क्या नए पिछड़ा वर्ग आयोग का लक्ष्य आरक्षण नीति में परिवर्तन लाना है?

राष्ट्रीय सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग आयोग के गठन से क्या होगा यह सिर्फ मोदी जानते हैं. लेकिन यह तय है कि जाति विषमता पर कुछ करना है तो सिर्फ नाम बदलने से काम नहीं चलेगा.

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New Delhi: Parliament during the first day of budget session in New Delhi on Tuesday. PTI Photo by Kamal Kishore (PTI2_23_2016_000104A)

राष्ट्रीय सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग आयोग के जरिये सरकार क्या करना चाहती है यह तो केवल माननीय प्रधान सेवक जानते हैं. लेकिन यह तय है कि जाति विषमता पर कुछ कर दिखाना है तो केवल नाम बदलने से काम नहीं चलेगा.

New Delhi: Parliament during the first day of budget session in New Delhi on Tuesday. PTI Photo by Kamal Kishore (PTI2_23_2016_000104A)
(फोटो: पीटीआई)

सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछडे वर्गों के लिए नए राष्ट्रीय आयोग के गठन की घोषणा विडंबनाओं से घिरी घटना है क्योंकि यह आरक्षण से जुडी गलतफहमियों की निरंतरता को रेखांकित करती है. लेकिन इन विडंबनाओं की चर्चा करने से पहले घोषणा के फौरी आशय का जायजा लेना ज़रूरी है.

मीडिया खबरों के मुताबिक सरकार ने निर्णय लिया है कि मौजूदा राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (अंग्रेजी में एन.सी.बी.सी.), जो कि एक वैधानिक निकाय (स्टेचुटरी बॉडी) है, को भंग कर उसकी जगह एक नया संवैधानिक निकाय (कॉन्स्टिट्युश्नल बॉडी) स्थापित किया जाएगा जिसका नाम फिलहाल राष्ट्रीय सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग आयोग (एन.सी.एस.ई.बी.सी.) रखा गया है.

वैधानिक और संवैधानिक में मात्र डेढ अक्षर का फासला है मगर इससे तीन मुख्य बदलावों की अपेक्षा की जा रही है. पहला परिवर्तन यह है कि प्रस्तावित निकाय की कानूनी हैसियत अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लिए बने आयोगों के बराबर की होगी.

बाकी दोनों आयोगों को नागरिक न्यायालय समान अधिकार दिया गया है कि वे अपने समुदाय के सदस्यों की शिकायतों व समस्याओं को संज्ञान में लेते हुए उन पर उचित कानूनी कारवाई करें.

मौजूदा पिछड़ा वर्ग आयोग को यह अधिकार नहीं है, लेकिन नए आयोग को होगा. इससे पिछडे वर्ग के नेताओं द्वारा अरसे से उठाई जा रही मांग पूरी होगी.

दूसरा, और शायद सबसे महत्वपूर्ण, बदलाव यह है कि संवैधानिक दर्जा मिलने के बाद पिछड़ा वर्ग की राष्ट्रीय सूची में फेरबदल करने का अधिकार अब केंद्र सरकार को नहीं बल्कि केवल संसद को होगा.

इससे जुडे तीसरे बदलाव के बारे में संवैधानिक विशेषज्ञों की राय लेनी होगी, लेकिन अपेक्षा यह है कि अब राज्य सरकारें अपने बलबूते पर किसी समुदाय को पिछड़ा वर्ग की सूची में शामिल नहीं कर पाएंगी, ठीक उसी तरह जैसे वे अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जन जाति की सूचियों में परिवर्तन नहीं कर सकते.

ज़्यादातर मीडिया रपटों में इन्हीं मुद्दों और इनसे भाजपा को मिलने वाले संभावित लाभ का जिक्र है. पिछड़ा वर्ग की चिरकालीन मांग को पूरा कर उनके आयोग के अधिकारों को बढाने का श्रेय तो मिलेगा ही,साथ- साथ विरोधी पक्षों के प्रत्यक्ष-परोक्ष दांवपेंच पर भी लगाम कसेगी.

अब तक विपक्षी दल जाट, मराठा या पाटीदार सरीखे जातियों के आरक्षण आंदोलनों को बेहिचक बढावा देते थे क्योंकि आरक्षण देने का अधिकार केंद्र सरकार के पास था और आंदोलनकारियों का आक्रोश सरकार पर केंद्रित किया जा सकता था.

चूंकि यह अधिकार अब संसद के पास होगा और संसद में विपक्षी दल भी शामिल हैं, आईन्दा उनको इन आंदोलनों के प्रति ग़ैरजिम्मेदाराना रवैया अपनाने की छूट नहीं होगी.

इतना ही नहीं इन मांगों के कारण पिछड़ा वर्ग की विभिन्न जाति-समुदायों के हितों की आपसी टकराहट की गुत्थियों को सुलझाने में भी विपक्षी दलों को सकारात्मक भूमिका निभाते हुए दिखना होगा.

