ऐसा लगता है कि अंग्रेजों के साथ-साथ सत्याग्रह का मतलब भी देश से चला गया है. आज़ादी के बाद किसान अपनी विभिन्न समस्याओं के निदान के लिए गांधी के बताए सत्याग्रह के मार्ग पर चल रहे हैं, पर सरकारों के लिए इसका कोई अर्थ नहीं रह गया है.
‘जब भावनाएं जड़ और भ्रष्ट हो जाती हैं तब पूजा शुरू हो जाती है. जब हम कविता की ताजगी और तीव्रता लेते हैं और उस भावना को बनाए नहीं रख पाते तो हम रूढ़ि अपना लेते हैं और भावना की खोखली श्रद्धांजलि अर्पित करने लगते हैं, जो किसी समय थी.’
प्रख्यात पत्रकार राजेंद्र माथुर ने गाय और संघ की राजनीति के संदर्भ में यह बात 1965 में कही थी. पर, यह हकीकत सिर्फ गाय और संघ तक ही सीमित नहीं है.
ऐसे समय जब बिहार सरकार चंपारण सत्याग्रह का शताब्दी समारोह मना रही है, राजेंद्र माथुर की उपरोक्त पंक्तियों को मन में रखकर आइये आजादी के बाद के बिहार से ही ‘सत्याग्रह’ की कुछ सच्ची कहानियों पर गौर करें और जाने कि उत्सव मनाने वाली सरकार की भावनाएं किस हद तक खोखली हैं.
पहली कहानी बिहार के उसी चंपारण से जहां मोहनदास करमचंद गांधी ने सबसे पहले सत्याग्रह की शुरुआत की थी और जहां उस बापू का जन्म हुआ जिसे आज दुनिया महात्मा गांधी के नाम से जानती है.
गांधी ने आज से सौ साल पहले किसानों का दुख समझते हुए ‘तीनकठिया’ प्रथा को समाप्त करने के लिए सत्याग्रह किया था. इसके तहत किसान एक बीघे में तीन कट्ठा नील की फसल उगाने के लिए विवश थे. तब ‘चंपारण-सत्याग्रह’ के आगे अंग्रेज सरकार को भी झुकना पड़ा था.
अंग्रेजों के साथ सत्याग्रह का मतलब भी चला गया
लेकिन, ऐसा लगता है कि अंग्रेजों के साथ-साथ सत्याग्रह का मतलब भी देश से चला गया है. आजादी के बाद किसान अपनी विभिन्न समस्याओं के निदान के लिए दशकों से गांधी के बताए सत्याग्रह के मार्ग पर चल रहे हैं, पर सरकारों के लिए उसका कोई अर्थ नहीं रह गया है.
अब पश्चिम चंपारण के सत्याग्रही किसानों की उन 11 मांगों पर विचार करें और तय करें कि क्यों किसी लोकतांत्रिक सरकार को इन्हें मानने में दिक्कत हो सकती है? लेकिन सच्चाई यही है कि दशकों से इन्हें पूरा करने में सरकारें नाकाम रही हैं. इतना ही नहीं, इन मांगों के साथ सत्याग्रह करनेवाले नौ गांधीवादी किसानों को पिछले साल जानलेवा हमले का आरोपी बनाकर जेल भी भेज दिया गया.
- जिले की 6000 एकड़ जमीन भूमिहीनों के बीच वितरित किया जाना है. जिनमें 5200 एकड़ भूमि हरिनगर चीनी मिल की सीलिंग से अधिशेष हैं. इनमें 1200 एकड़ भूमि चंपारण आंदोलन के सूत्रधार राजकुमार शुक्ल (गांधीजी को चंपारण ले जाने वाले) के नाम पर कृषि विश्वविद्यालय बनाया जाए. बाकी के 4000 एकड़ में से 3000 एकड़ भूमि 30,000 भूमिहीन परिवारों के बीच 10-10 डिसिमल बांट दी जाए. शेष 1000 एकड़ भूमि पर सड़क, नाला, शौचालय, स्कूल, खेल के मैदान, कौशल केंद्र इत्यादि बनाए जाएं.
- हर एक बेघर परिवार को 10 डिसिमल भूमि का कानूनी हकदार बनाने वाला विधेयक विधान मंडल में लंबित है, उसे चंपारण शताब्दी वर्ष में पारित किया जाए. (यानी नीतीश कुमार की ही पहल ठंडे बस्ते में है.)
- रैयती, गैरमजरूआ और आम भूमि पर बसे भूमिहीन परिवार को आवासीय पर्चा दिया जाए.
- प. चंपारण की विभिन्न अदालतों में सीलिंग की जमीन से संबंधित 100 मुकदमें 40 सालों से न्याय की गुहार लगा रहे हैं, उनका निपटारा किया जाए.
- सीलिंग से अधिशेष, गैर-मजरूआ मालिक व भूदान की जमीन के पर्चे जिन किसानों के पास हैं, उन्हें कब्जा दिलाया जाए. (इससे स्पष्ट है कि पर्चा किसी के पास है तो कब्जा किसी और का है.)
