अर्थशास्त्र का नियम है कि ज़्यादा निवेश, बढ़ी हुई जीडीपी का कारण बनता है, ऐसे में निवेश-जीडीपी अनुपात में कमी आने के बावजूद जीडीपी में बढ़ोतरी कैसे हो सकती है?
2019 के आम चुनाव से महज चार महीने पहले नीति आयोग द्वारा जारी किए गए भारत के सकल घरेलू उत्पाद –(जीडीपी) के बैक सीरीज आंकड़े अर्थशास्त्रीय नियमों के बुनियादी सिद्धांतों को सिर के बल उलट देने वाले हैं. यहां एक चीज सबसे ज्यादा पहेलीनुमा है. इन आंकड़ों में यूपीए शासनकाल में जीडीपी विकास को कम दिखाया गया है, जब निवेश-जीडीपी अनुपात 38% के बढ़े हुए स्तर पर था.
दूसरी तरफ इसमें मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए-2 सरकार में ज्यादा जीडीपी वृद्धि दर दिखलाई है, जबकि इस दौर में निवेश-जीडीपी अनुपात 30.3% के सबसे निचले स्तर पर है.
अर्थशास्त्र का नियम है कि ज्यादा निवेश, बढ़ी हुई जीडीपी का कारण बनता है, ऐसे में निवेश-जीडीपी अनुपात में कमी आने के बावजूद जीडीपी में बढ़ोतरी कैसे हो सकती है?
तकनीकी रूप से ऐसा होने की सिर्फ एक सूरत यह है कि अर्थव्यवस्था की उत्पादकता या ‘इंक्रीमेंटल कैपिटल आउटपुट रेश्यो’(आईसीओआर) में भी साथ ही साथ नाटकीय ढंग से सुधार हो. आसान शब्दों में कहें तो इसका मतलब यह है कि ऐसी स्थिति में अर्थव्यवस्था समान पूंजी निवेश में ही कहीं ज्यादा उत्पादन करती है.
लेकिन मोदी सरकार के चार साल में ऐसा होने का कोई संकेत नहीं है. हकीकत यह है कि इस दौरान नोटबंदी और जीएसटी के खराब क्रियान्वयन के दोहरे आघात ने उत्पादकता को नकारात्मक ढंग से प्रभावित किया.
इसके अलावा एनडीए-2 का कार्यकाल गैर निष्पादन परिसंपत्तियों (एनपीए) के रूप में फंसी पहाड़ जैसी अनुत्पादक संपत्ति से भी जूझता रहा है. खराब कर्जे का समाधान नहीं निकलने के कारण बैंक कर्ज नहीं दे रहे हैं. इन हालातों में उत्पादकता में उछाल कैसे आ सकता है?
एक प्रतिष्ठित निजी डेटा रिसर्च फर्म सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के सीईओ महेश व्यास का कहना है, ‘जीडीपी बैक सीरीज के आंकड़े भारत को एक जादुई अर्थव्यवस्था के रूप में दिखाते हैं, जहां निवेश अनुपात के तेजी से गिरने के साथ अर्थव्यवस्था तेजी से आगे बढ़ती है. उस काल में (2007-08 से 2010-11) जब निवेश-जीडीपी अनुपात 37.4 प्रतिशत के ऊंचे स्तर पर था, जीडीपी वृद्धि दर 6.7% थी. और हाल के चार सालों में (2014-2017-18) में निवेश अनुपात गिरकर 30.3% के स्तर पर आया हुआ था, तब अर्थव्यवस्था 7.2 प्रतिशत वृद्धि दर से उड़ान भर रही थी. क्या यह उत्पादकता का जादू है?’
इस बुनियादी सवाल का कोई जवाब हमारे पास नहीं है. केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) के पूर्व मुखिया और राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के अध्यक्ष प्रणब सेन को आंकड़ों की गहरी समझ रखने वाला माना जाता है. उनकी गिनती भारत के शीर्ष अर्थशास्त्रियों में होती है और वे देश के मुख्य सांख्यिकीविद् रह चुके हैं.
बैक सीरीज आंकड़ों को जिस तरह से सिर्फ सीएसओ द्वारा जारी करने की पुरानी रवायत के उलट दरअसल नीति आयोग द्वारा जारी किया गया, सेन उसके आलोचक रहे हैं.
यह राष्ट्रीय आंकड़े तैयार करने वाली संस्थाओं के राजनीतिकरण के समान है. इसके अलावा सेन इस बात से भी इत्तेफाक रखते हैं कि बैक सीरीज आंकड़े जमीनी हकीकतों से जुड़ी बुनियादी कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं.
वे कहते हैं कि सैद्धांतिक तौर पर समान पूंजी या श्रम से ज्यादा उत्पादन संभव है, लेकिन वे तर्क देते हैं कि 2005-12 का समय भी भारत में मोबाइल के बड़े पैमाने पर प्रसार से आई बड़ी संचार क्रांति का दौर है. ऐसे में यूपीए के दौर में कम उत्पादकता की दलील देना मुश्किल होगा.
यूपीए सरकार के कार्यकाल में समग्र सेवा क्षेत्र, चाहे ह संचार हो या बैंकिंग, रियल एस्टेट या होटल- सब में तेजी आई थी. यह भी उल्लेखनीय है कि नई सीरीज में यूपीए शासनकार के दौरान जीडीपी वृद्धि को घटाकर 6.7% कर दिया गया है, जबकि पिछली सीरीज में यह 8 प्रतिशत से ज्यादा थी.
ऐसा मुख्य तौर पर सेवा क्षेत्र के उत्पादन को (जो जीडीपी में सबसे ज्यादा योगदान करने वाला था) निचले स्तर पर समायोजिक करके किया गया है. इसके अलावा भी कुछ सहज बुद्धि वाली कसौटियां हैं, जिस पर यह नई श्रृंखला खरी नहीं उतरती है.
उदाहरण के लिए यूपीए काल में वृद्धि को कम करके आंका गया है, जबकि उस दौर में देश का निर्यात 20% से ज्यादा दर पर छलांग मार रहा था, उद्योग को बैंक कर्ज में 20% से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई थी और शीर्ष 1,100 कंपनियों की कॉरपोरेट कमाई में 20% से ज्यादा का इजाफा हुआ था.
इसके उलट नई श्रृंखला के मुताबिक एनडीए-2 के चार सालों में निर्यात वृद्धि के शून्य रहने, उद्योग जगत को बैंक कर्ज में वृद्धि निराशाजनक रहने, निजी निवेश में न के बराबर वृद्धि और 1100 शीर्ष कंपनियों की सालाना कॉरपोरेट कमाई में 2% की वृद्धि होने के बावजूद जीडीपी वृद्धि दर ज्यादा रही. जबकि पिछले चार सालों में ज्यादातर आर्थिक संकेतक नीचे हैं.
अगर मुद्रास्फीति का ध्यान रखा जाए- कुछ अर्थशास्त्री तर्क देते हैं कि हमें मामूली संकेतकों की जगह वास्तविक संकेतकों की तुलना करनी चाहिए- तो भी यूपीए के वर्षों में 20% से ज्यादा की विकास दर से एनडीए-2 के पहले चार साल के 0% विकास दर की कोई तुलना नहीं हो सकती.
आप इस हाथी को चाहे किसी भी तरफ से देखें, निष्कर्ष सिर्फ एक ही निकलता है. बैक सीरीज के आंकड़ों में विश्वसनीयता की कमी है.
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