महात्मा गांधी से मिलने के बाद चार्ली चैप्लिन के शब्द थे, ‘अंततः जब वे (गांधी) पहुंचे और अपने पहनावे की तहें संभालते हुए टैक्सी से उतरे तो स्वागत में जयकारे गूंज उठे. उस छोटी तंग गरीब बस्ती में क्या अजब दृश्य था जब एक बाहरी शख़्स एक छोटे-से घर में जन-समुदाय के जयघोष के बीच दाख़िल हो रहा था.’
ऊपर दिए गए चित्र को ध्यान से देखिए, यह लंदन की घटना है जब ‘डिक्टेटर’ चैप्लिन मिले थे महात्मा से. उस घड़ी की तस्वीर, उस खिड़की से जहां से गांधीजी की प्रतीक्षा कर रहे चार्ली चैप्लिन नीचे का कोलाहल सुन यह दृश्य निहारने उठ खड़े हुए थे.
भारत तो भारत, इंग्लैंड में भी गांधीजी की प्रतिष्ठा का आलम यह था!
अफ्रीका से भारत लौट आने के बाद गांधी केवल एक बार विदेश यात्रा पर गए: 1931 में गोलमेज वार्ता में शरीक होने. वार्ता तो विफल रही, लेकिन अंग्रेजों का दिल उन्होंने बहुत जीत लिया.
लंदन में गांधीजी किसी ऊंचे होटल में नहीं रुके, पूर्वी लंदन के पिछड़े इलाके में सामुदायिक किंग्सली हॉल (अब गांधी फाउंडेशन) के एक छोटे-से कमरे में ठहरे. जमीन पर बिस्तर लगाया. लंदन की ठंड में भी अपनी वेशभूषा वही रखी- सूती अधधोती, बेतरतीब दुशाला, चप्पल. वे कोई तीन महीने वहां रहे.
यह तस्वीर तभी की है. चार्ली चैप्लिन हॉलीवुड में चरम प्रसिद्धि बटोर कर अपने वतन लौट आए थे. वे राजनेताओं से राजनीति की चर्चा में रुचि लेने लगे थे. अपनी फिल्म ‘सिटी लाइट्स’ के प्रीमियर के लिए वे लंदन में ही थे.
किसी ने चैप्लिन को सुझाया कि गांधीजी से मिलना चाहिए. उन्होंने गांधीजी को पोस्टकार्ड लिख दिया.
गांधीजी जब लंदन में अपनी डाक पढ़ रहे थे, तब उनकी मेजबान मुरिएल लेस्टर ने उन्हें चैप्लिन के बारे में विस्तार से बताया. यह भी कहा कि राजनीति में आपका और कला की दुनिया में चैप्लिन का रास्ता जुदा नहीं. गांधीजी ने मुलाकात की मंजूरी दे दी.
चैप्लिन को कैनिंग टाउन में डॉक्टर चुन्नीलाल कतियाल के यहां 22 सितंबर, 1931 की शाम का वक्त दिया गया, जहां उस रोज गांधीजी को जाना था.
गांधीजी से मुलाकात का दिलचस्प जिक्र चैप्लिन ने अपनी आत्मकथा में विस्तार से किया है; नेहरू और इंदिरा गांधी के साथ प्रवास का भी.
गांधीजी से मिलने को चैप्लिन कुछ पहले (या शायद अंग्रेजी कायदे के मुताबिक ठीक वक्त पर) पहुंच चुके थे. चैप्लिन के अपने शब्दों में: ‘अंततः जब वे (गांधी) पहुंचे और अपने पहनावे की तहें संभालते हुए टैक्सी से उतरे तो स्वागत में भारी जयकारे गूंज उठे. उस छोटी तंग गरीब बस्ती (स्लम) में क्या अजब दृश्य था जब एक बाहरी शख्स एक छोटे-से घर में जन-समुदाय के जय-घोष के बीच दाखिल हो रहा था.’
