विशेष रिपोर्ट: चुनावी सर्वेक्षणों के आधार पर यह कहा जा रहा था कि भाजपा की राजस्थान से विदाई तय है, लेकिन टिकट वितरण और धुंआधार प्रचार को देखकर सियासी गलियारों में यह चर्चा जोरों पर है कि पार्टी मुक़ाबले में लौट आई है.
राजस्थान में सात दिसंबर को होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस का प्रचार चरम पर है. दोनों दलों के स्थानीय नेताओं के अलावा स्टार प्रचारक सूबे में धुंआधार सभाएं कर रहे हैं. इस गहमागहमी के बीच पिछले कई दिनों से यह शिगूफा चर्चा में है कि करारी हार की ओर बढ़ रही भाजपा मुकाबले में लौट आई है.
सियासी गलियारों में यह शिगूफा टिकट वितरण के बाद चर्चा में आया. कहा जा रहा है कि उम्मीदवारों के चयन में पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट और नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी के बीच हुई खींचतान ने भाजपा की वापसी का मौका दे दिया है.
आक्रामक प्रचार और बेहतर चुनावी प्रबंधन के बूते पार्टी बराबरी की टक्कर में आ गई है. हालांकि भाजपा के नेता और कार्यकर्ता इस कथित बदले हुए माहौल के बावजूद बहुमत के आंकड़े तक पहुंचने को लेकर आश्वस्त नहीं हैं. ‘आॅफ द रिकॉर्ड’ बातचीत में वे सीटों की संख्या 80 से 90 के बीच ही बताते हैं.
अलबत्ता वे मतदान की तारीख नजदीक आते-आते पार्टी के प्रदर्शन में सुधार की उम्मीद भी करते हैं.
क्या वाकई में कांग्रेस ने उम्मीदवारों के चयन में इतनी बड़ी चूक की है कि इसकी बदौलत भाजपा राजस्थान में फिर से सरकार बनाने की स्थिति में पहुंच सकती है?
इसमें कोई दोराय नहीं है कि कांग्रेस के टिकट वितरण में अशोक गहलोत, सचिन पायलट और रामेश्वर डूडी के बीच जबरदस्त खींचतान देखने को मिली. यह तय होने के बाद कि गहलोत और पायलट चुनाव लड़ेंगे, इन दोनों नेताओं और डूडी ने अपने-अपने चहेतों को टिकट दिलवाने के लिए जोर लगा दिया.
इस जोर-आजमाइश से कई सीटों पर ऐसे उम्मीदवारों का चयन हो गया है जो जीत के समीकरणों को साधते हुए नहीं दिख रहे. गहलोत, पायलट और डूडी के बीच रस्साकशी यदि बंद कमरे में होती तो फूट जगजाहिर नहीं होती, लेकिन कई सीटों पर इन दिग्गजों की सिर-फुटव्वल सार्वजनिक हो गई.
खींचतान का आलम यह रहा कि केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक में राहुल गांधी और सोनिया गांधी के सामने सचिन पायलट और रामेश्वर डूडी में भिडंत हो गई. दोनों के बीच जयपुर जिले की फुलेरा सीट पर अपनी पसंद के नेता को टिकट देने को लेकर तूतू-मैंमैं हुई.
पायलट इस सीट से विद्याधर चौधरी को टिकट दिलाना चाहते थे जबकि डूडी स्पर्धा चौधरी की पैरवी कर रहे थे. खबरों के मुताबिक फुलेरा सीट पर अपने पसंदीदा उम्मीदवार को टिकट दिलवाने को लेकर डूडी और पायलट के बीच संघर्ष इस हद तक आगे बढ़ गया कि प्रदेशाध्यक्ष को राजनीति छोड़ने की धमकी तक देनी पड़ी.
वहीं, नई दिल्ली में स्पर्धा चौधरी और उनके समर्थकों की ओर से सचिन पायलट की कार घेराबंदी को भाजपा ने मुद्दा बना लिया. हालांकि सचिन पायलट ने सख्ती दिखाते हुए स्पर्धा चौधरी को छह साल के लिए पार्टी से निलंबित कर दिया.
कांग्रेस ने फुलेरा सीट से विद्याधर चौधरी को उम्मीदवार बनाया है, वहीं टिकट नहीं मिलने से नाराज स्पर्धा चौधरी ने हनुमान बेनीवाल की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी का दामन थाम मैदान में हैं.
