रिज़र्व बैंक विवाद में केंद्र भले ही पीछे हटा दिख रहा हो, लेकिन समस्या अब भी बनी हुई है

अगर कुल संभावित एनपीए का क़रीब 40 प्रतिशत 10 के करीब बड़े कारोबारी समूहों में फंसा हुआ है, तो बैंक इसका समाधान किए बगैर क़र्ज़ देना शुरू नहीं कर सकते हैं. यह बात स्पष्ट है लेकिन सरकार बड़े बकाये वाले बड़े कारोबारी समूहों के लिए अलग नियम चाहती है, जो उनके हितों का ख्याल रखते हों.

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अगर कुल संभावित एनपीए का क़रीब 40 प्रतिशत 10 के करीब बड़े कारोबारी समूहों में फंसा हुआ है, तो बैंक इसका समाधान किए बगैर क़र्ज़ देना शुरू नहीं कर सकते हैं. यह बात स्पष्ट है लेकिन सरकार बड़े बकाये वाले बड़े कारोबारी समूहों के लिए अलग नियम चाहती है, जो उनके हितों का ख्याल रखते हों.

Modi Urjit Patel PTI Reuters
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल (फोटो: पीटीआई/रॉयटर्स)

एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार के पन्ने पर वित्त मंत्रालय की तरफ से अकारण निकले एक मजमून का सार कुछ इस तरह था कि सोमवार को रिजर्व बैंक की बोर्ड बैठक में आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल के इस्तीफे को रोककर केंद्र ने संकट को टाला.

यह किसी नुकसान पहुंचाने वाले विकल्प को न चुनने का श्रेय लेने के समान है, जो किसी भी सूरत में आत्मघाती होता, जो मोदी सरकार के लिए विनाशकारी नतीजे लेकर आता.

यह सही है कि केंद्र सर्वशक्तिमान है और अपनी मर्जी के हिसाब से कुछ भी कर सकता है, लेकिन वास्तविक शक्ति इसे कभी-कभार या कभी भी नहीं इस्तेमाल करने में निहित है. लेकिन मोदी सरकार अभी तक यह महीन कला नहीं सीख पाई है.

इसलिए वह केंद्रीय बैंक के साथ अपने संघर्ष में नुकसान पहुंचाने वाला विकल्प यानी आरबीआई एक्ट की धारा 7- का इस्तेमाल न करने का श्रेय लेना चाहती है.

वास्तव में पिछले कुछ महीनों में यही हुआ है. मोदी सरकार ने बेवजह धारा 7 के तहत विचार-विमर्श के लिए चिट्ठी जारी करके मामले को तूल दे दिया. जबकि यह धारा आजादी के बाद कभी इस्तेमाल में नहीं लाई गई थी.

अतीत की सरकारों ने धारा 7 का इस्तेमाल किए बगैर ही केंद्रीय बैंक के साथ विस्तार से विचार-विमर्श किया है और मामलों को सुलझाया है.

सोमवार को नौ घंटे तक चली बोर्ड की बैठक में भी ठीक यही हुआ जिसमें सारे मुद्दों पर चर्चा की गई, जिनमें से कुछ को सुलझा लिया गया और बाकी को 14 दिसंबर को होनेवाली दूसरी बोर्ड बैठक के लिए टाल दिया गया.

एक तरह से आरबीआई भी अपनी जमीन बचाने में कामयाब रहा. ठोस आंकड़ों और विश्लेषण की मदद से केंद्रीय बैंक केंद्र को और अन्य निदेशकों को यह समझाने में कामयाब रहा है कि उन्हें ऐसे कुछ मुद्दों पर दबाव नहीं बनाना चाहिए, जिनमें अभी कोई योग्यता नहीं है.

आकस्मिकता निधि का एक बड़ा हिस्सा सरकार को हस्तांतरित करने के लिए आरबीआई को मजबूर करने के लिए धारा 7 के उपयोग का जो मसला सबसे ज्यादा विवादास्पद था, उसे पहले ही वापस ले लिया गया है.

