क्या सैनिकों के ऐसे क़दम को सर्वोच्च अदालत के फैसले की जानबूझकर अवज्ञा माना जाए या आर्मी एक्ट के बुनियादी उसूलों का उल्लंघन? ये याचिकाएं भले राजनीतिक रूप से प्रेरित न हों, लेकिन ग़लत मशविरे का परिणाम लगती हैं. साथ ही यह उस ‘अनुशासन’ के ख़िलाफ़ हैं, जिसका प्रतिनिधित्व भारतीय सेना करती है.
भारतीय सेना के सैकड़ों सेवारत अधिकारियों द्वारा रिट याचिका दायर करने से पहले का घटनाक्रम कई परेशान करनेवाले और गंभीर सवाल खड़े करता है, जो मुख्य तौर पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों के अनादर से जुड़ा है.
क्या ऐसे कदम को देश की सर्वोच्च अदालत के फैसले की जानबूझकर अवज्ञा न माना जाए या ऐसे कदम 1950 के सेना अधिनियम (आर्मी एक्ट) के बुनियादी उसूलों का उल्लंघन करते हैं या मामला दोनों है? ये याचिकाएं भले राजनीतिक रूप से प्रेरित न हों, लेकिन गलत मशविरे का परिणाम लगती हैं, और यह उस ‘अनुशासन’ की बुनियाद को हिलाने वाली है, जिसका प्रतिनिधित्व भारतीय सेना करती है.
क्या इन अधिकारियों को सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर सवाल उठानेवाली ऐसी याचिकाएं दायर करने की इजाज़त उनके संबंधित कमांडिंग अफसरों या सेना मुख्यालय द्वारा दी गई है? अगर ऐसा नहीं है तो क्या सेना मुख्यालय को इनके ख़िलाफ़ तत्परता के साथ कार्रवाई नहीं करनी चाहिए थी?
ये जटिल मगर परेशान करनेवाले सवाल हैं. अगर वास्तव में इन याचिकाओं को सेना के शीर्ष स्तर के सक्रिय या परोक्ष समर्थन से दायर किया गया है, तो यह मामला और भी ज्यादा गंभीर महत्व अख्तियार कर लेता है.
यह सिद्धांत कि ‘आप भले चाहे कितने ही ऊंचे क्यों न हों, कानून आपसे ऊंचा है, इस देश में दृढ़ता के साथ खड़ा है. भारत का संविधान सर्वोच्च है.
अनुच्छेद 21 में दिए गए जीवन के अधिकार के साथ अन्य मौलिक अधिकार देश के सभी नागरिकों को मिले हुए हैं, जिनमें कथित विद्रोही और उग्रवादी भी शामिल हैं. भारत जिनेवा समझौते का पक्षकार है.
यह समझौता मांग करता है कि युद्धबंदियों के साथ जितना संभव है, उतने सम्मान के साथ पेश आना चाहिए और उनकी सुरक्षा की गारंटी ली जानी चाहिए. 1971 के युद्ध के बाद करीब 90,000 युद्धबंदियों के साथ लगभग एक साल तक उस समझौते के सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करने का भारत का शानदार रिकॉर्ड है.
ऐसे में इस बात का कोई कारण नहीं कि भारतीय नागरिकों की सिर्फ इस कारण से निर्दयतापूर्वक हत्या कर दी जाए कि किसी राज्य को (इस मामले में मणिपुर) ‘अशांत क्षेत्र’ घोषित कर दिया गया है, जिस पर सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम, 1958 लागू होता है.
संविधान और सशस्त्र बल
भारत का संविधान सशस्त्र बलों को न तो नागरिक प्राधिकारियों से श्रेष्ठ और न उससे स्वतंत्र के तौर पर देखता है. वास्तव में अनुच्छेद 53(2) में यह स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि,
‘संघ की सशस्त्र सेनाओं की सर्वोच्च कमान राष्ट्रपति के हाथ में होगी और इसका उपयोग इस तरह से कानून द्वारा विनियमित किया जाएगा.’
सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम (आफ्स्पा) सूची 1 की एंट्री 2ए के जरिए इस्तेमाल में लाया जा सकता है, जो संसद को उसमें उल्लेख किए गए विषयों पर कानून बनाने का अधिकार देता है. यह ‘संघ/केंद्र के किसी भी सशस्त्र बल या संघ/केंद्र के नियंत्रण वाले किसी अन्य बल को या किसी भी दस्ते या यूनिट को किसी भी राज्य में नागरिक प्रशासन की मदद के लिए तैनात करने के लिए’ एक कानून मुहैया कराता है…’
आफ्स्पा की धारा 3 में यह घोषणा साफ तौर पर की गई है कि अगर कोई राज्य ‘ऐसी अशांत या खतरे की स्थिति में है कि नागरिक-प्रशासन की मदद के लिए सशस्त्र बल के इस्तेमाल की जरूरत है’ तो वह पूरा राज्य या राज्य के वैसे हिस्से को अशांत घोषित किया जा सकता है.
सशस्त्र बलों को विशेष अधिकार देनेवाली धारा 4 में यह स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि इसका फैसला एक निर्दिष्ट अधिकारी द्वारा ही किया जा सकता है कि लोक-व्यवस्था को बनाए रखने के लिए किसी व्यक्ति के खिलाफ गोली चलाना, या बल का प्रयोग करना, जिससे उसकी मौत भी हो सकती है, जरूरी है.
लेकिन ऐसा ‘उचित चेतावनी’ देने के बाद ही और वह भी ऐसे व्यक्ति के खिलाफ ही किया जा सकता है, जो पांच या ज्यादा लोगों के इकट्ठे होने का निषेध करने वाले किसी कानून या आदेश के विरुद्ध काम कर रहा है या जिसके पास कोई हथियार या कोई भी ऐसी चीज है जिसका इस्तेमाल हथियार के तौर पर, गोला-बारूद या विस्फोटक पदार्थ के तौर पर किया जा सकता है.
वह किसी व्यक्ति की बिना वारंट की गिरफ्तारी को भी प्राधिकृत कर सकता है, जिसने कोई संज्ञेय अपराध किया है या जिसके खिलाफ कोई युक्तियुक्त संदेह मौजूद है कि उसने कोई अपराध किया है, या अपराध करनेवाला है. वह ऐसी गिरफ्तारियां करने के लिए या किसी व्यक्ति या संपत्ति या हथियारों, गोला-बारूद विस्फोटक पदार्थों को बरामद करने के लिए किसी परिसर में प्रवेश और तलाशी वारंट भी को भी प्राधिकृत कर सकता है, जिनके वहां गैरकानूनी ढंग से रखे होने का संदेह हो.
धारा 6, जो अशांत क्षेत्रों में काम करनेवाले सशस्त्र बलों को रक्षात्मक छतरी मुहैया कराती है, केंद्र की पूर्व अनुमति के बगैर मुकदमा, वाद या कोई अन्य कानूनी कार्यवाही का निषेध करती है, लेकिन सिर्फ उनके खिलाफ जिन्होंने ‘इस अधिनियम द्वारा दिए गए अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए कोई काम किया है या कथित तौर पर किया है’.
इसलिए यह अधिनियम आम समझ, विशेष तौर पर सशस्त्र बलों के सदस्यों के बीच, के विपरीत, असीमित या निरंकुश शक्तियां नहीं देता है. इस अधिनियम में शामिल अवरोधों के जरिए शक्तियों के इस्तेमाल पर गंभीर अंकुश लगाए गए हैं. संवैधानिक सुरक्षा कवचों के अलावा, अशांत क्षेत्रों में भी संविधान का भाग-3 कभी भी स्थगित नहीं होता है. सशस्त्र बल अपने आप में कानून नहीं हैं, बल्कि उन्हें हर कदम पर नागरिक सत्ता की सहायता करने के लिए ही काम करना चाहिए.
