बेस्ट ऑफ 2018: आरबीआई अधिनियम की धारा 7 का इस्तेमाल जनहित में नहीं है- यह मौके की फ़िराक़ में बैठे कॉरपोरेट्स को आरबीआई द्वारा पैसा देने के लिए मजबूर करने के इरादे से उठाया गया एक बेशर्मी भरा कदम है.
इस सरकार में बैठे कारोबारियों के तरफदारों ने एक बार फिर अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया है. वे हर बार ऐसे तख्तापलट को अचूक तरीके से अंजाम देते हैं. इस बार एक अप्रत्याशित कदम उठाते हुए केंद्र सरकार ने भारतीय रिज़र्व बैंक को आरबीआई अधिनियम की धारा 7 के तहत एक निर्देश जारी किया है.
यह एक तरह से केंद्र सरकार की तरफ से आरबीआई को दिया गया आदेश है कि वह किसी भी हाल में गैर बैंकिंग वित्तीय क्षेत्र में कर्ज देने पर लगनेवाले संभावित विराम की स्थिति का हल निकाले और छोटे कारोबारों को कर्ज देने के लिए नियमों में ढील दे.
पिछले साल के दरमियान आरबीआई ने वैसे कमजोर बैंकों पर कर्ज देने को लेकर पाबंदियां लगाई हैं, जिनमें गैर निष्पादन परिसंपत्तियां (एनपीए) और अन्य चेतावनी देने वाले संकेतक सामान्य से कहीं ऊपर थे और इस तरह से उनके पूंजी आधार में सेंध लगा रहे थे.
आप इस बात के लिए निश्चिंत रह सकते हैं कि दबाव में आए आरबीआई द्वारा इन नियमों को आसान बना देने का नतीजा सरकार के कारोबारी संगियों तक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बैंकों के पैसों का प्रवाह शुरू हो जाएगा क्योंकि पैसा स्वभावगत रूप से पानी के समान बहनेवाला होता है.
मुझे यह पता चला है कि गुजरात से ताल्लुक रखनेवाले एक बड़े नामचीन बिजनेस प्रमोटर, जो नरेंद्र मोदी की आधिकारिक विदेश यात्राओं में उनके साथ सफर करने के लिए जाने जाते हैं, वर्तमान में अपने पुराने कर्ज संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए 18 प्रतिशत से ज्यादा ब्याज पर कम अवधि वाले कर्ज ले रहे हैं.
लेकिन अगर एक बार आरबीआई बैंकों के लिए कर्ज देने के वर्तमान कठोर नियमों में ढील दे देता है और फंसे हुए गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थानों को पर्याप्त तरलता की आपूर्ति कर दी जाती है, तो कुछ चुने हुए यार-दोस्त कारोबारियों को- जिन पर बैंकों का 4 लाख करोड़ रुपये बकाया हैं- पैसे मिलते रहने का रास्ता खुल जाएगा.
वैसे भी ये शक्तिशाली प्रमोटर आरबीआई के 12 फरवरी, 2018 के सर्कुलर को ठेंगा दिखाते हुए दिवालिया कार्यवाहियों में जाने से बच गए हैं. अदानी समूह, एस्सार और टाटा की कुछ बिजली परियोजनाएं, जिन पर 1 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा बकाया है, उन्हें फिलहाल नया जीवनदान दिया जा रहा है.
इसलिए किसी मुगालते में मत रहिए. वित्त मंत्री चाहे जो दावा कर लें, आजादी के बाद से अब तक आरबीआई अधिनियम की जिस धारा 7 का आज तक इस्तेमाल नहीं किया गया है- यहां तक कि 1991 या 2008 के वित्तीय संकट के दौरान भी जिस धारा का इस्तेमाल नहीं किया गया- उसे इस्तेमाल में लाने का फैसला जनहित में नहीं किया गया है.
यह मौके की फ़िराक़ में बैठे कॉरपोरेट्स के लिए बैंक फंडिंग का रास्ता साफ करने के मकसद से उठाया गया एक बेशर्म कदम है. इन कॉरपोरेटों को बचाए जाने की जरूरत इसलिए है, क्योंकि तभी वे अज्ञात चुनावी बॉन्डों के सहारे राजनीतिक पार्टियों को जरूरी चंदा दे पाने की स्थिति में आ सकेंगे.
ये कॉरपोरेट समूह और उनके प्रमोटर अजर-अमर हैं और सरकार चाहे किसी की भी आए, कोई इन पर हाथ नहीं डालता. उन पर भले बैंकों का 1 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा कर्ज हो, लेकिन फिर भी वे फायदेमंद रक्षा सौदे का एक हिस्सा पाने में कामयाब हो जाते हैं.