कांग्रेस के लिए सबसे असहज स्थिति बीकानेर में हुई जहां टिकट तय होने के बाद इतना हंगामा हुआ कि शहर तोड़फोड़ और आगजनी के चपेट में आ गया. पार्टी ने 15 नवंबर को देर रात जब 152 प्रत्याशियों की पहली सूची जारी की तो बीकानेर पश्चिम सीट से यशपाल गहलोत और पूर्व सीट से कन्हैया लाल झंवर को टिकट दिया.
कांग्रेस की सूची बाहर आते ही बीकानेर पश्चिम सीट से दोवदारी कर रहे डॉ. बीडी कल्ला के समर्थकों ने बवाल मचा दिया. कल्ला कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं. वे न सिर्फ पांच बार विधायक का चुनाव जीत चुके हैं, बल्कि चार बार मंत्री, पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष भी रहे हैं. उनका टिकट पार्टी की लगातार दो बार हारे हुए नेताओं को प्रत्याशी नहीं बनाने की नीति के चलते अटक गया.
उधर बीडी कल्ला ने टिकट बदलने के लिए दिल्ली में लॉबिंग की और इधर कांग्रेस कार्यकर्ता उनके समर्थन में लामबंद होने लगे तो पार्टी दबाव में आ गई. 18 नवंबर को जारी सूची में कल्ला को बीकानेर पश्चिम से उम्मीदवार बना दिया जबकि बीकानेर पूर्व सीट से कन्हैया लाल झंवर का टिकट काटकर यशपाल गहलोत को दे दिया.
इस बदलाव से नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी उखड़ गए. उन्होंने यहां तक धमकी दे दी कि पार्टी ने कन्हैया लाल झंवर को टिकट नहीं दिया तो वे विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ेंगे. उनकी इस हठ से आलाकमान के हाथ-पांव फूल गए. पार्टी ने 18 नवंबर की रात को जारी सूची में झंवर को बीकानेर पूर्व से प्रत्याशी बना दिया और यशपाल गहलोत को बेटिकट कर दिया.
पार्टी के इस निर्णय से यशपाल गहलोत समर्थक उबल पड़े. उन्होंने शहर में कई जगह तोड़फोड़ और आगजनी की. पुलिस को शांति कायम करने के लिए बल प्रयोग करना पड़ा. इस पूरे विवाद की जड़ रामेश्वर डूडी थे, जो बीकानेर जिले की नोखा सीट से चुनाव लड़ रहे हैं.
कन्हैया लाल झंवर यहां से निर्दलीय चुनाव लड़ते रहे हैं. उन्होंने इस बार भी यहां से ताल ठोंक रखी थी.रामेश्वर डूडी को यह आशंका थी कि यदि कन्हैया लाल झंवर मैदान में उतरे तो उन्हें जीतने में मुश्किल होगी.
क्षेत्र की राजनीति के जानकार तो यहां तक कहते हैं कि झंवर के चुनाव लड़ने की स्थिति में डूडी का चुनाव हारना तय था. इसलिए डूडी ने अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए न सिर्फ झंवर को कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण करवाई, बल्कि चंद मिनट बाद उन्हें टिकट भी दिलवा दिया.
कांग्रेस की लगातार दो बार चुनाव हारने वाले नेताओं को टिकट नहीं देने की नीति से बीकानेर ही नहीं, कई दूसरी जगह भी बवाल मचा. बूंदी से ममता शर्मा, सिरोही से संयम लोढ़ा, तारानगर से डॉ. चंद्रशेखर वैद्य और खंडेला से महादेव सिंह प्रत्याशी नहीं बनाए जाने से नाराज हो गए. इन सभी नेताओं ने पार्टी के खिलाफ ताल ठोंक दी है.
राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रहीं ममता शर्मा ने तो भाजपा का दामन थाम लिया. उन्हें कोटा जिले की पीपल्दा सीट से टिकट भी मिल गया. शर्मा ने कांग्रेस से दो बार लगातार हारने वालों को टिकट नहीं देने की सूरत में अपने बेटे समृद्ध शर्मा को उम्मीदवार बनाने की मांग की थी, लेकिन पार्टी ने यहां से हरिमोहन शर्मा को मैदान में उतार दिया.
कांग्रेस ने ममता शर्मा के बेटे समृद्ध शर्मा को तो उम्मीदवार बनाने के लायक नहीं समझा, लेकिन कोटा जिले की लाड़पुरा सीट पर लगातार दो बार हार का मुंह देखने वाले नईमुद्दीन गुड्डू की पत्नी गुलनाज को टिकट दे दिया. इस सीट से कोटा-बूंदी सीट से सांसद रहे इज्यराज सिंह अपनी पत्नी कल्पना देवी के लिए टिकट मांग रहे थे.
