किसी दिन ये नेता सुप्रीम कोर्ट से कह देंगे कि जनादेश हमारे पास है, फैसला हम करेंगे

सरकार के पास अगर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लागू कराने का ढांचा और इरादा नहीं है तो फिर सुप्रीम कोर्ट को ही सरकार से पूछ लेना चाहिए कि हम आदेश देना चाहते हैं पहले आप बता दें कि आप लागू करा पाएंगे या नहीं.

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New Delhi: A view of Supreme Court of India in New Delhi, Thursday, Nov. 1, 2018. (PTI Photo/Ravi Choudhary) (PTI11_1_2018_000197B)
New Delhi: A view of Supreme Court of India in New Delhi, Thursday, Nov. 1, 2018. (PTI Photo/Ravi Choudhary) (PTI11_1_2018_000197B)

सरकार के पास अगर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लागू कराने का ढांचा और इरादा नहीं है तो फिर सुप्रीम कोर्ट को ही सरकार से पूछ लेना चाहिए कि हम आदेश देना चाहते हैं पहले आप बता दें कि आप लागू करा पाएंगे या नहीं.

New Delhi: A view of Supreme Court of India in New Delhi, Thursday, Nov. 1, 2018. (PTI Photo/Ravi Choudhary) (PTI11_1_2018_000197B)
सुप्रीम कोर्ट. (फोटो: पीटीआई)

रात 10 बजते ही भारत का सुप्रीम कोर्ट अल्पसंख्यक की तरह सहमा-दुबका खड़ा नज़र आने लगा. कहां तो सुप्रीम कोर्ट का आदेश बहुमत/बहुसंख्यक की इच्छा हो जानी चाहिए थी मगर यहां तो बहुमत के नाम पर बहुसंख्यक सुप्रीम कोर्ट को अपनी इच्छा का आदेश देने लगा है.

10 बजते ही उसका एक बड़ा हिस्सा सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करने लगा. 23 अक्टूबर का आदेश कि सिर्फ रात आठ से दस के बीच ही पटाखे फोड़े जाएंगे, धुआं-धुआं हो चुका था. सुप्रीम कोर्ट की इच्छा अब सुप्रीम नहीं रही.

आज़ाद भारत के इतिहास की यह सबसे शर्मनाक दिवाली रही. जिन लोगों ने भी 10 बजे के बाद पटाखे फोड़े हैं या तो वे वाकई मासूम थे या फिर जान रहे थे कि वे क्या कर रहे हैं. ये लोग परंपरा के भी अपराधी हैं और संविधान के भी अपराधी हैं.

सुप्रीम कोर्ट का आदेश व्यावहारिक नहीं था. सरकार अगर आदेशों को लागू न करे तो सुप्रीम कोर्ट का हर आदेश ग़ैर व्यावहारिक हो सकता है. एक दिन ये नेता यह भी कह देंगे कि सुप्रीम कोर्ट का होना ही व्यावहारिक नहीं है. हमें जनादेश मिला है, फैसला भी हमीं करेंगे.

पटाखे न छोड़ने का आदेश 23 अक्टूबर को आया था मगर भीड़ की हिंसा पर काबू पाने का आदेश तो जुलाई में आया था. कोर्ट ने ज़िला स्तर पर पुलिस को क्या करना है, इसका पूरा खाका बना दिया था. फिर भी दशहरे के बाद बिहार के सीतामढ़ी में क्या हुआ.

यहां पुलिस ने जिस रास्ते से मूर्ति विसर्जन का जुलूस नहीं ले जाने को कहा था, भीड़ उसी इलाके से ले जाने की ज़िद पर अड़ गई. दोनों तरफ से पथराव शुरू हो गया. 80 साल के जैनुल अंसारी को भीड़ ने पीट-पीट कर मार दिया.

भीड़ की हिंसा पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तीन महीने बाद भी एक बुज़ुर्ग मार दिया गया. मार देने के बाद जैनुल अंसारी के शव को जलाने की भी कोशिश हुई. क्या अब हम ये कहेंगे कि भीड़ की हिंसा काबू नहीं की जा सकती है. सुप्रीम कोर्ट का आदेश लागू ही नहीं हो सकता. क्या बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार यह कहना चाहते हैं?

इसलिए सवाल यह नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश व्यावहारिक था. सवाल यह है कि जिन पर आदेश लागू कराने की ज़िम्मेदारी है क्या उनकी भाषा और करतूत संवैधानिक है? क्या प्रधानमंत्री ने पटाखे नहीं छोड़ने की अपील की?

क्या अमित शाह ने अपील की, क्या किसी भी मुख्यमंत्री ने पटाखे न छोड़ने की अपील की? सरकार के पास अगर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लागू कराने का ढांचा और इरादा नहीं है तो फिर सुप्रीम कोर्ट को ही सरकार से पूछ लेना चाहिए कि हम आदेश देना चाहते हैं पहले आप बता दें कि आप लागू करा पाएंगे या नहीं.

‘मैं केरल की कम्युनिस्ट सरकार को चेतावनी देने आया हूं, सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट के नाम से भगवान अयप्पा के भक्तों का दमन न करें. केरल सरकार सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट की आड़ में भगवान अयप्पा के भक्तों पर अत्याचार बंद करे. ये कम्युनिस्ट सरकार कान खोल कर सुन ले, जिस प्रकार से भगवान अयप्पा के भक्तों पर दमन का कुचक्र चला रहे हो, भारतीय जनता पार्टी पूरे देश भर के केरल के आस्थावान भक्तों के साथ चट्टान की तरह खड़ी रहेगी. मैं मुख्यमंत्री विजयन को चेतावनी देने आया हूं कि अगर आपने यह कुचक्र दमन का बंद नहीं किया तो बीजेपी का कार्यकर्ता आपकी सरकार की ईंट से ईंट बजा देगा. आपकी सरकार ज़्यादा दिन नहीं चल सकेगी. जहां तक आस्था का सवाल है मैं मानता हूं कि बीजेपी का कार्यकर्ता भगवान अयप्पा के भक्तों के साथ चट्टान की तरह खड़ा रहेगा. हमें कोई डिगा नहीं सकता है.’