सेना के आदेश
इस स्थिति को महसूस करते हुए सेना प्रमुख ने ‘दस आदेश’ जारी किए हैं, जिनमें यह भी शामिल है कि ‘याद रखिए कि जिन लोगों के खिलाफ आप कार्रवाई कर रहे हैं, वे भी आपके ही देशवासी हैं. आपके सारे आचरण इस महत्वपूर्ण तथ्य से निर्देशित होने चाहिए’, अभियानों को लोगों के अनुकूल होना चाहिए, जिनमें न्यूनतम बल प्रयोग होना चाहिए और दोतरफा क्षति से बचना चाहिए- संयम से काम लिया जाना चाहिए’, पुलिस प्रतिनिधि के बगैर कोई अभियान नहीं चलाया जाना चाहिए.
किसी भी सूरत में महिला पुलिस के बगैर महिला कैडरों के खिलाफ कोई अभियान नहीं चलाना चाहिए. महिला विद्रोहियों के खिलाफ अभियानों को पुलिस ही संभाले, तो बेहतर है’, ‘धर्म (कर्तव्य) की रक्षा की कीजिए और अपने देश और सेना में गर्व का अनुभव कीजिए’ और अंत में ‘दयालु बनिए, लोगों की मदद कीजिए और उनके दिल और दिमाग को जीतिए.’
सेना मुख्यालय ने नागरिक प्राधिकार की सहायता करते वक्त ‘क्या करें और क्या न करें’ की एक पूरी फेहरिस्त जारी की है, जिनमें शामिल हैं, ‘नीचे निशाना बनाएं और प्रभाव के लिए गोली चलाएं’, ‘अनुशासन के उच्च मानक को सुनिश्चित करें’, ‘अत्यधिक बल का इस्तेमाल न करें’, ‘यातना नहीं दें’, नागरिकों के बीच कार्रवाई करते हुए किसी तरह के सांप्रदायिक पूर्वाग्रह का प्रदर्शन न करें’, ‘गिरफ्तार’ किए गए व्यक्ति को सबसे नजदीकी पुलिस स्टेशन के सुपुर्द करें और इस काम को बिना किसी देरी के करें’, और सबसे ज्यादा अहम बात, ‘उच्च न्यायालय/सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का तत्परता के साथ पालन किए जाना चाहिए.’
इस पृष्ठभूमि में सर्वोच्च न्यायालय ने एक रिट याचिका, न्यायेतर हत्या के पीड़ित परिवारों के संघ बनाम भारत सरकार पर चार साल से ज्यादा वक्त तक सुनवाई की और आखिरकार 8 जुलाई, 2016 की तारीख के फैसले और आदेश के द्वारा यह व्यवस्था दी कि मानवाधिकारों के खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन का आरोप लगानेवाली याचिकाएं अनुच्छेद 32 के तहत विचारणीय हैं और यह निर्देश दिया कि नागरिकों की हत्याओं के 1,528 मामलों की जरूर जांच की जानी चाहिए.
ऐसी तजवीज देते हुए सर्वोच्च न्यायालय :
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इस मामले की संवेदनशीलता और सशस्त्र बलों के कर्तव्यों और शक्तियों के संदर्भ में नागरिकों के अधिकारों को लेकर सचेत था.
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ने न्यायविद् मेनका गुरुस्वामी, जो बेहद योग्य वकील हैं, को अपनी सहायता के लिए अमीकस क्यूरी नियुक्त किया.
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ने सबसे सम्मानित जजों में से एक संतोष हेगड़े के नेतृत्व में एक आयोग का गठन किया, जिसमें पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह और कर्नाटक के पूर्व पूर्व पुलिस महानिदेशक अजय कुमार सिंह शामिल थे. आयोग ने पाया कि इसको संदर्भित किए गए छह मामलों में सभी लोग बिना वैध कारणों के मारे गए थे. इसी तरह से राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने जांच किए गए 62 में से 31 मामलों में बेवजह हत्या का पता लगाया था.
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भारत सरकार और अन्य पक्षों से ब्यौरेवार हलफनामा स्वीकार किया.