मामला यहीं तक सीमित रहे तो बेशक इस पहल के सर्मथकों (जो ज़्यादातर भाजपा के मंत्री या प्रवक्ता ही हैं) का पलड़ा भारी पड़ता है.

उनके दो प्रमुख तर्क कि पिछड़ा वर्ग आयोग को बेवजह कमतर दर्जा दिया गया था और इस विसंगति को मिटाना लाजमी है और दूसरा कि संसद की देखरेख में इन मामलों पर बहस व्यापक और पारदर्शी होगी – कमोबेश सही लगते हैं.

इसके अलावा पी.एस. कृष्णन (अवकाश-प्राप्त वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी, जो मंडल आयोग के सचिव थे) जैसे पिछड़ा वर्ग आरक्षण के प्रतिबद्घ समर्थक ने आशा व्यक्त की है कि इस नवाचार के जरिये आरक्षण कोटे को उप-विभाजित किया जा सकेगा ताकि विभिन्न पिछड़ी जातियों-समुदायों की आपसी विषमता को पाटा जा सके.

दूसरी तरफ जो लोग इस कदम का विरोध कर रहे हैं, या जिन्हें सरकार की नियत पर शक है, वे आश्वस्त नहीं हैं कि मामले को यहीं तक सीमित रखा जाएगा.

कुछ संकीर्ण या आत्म-केन्द्रित शिकायतों (जैसे यादव सांसदों का डर कि सरकार उनके कोटे को कम या खारिज करेगी) को किनारे करने के बाद भी कई सवाल बचते हैं.

यह सही है कि इन सवालों पर अभी तक कोई अधिकारिक जानकारी या वक्तव्य उपलब्ध नहीं हैं और यह फिलहाल अनुमान मात्र हैं. लेकिन मौजूदा भाजपा सरकार और खासकर उसके प्रधान सेवक की कार्यशैली ऐसी रही है कि इन संभावनाओं को आसानी से नकारा नहीं जा सकता.

चिंता का मूल मुद्दा सुधार बनाम रूपांतरण है. क्या नए आयोग का असली लक्ष्य पिछड़ा वर्ग आरक्षण नीति को सुधारना मात्र नहीं बल्कि इस नीति में बुनियादी परिवर्तन लाना है?

दो मूल बदलावों की संभावना को लेकर अटकलों का बाजार गर्म है – शैक्षणिक व सामाजिक मानकों के अलावा आर्थिक पिछड़ेपन (यानी गरीबी) को भी आरक्षण का आधार बनाना, या इसी आशय का विकल्प, अर्थात दबंग पिछड़ी जातियों के अलावा कथित उच्च जातियों को भी आरक्षण देना.

ज़ाहिर है कि इस तरह के कदम आरक्षण की नीति को न केवल खोखला करेंगे बल्कि उसे पलट कर अपने मूल उद्देश्य के खिलाफ खड़ा कर देंगे.

इसमे कोई संदेह नहीं कि इस दिशा में बढ़ना राजनैतिक व नैतिक दोनों नज़रियों से प्रतिगामी होगा. किंतु हो सकता है कि इसमे भाजपा को अपने पुराने उच्चजातीय समर्थकों को नाराज़ किए बिना पिछड़ी और अति-पिछड़ी जातियों में नये समर्थक बटोरने का अवसर दिखे.

याद रहे कि कुछ समय पहले कमोबेश यही सुझाव और किसी ने नहीं खुद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक ने दिया था.

Narendra Modi
(फाइल फोटो: पीटीआई)

हालांकि कुछ विश्लेषकों ने इस वक्तव्य को बिहार के चुनाव में भाजपा की हार का एक कारण माना था, मगर मुमकिन है कि उत्तर प्रदेश की करारी जीत के बाद चुनावी समीकरण बदल गये हों.

जैसा कि सभी जानते हैं, चुनावी महत्व या सामाजिक-आर्थिक वर्चस्व के कारण ताक़तवर माने जाने वाले समुदायों के दबाव का बिना दबे सामना करने का साहस वह सरकार कर सकती है जिसकी सत्ता पर पकड़ मजबूत हो, जिसका निर्विवाद बाहुबली नेता हो, और जिसमें विचारधारात्मक आत्मविश्वास हो.

मोदी सरकार तीनों मानकों पर खरी उतरती है. लेकिन इसके बावजूद आरक्षण जैसे केंद्रीय मसले पर सरकार का रुख निराशाजनक ही कहा जाऐगा, क्योंकि उसका संभावित सुधारवादी एजेंडा औपचारिक खानापूर्ति तक सीमित है तो संभावित दुस्साहसी एजेंडा बेतुका व प्रतिगामी है.