- पटना उच्च न्यायालय में लंबित 270 मुकदमों का शीघ्र निपटारा करने के लिए विशेष पीठ की स्थापना की जाए.
- गांधी जी ने बेतिया के जिस हजारीमल धर्मशाला में 22 अप्रैल को 1927 को किसानों के बयान दर्ज किए थे, वहां एक कीर्तस्तंभ बनाया जाए.
- चंपारण के 53 बुनियादी विद्यालयों को हुनर, सद्भाव संस्कार व व्यवहार केंद्रों के रूप में विकसित किया जाए. (बुनियादी विद्यालय की शुरुआत गांधीजी ने की थी. यहां पढ़ाई के साथ-साथ जीवन जीने का तरीका भी बताया जाता था. सबके पास एक से 11 एकड़ तक जमीन है.)
- बुनियादी विद्यालयों सहित सभी विद्यालयों की जमीन को अतिक्रमण मुक्त कराते हुए चारदीवारी बनाई जाए. (इससे साफ है कि इन पर अतिक्रमण हो चुका है.)
- चनपटिया में ग्राम सेवा केंद्र वृंदावन आश्रम की भूमि से अतिक्रमण हटाकर ग्रामीण विश्वविद्यालय बनाया जाए.
- भितिहरवा आश्रम (जहां गांधीजी ठहरे थे) के कुछ उत्साही युवकों द्वारा चलाए जा रहे कस्तूरबा कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के विकास और संरक्षण के लिए बिहार सरकार हाथ बढ़ाए.
आज भी एक अदद गांधी की तलाश
चंपारण के भूमि सत्याग्रहियों की उपरोक्त मांगों से समझा जा सकता है कि अपने मूलभूत अधिकारों की रक्षा के लिए वंचित व गरीब किसान आज भी एक अदद गांधी की तलाश में उसी तरह भटक रहे हैं जिस तरह राजकुमार शुक्ल 100 साल पहले भटक रहे थे.
लेकिन समस्या सिर्फ चंपारण के किसानों की ही नहीं है. पूरे बिहार में ही भूमि सुधार के उपाय नहीं किए जा सके हैं. पहली बार मुख्यमंत्री बनने पर नीतीश कुमार ने उत्साह में आकर डी बंदोपाध्याय ने नेतृत्व में भूमि सुधार आयोग का गठन जरूर कर दिया था, पर उनकी सिफारिशों को लागू करने की हिम्मत नहीं दिखा पाए.
बंदोपाध्याय ने 25 जुलाई 2007 को यह कहा था कि बिहार में भू-स्वामी बड़े ताकतवर हैं. इसीलिए 50 सालों में भी यहां भूमि सुधार कानून लागू नहीं हो सका. यह याद रखा जाना चाहिए कि 1950 से देश में जमींदारी उन्मूलन कानून और 1955 से भू-हदबंदी कानून लागू है. बिहार में भी भूमि सुधार कानून 1961 में बनाया गया था.
भू-स्वामियों के कानूनी दांव-पेंच के कारण करीब पांच दशक से इन कानूनों का लाभ भूमिहीनों को नहीं मिल सका है. भूमि सुधार के लिए सरकारें कभी सख्त नहीं रही हैं. यह सख्ती न तो जननायक कर्पूरी ठाकुर दिखा सके और न हीं पिछड़ों के मसीहा लालू यादव. अब नीतीश कुमार की लाचारी भी जनता महसूस कर रही है.
सरकार मजबूर पर सत्याग्रही भी जिद्दी
चंपारण में भूमि सत्याग्रह करनेवाले संगठन लोक संघर्ष समिति के नेता पंकजभाई बताते हैं कि पूरे बिहार में 20 हजार एकड़ भूमि ऐसी है जिसपर किसी तरह का कानूनी झगड़ा नहीं है. फिर भी उसे बांटा नहीं जा रहा है.
उनका संकेत साफ है, ‘करीब 40 से ज्यादा विधायकों ने ही पिछले बीस सालों में 100-100 एकड़ से ज्यादा जमीन खरीदी है. ये जमीन सीलिंग से बची हुई, गैर-मजरुआ आम या भूदान की हैं. कानून का पालन न करा पाने की सरकार की मजबूरी का कारण इससे समझा जा सकता है.’
ऐसा नहीं है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को इसका अहसास नहीं है. चंपारण के लौरिया में पिछले 26 फरवरी को सत्याग्रह सभा के बाद 9 मार्च को सीएम ने लोक संघर्ष समिति के प्रतिनिधियों से इस मुद्दे पर चर्चा की थी.
उन्होंने हरिनगर चीनी मिल की सीलिंग से बची जमीन, हजारीबाग धर्मशाला में सत्याग्रह कीर्ति स्तंभ बनाने और फर्जी मुकदमें में 9 सत्याग्रहियों को फंसाने के मुद्दे पर मुख्य सचिव को जरूरी निर्देश भी दिया था. लेकिन, एक माह से ज्यादा समय बीत जाने के बाद सीएम के निर्देश अब हवा-हवाई ही लग रहे हैं.