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भारत के अटॉर्नी जनरल का पक्ष सुना, जो अनुच्छेद 76 के तहत संवैधानिक पद है और जो भारतीय संघ के, जिसमें रक्षा मंत्रालय और सशस्त्र बल शामिल हैं, सर्वोच्च विधि/कानून अधिकारी हैं.
यह फैसला न सिर्फ तर्कपूर्ण है, बल्कि कानून के हिसाब से काफी विद्वतापूर्ण भी है, खासकर संवैधानिक कानून और मानवाधिकार कानूनों के लिहाज से.
अदालत ने सभी दृष्टिकोणों से इस मामले में विचार किया है, जिसमें यह दृष्टिकोण भी शामिल है कि मणिपुर में नागरिक-व्यवस्था का मामला ‘एक आंतरिक अशांति’ है, न कि देश की सुरक्षा के लिए खतरा है कि सशस्त्र बलों को नागरिक सत्ता की मदद के लिए तैनात किए जाए और इसलिए यह उसकी जगह नहीं लेता बल्कि बस उसकी सहयोगी की भूमिका निभाता है.
साथ ही यह भी कि सशस्त्र बलों का मकसद सामान्य हालात को बहाल करना था, फिर भी 60 वर्षों से मणिपुर लगातार ‘अशांत क्षेत्र’ बना हुआ है.
इसके बाद कोर्ट ने 2017 में मामलों की सुनवाई की और 14 जुलाई को अपने फैसले में पाया कि चूंकि जांच आयोगों, उच्च न्यायालय या राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा हत्याओं की जांच में एक प्राथमिक मामले से ज्यादा स्पष्ट मामला बन रहा है, इसलिए एफआईआर निश्चित तौर पर दायर की जानी चाहिए.
इसके अलावा न्यायालय ने पाया कि 1,528 मामलों में से 665 मामलों में, जिनके लिए याचिकाकर्ताओं द्वारा बयान दायर किया गया था और जिसे न्यायिक सलाहकार (अमीकस क्यूरी) ने स्वीकार किया और जिसके लिए ‘भारत सरकार ने’ या मणिपुर सरकार ने ‘अपनी अनापत्ति (नो ऑब्जेक्शन) दी थी’, उनकी जांच विशेष जांच दल (एसआईटी) द्वारा कराए जाने की जरूरत है, क्योंकि इनमें से किसी भी मामले में राज्य और सेना सहित किसी भी प्राधिकारी द्वारा कोई संज्ञान नहीं लिया गया था.
सर्वोच्च अदालत को नहीं दिया जा सकता दोष
किसी भी आधार पर सर्वोच्च न्यायालय को दोष नहीं दिया जा सकता है, जिसने खुले, निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से एक विस्तृत जांच कराने के बाद अपना संवैधानिक कर्तव्य निभाया.
रक्षा मंत्रालय और सेना मुख्यालय साथ ही वे अधिकारी जिन्होंने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है, उन्हें कार्यवाहियों के बारे में अच्छी तरह से मालूम था और वे दूर खड़े होकर यह सब होता देख रहे थे. इन सबकी मदद किसी और ने नहीं, खुद अटॉर्नी जनरल द्वारा की गई.
अब वे किसी भी आधार पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों पर सवाल नहीं उठा सकते हैं, क्योंकि पुनर्विचार और उपचारात्मक याचिका (क्यूरेटिव पिटीशन) का विकल्प और किसी के पास नहीं सिर्फ संघ के पास उपलब्ध था.
यह अपने आप में संदेहास्पद है कि क्या याचिकाकर्ता अनुच्छेद 32 की एक याचिका को भी बचाए रख सकते हैं, क्योंकि उनके किसी मूल अधिकार का हनन नहीं हुआ है. अगर कोई मामला बनता भी है, तो वह आफ्सपा के अंतर्गत उनके कानूनी अधिकार का है, जिसकी बहाली सुनवाई के दौरान प्रासंगिक सक्षम न्यायालयों द्वारा की जा सकती है.