कल्पना देवी लाड़पुरा से मौका नहीं मिलने की स्थिति में जिले की पीपल्दा सीट से भी चुनाव लड़ने की इच्छुक थीं, लेकिन कांग्रेस ने यहां से पूर्व विधानसभा उपाध्यक्ष रामनारायण मीणा को उम्मीदवार बना दिया. ऐसी स्थिति में इज्यराज सिंह के पास बगावत करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा. उनके इस गुस्से को भाजपा ने भुना लिया.
इज्यराज सिंह और कल्पना देवी ने भाजपा की ओर से न्यौता आते ही हामी भर दी. भाजपा ने लाड़पुरा से लगातार तीन बार से चुनाव जीत रहे भवानी सिंह राजावत का टिकट काटकर कल्पना देवी को थमा दिया. गौरतलब है कि इज्यराज सिंह कोटा के पूर्व राजपरिवार के सदस्य हैं. इनके पिता ब्रजराज सिंह झालावाड़ से चार बार सांसद रहे हैं.
बूंदी जिले की केशोरायपाटन सीट पर टिकट बदलना कांग्रेस के स्थानीय नेताओं को समझ नहीं आ रहा. पार्टी ने पहले यहां से पूर्व विधायक सीएल प्रेमी को उम्मीदवार बनाया, लेकिन दो दिन बाद ही उनकी जगह राकेश बोयत को मौका दे दिया. जबकि बोयत न सिर्फ बाहरी हैं, बल्कि जातिगत समीकरण भी उनके खिलाफ हैं. इस सीट पर सीएल प्रेमी ने बगावत कर दी है.
नेताओं की खींचतान की भेंट चढ़ने वाली सीटों में अजमेर जिले की किशनगढ़ सीट भी शुमार है. अशोक गहलोत यहां से पूर्व विधायक नाथूराम सिनोदिया को उम्मीदवार बनाना चाहते थे जबकि सचिन पायलट राजू गुप्ता के लिए अड़ गए.
लंबी जद्दोजहद के बाद भी दोनों में कोई झुकने के लिए तैयार नहीं हुआ तो पार्टी ने बीच का रास्ता निकालते हुए नंदाराम थाकण को उम्मीदवार बनाया है. इससे खफा सिनोदिया बागी बनकर मैदान में आ गए हैं.
टिकट वितरण के अलावा कांग्रेस का पांच सीटों पर राष्ट्रीय लोक दल, लोकतांत्रिक जनता दल और नेशनल कांग्रेस पार्टी से गठबंधन करना भी चौंकाने वाला है.
गौरतलब है कि कांग्रेस ने राष्ट्रीय लोक दल के लिए भरतपुर और मालपुरा, लोकतांत्रिक जनता दल के लिए मुंडावर व कुशलगढ़ और बाली सीट नेशनल कांग्रेस पार्टी के लिए छोड़ी हैं. गठबंधन करने का यह निर्णय पार्टी के स्थानीय नेताओं के गले नहीं उतर रहा.
खासतौर पर अजीत सिंह के राष्ट्रीय लोक दल को दो सीटें देना राजनीतिक विश्लेषकों को भी नहीं जंच रहा. जाट राजनीति के जानकार महेंद्र चौधरी कहते हैं, ‘चौधरी अजीत सिंह और उनके बेटे जयंत सिंह का न तो भरतपुर में कोई असर है और न ही मालपुरा में. भरतपुर सीट को उनकी पार्टी को देना तो फिर भी समझ में आता है, क्योंकि यह क्षेत्र उत्तर प्रदेश से लगा हुआ है. लेकिन मालपुरा सीट को कांग्रेस राष्ट्रीय लोक दल को सौंपना समझ से परे है.’
गठबंधन के तहत शरद यादव के लोकतांत्रिक जनता दल को अलवर जिले की मुंडावर सीट देना भी स्थानीय नेताओं को नहीं पच रहा. यह सीट यादव बहुल जरूर है, लेकिन यहां शरद यादव का इतना प्रभाव नहीं है कि उनके सहारे जीत हासिल की जा सके. हां, बांसवाड़ा जिले की कुशलगढ़ सीट पर शरद यादव से गठबंधन जरूर समझ आ रहा है.
