उत्तर प्रदेश में मीट के ख़िलाफ़ भाजपा के अभियान का सच

पूरे उत्तर प्रदेश में तथाकथित ‘अवैध बूचड़खाने’ वास्तव में सार्वजनिक म्युनिसिपल बूचड़चाने हैं, जो भीषण उपेक्षा के कारण बदहाली का शिकार हैं.

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पूरे उत्तर प्रदेश में तथाकथित ‘अवैध बूचड़खाने’ वास्तव में सार्वजनिक म्युनिसिपल बूचड़चाने हैं, जो भीषण उपेक्षा के कारण बदहाली का शिकार हैं.

Cathal McNaughton_Reuters
(प्रतीकात्मक फोटो: कैथल मैकनॉटन/रॉयटर्स)

(ये दो लेखों की श्रृंखला की दूसरी और आखिरी कड़ी है. पहली कड़ी को यहां पढ़ें)

हमने यह मान लिया था कि वे खुद को गाय और गोवध तक सीमित रखेंगे. लेकिन, उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने के 48 घंटों के भीतर उन्होंने अपने चुनावी घोषणापत्र में अवैध और यांत्रिक बूचड़खानों को बंद करने के अपने वादे को पूरा करने के नाम पर भैंस के गोश्त पर भी कार्रवाई शुरू कर दी.

22 मार्च, 2017 यानी पहले दो गैरकानूनी बूचड़खानों को बंद करने के अगले दिन से मीडिया में आई रिपोर्टों में यूपी में बूचड़खानों की संख्या अलग-अलग बताई गई (126 से 140 तक), गैरकानूनी बूचड़खानों की संख्या का हाल भी ऐसा ही था (40 से 125 तक), इस बीच बंद किये गये बूचड़खानों की संख्या (20 से 40 तक), मीट की बंद की गई गैरकानूनी दुकानों की संख्या (50,000 से ज्यादा) में भी ऐसा ही अंतर देखा गया.

लेकिन बूचड़खानों की वैधता के सवाल को लेकर आई मीडिया रिपोर्ट अलग-अलग और भ्रमित किस्म की थी. हमें इन बूचड़खानों के वैध होने या न होने के सवाल को दो अलग मार्केटिंग चेन के भीतर समझना होगा: गोवंशीय मीट (गोश्त) के घरेलू उत्पादन की मार्केटिंग चेन और विदेशी निर्यात के लिए मार्केटिंग चेन.

दोनों मार्केटिंग चेनों की शुरुआत मिले-जुले ढंग से खेती और दुग्ध उत्पादन करने वाले छोटे और सीमांत किसानों द्वारा पाली गई भैंसों से होती है. ये किसान छंटनी किए गए/गैर-दुधारू/अनुत्पादक मादा भैंसों (और नर भैंसों को भी) स्थानीय बाजार या पशुधन व्यापारी को बेचते हैं.

यह व्यापारी या बाजार का कमीशन एजेंट पशुओं को छोटे या बड़े म्युनिसिपल बूचड़खानों (नगरपालिका बूचड़खानों) में बेच देता है. इस तरह पंचायतों/नगरपालिकाओं/ निगमों द्वारा प्रशासित म्युनिसिपल बूचड़खाने (जो सार्वजनिक बूचड़खाने हैं) घरेलू उपभोग के लिए गो-वंशीय मांस का प्राथमिक स्रोत हैं.

म्युनिसिपल बूचड़खानों से कटा हुआ गोश्त थोक व्यापारी को बेचा जाता है. गोश्त के थोक और खुदरा व्यापारियों को नगर निगमों से नगरपालिका बूचड़खानों में गोश्त की खरीद और बिक्री के लिए लाइसेंस लेना होता है.

घर के पिछवाड़े में भैसों को निजी तौर पर अनौपचारिक ढंग से काटने की छिटपुट घटनाएं होती हैं, लेकिन इसका मकसद घरों में सीमित उपभोग होता है. बचा हुआ गोश्त स्थानीय बाजारों में चला जाता है.

घरेलू उपभोग के लिए भैंस के गोश्त की आपूर्ति ताजा गोश्त उत्पादन से होती है, जिसे रोज प्रसंस्कृत (प्रोसेस) किया जाता है और बेचा जाता है. खुदरा व्यापारियों के पास प्रायः कोल्ड स्टोरेज की सुविधा नहीं होती है.

इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि सार्वजनिक (म्युनिसिपल) बूचड़खानों की स्थापना करना और यह देखना कि ये जरूरी लाइसेंसों के साथ चलाए जा रहे हैं, शहरी नगर निगमों का दायित्व है.

A closed slaughter house in Allahabad Reuters
इलाहाबाद में प्रशासन के आदेश के बाद एक बंद स्लॉटर हाउस. (फोटो: रॉयटर्स)

जहां तक गोवंशीय मीट के निर्यात वाली मार्केट चेन का सवाल है, इसके लिए पशुओं की बिक्री पशुधन बाजारों या व्यापारियों से वधशालाओं, प्रोसेसिंग (प्रसंस्करण), एक्सपोर्ट मार्केटिंग और प्रचालन-तंत्र (लॉजिस्टिक्स) को चलाने वाली एक्सपोर्ट कंपनियों को की जाती है.

इन प्रोसेसिंग इकाइयों पर केंद्र और राज्य सरकार के कानूनों का पालन करने की जिम्मेदारी होती है. भारत के निर्यातोन्मुख वधशालाएं और प्रोसेसिंग कंपनियां अपेक्षाकृत आधुनिक और बड़े पैमाने वाली हैं.

ये निजी उद्यमियों द्वारा संचालित हैं. सिर्फ निर्यातोन्मुख बूचड़खानों- प्रोसेसरों को ही नगर निगमों के जरूरी लाइसेंसों के साथ ही एपीईडीए- अपेडा (एग्रीकल्चरल एंड प्रोसेस्ड फूड प्रोडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवेलपमेंट अथॉरिटी), भारत सरकार की एक्सपोर्ट इंस्पेक्शन काउंसिल और फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी के तहत रजिस्ट्रेशन कराना होता है.

अपेडा और इससे जुड़ी एजेंसियां निर्यात के लिए बूचड़खानों और प्रसंस्करण सुविधाओं के मानक तय करती हैं. ये प्रसंस्करण इकाइयों और इनके उत्पादों की जांच करती हैं और जांच के बाद वार्षिक रजिस्ट्रेशन का नवीनीकरण करती हैं.

पैकेजिंग और मार्केटिंग प्रक्रियाओं को बेहतर बनाना और निर्यात इकाइयों की क्षमताओं का निर्माण करना भी इनकी जिम्मेदारी है. एक्सपोर्ट से जुड़ी सभी इकाइयों के पास एचएसीसीपी और आइएसओ 9000 का प्रमाणपत्र होना अनिवार्य है. साथ ही इनका जैविक रूप से सुरक्षित (बायो सेक्योर) होना भी जरूरी है.

देशभर में भैंसों के 49 निर्यातोन्मुख बूचड़खाने और प्रसंस्करण सुविधाएं, 39 समर्पित प्रसंस्करण सुविधाएं और 11 समर्पित बूचड़खाने अपेडा से रजिस्टर्ड हैं.

अपेडा से रजिस्टर्ड एकीकृत बूचड़खानों में जहां से भैंस के गोश्त का निर्यात किया जाता है पूरी तरह सुसज्जित पशु आवास (लैरेज), बेहोशीकरण, वध-रेखा (स्लाटरलाइन), काटने, धोने और तौलने आदि की सुविधाएं मौजूद हैं.

अपेडा से रजिस्टर्ड एक्सपोर्ट प्रोसेसिंग इकाइयां भी आधुनिक पैकिंग और कोल्ड स्टोरेज सहित चिलिंग (ठंडा करने), डिबोनिंग (हड्डी निकालने), प्लेट एंड ब्लास्ट फ्रीजिंग जैसी आधुनिक सुविधाओं से लैस हैं.

म्युनिसिपल बूचड़खानों की सबसे ज्यादा संख्या उत्तर प्रदेश में है, जहां 126 बूचड़खाने, 34 निर्यातोन्मुख बूचड़खाने सह प्रोसेसिंग इकाइयां, 6 निर्यातोन्मुख समर्पित बूचड़खाने, 26 निर्यातोन्मुख समर्पित प्रोसेसिंग इकाइयां अपेडा से रजिस्टर्ड हैं.