यह अमित शाह की भाषा है, जो भारत में दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. जिस पार्टी की केंद्र और 19 राज्यों में सरकार है. ये आस्था के सवाल पर भक्तों के साथ हैं और इनके भाषण में आपको कहीं भी नहीं सुनाई देगा कि ये सुप्रीम कोर्ट के आदेश के साथ हैं. बल्कि भाषा सुप्रीम कोर्ट के ख़िलाफ़ है.

यह भाषा पहली बार नहीं बोली जा रही है. 1992 में भी बोली गई थी. तब तो सुप्रीम कोर्ट को लिखकर भरोसा दिया गया था मगर उसकी भी परवाह नहीं की गई. अब तो सुप्रीम कोर्ट के लिखे हुए आदेशों की खुलेआम धज्जियां उड़ाई जा रही हैं.

अमित शाह केरल के मुख्यमंत्री को चुनौती दे रहे हैं कि आप सुप्रीम कोर्ट के अनेक आदेश लागू नहीं कर सके, सिर्फ एक ही आदेश को लागू करने के पीछे क्यों पड़े. क्या अमित शाह साफ-साफ नहीं कह रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लागू करने की हिम्मत कैसे की?

आप केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह की भाषा को सुनिए. कैसे सुप्रीम कोर्ट को चुनौती दी जा रही है. गिरिराज सिंह हिंदू सब्र के टूटने की बात कर रहे हैं. दिल्ली में धार्मिक नेता जमा होते हैं, प्रधानमंत्री को राम का अवतार कहते हैं और सुप्रीम कोर्ट को मंदिर विरोधी. वहां इस तरह के बयान दिए गए कि सुप्रीम कोर्ट में मंदिर विरोधी लोग हैं.

धर्म के दायरे से लगातार सुप्रीम कोर्ट की साख़ पर हमला हो रहा है. उसके वजूद पर हमला हो रहा है. यही बात अल्पसंख्यक समुदाय का कोई सनकी मौलाना कह देता तो गोदी मीडिया आग उगलने लगता.

न्यूज़ एंकर दंगों के पहले बंटने वाले पम्फलेट की भाषा अब खुलेआम बोलने लगे हैं. अब समझ में आ रहा है, सुप्रीम कोर्ट को चुनौती देने वाली भाषा से दिक्कत नहीं है. यह भाषा कौन बोल रहा है, उसका मज़हब क्या है, उसकी पार्टी क्या है, इससे दिक्कत है. सुप्रीम कोर्ट को कौन चुनौती दे सकता है, यह धर्म और उसके कपड़े के रंग से तय होगा.

दिवाली की रात दस बजे के बाद पटाखे छोड़ने वाले यही भाषा बोल रहे थे. जिन लोगों ने सिर्फ पटाखों का शोर सुना, उन्होंने कुछ नहीं सुना. उन्हें यह सुनना चाहिए था जिसकी आहट से हमारी पब्लिक स्पेस भर गई है.

न्यूज़ चैनलों की भाषा और उनके स्क्रीन के रंग देखिए. मीडिया 1992 में भी सांप्रदायिक हो गया था. 2018 में उससे अधिक सांप्रदायिक हो गया है. यह स्थिति पहले से भी ख़तरनाक है. सरकार चलाने वालों और उनके समर्थकों की भाषा भीड़ को सामान्य बना रही है.

उसे आने वाले वक्त के लिए तैयार कर रही है. जैसे ही आप हिंसा और अवमानना की भाषा के प्रति सामान्य होने लगते हैं, आप उस भीड़ में शामिल होने और हिंसा करने के लिए ख़ुद को तैयार करने लगते हैं.

दिवाली की आधी रात रौशनी से जहां देश जगमगाने के भ्रम में डूबा था, वहीं इस रौशनी के अंधेरे में हमारा सुप्रीम कोर्ट भीड़ से घेर लिए गए एक अल्पमत-अल्पसंख्यक की तरह अकेला खड़ा था.

सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर कार्बन डाईआक्साइड की परतें जमने लगी हैं. ऑर्डर-ऑर्डर की आवाज़ आस्था से बनी भीड़ के बीच खोती चली जा रही है. योर ऑनर, योर ऑनर बोलने वाले लोग सुप्रीम कोर्ट के ऑनर से खिलवाड़ कर रहे हैं.

जो चुप हैं, वो अपने हाथ से बनाई संस्थाओं के मिटाने का इतिहास रच रहे हैं. शुक्रिया उन बच्चों का जो सुप्रीम कोर्ट को नहीं जानते, मगर हवा में तैर रहे उन काले कणों को जान गए हैं जिनसे उनका फेफड़ा ख़ाक हो सकता है.

भला हो उन नागरिकों का जो बच्चे नहीं हैं, मगर हवा में तैर रहे उन काले कणों को नहीं पहचान पा रहे हैं जिनसे लोकतंत्र ख़ाक हो सकता है. दिवाली मुबारक.

(यह लेख मूल रूप से रवीश कुमार के ब्लॉग कस्बा पर प्रकाशित हुआ है.)