ऐसे समय में जब कांग्रेस रास्ता खोज रही है, उसे अपने संगठन की ओर देखना चाहिए और उस लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बहाल करना चाहिए, जिसे 1969 के बाद लगातार ख़त्म किया जाता रहा है.
बात 1959 की है. कांग्रेस के नासिक अघिवेशन में शामिल होने जा रहे प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को गेट पर रोक दिया जाता है. गेट पर सुरक्षा की ज़िम्मेदारी संभाल रहे कमलाकर शर्मा से नेहरू पूछते हैं क्या तुम मुझे नहीं जानते?
शर्मा विनम्रता से कहते हैं- मैं आपको जानता हूं. आप देश के प्रधानमंत्री हैं. लेकिन, आपने उचित बैज नहीं लगाया है. ऐसे आप अंदर नहीं जा सकते. नेहरू जी मुस्कुराते हैं और अपनी जेब से बैज निकालकर दिखाते हैं. उसके बाद उन्हें अंदर जाने दिया जाता है. सेवादल की पत्रिका ‘दल समाचार’ में इस घटना का ज़िक्र है.
अधिवेशन स्थल पर तैनात शर्मा तब कांग्रेस सेवादल के नायक थे. उनकी इस हिमाक़त से समारोह स्थल पर हड़कंप मच गया था. पर नेहरू तो उनकी परीक्षा ले रहे थे, जिसमें वे पास हो गए थे. बाद में उन्हें मुंबई का चीफ़ ऑर्गेनाइजर बना दिया गया.
कांग्रेस का सच्चा सिपाही कौन?
कांग्रेस में सेवादल को फ़ौजी अनुशासन और जज़्बे के लिए जाना जाता है. इसका संगठनात्मक ढांचा और संचालन का तरीक़ा सैन्य रहा है. कभी कांग्रेस में शामिल होने से पहले सेवादल की ट्रेनिंग ज़रूरी होती थी. इंदिरा गांधी ने राजीव गांधी की कांग्रेस में एंट्री सेवादल के माध्यम से ही कराई थी. नेहरू से लेकर राहुल गांधी तक सब सेवादल को ‘कांग्रेस का सच्चा सिपाही’ कहते रहे हैं.
कांग्रेस के ये सच्चे सिपाही इन दिनों पार्टी की दुर्दशा व अपनी उपेक्षा से उदास और खिन्न हैं. करना तो बहुत कुछ चाहते हैं पर कर नहीं पा रहे. सेवादल की तर्ज पर ही गठित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की लगातार बढ़ती ताक़त इन्हें और बेचैन कर देती है.
संघ का गठन सेवादल के दो साल बाद किया गया था. आठवीं कक्षा में पढ़ाई के दौरान ही 1969 में सेवादल में शामिल हुए बलराम सिंह बताते हैं कि डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार और डॉ. नारायण सुब्बाराव हार्डिकर क्लास फेलो थे. शुरुआती दिनों में साथ-साथ सक्रिय थे. लेकिन, हार्डिकर पर गांधीजी का प्रभाव था तो हेडगेवार ‘हिंदू राष्ट्र’ का सपना देख रहे थे.
हेडगेवार ने अपना अलग रास्ता बनाते हुए संघ का गठन किया. वे हिंदू महासभा से जुड़े हुए थे और जब तक जीवित रहे संघ हिंदू महासभा के यूथ विंग की तरह की काम करता रहा. जबकि, सेवादल ब्रिटिश हुक़ूमत के ख़िलाफ़ संघर्ष के रास्ते पर बढ़ता चला गया. डॉ. राजेंद्र प्रसाद और सुभाषचंद्र बोस से लेकर क्रांतिकारी राजगुरू तक इसके पदाधिकारी रहे.
कांग्रेस से ज़्यादा सेवादल से घबराते थे अंग्रेज़
बलराम बताते हैं कि ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान के संगठन लाल कुर्ती का विलय भी सेवादल में करा दिया गया था. आज़ादी के आंदोलन में सेवादल की भूमिका का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि 1931 में सेवादल का स्वतंत्र स्वरूप ख़त्म करते हुए इसे कांग्रेस का हिस्सा बना दिया गय़ा. ऐसा सरदार बल्लभ भाई पटेल की सिफ़ारिश पर किया गया, जिसमें उन्होंने
गांधीजी से कहा था कि ‘यदि सेवादल को स्वतंत्र छोड़ दिया गया तो वह हम सबको लील जाएगा’. इसके एक साल बाद ही अंग्रेज़ों ने 1932 में कांग्रेस और सेवादल पर प्रतिबंध लगा दिया. बाद में कांग्रेस से तो प्रतिबंध हटा पर हिंदुस्तानी सेवादल से नहीं.