गौरतलब है कि समाजवादी पुरोधा मामा बालेश्वर दयाल का यह क्षेत्र समाजवादी आंदोलन का बड़ा केंद्र रहा है. आदिवासी बाहुल्य इस इलाके में मामा का इतना प्रभाव था कि वे जिसके सिर पर हाथ रख देते थे वो चुनाव जीत जाता था. चूंकि जॉर्ज फर्नांडीस और बालेश्वर दयाल में घनिष्ठता थी इसलिए यह क्षेत्र जनता दल का गढ़ बन गया.
भैरों सिंह शेखावत ने जनता दल के साथ गठबंधन कर इस क्षेत्र में भाजपा की जड़ें जमाने की कोशिश की, जिसमें वे सफल रहे. 1998 में मामा बालेश्वर दयाल के निधन के बाद जनता दल के कई नेता भाजपा में चले गए. यहां कांग्रेस का शरद यादव की पार्टी से गठजोड़ करना फायदे का सौदा है. यादव इस क्षेत्र में आते रहे हैं. उनकी पार्टी ने फतेह सिंह को टिकट दिया है, जो जीतने की स्थिति में हैं.
पांच सीटों पर हुए गठबंधन के इतर बाकी बची 195 सीटों पर टिकट वितरण में अशोक गहलोत, सचिन पायलट और रामेश्वर डूडी के बीच जारी संघर्ष की छाया साफतौर पर दिखाई देती है. हालांकि ऐसी सीटों की संख्या 10 से अधिक नहीं है, जहां उम्मीदवार तय करने में बड़ी गलतियां हुई हैं. क्या यह चूक इतनी बड़ी है कि कांग्रेस का बाकी 190 सीटों पर खेल खराब हो जाएगा?
वरिष्ठ पत्रकार नारायण बारेठ इससे सहमत नहीं हैं. वे कहते हैं, ‘टिकट वितरण में चूक होना स्वाभाविक है. इस चुनाव में दोनों दलों ने कई गलतियां की हैं, लेकिन कांग्रेस का झगड़ा बाहर आने की वजह से यह सुर्खियों में रहा. इससे प्रभावित सीटों पर कार्यकर्ताओं का मनोबल निश्चित रूप से गिरेगा. पार्टी की छवि भी इससे धूमिल होगी, लेकिन केवल इससे नतीजे नहीं पलटेंगे.’
बारेठ आगे कहते हैं, ‘टिकट वितरण पर कुछ जगह हुए बवाल से पूरे प्रदेश का मतदाता प्रभावित नहीं होगा. जैसे-जैसे मतदान की दिन नजदीक आएगा, यह प्रकरण पीछे छूटता चला जाएगा. ठीक वैसे ही जैसे कांग्रेस की ओर से उम्मीदवारों की पहली सूची आने में हुई देरी अब कोई मुद्दा नहीं है. लोगों में मौजूदा सरकार के खिलाफ नाराजगी है. मतदान इसके इर्द-गिर्द ही होगा.’
पत्रकार अविनाश कल्ला भी बारेठ के तर्कों से सहमत हैं. वे कहते हैं, ‘मैंने राजस्थान रोडवेज की बसों से पूरे राजस्थान को नापा है. लोग मुख्यमंत्री वसुधंरा राजे से बहुत नाराज हैं. लोगों के बीच यह धारणा बनी हुई है कि मुख्यमंत्री किसी से नहीं मिलती और अपने विधायकों तक की नहीं सुनती. इस खिलाफ माहौल की काट कांग्रेस की ओर से चंद कमजोर उम्मीदवारों का चयन नहीं हो सकता.’
कल्ला आगे कहते हैं, ‘कांग्रेस की पहली लिस्ट में शामिल उम्मीदवारों का चयन चतुराई भरा था, लेकिन बाद में घोषित उम्मीदवारों में से कई का चयन गलत लग रहा है. हालांकि यह संख्या 10 से ज्यादा नहीं है. भाजपा की ओर से भी ऐसा ही है. इसलिए कांग्रेस में टिकट वितरण से उठा बवंडर असल में बुलबुला है, जो चंद दिनों में फूट जाएगा.’
हालांकि कांग्रेस में हुई खींचतान से भाजपा गदगद है. केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री व प्रदेश में चुनाव प्रबंधन समिति के संयोजक गजेंद्र सिंह शेखावत कहते हैं, ‘राजस्थान में टिकट वितरण की प्रक्रिया को लेकर जो कुछ हुआ है, उससे कांग्रेस का चरित्र बेनकाब हुआ है. कांग्रेस आलाकमान को बीकानेर में नेताओं के दबाव में तीन बार टिकट बदलने पड़े. इससे कांग्रेस की एकजुटता बेनकाब हुई है.’
