी हैं.
(यह लेख मूल रूप से 2 अक्टूबर 2018 को प्रकाशित हुआ था.)
इस वर्ष का 2 अक्टूबर काफी खास है. 2 अक्टूबर 2018 के बाद मोहनदास करमचंद गांधी के जन्म के 150 वर्ष हो जाने के समारोह शुरू हो जाएंगे. भारत के इतिहास में कई महापुरुष हुए हैं जिनके होने के 100, 150 या 500 वर्ष जब पूरे हुए तो उनकी वैचारिक और व्यक्तिगत जीवन यात्रा के जश्न मनाए गए हैं. आजाद भारत में महात्मा बुद्ध, जवाहरलाल नेहरू, डॉ आंबेडकर और डॉ लोहिया के जन्म के अवसरों को इसी तरह से मनाया गया है.
गौरतलब है कि दिखावे और कर्मकांड के बीच आज भी गांधी पर न केवल गंभीर बातचीत हो रही है, उन पर किताबें और जीवनियां लिखी जा रही हैं बल्कि वे भारत सहित दुनिया के कमजोर और मजलूमों की आवाज बन रहे हैं. वे उन लोगों की आवाज बन रहे हैं जो सत्ताविहीन हैं, गरीब हैं और जिनके सामने टैंक और बंदूकें ताने हुए शक्तिशाली राज्य खड़ा है.
गांधी की आजमाई हुई रणनीतियों से सत्ताएं बदल दी जा रही हैं. अभी जनवरी 2018 में दिवंगत हुए अमेरिकी प्रोफेसर ज्यां शार्प ने 1970 के दशक से ही गांधी की अहिंसा का पालन कर शक्ति के मद में चूर सरकारों का घमंड तोड़ा था. ज्यादा दूर न जाइए, भारत में सिद्धराज ढढा, मेधा पाटकर और बनवारीलाल शर्मा जैसे व्यक्तियों के ले लीजिए या तमिलनाडु के किसानों के विरोध को ले लीजिए.
भारत के किसी भी प्रांत में चले जाइए, राजभवनों और मुख्यमंत्रियों के कार्यालयों के आसपास कमजोर और गरीब लोग सरकार का विरोध करते मिल जाएंगे. 1920 से लेकर अब तक ऐसा कोई वर्ष नहीं गुजरा है जब विद्यार्थियों का एक बड़ा हिस्सा गांधीवादी तरीके से जेल न भरता रहा हो.
गांधी की ही बात क्यों?
यह लेख इसी सवाल का जवाब देना चाहता है. क्योंकि गांधी ने जो भी कमजोर था, सत्ता और समाज से भयभीत था, उसे निर्भय बनाया. गांधी ने ऐसे लोगों की आत्मा से भय निकाल दिया जो अंग्रेजी शासन, उसकी पुलिस और सीआईडी से डरते थे. भारतीय लोग राजा तो क्या उसके कारिंदों से डरते थे. सामंतवाद को पाल-पोस रहे देश में गांधी ने दबंग, प्रभावशाली लोगों और पुलिस का भय आम जनता के बीच से निकाल दिया.
1916 में बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में दिए गए उनके भाषण को याद कीजिए जिसमें उन्होंने भारतीय राजे-महाराजाओं के सामने ही उनको लताड़ लगाई थी. मेरी जानकारी में भारतीय इतिहास में यह पहला अवसर था जब किसान से दिखने वाले किसी व्यक्ति ने सूटेड-बूटेड और हीरे जवाहरात से लदे भारतीय अभिजात्य वर्ग की खुली निंदा की.
इसी भाषण में उन्होंने भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड हार्डिंग्ज की खिंचाई की और कहा कि वे अपने पुलिस बल के द्वारा जनता के बीच भय स्थापित करना चाहते हैं जबकि वायसराय अंदर से खुद डरे हुए हैं. ऐसे डरे हुए व्यक्ति का मर जाना ही श्रेयस्कर है. यह गांधी वायसराय के लिए कह रहे थे!
आप देखिए कि गांधी इसे अपने पिछले एक वर्ष के अनुभव के आधार पर भारतीय लोगों से साझा कर रहे रहे थे कि डरी हुई तो सरकार है लेकिन किसान और विद्यार्थी क्यों डरे हुए हैं? उन्हें नहीं डरना चाहिए. गांधी जानते थे कि यह निडरता ही भारतीय जनों को आजादी दिलाएगी.
भय से मुक्ति ही आजादी है
आज से लगभग सौ वर्ष पहले गांधी ने जो किया, उसके लिए गांधी को याद किया जाना चाहिए. यह निर्भय-भाव आज का कोई राजनेता देने में सक्षम नहीं है कि वह अपने लोगों से कहे कि उसे किसी से डरने की जरूरत नहीं है. उलटे सरकारें और उनकी पुलिस नागरिकों को लगातार डराती रहती हैं. यह आजादी के बाद से अब तक बदस्तूर जारी है.