बहरहाल अगर आज आरक्षण की नीति अंधी गली में क़ैद है, और जाति का सवाल सुलझने के बदले और उलझ रहा है, तो इसकी जिम्मेदारी केवल मोदी सरकार की नहीं है.

इतिहास साक्षी है कि आरक्षण का मूल उद्देश्य समाज के बहिष्कृत तबके को समान नागरिकता की ठोस गारंटी देना था. यह बिना शर्त के दिया गया वचन था – इसका पिछड़ापन, ग़रीबी, या अनपढ़ होने से कोई वास्ता नहीं था.

ध्यान रहे कि यहां साध्य समान नागरिकता और जातिगत भेदभाव का उन्मूलन था और आरक्षण की पद्धति (पूर्वनिर्धारित कोटा) केवल साधन मात्र थी, और वह भी कई संभव साधनों में एक.

आरक्षण की इस बुनियादी धारणा को हम लगभग शुरू से ही भुला कर उसे एक कल्याणकारी कार्यक्रम मान बैठे हैं, और आज हम साधन को ही साध्य का दर्जा देने पर अमादा हैं.

इक्कीसवीं सदी के संदर्भ में आरक्षण जैसी नीति को कई कठिन चुनौतियों का सामना करना है. नवउदारवादी आर्थिक व्यवस्था, जो अब सरकारी और निजी दोनों क्षेत्रों पर हावी है, अच्छी कहलाने लायक नौकरियां न तो पैदा करना चाहती है और न ही कर सकती है.

वैसे भी कुछ विश्लेषकों के अनुसार निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू करने के बाद भी आरक्षित नौकरियां कुल जमा नौकरियों में केवल दो-ढाई प्रतिशत होंगी. ऐसे में आरक्षण की प्रासंगिकता पर सवालिया निशान लगना स्वाभाविक है.

अन्य कई कारणों से भी जातिगत भेदभाव और विषमता को मिटाने के लिए आरक्षण नाकाफी है और वक्त का तक़ाजा है कि हम इससे आगे और इसके अलावा अन्य साधनों की खोज करें.

यहां यह याद रखना ज़रूरी है कि जाति का सवाल मूलतः सामाजिक व राजनीतिक है, आर्थिक नहीं. कमोबेश सभी जाति समूहों में तेज़ी से बढ़ रहे विभेदीकरण से एक अलग तरह की चुनौती उभरती है.

आदिवासी, दलित और ख़ासकर पिछड़ा वर्ग की जातियों में आज जो गहरी और व्यापक विषमताएं हैं, उनसे निबटने के लिए नए विकल्प तलाशने होंगे.

दूसरी ओर सभी प्रकार के जातिगत आरक्षण को एक समान मानने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की सख़्त ज़रूरत है. यहां दलित-आदिवासी और पिछड़ा वर्ग में फर्क करना आवश्यक है क्योंकि आज भी दोनों की सामाजिक स्थिति में महत्वपूर्ण अंतर है.

पिछड़ेपन की सपाट भाषा में भेदभाव और सामाजिक बहिष्कार की विशिष्टता दबकर अदृश्य हो जाती है.

यह सही है कि पिछड़ा वर्ग की कई जातियों को भेदभाव और बहिष्कार का सामना करना पडता है, और यह भी कि अधिकांश दलित व आदिवासी समुदाय निर्विवाद रूप से पिछड़े हैं, लेकिन इनके आपसी अनुपात में ज़मीन-आसमान का अंतर है.

जनसाधारण के सहजबोध में बसे पूर्वाग्रहों से जूझने की चुनौती सबसे गंभीर और दुर्गम है. लोकमत को ढालने और दिशा देने में शहरी मध्य वर्ग का जो हिस्सा खासा प्रभावशाली होता है वह प्रायः द्विज-जातीय होता है.

इस जमात का अडिग विश्वास है कि जाति एक मरी-बीती चीज़ है जिसे चुनावी राजनीति और मीडिया उद्योग ने जबरन ज़िंदा रखा है.

इस नज़रिए से देखने पर समाज के हर क्षेत्र में जाति का व्यापक व निर्णायक प्रभाव दिखता ही नहीं – जाति अगर कहीं दिखती है तो केवल आरक्षण जैसी नीतियों और चुनावी दांवपेच में.

लंबे समय से प्रबल इन पूर्वाग्रहों की पकड़ को ढीला करने के लिए यह दिखाना जरूरी है कि समाज की सहज सामान्य प्रक्रियाएं जाति-निरपेक्ष नहीं हैं, और आरक्षण जैसी नीतियां इसी सहज व अदृश्य जातिगत पक्षपात को पलटने की कोशिशें हैं.

बहरहाल नए आयोग के जरिये सरकार क्या करना चाहती है यह तो केवल माननीय प्रधान सेवक जानते हैं. लेकिन यह तय है कि जाति विषमता पर कुछ कर दिखाना है तो केवल नाम बदलने से काम नहीं चलेगा.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र पढ़ाते हैं)