मोदी को इस बात का जवाब देना होगा कि आखिर प्रमोटरों के एक खास समूह के साथ विशेष बर्ताव क्यों किया जा रहा है और 12 फरवरी 2018 का सर्कुलर उन पर क्यों लागू नहीं हुआ है?
क्या रिज़र्व बैंक पर उस नियम को कमजोर करने का दबाव है जो एक सीमा के उपर के सभी कर्जदाताओं के लिए दिवालिया कार्यवाहियों से गुजरने को अनिवार्य बनाता है? क्या इन मित्र कॉरपोरेटों पर लागू होनेवाले नियम-कानून अलग हैं.
2019 के चुनाव की ओर बढ़ते हुए ये सवाल निश्चित तौर पर मोदी सरकार के लिए परेशानी का सबब बन सकते हैं. हर बीतते दिन के साथ इन कारोबारी घरानों की ताकत खुलकर सबके सामने आ रही है.
पहले इन ताकतों ने रघुराम राजन के खिलाफ एक अभियान चलाया और यह सुनिश्चित किया उनके कार्यकाल को विस्तार न दिया जाए, क्योंकि राजन ने प्रधानमंत्री कार्यालय को बड़े राजनीतिक रसूखदार प्रमोटरों की एक सूची भेजी थी, जिन पर बैंक से लिए गए कर्जे को अपनी परियोजनाओं में लगाने की जगह उसे धोखाधड़ी से किसी अन्य जगह पर लगाने का संदेह था.
राजन ने इन भ्रष्ट प्रमाटरों के खिलाफ विभिन्न एजेंसियों की मिली-जुली जांच की सिफारिश की थी, क्योंकि आरबीआई का मानना था कि उसके पास अकेले यह काम कर सकने का साधन नहीं है.
द वायर के आरटीआई आवेदन से इस बात की पुष्टि होती है कि यह सूची 2015 में ही भेजी गई थी और प्रधानमंत्री कार्यालय कई बार ताकीद करने के बावजूद भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति के सामने भी इस सूची को रखने से इनकार कर रहा है.
इस तरह से यह साफ है कि सरकार कुछ छिपा रही है और अब वह आज तक इस्तेमाल में नहीं लाई गई धारा 7 के प्रावधानों के तहत आरबीआई प्रमुख के खिलाफ कार्रवाई शुरू करके, उन्हें रास्ते से हटाने का मन बना रही है.
आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल केंद्र के निर्देश का पालन नहीं कर सकते हैं, क्यांकि ऐसा करना संस्थान की गरिमा को कम करनेवाला होगा और बैंकों को सुधारने और भ्रष्ट प्रमोटरों पर नकेल कसने के लिए केंद्रीय बैंक द्वारा लिए गए कुछ सख्त फैसलों की विश्वसनीयता को नष्ट कर देगा.
पटेल का इस्तीफा भारत को दुनियाभर के निवेशकों के बीच हंसी का पात्र बना देगा और इसका नतीजा मुद्रा बाजार में आज तक नहीं देखे गए उठापटक के तौर पर निकलेगा.
याद रखिए कि पिछले शुक्रवार को आरबीआई के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने 2010 का अर्जेंटीना का उदाहरण दिया था, जहां के केंद्रीय बैंक के गवर्नर ने सरकार के राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिए संस्था की निधि में से धन देने के लिए सरकार द्वारा मजबूर किए जाने पर इस्तीफा दे दिया था. उसके बाद अर्जेंटीना का का बाजार औंधे मुंह गिर गया था.
यहां दोनों स्थितियों में काफी समानताएं हैं, क्योंकि वित्त मंत्रालय चुनावी वर्ष में केंद्र के बढ़ते राजकोषीय घाटे को पाटने के लिए आरबीआई पर अपनी आकस्मिक निधि (2.5 लाख करोड़ रुपए) का एक हिस्सा देने के लिए दबाव बना रहा है. यह तेल की ऊंची कीमतों, बढ़ते चालू खाते के घाटे और कमजोर होते रुपए के साये में हो रहा है.
अगर इन परिस्थितियों में आरबीआई के गवर्नर के इस्तीफे का परिणाम बहुत गंभीर हो सकता है. आरबीआई अधिनियम की धारा 7 को लगाना, इसलिए हताशा में उठाया गया कदम है, जो पलट कर मोदी सरकार पर ही वार करेगा.
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