याचिकाकर्ताओं में जज एडवोकेट जनरल के अधिकारीगण हैं, जिनके कानून से वाकिफ़ होने की अपेक्षा की जाती है और कानून उन्हें उस काम की इजाज़त नहीं देता, जो उन्होंने किया है. सेना अधिनियम, 1950 में उनके वर्तमान आचरण का एक से ज्यादा तरीके से निषेध करता है.
क्या यह जैसा धारा 37 में वर्णित है, बगावत के बराबर है, क्योंकि उनका प्रयास ‘थलसेना, नौसेना या वायुसेना या भारत के किसी व्यक्ति को उसके कर्तव्य या संघ के प्रति निष्ठा से विचलित करने के बराबर है’ और ‘भारत की थलसेना, नौसेना या वायुसेना या किसी अन्य बल में बगावत शुरू करता है, उसे उकसाता है, उसका कारण बनता है या किसी व्यक्ति के साथ साजिश रचकर इसका कारण बनता है’?
यह याचिका देश की सर्वोच्च अदालत और इस तरह से संघ के खिलाफ जाती है. यह निश्चित तौर पर एक भीषण अनुशासनहीनता का मामला है. यह गलती अपनी गंभीरता के कारण सर्वोच्च संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों और सेना मुख्यालय द्वारा नजरअंदाज किए जाने के लायक नहीं है.
एक विनाशकारी पंरपरा की शुरुआत कर दी गयी है और इससे पहले कि यह कानून के शासन को न दुरुस्त किए जाने लायक नुकसान पहुंचाए और इससे पहले कि न्यायपालिका के साथ एक बड़े संघर्ष का रूप अख्तियार कर ले और हमारे बहादुर सैनिकों के बीच एक टाले जा सकनेवाले असंतोष को जन्म दे, इसे तुरंत काबू में किया जाना चाहिए.
इसके जख्म बहुत ज्यादा गहरे होंगे. सेना प्रमुख ने खुद इस कृत्य के प्रति अपना गहरा असंतोष प्रकट किया है. उन्हें इस मामले को तार्किक परिणति तक लेकर जाना चाहिए और कानून की सर्वोच्चता को सुनिश्चित करना चाहिए, जो हमारे लोकतंत्र के लिए काफी महत्वपूर्ण है.
मैंने सशस्त्र बलों के प्रति हमेशा प्रशंसा का भाव रखा है और उससे प्रेम किया है. मेरे विशेष प्रेम का एक कारण यह भी है कि मेरे सगे भाई ने श्रेष्ठ तरीके से सेना में अपनी सेवाएं दी और वह 1965 और 1971 के युद्ध में सक्रिय रूप से शामिल थे.
मैंने सैन्य बलों के जवानों के लिए स्वैच्छिक तरीके से बिना फीस लिए मुकदमा भी लड़ा है, और जब भी मुझे इस बात की जरूरत महसूस हुई है मैंने सेवारत सैन्य अधिकारियों और उनके परिवारों को वित्तीय सहायता भी दी है.
सर्वोच्च न्यायालय बार एसोसिएशन के अध्यक्ष के तौर पर मैंने देश के श्रेष्ठ वकीलों की मदद से सीमा पर तैनात हमारे जवानों के मुफ्त के कानूनी कैंपों की भी पेशकश की है, दुर्भाग्यपूर्ण की बात है, जिसकी इजाज़त सेना मुख्यालय द्वारा नहीं दी गई.
एक रैंक, एक पेंशन के मसले पर पूरी एक्जीक्यूटिव कमेटी और खुद मैं जंतर-मंतर गए थे और हमने सार्वजनिक तौर पर उनकी न्यायोचित मांगों का समर्थन किया. लेकिन फिर भी आज मैं हालिया घटनाक्रम से गहरे तक दुखी हूं. मैं उम्मीद करता हूं और प्रार्थना भी करता हूं कि मेरे इस दुख की मियाद छोटी होगी.
(दुष्यंत दवे वरिष्ठ वकील और सर्वोच्च न्यायालय बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष हैं. )
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