ये सारी निर्यात इकाइयां निजी बूचड़खाने हैं. जहां तक बाकी बचे हुए बूचड़खानों का सवाल है, तो ये भी निजी स्वामित्व वाले ‘अवैध’ बूचड़खाने नहीं हैं, बल्कि हकीकत में ये सरकार द्वारा स्थापित हैं, जिन्हें चलाने, देखभाल करने और उनके संबंध में नियम बनाने की जिम्मेवारी संबंधित पंचायतों, नगरपालिकाओं और नगर निगमों की है.

इन बूचड़खानों को मीट की घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए राज्य द्वारा निर्धारित सभी जरूरी लाइसेंसों के तहत काम करना होता है.

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पिछले दिनों उत्तर प्रदेश सरकार के आदेश के बाद प्रशासन ने बनारस के चौका घाट पर स्थित एक स्लॉटर हाउस बंद करा दिया. (फोटो: पीटीआई)

उत्तर प्रदेश म्युनिसिपल कारपोरेशन एक्ट, 1959 के तहत सार्वजनिक बूचड़खानों के निर्माण, उनके रख-रखाव और म्युनिसिपैलिटी (नगरपालिका) के भीतर सभी बूचड़खानों के नियमन की जिम्मेदारी नगर निगमों की है. हाल मे आयी एक सूचना के मुताबिक यूपी में 317 रजिस्टर्ड बूचड़खाने हैं.

पूरे उत्तर प्रदेश में तथाकथित ‘अवैध’ बूचड़खाने दरअसल सार्वजनिक म्युनिसिपल बूचड़खाने हैं, जो नगर निगम के अधिकारियों की भीषण उपेक्षा के कारण बदहाली का शिकार हैं.

जिन अधिकारियों पर बूचड़खानों से संबंधित नियमों का अनुपालन करवाने की जिम्मेदारी थी, वे अपना दायित्व निभाने में असफल रहे.

उदाहरण के तौर पर, लखनऊ के मौलवीगंज म्युनिसिपल बूचड़खाने को जुलाई, 2013 में यूपी प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (यूपीपीसीबी) के आदेश के बाद बंद कर दिया गया था, लेकिन अब तक इसका आधुनिकीकरण नहीं किया जा सका है, जबकि 2016 में इसके लिए टेंडर भी जारी कर दिया गया था.

नगर निगमों के द्वारा द्वारा मीट विक्रेताओं को जारी किया जाने वाला नवीनीकरण लाइसेंस म्युनिसिपल बूचड़खानों के परिसर से मीट खरीदने के लिए दिया जाता है.

चूंकि कई बूचड़खानों को बंद कर दिया गया था इसलिए आवेदनों के बावजूद मीट की दुकानों के लाइसेंस का कभी नवीनीकरण नहीं हो सका. हालिया कार्रवाई में मीट की ऐसी हजारों दुकानों को गो-वंशीय मीट बेचने का लाइसेंस न होने के नाम पर सील कर दिया गया.

अधिकारियों की लापरवाही के कारण लाइसेंस जारी नहीं किए गए. ये तथ्य गरीब मीट व्यापरियों को सजा देने का सुविधाजनक बहाना बन गया है.

यूपी के अधिकारी 12 मई, 2015 के नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के एक आदेश के आधार पर बूचड़खानों और मीट की दुकानों को बंद करने को जायज ठहरा रहे हैं.

दिलचस्प ये है कि एनजीटी का यह आदेश न तो एनजीटी की न ही यूपीपीसीबी की वेबसाइट पर उपलब्ध है. ध्यान देने लायक बात ये है कि दिसंबर, 2015 का एनजीटी का एकएक आदेश (मूल आवेदन क्रमांक 173/2015) में उत्तर प्रदेश के विभिन्न भागों में केवल 4 बूचड़खानों को बंद करने की बात करता है.