पंकजभाई बताते हैं, ‘मुख्यमंत्री ने सीएस को कहा था कि सत्याग्रह के शताब्दी वर्ष में भी अगर इनकी मांगों को न माना गया तो पूरा समारोह सिर्फ एक इवेंट बनकर रह जाएगा.’ क्या उसके बाद बात कुछ आगे बढ़ी है? ‘नहीं. सब कुछ हवा में है.’
पंकजभाई जैसे गांधीवादी अब भी निराश नहीं हैं. कहते हैं, ‘नीतीश या किसी भी मुख्यमंत्री पर हमें कोई भरोसा नहीं है. भरोसा अपने सत्याग्रह पर है. अब ऐसा लग रहा है कि डेढ़-दो हजार लोगों के सत्याग्रह से काम नहीं चलेगा.जब तक 20-25 हजार लोग सत्याग्रह नहीं करेंगे और इसके लिए मर मिटने को तैयार नहीं होंगे, कुछ नहीं होगा. हम 10 जून को हरिनगर चीनी मिल के बहुअरवा फार्म और रामनगर के गांवदरा फार्म पर बड़ी सत्याग्रह सभा करने वाले हैं. उसमें कुछ हो सकता है.’
मोतीहारी चीनी मिल कर्मियों का सत्याग्रह
दूसरी कहानी भी चंपारण से ही. पूर्वी चंपारण जिले में इसी 10 अप्रैल को बकाया वेतन की मांग कर रहे चीनी मिल के दो कर्मचारियों ने पूर्व घोषित चेतावनी के तहत आत्मदाह कर लिया. इसी दिन बिहार सरकार ने चंपारण सत्याग्रह शताब्दी समारोह की शुरुआत थी क्योंकि, गांधीजी ने सौ साल पहले इसी तारीख को बिहार की धरती पर कदम रखे थे.
यहां चीनी मिल पर किसानों और कर्मचारियों का करीब 60 करोड़ रुपये बकाया है. इसके भुगतान के लिए किसान-मजदूर पिछले 15 सालों से सत्याग्रह कर रहे हैं. इन 15 सालों में सरकार ने किसान-मजदूरों के सत्याग्रह पर ध्यान देना जरूरी नहीं समझा है. आत्मदाह जैसे कदम के बाद क्या शताब्दी वर्ष में सरकार बकाया वेतन दिया पाएगी? जवाब के लिए इंतजार ही करना होगा.
बागमती तटबंध के खिलाफ सत्याग्रह
तीसरी कहानी तिरहूत क्षेत्र की है. बागमती नदी के विनाशकारी तटबंधों के निर्माण के खिलाफ दशकों से संघर्ष कर रहे सत्याग्रहियों की मांग को बिहार सरकार लगातार अनसुनी कर रही है. ‘द वायर हिंदी’ ने इससे संबंधित रिपोर्ट पहले भी प्रकाशित की है.
विभिन्न विशेषज्ञों की कमेटी ने इन तटबंधों को किसानों के लिए विनाशकारी माना है. यहां तक की जिलाधिकारी की रिपोर्ट भी सत्याग्रहियों के पक्ष में है और मुख्यमंत्री भी सैद्धांतिक रूप से सत्याग्रहियों के साथ हैं. फिर भी सरकार ने तटबंधों के निर्माण का काम रोकने के लिए कोई आधिकारिक पहल नहीं की है.
मौखिक आश्वासन जरूर दिए गए हैं, जिसका पालन अधिकारियों के लिए जरूरी नहीं है. खासकर तब जब मामला तटबंध निर्माण के नाम पर राजनेता-अफसर-ठेकेदार की तिगड़ी के बीच बंदरबांट से जुड़ा हो. यहां भी सत्याग्रही दशकों से अड़े हुए हैं और सरकार लगातार उनकी उपेक्षा कर रही है.
बिहार ही नहीं देशभर में सत्याग्रह की ऐसी कहानियों में आजादी के बाद कोई कमी नहीं आई है.
और अब शताब्दी समारोह…
यह साफ है कि बिहार में भूस्वामियों की राजनीतिक दबंगता के कारण सरकार भूमि सुधार के सत्याग्रहों पर ध्यान नहीं दे पा रही है. कर्मचारियों से ज्यादा उद्योगपतियों की चिंता बकाया वेतन की वसूली के सत्याग्रहों में बाधक है. निर्माण कार्यों में राजनेता-अफसर-ठेकेदार की तिगड़ी का बंदरबांट सरकार को सत्याग्रहों की चिंता से मुक्त रखता है.
बावजूद इसके सरकार चंपारण सत्याग्रह का शताब्दी समारोह मना रही है. क्योंकि, ऐसे समारोहों का आर्थिक चरित्र न सिर्फ सरकार को बल्कि उन गांधीवादियों को भी रास आ रहा है, जो सिस्टम से हासिल करना जान चुके हैं.
अब अपने मन से, यदि संभव हो, राजेंद्र माथुर की वह बात बाहर निकाल दें- ‘जब भावनाएं जड़ और भ्रष्ट हो जाती हैं तब…’ और सत्याग्रह समारोह का आनंद उठाएं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)