शेखावत आगे कहते हैं, ‘टिकट वितरण के दौरान कांग्रेस में जहां बिखराव साफतौर पर दिखा है, वहीं भाजपा में एकजुटता नजर आई. कांग्रेस की फूट और हमारी एकता को राजस्थान की जनता देख रही है. लोग कांग्रेस को वोट नहीं करेंगे. भाजपा आसानी से सरकार बनाएगी. हम इस बार सत्ता की अदला-बदली के मिथक को तोड़ देंगे.’
पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत इससे सहमत नहीं हैं. वे कहते हैं, ‘राजस्थान में सीटें 200 हैं और टिकट मांगने वाले हजार से भी ज्यादा. इस स्थिति में कुछ लोगों की नाराजगी स्वाभाविक है. टिकटों को लेकर खींचतान की खबरें बेबुनियाद हैं. कांग्रेस ने चर्चा करने के बाद आमराय से टिकट बांटे हैं.’
गहलोत आगे कहते हैं, ‘टिकट वितरण में खींचतान तो भाजपा में रही. पहले वसुंधरा जी की लिस्ट को अमित शाह ने रिजेक्ट कर दिया और फिर उसी को ओके करना पड़ा. यदि भाजपा में टिकटों पर एकराय होती तो नामांकन के अंतिम दिन तक उम्मीदवार नहीं अटके रहते. यह जगजाहिर है कि मोदी-शाह वसुंधरा जी की नहीं सुनते और वे उनकी. हम एकतरफा जीत हासिल करेंगे.’
राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो टिकट वितरण में जितनी चूक कांग्रेस ने की है उतनी ही भाजपा ने भी की है. वरिष्ठ पत्रकार ओम सैनी कहते हैं, ‘कांग्रेस और भाजपा, दोनों ही बगावत से परेशान हैं. दोनों दलों में बागियों की संख्या में उन्नीस-बीस का अंतर है. भितरघात का खतरा भाजपा में ज्यादा है, क्योंकि जिन विधायकों के टिकट कटे हैं वे पार्टी के प्रत्याशी के साथ प्रचार करते हुए नहीं दिख रहे.’
यदि भाजपा-कांग्रेस के बागियों की संख्या पर गौर करें तो सैनी का आलकन सही लगता है. 200 में से 65 सीटों पर बागियों ने ताल ठोंक रखी है. इनमें 35 कांग्रेस और 30 भाजपा के हैं. यानी महज टिकट वितरण के आधार पर यह कहना सही नहीं है कि कांग्रेस ने सत्ता की सजी हुई थाली भाजपा के सामने परोस दी है.
जहां तक चुनाव प्रचार और प्रबंधन का सवाल है, इन दोनों मोर्चों पर भाजपा निश्चित रूप से कांग्रेस से आगे हैं. पार्टी ज्यादातर बेहतर रणनीति के साथ स्टार प्रचारकों को मैदान में उतार रही है, लेकिन ये हवा का रुख मोड़ते हुए नहीं दिखाई दे रहे. भाजपा के बड़े नेता अभी तक ऐसा मुद्दा नहीं पकड़ पाए हैं, जो समीकरण पलट दे.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में कांग्रेस नेताओं की ओर से उनकी जाति और मां पर की गई टिप्पणियों को भुनाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन इससे प्रदेश के मतदाता भावनात्मक रूप से नहीं जुड़ पा रहे. संभवत: इसी वजह से मोदी सभाओं का ज्यादातर समय कांग्रेस को कोसने में लगा रहे हैं.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री सूबे की मुस्लिम बाहुल्य सीटों पर धुंआधार सभाएं जरूर कर रहे हैं, लेकिन वे अभी तक ध्रुवीकरण लायक माहौल तैयार नहीं कर पाए हैं. योगी एक सभा को 10 से 15 मिनट का समय नहीं दे पा रहे. सभी जगह वे एक तरह की बातों को ही दोहरा रहे हैं. उन्हें सुनने के लिए भीड़ का नहीं जुटना भी भाजपा के लिए चिंता की बात है.
सोशल मीडिया पर प्रचार में जरूर भाजपा अव्वल है, लेकिन यहां भी भाजपा अभी तक कोई ऐसा मुद्दा खड़ा नहीं कर पायी है, जो पार्टी के ग्राफ को एक झटके में चढ़ा दे.
भाजपा अभी तक वसुंधरा सरकार से लोगों की नाराजगी की काट ढूंढ़ने में कामयाब नहीं हो पाई है. कुल मिलाकर भाजपा के मुकाबले में आने का शिगूफा फिलहाल बेदम ही दिखाई दे रहा है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)