प्रधानमंत्री ने उर्जित पटेल से निजी तौर पर इस मसले पर चर्चा की, जिन्होंने शायद साधारण गुजराती में इस कदम के फायदे-नुकसान के बारे में उन्हें बताया होगा. इससे इस मसले पर एस गुरुमूर्ति सरीखे लोगों द्वारा फैलाए गए भ्रम के कुहासे को दूर करने में मदद मिली होगी.

गुरुमूर्ति जैसे लोगों को इस मसले पर ठोस बातों को पीछे धकेल कर सिर्फ शोर पैदा करने का श्रेय दिया जा सकता है. सच्चाई यह है कि मोदी को इस चार्टर्ड अकाउंटेंट के दृष्टिकोण से दूरी बनाने में समझदारी दिखाई दी.

अब एक एक्सपर्ट कमेटी (विशेषज्ञ समिति) इस मसले पर विचार करेगी कि आरबीआई को भविष्य में कितनी निधि रखनी चाहिए.

जहां तक आरबीआई की बात है, तो वह ठोस आंकड़ों और विश्लेषण के सहारे जरूरत पड़ने पर अतिरिक्त तरलता मुहैया कराने में मदद करने के साथ ही वित्तीय व्यवस्था की अखंडता को बचाए रखने की जरूरत के बीच संतुलन साधने की अपनी मौजूदा परिपाटी को काफी हद तक बचाए रख पाया.

केंद्रीय बैंक ने गैर-बैंकिंग वित्तीय क्षेत्र (नॉन बैंकिंग फाइनेंशियल सेक्टर) के लिए खुला रास्ता तैयार करने पर अपनी सहमति नहीं दी. यह जरूर है कि वह जरूरत पड़ने पर हस्तक्षेप करेगा, क्योंकि अब यह स्थापित है कि अब गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनी क्षेत्र में तरलता की कोई व्यवस्थागत समस्या नहीं है.

इससे आगे आरबीआई कुछ बैंकों द्वारा- जिनकी गैर निष्पादन परिसंपत्तियों (एनपीए) की स्थिति में दिवालिया प्रक्रिया के बाद सुधार हुआ है, जिसने कर्जे में डूबे हुए कंपनियों की बिक्री का रास्ता साफ किया है- त्वरित सुधार कार्रवाई के ढांचे में ढील देने पर चर्चा करेगा.

वर्तमान में दस से ज्यादा बैंक त्वरित सुधार कार्रवाई के नियमों के कारण कर्ज नहीं दे सकते हैं, क्योंकि उनका एनपीए उनके द्वारा दिए गए कर्ज का 10 प्रतिशत से ज्यादा हैं, जिसका नतीजा उनकी इक्विटी पूंजी में क्षरण के तौर पर निकलता है.

आरबीआई का समझदारी भरा तर्क यह है कि ये बैंक उसी सूरत में कर्ज देने का काम शुरू कर सकते हैं, जब सरकार द्वारा उनका समुचित पुनर्पूंजीकरण (रीकैपिटलाइजेशन) कर दिया जाए. इस संबंध में कुछ नए दिशा-निर्देशों को अंतिम रूप दिया जा रहा है.

हालांकि, कुछ ज्यादा बड़े संरचनात्मक मसले हैं, जिन पर अगली बैठक में आरबीआई के बोर्ड को अपनी अगली बैठक में अवश्य चर्चा करनी चाहिए. इस बारे में खासतौर पर एस.गुरुमूर्ति के विचारों को जानने का इंतजार रहेगा.

कुछ महीने पहले उन्होंने यह सुझाव दिया था कि भारत में बड़े कारोबारों को निश्चित तौर पर बैंकों द्वारा मदद दी जानी चाहिए. निस्संदेह आम राय यह है कि अब तक बैंक सिर्फ बड़े कारोबारों की मदद कर रहे हैं, जो लघु और मध्यम उद्यमों की कीमत पर हो रहा है, जिन्हें नोटबंदी की जबरदस्त मार झेलनी पड़ी.

लेकिन, सवाल है कि आखिर बैंकिंग प्रणाली अहम बुनियादी क्षेत्रों में सिर्फ 10 बड़े औद्योगिक घरानों के 4 लाख करोड़ रुपये के करीब के खराब ऋण या लगभग न चुकाए जाने के करीब पहुंच गए कर्जे की समस्या से कैसे निपटेगी? यह एक बड़ी समस्या है.