सेवादल और संघ की कहानी भी ‘खरगोश और कछुआ’ जैसी कही जा सकती है. आज़ादी के बाद सेवादल के पास अपना कोई लक्ष्य नहीं रहा. कांग्रेस में यह उपेक्षित हो गया और पिछली पंक्ति में बैठा दिया गया. जबकि, संघ अपने हिंदू राष्ट्र के सपने को साकार करने की दिशा में कछुआ गति से आगे बढता रहा.
ऐसे समय जब शिद्दत से यह महसूस किया जा रहा है कि कांग्रेस अपनी जड़ों से उखड़ गई है और अन्य पार्टियां भी यह महसूस कर रही हैं कि संघ के जैसा ही कैडर आधारित संगठन मुक़ाबले के लिए ज़रूरी है, सेवादल का इतिहास उसे रास्ता दिखा सकता है.
सेवादल को बना दी उत्सवी रवायत
सेवादल के चीफ़ ऑर्गेनाइज़र महेंद्र जोशी तुरंत अंतर बताने लगते हैं- संघ मातृ-संगठन है और भाजपा उसका आनुषांगिक. जबकि, कांग्रेस हमारी मातृ-संस्था है. उसकी मर्ज़ी के बिना हम कुछ नहीं कर सकते. ‘वी आर फॉलोवर्स, दे आर मास्टर्स’.
बलराम के अनुसार, कांग्रेस ने सेवादल को महज ‘सेरेमोनियल’ बना दिया है. पार्टी के उत्सवों में वर्दी पहनाकर खड़ा होने के अतिरक्त और कोई काम सेवादल के पास अब नहीं है.
हालांकि, सेवादल के जुड़े किसी भी सदस्य से बात करें, जोश अब भी 1923 वाला ही मिलेगा. नेशनल इंस्ट्रक्टर प्रो. बिनोद कहते हैं- ‘सेवादल को काम करने की छूट मिले तो एक साल के भीतर स्थिति बदल सकती है’. कांग्रेस और जनता के बीच सेवादल एक सेतु की तरह था. आज भी इसके ज़्यादातर सदस्य मध्यम वर्ग से आते हैं और इस वर्ग की नब्ज़ से परिचित हैं. यदि इसमें सिफ़ारिशी नियुक्ति बंद हो जाए और सेवादल से सुझावों पर कांग्रेस अमल करे तो फिर से संगठन मज़बूत हो सकता है.
बलराम कहते हैं- यदि पार्टी सेवादल को गंभीरता से ले तो अब भी टिड्डी-दल की तरह यह टूट सकता है. हमारा संगठन हर ब्लाक/प्रखंड और गांव में मौजूद है. देशभर में हमारे सदस्य हैं जो निःस्वार्थ भाव से जुड़े हैं. लाखों लोग सिर्फ़ भावनात्मक रूप से जुड़े हुए हैं. ये सत्ता के लिए संगठन में नहीं आए हैं. लेकिन कांग्रेस में निर्णायक पदों पर बैठे लोग यही समझते हैं कि ये तो सिर्फ़ सेवा करने वाले लोग हैं. इनका काम कांग्रेस के कार्यक्रमों में महज सेवा करना है.
बलराम कभी सेवादल की बंद हो चुकी पत्रिका ‘दल समाचार’ की व्यवस्था संभालते थे. इन दिनों संगठन से जुड़े दस्तावेज़ सहेजने और शोधकार्य में लगे हैं.
क्यों और कैसे हुई सेवादल की स्थापना
विभिन्न पुस्तकों के हवाले से बलराम बताते हैं कि कैसे 1923 से पहले आज़ादी के आंदोलन में शामिल कांग्रेस के कार्यकर्ता जेल जाते और माफ़ीनामा लिखकर बाहर आ जाते थे. झंडा सत्याग्रह के दौरान 1921 में हार्डिकर और उनके मित्रों की राष्ट्र सेवा मंडल ने जब माफ़ी मांगने से मना कर दिया तो उनपर कांग्रेस के बड़े नेताओं की निगाह गई. तभी यह सोचा गया कि कांग्रेस कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण की ज़रूरत है.