लोगों को डराकर रखने और उन पर पहरा लगाने की औपनिवेशिक परियोजना को दक्षिण एशिया की सरकारों ने न केवल बनाए रखा बल्कि उसकी व्यापकता और गहनता भी बढ़ा दी है. यदि हम दुनिया का बेहतरीन लोकतंत्र चाहते हैं तो उसके लिए एक निर्भीक नागरिकता की दरकार होगी. और इसके विकास के लिए गांधी जरूरी हैं.
गांधी हमारे उस समय के लिए जरूरी हैं जिसमें हम रह रहे हैं और कल प्रवेश कर जाएंगे. गांधी से पहले 1857 के विद्रोह ने और दादाभाई नौरोजी तथा उनके समकालीनों ने स्पष्ट कर दिया था कि भारत अंग्रेजों का गुलाम बन चुका है. 1909 में गांधी ने अपनी छोटी सी किताब ‘हिंद स्वराज’ में इस बात को साफ किया कि भारत कैसे गुलाम है और उससे मुक्ति कैसे पाएगा. इस गुलामी से निजात पाने के लिए गांधी ने रास्ते खोजे. यह रास्ता अहिंसा का था जिसने भारत की आजादी की लड़ाई को आगे ले जाने के साथ-साथ उसके नजरिये और प्रतिमानों को संवारने का काम किया.
वास्तव में भारत की आजादी की लड़ाई एक ही समय में ब्रिटेन से मुक्ति पाने के साथ ही साथ सुंदर मनुष्य बनाने का संघर्ष भी थी जिसकी बेहतरीन शुरुआत गांधी ने की. यूरोप में धर्म और राज्य के चंगुल से मनुष्य की मुक्ति की खोज नवजागरण के दौर में की गयी थी लेकिन गांधी के नेतृत्व में राज्य के चंगुल से मुक्त लेकिन धार्मिक मनुष्य की परिकल्पना गांधी की अपनी खोज थी.
उन्होंने भारतीय मनीषा को बहुत ध्यान से देखा था और पाया कि भारतीय मनुष्य को लालच, हिंसा और भय से मुक्त किया जा सकता है लेकिन उसे धर्म से मुक्त नहीं किया जा सकेगा. उन्होंने कमजोर समझे जाने वाले भारतीयों की कल्पना में पंख लगा दिए और बंदूक और तोप बनाने वाले अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया.
श्रीलंका की सीमा को छूते तमिल मछुआरों के गांव हों या युसुफजाई कबीले के लड़ाकू पठान-गांधी ने अत्याचारी से लड़ने का एक सलीका सिखाया जिसके कारण अहिंसक और घृणा विहीन आजादी का आंदोलन चला. इस दौरान जिन समूहों ने शुरुआती दौर में हिंसा अपनायी, उन्होंने एक समय के बाद गांधीवादी अहिंसक रास्तों में अपनी गुंजाइश तलाशी.
आप देखिए कि 1919 में अंग्रेजों ने जलियांवाला बाग कांड किया और सैकड़ों निर्दोष लोगों को मार डाला लेकिन इस घटना के बाद किसी अंग्रेज को इसलिए गोली नहीं मारी गयी या गाली नहीं दी गयी वह ब्रिटेन का है या उसका रंग गोरा है जबकि अफ्रीका के कई मुल्कों में अंग्रेजों के प्रति घृणा का चरम प्रदर्शन और हिंसा एक सच रहा है.
इस घृणा और हिंसा के बीज को गांधी ने औपनिवेशिक लालच, पूंजीवाद के विस्तार और अंधी औद्योगिक प्रगति में दिखाया और कहा कि जब भारत को आजादी मिलेगी तो उसे इनसे भी आजादी मिलेगी. ऐसा नही हुआ. और अगर ऐसा नहीं हुआ तो उसके परिणाम हमारे सामने हैं.
ब्रेख्त ने गैलीलियो के जीवन पर एक नाटक लिखा था. इस नाटक में एक संवाद आता है कि दुर्भाग्यशाली है वह देश जिसे नायकों की जरूरत होती है. इसका आशय है कि नायक पूजा बुद्धि-विवेक विहीन भीड़ पैदा करती है जबकि किसी समाज को अपना शासन चलाने और स्वतंत्र सोच का मालिक होना चाहिए.
जब भारत को ब्रिटिश शासन ने गुलाम बनाया तो उसने तर्क दिया भारतीय जनों में अपनी शासन पद्धति विकसित करने की क्षमता नहीं है, वे खुदमुख्तार नहीं हो सकते. गांधी और उनके समकालीनों ने इस विचार को सिरे से खारिज कर दिया. 1909 में उन्होंने गुजराती में ‘हिंद स्वराज’ नामक एक पतली पुस्तक लिखी. इसमें उन्होंने कहा कि भारत को उन नियामतों से किनारा कर लेना चाहिए जो ब्रिटिश शासन की देन समझी जातीं हैं, मसलन वकील और कचेहरी.