अगर कुल संभावित एनपीए का करीब 40 प्रतिशत 10 के करीब बड़े कारोबारी समूहों में फंसा हुआ है, तो बैंक इसका समाधान किए बगैर कर्ज देना शुरू नहीं कर सकते हैं. यह बात किसी को भी समझ में आ सकती है, लेकिन सरकार बड़े बकाये वाले बड़े कारोबारी समूहों के लिए अलग नियम चाहती है, जो उनके हितों का ख्याल रखते हों.

मिसाल के तौर पर भारतीय स्टेट बैंक द्वारा जिस तरह से बिजली क्षेत्र की कंपनियों के लिए ताजा राहत पैकेज का पक्ष ले रही है, उसे देखा जा सकता है, जबकि इनमें से कई को आरबीआई के 12 फरवरी, 2018 के सर्कुलर के हिसाब से कर्जमुक्ति के लिए या स्वामित्व में बदलाव के लिए नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल में चले जाना चाहिए था.

लेकिन ऐसा हो नहीं रहा और सुप्रीम कोर्ट ने विद्युत विनियामकों और अन्य हितधारकों को एक और राहत पैकेज पर विचार करने के लिए कहा है. शर्त यह लगाई गई कि अगर बढ़े हुए दर का बोझ आम आदमी पर डाला जाता है, तो उपभोक्ता फोरमों को अदालतों का दरवाजा खटखटाने की आजादी होगी.

और हम सबको यह पता है कि बड़े कारोबारी समूहों के खिलाफ कानूनी लड़ाई में टिक पाने की कितनी क्षमता उपभोक्ता फोरमों के पास है. हालांकि, मैं इस बात को लेकर हैरान हूं कि मोदी सरकार चुनाव के साल में इस प्रक्रिया में मदद कर रही है.

वास्तव में कुछ कैबिनेट मंत्री खुले तौर पर आरबीआई द्वारा जारी किए गए फरवरी, 2018 के सर्कुलर की आलोचना कर रहे हैं, जिसमें बड़े कारोबारी समूहों के लिए अपने कर्जों को चुकाने के लिए छह महीने की समयसीमा तय की गई या दूसरे विकल्प के तौर पर दिवालिया कार्यवाहियों का सामना करने के लिए कहा गया.

इस सर्कुलर का स्वागत हर किसी ने आरबीआई द्वारा एक बड़े सुधारवादी और एक अत्यावश्यक सख्त कदम के तौर किया. इसका कारण यह था कि पिछली यूपीए सरकार के दौरान यह कदम नहीं उठाया गया.

लेकिन, जैसे-जैसे हम आम चुनावों के नजदीक आ रहे हैं, मोदी सरकार आरबीआई के सर्कुलर के प्रति ढुलमुल रवैया अपनाती दिख रही है. ऐसा लगता  है कि सुप्रीम कोर्ट ने भी नए नियमों पर फिलहाल रोक लगाकर अनजाने में बड़े प्रमोटरों की मदद की है.

केंद्र और केंद्रीय बैंक के बीच मौजूदा टकराव का एक बड़ा कारण आरबीआई का यह सर्कुलर भी था, क्योंकि यह बड़े कारोबारी समूहों को जवाबदेह ठहराकर उनको नुकसान पहुंचाता है.

मिसाल के लिए, बिजली क्षेत्र ने ही अकेले करीब 3 लाख करोड़ रुपये का कर्ज लिया हुआ है. जब सिर्फ एक क्षेत्र में और महज आधा दर्जन कंपनियों के बीच इतना पैसा फंसा हुआ हो, तो बैंक छोटे और मझोले उद्यमों को पैसे कैसे दे सकने की स्थिति में कैसे आ सकते हैं?

बैंकों के इतने ज्यादा पैसे का सिर्फ एक दर्जन कारोबारी समूहों में फंसा होना, एक गंभीर संरचनात्मक मसला है. इस पैसे को कैसे बाहर निकाला जाए? आरबीआई के बोर्ड को इस पर चर्चा करनी होगी. जिसका मतलब है कि बड़े कारोबारी समूहों का केंद्रीय बैंक पर हमला अभी रुकनेवाला नहीं है.

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