डॉ. कतियाल की बैठक में चैप्लिन को घेर बैठी एक युवती को एक दबंग महिला (संभवतः सरोजिनी नायडू) ने डपट कर चुप कराया, ‘क्या अब आप इनको गांधीजी से बात करने देंगी?’ कमरे में ‘सन्नाटा’ छा गया. गांधीजी चैप्लिन की ओर देख रहे थे.
चैप्लिन लिखते हैं कि गांधीजी से तो मैं उम्मीद नहीं कर सकता था कि वे मेरी किसी फिल्म पर बात शुरू करेंगे और कहेंगे कि बड़ा मजा आया; ‘मुझे नहीं लगता था कि उन्होंने कभी कोई फिल्म देखी भी होगी.’
सो चैप्लिन ने अपना ‘गला साफ किया’ और कहा कि मैं स्वाधीनता के लिए भारत के संघर्ष के साथ हूं, पर आप मशीनों के खिलाफ क्यों हैं, उनसे तो दासता से मुक्ति मिलती है, काम जल्दी होता है और मनुष्य सुखी रहता है?
गांधीजी ने मुस्कुराते हुए शांत स्वर में उन्हें अहिंसा से लेकर आजादी के संघर्ष का सार पेश कर दिया. गांधीजी ने कहा- आप ठीक कहते हैं, मगर हमें पहले अंग्रेजी राज से मुक्ति चाहिए.
गांधीजी ने आगे कहा कि मशीनों ने हमें अंग्रेजों का और गुलाम बनाया है. इसलिए हम स्वदेशी और स्व-राज की बात करते हैं. हमें अपनी जीवन-शैली बचानी है.
अपनी बात का गांधीजी ने और खुलासा यों किया- हमारी आबोहवा ही आपसे बिलकुल जुदा है. ठंडे मुल्क में आपको अलग किस्म के उद्योग और अर्थव्यवस्था की जरूरत है: खाना खाने के लिए आपको छुरी-कांटे आदि उपकरणों की जरूरत पड़ती है, सो आपने इसका उद्योग खड़ा कर लिया, पर हमारा काम तो उंगलियों से चल जाता है. हमें अनावश्यक चीजों से भी आजादी की दरकार है.
चर्चा में चैप्लिन आजादी को लेकर गांधीजी की अनूठी दलीलों, उनके विवेक, कानून की समझ, राजनीतिक दृष्टि, यथार्थवादी नजरिए और अटल संकल्पशक्ति से अभिभूत हो गए.
पर तब चैप्लिन सहसा हैरान रह गए जब गांधीजी ने एक मुकाम पर कहा कि माफ कीजिए, हमारी प्रार्थना का वक्त हो गया. हालांकि उन्होंने चैप्लिन को विनय से यह भी कहा कि आप चाहें तो यहां रुक सकते हैं. चैप्लिन रुक गए.
चैप्लिन ने सोफे पर बैठे-बैठे देखा: गांधीजी और पांच अन्य भारतीय जन जमीन पर पालथी मार कर बैठ गए और रघुपतिराघव राजा-राम, पतित-पावन सीता-राम; वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाणे रे समवेत स्वर में गाने लगे.
चैप्लिन को विचार-सम्पन्न गांधीजी के ‘गान-वान’ में ऐसे मशगूल हो जाने में अजीब ‘विरोधाभास’ ही अनुभव हुआ. उन्हें लगा कि महात्मा में उन्होंने जो ‘राजनीतिक यथार्थ की विलक्षण सूझ’ देखी थी, वह इस समूह-गान में मानो तिरोहित हो गई.
मगर क्या सचमुच? शायद यही तो वह सांस्कृतिक भेद था जिसे क्या चैप्लिन, क्या अंग्रेज, गांधीजी अंत तक इसकी समझ, और प्रेरणा, हम भारतवासियों तक को देते रहे!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)