इसके स्थान पर उन्होंने भारतीयों से खुद का शासन चलाने की बात की. लगभग बीस वर्ष बाद वे काफी लोकप्रिय हो चुके और भारत की आजादी की लड़ाई का मुख्य चेहरा बन चुके थे. इसी दौर में उन्होंने ब्रिटिश शासन की हुक्मउदूली के लिए नमक कानून तोड़ा.
गुजरात के नवसारी जिले में दांडी के समुद्रतट पर उन्होंने कहा: ‘यह लड़ाई किसी एक मनुष्य की नहीं, करोड़ों की है. यदि तीन-चार आदमी ही लड़कर स्वराज प्राप्त कर सकते हों तब तो देश की शासन-सत्ता भी उन तीन-चार आदमियों के हाथ में चली जाएगी. अतः स्वराज की इस लड़ाई में तो करोड़ों आदमियों को अपना बलिदान देकर ऐसा स्वराज्य हासिल करना है जो करोड़ों के लिए लाभदायी हो.’
यह वक्त है कि गांधी को याद किया जाय और अपने आपसे पूछा जाय कि देश की शासन-सत्ता कुछ हाथों में क्यों सिमटकर रह गयी है?
मेरी पीढ़ी के गांधी
जिसे सलमान रश्दी आधी रात की संतानें कहते हैं, उसने तो गांधी के बारे में अपने माता-पिता और आसपास के लोगों से सुना और समझा था. उसमें से कुछ ने गांधी के उन मूल्यों को अपनाने की कोशिश की जिसके लिए वे जिए और मरे.
1980 के बाद जन्मी मेरी पीढ़ी ने गांधी को किताबों और फिल्मों के जरिये जाना-समझा है. जो लोग जागरूक और राजनीतिक रहे हैं, उन्होंने उनकी तलाश भारत के विभिन्न भागों में चलने वाले आंदोलनों में की. गांधी कश्मीर, मणिपुर, तिन्नेवली से लेकर लखनऊ में राज्य पुलिस की लाठी खाती आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के दैनिक संघर्षों में दिखते हैं.
उन्होंने गांधी को शहर के कोतवाल के आॅफिस के बाहर लाठी खाते हुए देखा है. मेरी उम्र के कुछ लोग उन लोगों के बीच जाकर उनका हाथ पकड़कर खड़े हो जाते हैं. गांधी ने उन्हें निर्भय बनाया है.
अभी पिछले वर्ष प्रकाशित हुई किताब ‘व्हाई गांधी स्टिल मैटर्स’ में राजमोहन गांधी एक वाकये का जिक्र करते हैं. अगस्त 1946 में मोहम्मद अली जिन्ना ने भारतीय उपमहाद्वीप के मुस्लिमों से सीधी कार्रवाई में भाग लेने को कहा. थोड़ी साफ भाषा में कहें तो उन्होंने पाकिस्तान की प्राप्ति के लिए साधनों की परवाह न करते हुए लोगों को हिंसा के लिए उकसाया. दंगे हुए. लोगों के घर जला दिए गए और औरतों का बलात्कार हुआ जो आने वाले दो वर्षों के लिए रेडक्लिफ रेखा के दोनों ओर की सच्चाई बन गया.
अविभाजित बंगाल और बिहार जल उठा. इस हिंसा से बेहद खिन्न गांधी ने मार्च 1947 में बिहार का दौरा गया. उन्होंने कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा : इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि बड़ी संख्या में कांग्रेस के लोगों ने इन गड़बड़ी में भाग लिया या नहीं. … आपकी 132 सदस्यीय कमेटी के कितने लोग इसमें संलिप्त थे? मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि किसी 110 वर्ष की बूढ़ी महिला को अपनी आंखों के सामने बोटी-बोटी काटे जाते हुए देखकर तुम कैसे जिंदा रह सकोगे? न तो मैं आराम करूंगा और न किसी को करने दूंगा. मैं पैदल ही पूरा बिहार घूमूंगा और उन कंकालों से पूछूंगा कि तुम्हारे साथ क्या हुआ था? जब देश को आजादी मिलने ही वाली थी, संविधान बनाया जा रहा था तब गांधी ने जो कहा, उससे बढ़कर लिखा और उससे भी बढ़कर किया.
आज हमारे सामने ऐसे नेता हैं जो केवल तीन काम करते हैं: वे भाषण देते हैं, उसके बाद भाषण देते हैं और फिर भाषण देते हैं. सार्वजनिक राजनीति से करनी और कथनी में केवल कथनी बची है. गांधी उस कथनी को करनी में तब्दील करने के लिए जरूरी हैं.
(रमाशंकर सिंह भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में फेलो हैं.)