नागपुर सेंट्रल जेल में उन्होंने एक ऐसा संगठन बनाने का निश्चय किया जो कांग्रेस कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित कर उनमें फ़ौजी अनुशासन और लड़ने का माद्दा पैदा कर सके. हार्डिकर जेल से बाहर आने के बाद इलाहाबाद जाकर नेहरू जी से मिले और सत्य व अहिंसा के मार्ग पर चलने वाले लड़ाका संगठन की स्थापना पर चर्चा हुई. इसके बाद 1923 में कर्नाटक में आयोजित कांग्रेस सम्मेलन में सरोजनी नायडू ने हिंदुस्तानी सेवादल बनाने का प्रस्ताव रखा. इसके पहले चेयरमैन नेहरू बनाए गए. इसी संगठन को बाद में कांग्रेस सेवादल के रूप में जाना गया.
कांग्रेस के बेलगाम सम्मेलन (1924) में पहली बार सेवादल को सैनिटेशन और सिक्युरिटी की व्यवस्था का काम दिया गया था. तब बाल्टियों में मैला उठाया जाता था. सेवादल से जुड़े सभी वर्ग के लोगों ने, चाहे वे ब्राह्मण ही क्यों न हों, सम्मेलन में आए लोगों का मैला साफ़ किया था. इसी सम्मेलन में महात्मा गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया था. तब गांधी जी ने कहा था कि हार्डिकर और उनके संगठन के बग़ैर कांग्रेस का अधिवेशन सफल नहीं हो पाता.
कांग्रेस जब-जब परेशानी में रही है, सेवादल के सिपाही आगे आते रहे हैं. बकौल बलराम, ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार के बाद पंजाब में कांग्रेस के लिए काम करना एकदम मुश्किल था, तब सेवादल ने बंदूकों और गोलियों के बीच रहकर वहां संगठन का काम किया. जब 1977 में सत्ता से बाहर होते ही इंदिरा गांधी की सुरक्षा कम कर दी गई तो सेवादल ने चौबीसों घंटे उनकी सुरक्षा की. राजीव गांधी के सत्ता से बाहर होने पर भी सेवादल की ज़िम्मेदारी बढ़ गई थी.
लेकिन हर बार सत्ता मिलते ही संगठन को भूल जाना कांग्रेस की शैली बन गई है. जबकि, भाजपा-संघ के साथ ऐसा नहीं है. सत्ता में रहते हुए भी संगठन पर उनका पूरा ध्यान है. सत्ता मिलते ही भाजपा संघ और उसके आनुषांगिक संगठनों से जुड़े लोगों को खोज-खोजकर ज़िम्मेदारी का काम सौंप रहे हैं. इससे सत्ता में रहते हुए संगठन और मज़बूत हो रहा है.
संघ का विकल्प बन सकता है सेवादल
बलराम कहते हैं कि ऐसे समय में जब कांग्रेस रास्ता खोज रही है, उसे अपने संगठन की ओर देखना चाहिए और उस लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बहाल करना चाहिए, जिसे 1969 के बाद लगातार ख़त्म किया जाता रहा है. ‘क्या फ़र्क़ पड़ेगा अगर 60 साल के शासन के बाद 60-70 माह सत्ता से दूर रहेंगे? यदि कांग्रेस नेतृत्व चाहे तो संघ-भाजपा का विकल्प बन सकता है सेवादल-कांग्रेस’.
लेकिन वे आशंका जताते हैं कि यूथ कांग्रेस और एनएसयूआई से आए लोग जब तक कांग्रेस पर हावी रहेंगे ऐसा कुछ नहीं हो सकता. कांग्रेस में 1984-85 से ही ऐसे लोगों का बोलबाला बढ़ता गया है और सेवादल के ‘सच्चे सिपाही’ दरकिनार किए जाते रहे हैं. इसी का नतीजा है कि कांग्रेस अपनी ज़मीन से उखड़ गई और बीजेपी ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का सपना देख सकी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)