यूपीपीसीबी ने 2015 में पर्यावरण के लिए काफी नुकसानदेह 129 औद्योगिक इकाइयों (इनमें 44 बूचड़खाने शामिल थे) की पहचान की थी. लेकिन भाजपा सरकार ने सिर्फ बूचड़खानों को ही अपना निशाना बनाया और कपड़ा एवं धागा इकाइयों, एल्युमिनियम गलानेवाली इकाइयों, मेटल सरफेस ट्रीटमेंट इकाइयों और लुग्दी और कागज इकाइयों को पर्यावरण को बिना किसी रोक-टोक के प्रदूषित करने के लिए छोड़ दिया.

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पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में स्लॉटर हाउसों पर कार्रवाई के बाद इसके विरोध के मीट के कारोबारियों ने अपनी दुकानें बंद रखी थीं. (फाइल फोटो: रॉयटर्स)

उत्तर प्रदेश सरकार का अभियान वास्तव में सरकारी बूचड़खानों के खिलाफ है, जो कि घरेलू उपभोग के लिए गो-वंशीय मीट का एकमात्र स्रोत है. इसने एक पूरे बाजार तंत्र को प्रभावित किया है, जिसमें कामगार, मीट विक्रेता और उपभोक्ता शामिल हैं.

‘गैरकानूनी’ होने के नाम पर की गयी यह कार्रवाई साफ-साफ सांप्रदायिक है जिसका मकसद मुस्लिमों को और उन ताम लोगों को आर्थिक रूप से नुकसान पहुंचाना है जिनकी आजीविका इस व्यापार से चलती है.

इसके साथ ही इसका एक और मकसद गोवंशीय मीट के घरेलू उपभोग को बंद करना है, क्योंकि यह संघ परिवार के ‘स्वच्छ भारत’ के सपने से मेल नहीं खाता.

भारत से होने वाले भैंस के मांस के निर्यात का 67 फीसदी हिस्सा उत्तर प्रदेश से आता है. इस तथ्य के बावजूद उत्तर प्रदेश में भैंस की आबादी में 2007 से 2012 के बीच 29 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गयी.

मादा भैंसों की आबादी 40 फीसदी तक बढ़ गयी. 2015 में भैंस के मांस के कुल उत्पादन के 47 फीसदी का उपभोग घरेलू तौर पर हुआ और बाकी के 53 फीसदी का निर्यात किया गया.

राज्य में भैंस के मांस के उत्पादन पर चल रही कार्रवाई भैंस पालन करने वाले किसानों को नुकसान पहुंचाएगी. इससे पूरी बाजार व्यवस्था पर गंभीर असर पड़ेगा क्योंकि इससे छंटनी किये गये, गैर-दुधारू मादा भैंसों को व्यापारियों, मीट विक्रेताओं या घरेलू उपभोक्ताओं, जिनके भोजन का सांस्कृतिक अधिकार आज भीषण खतरे में है, को बेच सकने का विकल्प समाप्त हो जाएगा.

वित्तीय वर्ष 2015-16 में कृषि उत्पादों के कुल निर्यात में भैंस के मीट का हिस्सा सबसे ज्यादा था (26685.41 करोड़ रुपये).

हालांकि, यूपी के अधिकतर एक्सपोर्ट इकाइयों पर अभी गाज नहीं गिरी है, लेकिन अगर भाजपा घोषणापत्र के ‘सभी यांत्रिक बूचड़खानों’ को बंद करने के वादे को पूरा किया जाता है, तो इससे एक्सपोर्ट इकाइयों पर सीधा असर पड़ेगा और भारत से होने वाला भैंस के मीट का निर्यात, दुग्ध बाजार और छोटे और सीमांत किसानों की आजीविका को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा.

समय आ गया है कि भारत के छोटे और सीमांत किसान एकजुट हों और ‘पवित्र गाय’ और हिंदू संस्कृति की रक्षा के नाम पर उनकी कृषि आजीविका को पूरी तरह से नष्ट करने की साजिश के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करें.

नहीं तो, जल्द ही वे पाएंगे कि सारी मवेशियां गोशालाओं की जागीर बन गयी हैं और गोमूत्र और गोबर से बने उत्पादों को ‘मेड इन इंडिया’ के लेबल तले किसानों और भोली जनता को ही बेचा जा रहा है.

(सागरी आर. रामदार एक प्रशिक्षित पशु चिकित्सक हैं और फूड सोवेरिनिटी अलायंस, इंडिया के साथ काम करती हैं.)